उत्तर वैदिक काल के अंत तक वैदिक साहित्य का विस्तार हुआ साथ ही जटिलताएं भी बढ़ गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि किसी एक व्यक्ति के लिए इन सबको कंठस्थ करना दुर्लभ कार्य था। इसलिए वैदिक साहित्य को अक्षुण्य रखने के लिए इसे संछिप्त करने की आवश्यकता महशुस हुई। सूत्र-साहित्य द्वारा इस आवश्यकता को पूरा किया गया और अधिक सामग्री को काम शब्दों में पिरो दिया गया। इसके बाद इसे कंठस्थ करना सरल हो गया।
Sutra Kaal/सूत्र काल
वेदों को आसानी समझने के लिए 6 वेदांगों की रचना की गई –
1- शिक्षा – शुद्ध उच्चारण शाश्त्र
2- कल्प -कर्मकाण्डीय विधि-विधान
3- निरुक्त – शब्दों की व्युत्पत्ति का शास्त्र
5- व्याकरण –
5- छंद – तथा
6- ज्योतिष
इन ग्रंथों के विभाजन का उद्देश्घ्य वैदिक साहित्य का संरक्षण और सरलीकरण था। सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ भाषा संबंधी हैं, ये शिक्षा, शब्द, निरुक्त तथा व्याकरण आदि विषयों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। महर्षि पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ और यास्क ऋषि का ‘निरुक्त’ बहुत महत्वपूर्ण हैं। अष्टाध्यायी वेदोत्तर संस्कृत साहित्य की सबसे पहली रचना है और निरुक्त क्लासिकल साहित्य की प्रथम रचना है। पाणिनि का समय ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी का माना जाता है और दूसरे सूत्र ग्रन्थ कल्प नामक वेदांग से लिए गए हैं।
सूत्र तीन प्रकार के हैं –
1- श्रौत सूत्र (600 ई. पूर्व से 300 ई. पूर्व) – यज्ञ विधि-विधानों का विवरण
2- गृह्य सूत्र- (600 ई. पूर्व से 300 ई. पूर्व)- गृह्य कर्मकांडों एवं यज्ञों का विवरण
3- धर्म सूत्र- (500 ई. पूर्व से 200 ई. पूर्व)- इसमें राजनीति, विधि एवं व्यवहार से संबंधित विषयों पर चर्चा मिलती है।
ऋषि का नाम / विकास | सूत्र की रचना |
---|---|
पाणिनी, कात्यायन | शिक्षा |
अष्टाध्यायी (पाणिनी) | व्याकरण |
(निघण्टु) यास्क | निरुक्त |
लगध, आर्यभट्ट, वराहमिहिर | ज्योतिष |
पिंगल | छन्द |
गौतम, बौधायन, आपस्तम्ब- | कल्प |
सूत्रकालीन सभ्यता और संस्कृति
सामान्य तौर पर ईसा पूर्व छठी शताब्दी से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक का समय सूत्र कल कहा जाता है। सबसे प्राचीन सूत्र गौतम ऋषि का धर्म सूत्र माना जाता है। श्रौत सूत्र ऐतिहासिक दृष्टि से जायदा महत्वूर्ण नहीं। गृह्य और धर्म सूत्रों का गृहस्थ और सामाजिक जीवन से संबधित होने के कारण अधिक ऐतिहासिक माने जाते हैं।
सूत्रकालीन सामजिक जीवन की विशेषताएं
- संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी।
- परिवार का वरिष्ठ विवाहित पुरुष मुखिया होता था।
- पुत्री की अपेक्षा कन्या का महत्व कम था।
- पिता परिवार के सभी सदस्यों के भोजन के बाद ही भोजन ग्रहण करता था।
- वर्ण व्यवस्था कठोर हो गई
- प्रथम तीनों वरन- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज कहे गए।
- शूद्र सबसे अलग माने जाने लगे।
- ब्रहमणों स्थान सर्वोच्च हो गया।
- गौतम ऋषि के अनुसार ब्राह्मण का स्थान राजा से ऊपर होता है।
- आपस्तम्ब के अनुसार १० वर्ष का ब्राह्मण 100 वर्ष क्षत्रिय से श्रेष्ठ होता है।
- समाज में अश्पृश्यता का उदय हुआ।
- वर्ण कठोर होकर जाति में बदल गए।
- शूद्रों को अध्ययन, यज्ञ, मंत्रोच्चारण, का अधिकार नहीं था।
- वशिष्ठ ऋषि शूद्रों को शमशान समान अपवित्र कहता है।
- अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न जातियां -अंबष्ठ, उग्र, निषाद, मागध, वैदेहक और रथकार थी।
- पाणिनि दो प्रकार के शूद्रों का उल्लेख करता है – 1- नगर के बाहर रहने वाले- निर्वसित, 2- नगर की सीमा में रहने वाले- अनिर्वसित, पहले प्रकार के अस्पृश्य कहे गए हैं।
आश्रम व्यवस्था का विधान
1- ब्रह्मचर्य आश्रम – जीवन के प्रथम 25 वर्ष।
2- गृहस्थ – अगले 25 वर्ष
3- वानप्रस्थ – अगले 25 वर्ष
4- सन्यास – मृत्यु तक
संस्कार विधि – विवाह, गर्भाधान, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन आदि।
पांच महायज्ञ- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्य यज्ञ।
यज्ञ का नाम | यज्ञ का विवरण |
---|---|
ब्रह्मयज्ञ | प्राचीन ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना |
देवयज्ञ | देवताओं का सम्मान |
भूतयज्ञ | सभी प्राणियों के कल्याणार्थ |
पितृयज्ञ | पितरों के तर्पण हेतु |
मनुष्य यज्ञ | मानव मात्र के कल्याणार्थ |
स्त्रियों की दशा–
- विवाह के आठ प्रकार के यज्ञों का उल्लेख मिलता है – ब्रह्म, देव, आर्ष, प्रजापत्य, गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच।
- स्त्रियों स्थान समाज में निम्न था।
- बहुविवाह का प्रचलन था।
- सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।
- विधवा को पति की संपत्ति का अधिकार था।
- स्त्री की पुनर्विवाह का विधान था।
वशिष्ठ धर्मसूत्र स्त्री के अधिकारों का विरोध करता है ” स्त्री स्वतंत्रता की अधिकारी नहीं है। बाल्यलकाल में पिता, यौवन में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करते हैं। “
“पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वतंत्र्यमर्हति।।”
सूत्र काल की आर्थिक दशा
- कृषि-पशुपालन मुख्य व्यवसाय था।
- चावल तथा जौ मुख्य फसल थी।
- गाय पवित्र पशु थी।
- ‘पण्य सिद्धि’ संस्कार व्यापार में लाभ के लिए किया जाता था।
- सिक्कों का प्रचलन शुरू हो गया था।
- पाणिनि ने पाण, कार्षापण, पाद तथा वाह नामक सिक्कों का वर्णन किया है।
- आधक, आचित, पात्र, द्रोण तथा प्रस्थ भार-माप के पैमाने थे।
- तांबा, लोहा, पत्थर और मिटटी के बर्तन और उपकरण बनाये जाते थे।
सूत्रकालीन राजनीतिक दशा
- राजतन्त्र का प्रचलन था।
- राजा को निरंकुश होने पर दण्ड विधान का वर्णन है।
- राजा को कर के रूप में आय का छठा भाग मिलता था।
- कर को राजा की वृत्ति कहा गया है।
- ब्राह्मण की सलाह से राजा कार्य करता था।
- प्रथम तीन वर्णों से ही अधिकारी नियुक्त होते थे।
- चोरी गए माल की क्षतिपूर्ति राजा करता था।
- गांव का मुखिया ‘ग्रामिणी’ होता था।
- शूद्र के लिए कठोर और द्विज के लिए साधारण दंड का विधान था।
इस प्रकार सूत्रकाल में वैदिककाल की अपेक्षा कुछ नए विधि-विधानों का प्रचलन हुआ। स्त्री और शूद्र की स्थिति निम्नतर होकर रसातल में चली गई। ब्राह्मणों ने अपना उच्च स्थान बनाये रखा। राजतन्त्र और राजा का पर महत्वपूर्ण हो गया। न्यायव्यवस्था कठोर मगर भेदभावपूर्ण थी।
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