मौर्यकाल में शूद्रों की दशा और सामाजिक स्थिति
मौर्यकाल में शूद्रों की दशा और सामाजिक स्थिति
उत्तर वैदिककालीन सामाजिक दशा अपने वास्तविक स्वरूप से निकलकर उत्तरोत्तर कठिन होती गयी। बढ़ती जनसंख्या और आर्थिक महत्व ने कुछ विशेष वर्गों को अपने निजी हितों को संरक्षित करने को प्रेरित किया। इन निजी हितों ने समाज में जातिव्यवस्था को जन्माधारित स्वरूप प्रदान कर उसे धर्म सम्मत सिद्ध करने का षड्यंत्र किया और उसमें वे कामयाब हुए। मौर्यकाल तक आते-आते जातिव्यवस्था अथवा सामाजिक दशा का क्या स्वरूप था यही इस लेख का विषय है। यहां हम यह जानने का प्रयास करेंगें क्या मौर्य काल में शूद्रों की दशा में सुधार हुआ अथवा पहले से कठोर हुयी। अगर हमारी दी जानकारी आपको पसंद आये तो कृपया इस लेख को अपने मित्रों के साथ शेयर अवश्य करें।
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- वर्ण व्यवस्था में चार वर्णों का प्रवधान किया गया था -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। मौर्यकाल तक आते-आते वर्ण व्यवस्था पूरी तरह स्थापित हो गई।
- वर्ण अब पहले से अधिक कठोर होकर जाति में परिणित हो गए। जाती का आधार अब वर्ण न होकर जन्म से जोड़ दिया गया। यानि जिस कार्य से आप जुड़े थे वही आपकी जाती के साथ जुड़ गया।
यूनानी लेखक और मौर्य राजदरबार में आये यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने उस समय के मौर्यकालीन समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है –
१- दार्शनिक
२- कृषक
३- पशुपालक
४- कारीगर
५- योद्धा यानि सैनिक वर्ग
६- निरीक्षक और
७- मंत्री
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मौर्यकाल में जाति व्यवस्था संबंधी नियम
मौर्यकाल में जाति व्यवस्था पहले की अपेक्षा कठोर हो गयी थी। इसकी कठोरता सामजिक संबंधो में दिखती है जिसमें लोग सिर्फ अपनी जाति के भीतर ही विवाह कर सकते थे।
अपने पैतृक व्यवसाय से अलग कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था।
लेकिन दार्शनिक किसी भी वर्ग से हो सकते थे।
मेगस्थनीज का सामाजिक वर्णन उसक समय के सिर्फ व्यवसाय पर आधारित है। जबकि वास्तविक रूप में उस समय अनेक जातियां मौजूद थीं।
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मौर्यकालीन दार्शनिक समाज
समाज के विद्वान या बुद्धिजीवी वर्ग को दार्शनिक के रूप में सम्मान प्राप्त था। यह अत्यंत प्रसंशनीय हैं की राजा अपनी आय का एक भाग इस वर्ग भरण-पोषण पर खर्च करता था।
- समाज की शिक्षा तथा संस्कृति को बनाये रखना दार्शनिक वर्ग का कर्तव्य था।
- दार्शनिक वर्ग में ब्राह्मण तथा श्रमण ( बौद्ध भिक्षु या साधु ) दोनों ही आते थे।
- वे अपना जीवन सादा रहकर अध्ययन में ही व्यतीत करते थे।
- कुछ दार्शनिक जंगलों में रहते हुए कंदमूल खाकर तथा वृक्षों की छाल पहनकर जीवन व्यतीत करते थे।
- समाज में आश्रम व्यवस्था प्रचलित थी।
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मौर्यकाल में कृषकों की दशा
मौर्यकाल में कृषक वर्ग एक प्रमुख वर्गों में से एक महत्वपूर्ण वर्ग था। मेगस्थनीज ने कृषकों के जीवन के बारे में कहा है कि —
वे सदा अपने काम में लगे रहते हैं तथा जिस समय सैनिक युद्ध में व्यस्त होते हैं उस समय भी कृषक लोग अपने काम में व्यस्त रहते हैं।”
कृषकों के बाद सबसे बड़ी संख्या सैनिकों की थी जिन्हें क्षत्रिय कहा जाता था।
मौर्यकाल में लोगों का जीवन
- कृषक कारीगर तथा व्यापारी सैनिक कार्यों से मुक्त होते थे। वे गांव में रहते थे।
- पशुपालक तथा शिकारी खानाबदोश जीवन व्यतीत करते थे।
- कुछ शिकारी समुदाय राज्य की ओर से ऐसे जिव-जंतुओं को नष्ट करते थे जो कृषि को नुकसान पहुंचाते थे।
- मौर्यकाल में कारीगरों का बहुत सम्मानजनक स्थान था और उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक क्षति पहुँचाने वालों को राजा दण्ड देता था।
मौर्यकाल में दासों की दशा
- दासों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले स्वामियों के लिए अर्थशास्त्र में दंड का प्रावधान किया गया है।
- सामन्यतः युद्धबंदी तथा म्लेच्छ लोग ही दासों के रूप में रखे जाते थे।
- अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता ने जातिप्रथा की कठोरता को कम कर दिया था।
मौर्यकाल में शूद्रों की दशा
- कुछ आधुनिक इतिहासकार जैसे आर० एस० शर्मा, रोमिला थापर ने कहा है कि मौर्यकाल में शूद्रों की दशा अत्यंत हीन अथवा दयनीय थी।
- इन इतिहासकारों ने दासों की तुलना यूनान तथा रोम के दासों से की है। इनके अनुसार मौर्यकाल में राजकीय नियंत्रण अत्यंत कठोर था। प्राकृतिक संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग की लालसा से राज्य में शूद्र वर्ण या समुदाय को रोम के हेलाटों की श्रेणीं पहुंचा दिया।
- रोमिला थापर के अनुसार कलिंग युद्ध में बंदी बनाये गए डेढ़ लाख युद्धबंदियों के अशोक ने बंजर भूमि साफ़ करने के काम में लगाया ताकि नई बस्तियां बसाई जा सकें।
- इतिहासकार आर० एस० शर्मा लिखते हैं कि–
“यूनान तथा रोम में जो काम दास करते थे वहीँ काम भारत में शूद्र करते थे।”
- यूनानी लेखक मेगस्थनीज ने भारतीय समाज में दास-प्रथा के प्रचलन से इंकार किया है और अपनी पुस्तक इंडिका में इसका कोई वर्णन नहीं किया है।
- लेकिन प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भारत में दास-प्रथा प्रचलित थी। लेकिन उनकी दसा यूनान और रूम के दासों से बेहतर थी।
- अर्थशास्त्र में शूद्र कृषक होने और अन्य कार्यों में संलग्न होने का प्रमाण है। मौर्यकाल में शूद्रों को खेती करने के साथ संपत्ति का अधिकार था जो कलान्तर में समाप्तकर दिया गया।
मौर्यकालीन परिवार व्यवस्था
- समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी।
- शादी के लिए लड़के की 16 वर्ष और लड़की की 13 वर्ष आयु निर्धारित थी।
- स्मृतियों में वर्णित सभी आठ प्रकार के विवाह मौर्य समाज में प्रचलित थे।
- तलाक की प्रथा मौर्य काल में प्रचलित थी।
- पत्नी पति के अक्षम होने अथवा लम्बे समय से गायब होने पर उसे त्याग सकती थी।
- स्त्री पुनर्विवाह के लिए स्वतंत्र थी।
- पति क्र अत्याचारों के विरुद्ध पत्नी न्यायालय का सहारा ले सकती थी।
- स्त्रियों पर अत्याचार करने वालों को राज्य दण्डित करता था।
- बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी।
- अंतर्जातीय विवाह प्रचलित थे।
- अर्थशास्त्र में स्त्री के लिए ‘असूर्यपश्या ( सूर्य को न देखने वाली), ‘अवरोधन’, तथा ‘अन्तःपुर’ शब्दों का प्रयोग हुआ है।
- गणिकाओं ( नर्तकी ) का उल्लेख अर्थशास्त्र में भी आया है ‘गणिकाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी गणिका विभाग का अध्यक्ष नियुक्त होता था।
मौर्यकाल में भोजन व वस्त्र
- मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय काम खर्चीले व उच्च नैतिक आचरण वाले होते थे।
- भारतीय शाकाहारी और माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे।
- मौर्यकालीन लोग वत्रों तथा आभूषणों के शैकीन थे।
- कपड़े सोने एवं बहुमूल्य पत्थरों से जड़े होते थे।
- रथ-दौड़, घुड़-दौड़, सांड-युद्ध, हस्ती-युद्ध, मृगया आदि मनोरंजन के साधन थे।
- अशोक ने कई हिंसक मनोरंजन के साधनों पर प्रतिबंध लगा दिया था।