कानपुर षड्यंत्र मुकदमा
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कानपुर षड्यंत्र मुकदमें का बहुत महत्व है।
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भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-
कानपुर षड्यंत्र मुक़दमा क्या है ?
यह मुकदमा ‘कानपुर षड्यंत्रम मुकदमें’ के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रिटिश सरकार ने 21 फरवरी 1924 को एम. एन. राय, मुज़फ्फर अहमद, श्रीपाद अमृत डांगे, उस्मानी, गुलाम हुसैन, रामचरण लाल शर्मा और सिंगारावेल चेट्टियार पर कानपुर मुकदमा चलाया। भारत की औपनिवेशिक सरकार ने इन लोगों पर यह आरोप लगाया कि ये लोग एक षड्यंत्र रच रहे हैं जिसका उद्देश्य भारत में क्रान्तिकारी संगठन को स्थापित करना है और भारत से सम्राट ( ब्रिटिश सम्राट ) की प्रभुसत्ता को समाप्त करना है।
जब यह मुकदमा चला तो सिर्फ चार व्यक्ति, नलिन गुप्त, उस्मानी, डाँगे और मुज़फ्फर अहमद अदालत में पेश किये गए। एम. एन. राय व शर्मा भारत में नहीं थे, हुसैन सरकारी गवाह बन गए और सिंगारावेलू चेट्टियार पर उनकी बीमारी की बजह से मुकदमा नहीं चलाया गया।
कानपुर षड्यंत्र मुकदमें में सजा कब सुनाई गई ?
कानपुर षड्यंत्र मुकदमें का फैसला 20 मई 1924 को सुनाया गया और चारों अभियुक्तों को चार-चार साल की कड़ी कैद की सजा सुनाई गई।
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कानपुर षड्यंत्र मुकदमें का प्रभाव
इस मुकदमें के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के प्रयास को रोककर और कम्युनिस्ट नेताओं को जेल की चारदीवारी में बंद करके लोगों के दिलों में यह भय पैदा करने की कोशिश की कि यदि भविष्य में वे ऐसा करेंगे तो ब्रिटिश सरकार उन्हें कड़ा दंड देने से नहीं चुकेगी।
कानपुर षड्यंत्र मुकदमें में सुनाई गई सजा का परिणाम ब्रिटिश सरकार की उम्मीदों के विपरीत हुआ। ब्रिटिश सरकार कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव को रोकने में एकदम विफल साबित हुई। ब्रिटिश सरकार ने अपनी गुप्त रिपोर्टों में यह स्वीकार किया कि मुकदमें के बाद लोग कम्युनिस्टों की उन बातों को खुले आम सुना रहे हैं जिन्हें कम्युनिस्ट अब तक गुप्त रूप से लोगों तक पहुंचाते थे। मुकदमें के दौरान यह भी कहा गया कि कम्युनिज़्म में विश्वास रखना कोई अपराध नहीं।
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