प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में बंधन का अर्थ निरंतर जन्म ग्रहण करना तथा सांसारिक दुःखों को भोगना है। बंधन संसार है तथा मोक्ष निर्वाण है। असंसारी तथा अतिकारी आत्मा शरीर-संयोग तथा विकारी बनकर नाना प्रकार के क्लेशों को सहता है, तथा कर्म प्रभाव से नाना योनियों में भ्रमण करता है। जैनों के अनुसार- जीव को बंधन के दुःख भोगने पड़ते हैं। बंधन का यह अनवरत चक्र अनादि काल से शांत भाव से चलता चला आ रहा है। इसका अंत मोक्ष है। यह मोक्ष ज्ञान साध्य है। वस्तुतः ज्ञान की प्रचंड ज्वाला समस्त शुभाशुभ कर्मों को भस्मासात् कर देती है। कर्म के निर्मूल होने से शरीर धारण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।
जैन दर्शन में बंधन
जैन दर्शन में जीव तथा अजीव के संबंध को तथा आत्मा या पुद्गल के संयोग को ‘बंधन’ बताया गया है। चैतन्य जीव का गुण है। जीव ‘साधन चतुष्ट्य’ से संपन्न है, अर्थात् उसमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य तथा अनंत आनंद समाहित रहते हैं। जीव एवं अजीव के मध्य संयोजन-कड़ी कर्म है। अज्ञानवश कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है, इसलिए उसे ‘आस्रव’ कहा जाता है। जैसे ताप लोहे से तथा जल दूध से संयुक्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्म जीव से संयुक्त हो जाता है। कर्म ही बंधन का कारण है। यहाँ कर्म को सूक्ष्मतत्त्व भूततत्त्व के रूप में माना गया है जो जीव में प्रवेशकर उसे नीचे संसार की ओर खींच लाता है।
भाव-बंध और द्रव्य-बंध
शरीर का निर्माण पुद्गल कणों से हुआ है। जीव शरीर के साथ संयोग की कामना करता है और अपने पूर्वजन्म के कर्म के अनुसार पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। जीव का पुद्गल से संयोग ही बंधन है।
बंधन दो प्रकार का होता है- 1. भाव-बंध 2. द्रव्य-बंध। ज्यों ही आत्मा में चार प्रकार की कुप्रवृत्तियाँ-क्रोध, मोह, माया और लोभ (कषाय) निवास करने लगती हैं, त्यों ही आत्मा-प्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण उसके संपर्क में आने वाले कर्म-परमाणु उससे शीघ्र पृथक् नहीं होते। इस बंधन का आना ही ‘भाव-बंध’ कहा जाता हैं। इस प्रकार मन में दूषित विचारों का उत्पन्न होना ही ‘भाव-बंध’ कहलाता है।
‘द्रव्य-बंध’ उस बंधन को कहते हैं, जब पुद्गल-कण आत्मा में प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् जीव और पुद्गल का संयोग ही ’द्रव्य-बंध’ कहलाता है।
भाव-बंध के बाद ही द्रव्य-बंध का आविर्भाव होता है और भाव-बंध ही द्रव्य-बंध का कारण है। इन दोनों का परस्पर सम्मिश्रण उसी प्रकार संभव है, जिस प्रकार दूध और जल मिला देने पर दोनों एक ही साथ रहते हैं, अथवा गरम लोहे में आग और लोहा एक साथ ही पाये जाते हैं।
कषाय
जैनों के अनुसार, जीव का पतन या बंधन मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही होता है। अज्ञानता के कारण जीव में मूलतः चार वासनाएँ हैं- क्रोध, मान, लोभ तथा माया। इन वासनाओं के वशीभूत होकर जीव शरीर के लिए लालायित रहता है। वह पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। पुद्गल कणों को आकृष्ट करने के कारण ही इन कुप्रवृतियों को ‘कषाय’ कहा जाता है।
कषायों के कारण कर्मानुसार जीव का पुद्गल से आक्रांत होना बंधन है। इस प्रकार दूषित मनोभाव ही बंधन का मूल कारण है और पुद्गल का आस्रव मनोभाव का एक परिणाम है।
अनंत काल से इस जगत् में जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्य लोकाकाश में विद्यमान हैं, इन्हीं के साथ ही जीव तथा कर्म भी हैं। अविद्या के फलस्वरूप क्रोध, मान, माया, लोभ- ये चार प्रकार के कषाय जीव के साथ रहते हैं। जीव के कर्मों का फल संस्कार के रूप में पुद्गलों के साथ विद्यमान रहता है, किंतु कर्म-पुद्गल जड़ होने के कारण स्वयं जीव में प्रवेश नही कर सकते, तो किस प्रकार कर्म-पुद्गल जीव को आक्रांत करते हैं?
योग
शरीर, मन और वचन के परिस्पंद की सहायता से आत्मा के प्रदेशों में एक प्रकार का कंपन होता है जिसे ‘योग’ कहते हैं (कायावाड.मनः कर्मयोगः)। योग दो प्रकार का होता है- द्रव्य योग और भाव योग। शरीर, नाम, कर्म आदि के उदय से शरीर, वचन और मन का जो समागम होता है उसे ‘द्रव्य योग’ कहते हैं। द्रव्य योग के निमित्त से आत्मा में जो कंपन होता है उसे ‘भाव योग’ कहते हैं। इस प्रकार जीव-प्रदेशों में एक प्रकार का स्पंदन उत्पन्न होता है। विज्ञान की भाषा में कहा जाय तो आत्म प्रदेशों के कंपन तथा कार्मण तरंगों के कंपन का अध्यारोपण होना बंधन है।
आस्रव तत्त्व
कर्म-पुद्गलों का जीव में योग के द्वारा प्रवेश करने को ‘आस्रव’ कहते हैं। इस प्रकार आस्रव के संपर्क से जीव बंधन में पड़ता है। अतः ‘आस्रव’ बंधन का कारण है। जैन दर्शन की भाषा में कहें कि भाव कर्मों से द्रव्य कर्मों का आना ‘आस्रव’ कहलाता है।
आस्रव के दो भेद हैं- भावास्रव और द्रव्यास्रव। कर्म पुद्गलों के जीव में प्रवेश करने के पूर्व, जीव के भावों में एक प्रकार का इर्यापथिक अर्थात् मार्गगामी परिवर्तन होता है, जिससे आत्मा और कर्मप्रदेशों का कोई स्थिर बंध उत्पन्न नहीं होता, उसे ‘भावास्रव’ कहते हैं। इसके पश्चात् जब जीव में कषाययुक्त क्रियाएँ होती हैं और जीव में कर्म-पुद्गलों का प्रवेश होता है, तो उसे ‘द्रव्यास्रव’ कहते हैं। जिस प्रकार तेल से लिप्त शरीर पर धूल के कण चिपक जाते है, उसी प्रकार कर्म-पुद्गल भी जीव पर चिपक जाते हैं। तेल से लिप्त होना ‘भावास्रव’ और उस पर धूल के कणों का चिपकना ‘द्रव्यास्रव’ कहा जा सकता हैं।
आस्रव के हेतु या आस्रव-द्वार पाँच हैं- मिथ्यात्व (मिथ्याश्रद्धा), अविरति (व्रताभाव), प्रमाद, कषाय (क्रोध, मान, माया व लोभ) तथा योग (मन, वचन, काय, प्रवृत्ति या शुद्ध)।
आश्रव के 42 भेद हैं क्योंकि जीव में 42 प्रकार के कर्म-पुद्गल प्रवेश करते हैं। काययोग, वाक्योग, मनोयोग, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, चार कषाय तथा अहिंसा, अस्तेय, असत्य भाषण आदि पाँच व्रतों का पालन न करना- महत्त्वपूर्ण आस्रव हैं। इनके अतिरिक्त, पच्चीस छोटे-छोटे आस्रव होते हैं और ये सभी बंधन के कारण हैं।
कर्मवाद का सिद्धांत
जैन कर्मवाद का सिद्धांत सबसे प्राचीन और मौलिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। ‘कर्म’ शब्द का अर्थ साधारणतः कार्य, प्रवृति अथवा क्रिया से है। जैन दर्शन में कार्य वह है, जिसके कारण साधन तुल्य होने पर भी फल का तारतम्य अथवा अंतर मानव जगत् में दृष्टिगत होता है। उस तारतम्य अथवा विविधता के कारण का नाम ‘कर्म’ है। वस्तुतः कर्म-बीज के कारण ही जीवों की नाना प्रकार की अवस्थाएँ हैं।
दूसरे शब्दों में, प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख और उनकी तत्संबंधी अवस्थाएँ कर्मों की विचित्रता एवं विविधता पर आधारित है। संसारी जीवों के कर्म-बीज भिन्न-भिन्न होने के कारण ही उनकी स्थिति, परिस्थिति तथा रूप-दशा में विलक्षणता दिखाई पड़ती हैं। जैन धर्म मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता मानता है। अपने सांसारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदायी है। उसके सारे सुख-दुख कर्म के कारण ही हैं। उसके कर्म ही पुनर्जन्म का कारण हैं।
जैन दर्शन कर्म-विशेष की दृष्टि से बंध नहीं मानता। कर्म-प्रवाह की दृष्टि से बंध है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म पौद्गलिक अर्थात् धूलिका कण के समान जड़ पदार्थ है। कर्म के इन पौद्गलिक अणुओं को ‘कर्मवर्ग’ भी कहा जाता है, जो इच्छा, द्वेष तथा भ्रम से प्रेरित मन, शरीर तथा वाणी की क्रियाओं और वासनाओं से उत्पन्न होते हैं।
कर्म के दो भेद माने गये हैं- द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म। ‘द्रव्य-कर्म’ वे है, जो कर्म जाति का पुद्गल विशेष आत्मा के साथ मिलकर परिणत होता है। राग-द्वेष से युक्त कर्मो के परिणाम को ‘भाव-कर्म’ कहते हैं। संसारी आत्मा का अनादि से कर्म-बंधन है। इसी कारण अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। जब तक जीव के नये कर्मों का उपार्जन बंद नहीं हो जाता और पुराने कर्मों का नाश नहीं हो जाता, तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। कर्मों के सर्वथा विनाश से ही निर्वाण/मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कर्म-बंध
संसारी जीव योग एवं कषाय के द्वारा कर्म का बंध करता है अर्थात् कर्म-उपार्जन के दो कारण हैं- योग और कषाय। शरीर, वाणी तथा मन की प्रवृत्ति का नाम ‘योग’ है। क्रोध आदि मानसिक आवेगों की संज्ञा ‘कषाय’ है। कषाययुक्त प्रवृत्तियाँ कर्म-बंध के महत्त्वपूर्ण कारण हैं। जब प्राणी अपने मन, वचन एवं काया से किसी भी प्रकार की क्रिया करता है तो कर्म-परमाणुओं का आकर्षण स्वतः होने लगता है। कर्म के परमाणुओं की मात्रा प्रवृत्ति के तारतम्य पर निर्भर होती है।
कर्मबंध चार प्रकार के होते हैं- ‘प्रकृति स्थित्यनुभाग प्रदेशास्तद्विधयः’ अर्थात् प्रदेश-बंध, प्रकृति-बंध, स्थिति-बंध तथा अनुभाग-बंध।
- प्रदेश-बंध : कर्म पुद्गल शक्ति का स्वभावानुसार आत्मा प्रदेशों के साथ बंधन।
- प्रकृति-बंध : कर्म के स्वभाव का निश्चित होना। कर्म का स्वभाव ही है-आत्मा के स्वाभावगत गुणों को आवृत्त करना।
- स्थिति-बंध : कर्म-बंध का मर्यादा-काल निश्चित होना।
- अनुभाग-बंध : कर्म का फल देने की तीव्रता अथवा मंदता निश्चित होना।
इन चारों बंधों में से प्रकृति-बंध और प्रदेश-बंध ‘कषाय’ से होता है, जबकि स्थिति-बंध और अनुभाग-बंध ‘योग’ से होता है।
कर्म के भेद
स्वाभाव की दृष्टि से कर्म के आठ भेद है- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गौत्र। इनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय तथा मोहनीय चार घातिया कर्म हैं, जबकि वेदनीय, आयु, नाम, गौत्र-ये चार कर्म अघातिय कर्म हैं। अघातिय कर्म आत्मा के मुख्य गुणों पर घात नहीं करते। ये घातिया कर्मों की सहायता के लिए परिकर के रूप में होते हैं और जीव को संसार में बनाये रखते हैं।
- ज्ञानावरणीय कर्म : आत्मा की ज्ञान शक्ति पर आवरण डालने वाले कर्म।
- दर्शनावरणीय कर्म : सम्यग् दर्शन की प्राप्ति में बाधा डालने वाले कर्म।
- अंतराय कर्म : आत्मबल नहीं होने देने वाले कर्म।
- मोहनीय कर्म : आत्मा के स्व-स्वरूप को विस्मृत करने वाले कर्म।
- वेदनीय कर्म : इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं का संयोग कराने वाले कर्म, जिनसे सुख अथवा दुःख की संवेदना का अनुभव होता है।
- आयु कर्म : जीव को एक विशिष्ट समय तक एक विशिष्ट योनि में रोककर रखने वाले कर्म।
- नाम कर्म : जीव का शरीर और अंग उपांग बनाने वाले कर्म।
- गौत्र कर्म: गोत्र विशेष में जन्म प्रदान करने वाले कर्म।
आत्मा की पाँच अवस्थाएँ
विभिन्न प्रकार के कर्मों के संसर्ग से आत्मा की पाँच अवस्थाएँ मानी गई हैं-
- परिणामिक: जब शुद्ध वैचारिक क्रियाएँ कर्म से स्वतंत्र हों।
- औदायिक: जब कर्मों का उदय व फल हो।
- औपशमिक: जब नाशवान कर्मों का फल रोक दिया गया हो।
- क्षायिक: जब नाशवान कर्मों का उन्मूलन हो गया हो।
- क्षायौपशमिक: जब कुछ कर्मों का नाश हो गया हो, कुछ के फलों को रोक दिया गया हो, तथा कुछ क्रियाशील हों।
इस प्रकार जीव और अजीव के मध्य संयोजन कड़ी कर्म है। जीव स्वयमेव अपने सुख-दुःख के लिए उत्तरदायी है। पालि-निकाय में महावीर को ‘क्रियावाद सिद्धांत’ का प्रतिपादक बताया गया है। मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे। यह लक्ष्य ‘त्रिरत्न’ के अनुशीलन और अभ्यास से प्राप्त किया जा सकता है।
निर्वाण या मोक्ष
सभी आत्मवादी दर्शन तथा बौद्ध दर्शन कर्म-बंधन का समुच्छेद होना स्वीकार करते हैं। इसीलिए प्रायः सभी दर्शन आत्मा या जीव की मुक्ति/मोक्ष/निर्वाण में विश्वास करते हैं। अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। मोक्ष बंधन का प्रतिलोम है।
महावीर के गणधर गौतम ने पार्श्वनाथ के शिष्य केशी को निर्वाण पर प्रबोध देते हुए कहा था: ‘निर्वाण एक सुरक्षित, आनंददायी, प्रशांत व शाश्वत स्थिति है, जो यद्यपि प्राप्त करने में कठिन तो है, किंतु है वह जरा-मरण, रोग-शोक, क्लेश से मुक्त-प्रदायिनी। यह पूर्णत्त्व की वह अवस्था है जिसकी प्राप्ति से भवसागर से पार हुआ जाता है।’ इस सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति बंधन में बाँधने वाले कृत-कार्यों को क्षीण करने (निर्जरा), नवीन कर्मों का मार्ग अवरुद्ध करने तथा आत्म-संयम द्वारा मन-वचन-कर्म को नियंत्रित करने (संवर) से होती है। इस प्रकार जीव का अजीव से संबंध-विच्छेद हो जाता है और जीव अपनी स्वाभाविक शक्ति- अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत आनंद- को प्राप्तकर उर्ध्वगामी होकर सिद्धलोक में ‘सिद्धशिला’ पर निवास करता है।
जैन दर्शन के अनुसार जीव का पुदगल से मुक्त हो जाना मोक्ष है। इस दर्शन में मोक्ष दो प्रकार का माना गया है- भाव मोक्ष और द्रव्य मोक्ष। जब जीव तपस्या के द्वारा नियमों के पालन से राग-द्वेष आदि का नाश कर लेता है, फिर ‘संवर’ तथा ‘निर्जरा’ के द्वारा आस्रव का नाश होने से कर्म-पुद्गल से मुक्त होकर सर्वज्ञ तथा सर्वद्रष्टा होकर मुक्ति का अनुभव करता है, तो यह अवस्था ‘भाव मोक्ष’ या ‘जीव मुक्ति’ है।
मोक्ष प्राप्ति के साधन
जीव का परम लक्ष्य है- कर्म-फल को नष्ट कर अपने को भौतिक तत्त्वों से मुक्त करना। कर्मचक्र के कारण आत्मा बंधन में है। उसमें वैभाविक विशेषताएँ उत्पन्न हैं। विभाव से मुक्त होकर स्वभाव अवस्था में स्थित होना ही मोक्ष है। जीव और पुद्गल का संयोग बंधन है और इसके विपरीत जीव का पुद्गल से अयोग ही मोक्ष है। कर्म-बंधन से मुक्ति अर्थात् जीव तथा पुद्गलों के अयोग के लिए वर्तमान जीवन में नवीन कर्म-पुदगलों के प्रवेश को रोकना और पूर्वजन्म के संचित कर्मों को नष्ट करना अनिवार्य है, जिसे ‘संवर’ और ‘निर्जरा’ कहा गया है।
संवर (संयम का सिद्धांत)
‘संवर’ का अर्थ है- ‘रोकना’ अर्थात् जिन द्वारों से कर्म का आस्रव होता है, उन्हें बंद कर देना ही ‘संवर’ है। दूसर शब्दों में, नये कर्म-पुद्गलों का जीव की ओर प्रवाहित होने (आस्रव) से रोक देना ‘संवर’ है। इस प्रकार संवर, संयम का सिद्धांत है जिसके द्वारा पापों का बहाव रूक जाता है। जिस प्रकार नाव का छेद बंद कर देने पर उसमें बाहर से जल का प्रवेश रूक जाता है उसी प्रकार आस्रव-द्वारों को बंद कर देने पर कर्मों का आत्मा में आगमन अवरुद्ध हो जाता है।
संवर के दो भेद होते हैं- भाव-संवर और द्रव्य-संवर। जिसमें जीव के पूर्ववत् राग, द्वेष और मोहरूप विकारों का निरोध हो, उसे ‘भाव-संवर’ कहते हैं। जब जीव में कर्म-पुद्गलों का प्रवेश निरुद्ध हो जाता है, तब उसे ‘द्रव्य-संवर’ कहा जाता हैं। संवर अर्थात् आस्रव-निरोध हेतु पाँच विभाग हैं- सम्यकत्त्व (सम्यक श्रद्धा), विरति (व्रत), अप्रमाद, अकषाय और अयोग।
समितियाँ
कर्म के प्रवेश को रोकने के लिए पाँच बाह्य उपाय भी बताये गये है, जिन्हें ‘समिति’ कहते हैं। इन समितियों के पालन से चारित्र्य की ओर साधक सतत् जागरूक रहता है, सावधान रहता है, यत्न के साथ आचरण करता है। ये समितियाँ पाँच प्रकार की हैं-
- ईर्या समिति अर्थात् सावधानी से गमन और आगमन करना, भाषा समिति अर्थात् विनम्र तथा अच्छी वाणी का प्रयोग करना, 3. एषणा समिति अर्थात् उचित भिक्षा लेना, 4. आदान-निक्षेपण-समिति अर्थात् वस्तुओं के (आदान) लेने तथा (निक्षेप) रखने में सतर्क रहना 5. प्रतिस्थापन समिति अर्थात् शून्य स्थानों में मल-मूत्र का विसर्जन करना आदि।
निर्जरा
आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय ‘निर्जरा’ है। निर्जरा या कर्मक्षय द्वारा तप के पालन से आत्मा पर एकत्रित कर्मों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। संवर द्वारा ‘आत्मा’ में नये कर्म-पुद्गलों का प्रवेश तो वर्जित हो जाता है, किंतु वे पुद्गल जो आत्मा में पहले ही प्रवेश कर चुके हैं, जब तक उनका नाश नहीं हो जाता, तब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती। संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को (राग-द्वेष को) रोककर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है।
निर्जरा के दो भेद स्वीकार किये गये हैं- भाव-निर्जरा और द्रव्य-निर्जरा। भावावस्था में साधक की आत्मा में कर्मों के नाश करने की भावना उत्पन्न होती है। तत्पश्चात् आत्मा में प्रविष्ट उन कर्म-पुद्गलों का वास्तविक नाश होता है। इसे ही ‘द्रव्य-निर्जरा’ कहते हैं।
‘भाव-निर्जरा’ के दो भेद होते हैं- सविवाक और अविवाक। तप आदि साधनों से कर्मों का फल बलात् समाप्त करना ‘अविवाक’ या ‘सकाम’ भाव निर्जरा है तथा स्वाभाविक रूप से कर्म का फल समाप्त करना ‘सविवाक’ या ‘अकाम’ भाव निर्जरा है। अविवाक भाव निर्जरा के लिए कठोर ‘तप’ की आवश्यकता होती है। तप के प्रभाव से कर्मों की निर्जरा होती है, जिसके द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं।
त्रिरत्न
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की साधना में आचार की शुद्धता का विशेष महत्त्व है। जैनों के अनुसार बंधन का मूल कारण क्रोध, मान, लोभ तथा माया है। इन कुप्रवृतियों का कारण अज्ञान है, इनके नाश के पश्चात् ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जैन दर्शन में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र को ‘त्रिरत्न’ या ‘रत्न-त्रय’ के नाम से संबोधित किया गया है। यही मोक्ष का मार्ग है।
सत् में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है, सद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तथा वाह्य जगत के विषयों के प्रति सम दुःख-सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक् आचरण है।
सम्यक् दर्शन : यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा होना, सम्यक् दर्शन कहलाता है। कुछ व्यक्तियों में यह स्वभावतः विद्यमान रहता है, तथा कुछ इसे विद्याभ्यास के द्वारा ग्रहण करते है। किंतु श्रद्धा का तभी उदय होता है, जब कर्मों में अश्रद्धा की उत्पत्ति होती है, तथा उस कर्म का ‘संवर’ या ‘निर्जरा’ होता है। सम्यक् दर्शन का अर्थ अंधविश्वास नहीं है, अपितु जैनों ने अंधविश्वास का स्वयं विरोध किया है।
सम्यक् ज्ञान : सम्यक् ज्ञान में जीव-अजीव के मूल तत्त्वों का विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। सम्यक् ज्ञान असंदिग्ध तथा दोषरहित है। सम्यक् ज्ञान के प्रतिबंधक भी विशेष प्रकार के कर्म ही होते हैं। अतः इसके लिए भी कर्मों का नाश अत्यावश्यक है। कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
सम्यक् चरित्र : अहितकर कार्यों का निषेध तथा हितकर कार्यों का अनुकरण ही सम्यक् चरित्र है। मोक्ष के लिए तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा तथा सत्य का ज्ञान पर्याप्त नहीं है, वरन् अपने आचरण पर संयम भी आवश्यक है। कर्मों के द्वारा ही मनुष्य दुःख व बंधन में पड़ता है। सम्यक् चरित्र व्यक्ति को मन, वचन तथा कर्म पर नियंत्रण का निर्देश देता है। अतः कर्मों से मुक्ति तभी संभव है, जब कर्मों व बंधन का नाश हो। अतः मोक्ष की प्राप्ति में प्रमुख सम्यक् चरित्र ही है। इसके पालन के लिए निम्नलिखित आचरण अपेक्षित है-
गुप्तियाँ
कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रिया को ‘योग’ कहते हैं और इन्हीं की सहायता से कर्म-पुद्गलों का आत्मा में प्रवेश होता है। योग के प्रशस्त-निग्रह को ‘गुप्ति’ कहते हैं। ‘संवर’ का कारण है- ‘गुप्ति’ अर्थात् रक्षा करना। मन, वचन तथा शरीर से क्रियाओं का निरोध करना ही ‘गुप्ति’ है। मानसिक, कायिक तथा शारीरिक क्रियाओं के नियन्त्रण से ही गुप्ति संभव है तथा गुप्ति से ‘संवर’। जहाँ समिति में सत्क्रिया का प्रर्वतन मुख्य है, वहीं गुप्ति में असत् क्रिया का निरोध मुख्य है।
गुणव्रत
अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है उन्हें ‘गुणव्रत’ कहा जाता है। अणुव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचार-शास्त्र में तीन गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है :
- दिशा-परिमाण व्रत- अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत- उपभोग एवम् परिभोग की मर्यादा निश्चित करना 3. अनर्थदंड-विरमण व्रत अर्थात् अपने अथवा अपने कुटुम्ब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना।
गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा और अपरिग्रह का पोषण होता है।
शीलव्रत
शीलव्रत दैनिक जीवन की क्रियाएँ हैं जो मुख्यतः दो प्रकार की हैं- (1) शिक्षाव्रत (2) गुणव्रत।
शिक्षाव्रत : शिक्षा का अर्थ होता है अभ्यास। श्रावक (गृहस्थ) को कुछ व्रतों का बार-बार अभ्यास करना होता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा जाता है। शिक्षाव्रत के निम्न चार भाग हैं-
- समायिक अर्थात् मन, कर्म एवं वचन की पवित्रता-शुद्धता के साथ त्रस और स्थावर के प्रति समभाव का अभ्यास करना।
- प्रोषधोपवास अर्थात् उपवास रखकर तीर्थंकरों एवं देवों का ध्यान करना।
- भोगोय भोग परिमाणं अर्थात् आत्म-तत्त्व के पोषण के लिए उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना।
- अतिथि संविभाग अर्थात् गृह आये साधु-संतों, अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का एक निश्चित विभाग करना।
गुणव्रत : पंचव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचार-शास्त्र में तीन गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है-
- अपनी त्याग-वृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना (दिशा-परिमाण व्रत),
- उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना (उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत) और
- अपने अथवा अपने कुटुंब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना (अनर्थदंड-विरमण व्रत)। गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है।
सल्लेखना
जैन धर्म के अनुसार यदि श्रमण या उपासक जीवन का त्याग चाहता है तो आहार-नियंत्रण के द्वारा शरीर का त्याग कर सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे एवं नियंत्रित होती है। शरीर त्यागने की यह पद्धति ‘सल्लेखना’ कहलाती है। महावीर के गणधरों, चंद्रगुप्त मौर्य, भद्रबाहु, स्थूलभद्र आदि ने इसी क्रिया से मृत्यु का वरण किया था।
अनुप्रेक्षा
जैन श्रमण परंपरा में बारह अनुप्रेक्षों को स्मरण रखना चाहिए-
- प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, 2. प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है, 3. जीवन दुःखों से पूर्ण है, 4. जीव को स्वयं संघर्ष करना है, 5. रिश्ते एवं परिवार स्वयं से अलग हैं, 6. शरीर अपवित्र है, 7. कर्म का प्रवाह आंतरिक है, 8. कर्म के प्रभाव को ज्ञान से रोका जा सकता है, 9. कर्म को तप से नष्ट किया जा सकता है, 10. ऋविर की प्रकृति, 11. धार्मिक ज्ञान का महत्त्व और धर्म का सही स्वरूप।
मोक्ष से तात्पर्य केवल दुःखों का अंत ही नहीं, अपितु आत्मा को ‘अनंतचतुष्ट्य’ की प्राप्ति होती है। जीव अपनी स्वाभाविक शक्ति अनंतचतुष्ट्य- अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत आनंद को प्राप्त कर ऊर्ध्वगामी होकर सिद्धलोक में अनंतकाल तक ‘सिद्धशिला’ पर निवास करता है। फिर जीव न तो लोक के परे जा सकता है और न संसार में लौटकर आ सकता है।
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