ब्रिटिशकालीन उत्तराखंड-इस प्रथा के अन्तर्गत एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव के लिये जाते समय कुलियों के सिर/पीठ पर भंगी का झाडू, पॉट, कमोड, गोमांस, मुर्गी के अंडे मेमसाहब, बच्चे, कुत्ते, शराब, डाक, पियानों, बंदूक, टेंट, दाइयाँ आदि को रखा और उतारा जाता था। वहीं दूसरी और विभिन्न पडावों में सैनिकों सैलानियों या उनके दलों को उपलब्ध कराये जाने वाली सामग्री थी, जिसके अंतर्गत अनाज, सब्जी, घी, दूध, दही, मुरगी के अंडे, बकरी, पानी, लकड़ी, छिलके, घास वर्तन, सत्तू आदि लिया जाता था। नमक, मसाला, चीनी, तेल, चटाई, चारपाई या पराल की व्यवस्था, टेंट लगाने, बर्तन मलने, लकड़ी, काटने, व फाड़ने आदि की व्यवस्था भी ग्रामीणों से कराई जाती थी।
कुली बेगार प्रथा क्या थी ?
आतंकित व परेशान करने के उद्देश्य से जानबूझकर ग्रामीणों के समक्ष असंभव मांगों को प्रस्तुत किया जाता, यथा- जौ या मड़वा की रोटी खाने वाले काश्तकारों से गेहूं का आटा, बासमती या अच्छे चावल, दाल मुरगी आदि माँगा जाना साधारण बात थी। कभी-कभी छीनकर भी ले जाते थे यही नहीं माँगी गयी सामग्री उपलब्ध न होने की स्थिति में जुर्माना लिया जाता तथा इसकी प्राप्ति के लिये अत्याचार किये जाते। स्वाभाविक ही इस प्रथा ने विभिन्न मांगों की पूर्ति हेतु ग्रामीण परिवारों पर दबाव बढ़ा कर उनकी आर्थिक स्थिति को और दयनीय कर दिया जिससे महिलायें अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुई।
कुली बेगार, बर्दायश कुली उतार की इन शोषक प्रथाओं का प्रत्यक्ष शिकार स्त्रियां भी थी। सामान्यतया स्त्रियां बेगार से मुक्त नहीं थीं यद्यपि वृद्ध, विधवा व बच्चे बेगार से मुक्त थे पर वहीं जहाँ इनके अधिकार की भूमि कम थी। जारी बेगार से मुक्ति मालगुजार के साथ इनके संबंधों पर निर्भर थी। यहीं नहीं स्त्रियां कर्मचारियों, साहबों व सैनिकों के दुव्र्यवहार की भी शिकार थी विशेष रूप से सैनिकों का व्यवहार स्त्रियों के साथ आपत्तिजनक होता था। साथ ही स्त्रियों को कुलियों के रूप में लगाया जाता था व उनके साथ दुव्र्यवहार आम बात थी।
1917 में बौरों खाल से लीसाकोट तक बोझढोने में एक उस स्त्री को लगाया गया जिसको प्रसव हुए अभी सात ही दिन हुए थे और उसका पति क्वेटा या करांची में कार्यरत था। उस स्त्री की मृत्यु रास्ते में ही हो गयी। कर्मचारियों की क्रूरता व सामान्य परिवारों की भयग्रस्तता के ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जब गाय-भैस की कमी के तहत दूध उपलब्ध कराने में असमर्थता के बावजूद, प्रशासनिक कर्मचारियों से अतिंकित एक विधवा ने स्वयं के दूध को जमाकर दही बनाया तथा उससे ’साहब’ की दही की माँग को पूरा किया। इन शोषक प्रथाओं द्वारा स्त्रियों का प्रत्यक्ष रूप से शोषण करने के अतिरिक्त, स्त्रियां ‘परिवारों’ के इन प्रथाओं के अधीन बढ़े हुए आर्थिक कष्टों व प्रताड़ना से भी गहन रूप से प्रभावित हुई।
ब्रिटिश अर्थनीति के तहत कृषक परिवारों की बढ़ती हुई गरीबी, कठिनाइयों व अभावों के बावजूद स्त्रियों को बर्दायश के अवसर पर साहबों व उनके दलों की विविध सामग्रियों की प्रत्येक माँगों को अपनी व अन्य परिवारिक सदस्यों की जरूरतों. में कटौती करके पूरा करना पड़ता था जिसके परिणामस्वरूप वे क्रमशः ब्रिटिश विरोधी भावनाओं के अधीन आई और ब्रिटिश शासन के विरूद्ध ग्रामीण परिवारों में पनप रही प्रतिरोधी चेतना की सक्रिय हिस्सेदार बनी।
कुली बर्दायश के अधीन जनता के कष्टों का वर्णन करते हुए ‘गढवाली’ पत्र लिखता है- “सबसे बड़ा कष्ट हमें कुली बर्दायश से है।— गढ़वाल का क्या बड़ा, क्या छोटा हर एक आदमी इस कुली बर्दायश के नाम से घबराता है।— हाकिमों ने अपने सामने मजदूरी बाँट दी तो अच्छा नहीं तो वह भी हाथ नहीं आती। अंडा, मुर्गी, दूध घास आदि चीजें देने के लिये बाध्य न होने पर भी हमसे जबर्दस्ती ली जाती है। जिसने कभी एक पैसे का दूध मोल लेकर न पिया हो उसके लिये भी बर्दायश में एक सेर दूध देना पड़ता है। बिना दूध के उनकी प्राण रक्षा नहीं होती।
यदि खानसामा, बावर्ची, मेहतर, अर्दली और चपरासियों का मुँह मीठा नहीं किया जाता तो कहीं दूध को खराब बताकर फेंक दिया जाता है। घास पर सड़ी हुई है। कहकर ठोकर मार दी जाती है। कोयले नहीं आये कहकर किसी के कान गरम कर दिये जाते हैं। प्रधान को सुस्त बताकर गालियों से उसकी पूजा की जाती है — कितनी हानि इस कुली बेगार से गढ़वाल की प्रजा को सहनी पड़ती है, उस पर हमारे लाट साहब कृपा पूर्वक विचार करेंगे। —
कुली बेगार प्रथा का जनजातियों पर प्रभाव
इस प्रकार ब्रिटिश विधि व्यवस्था की तरह 19वीं शती में उत्तराखण्ड में ब्रिटिश प्रशासनिक व आर्थिक नीतियों ने जो अधिकतम लाभ के औपनिवेशिक उद्देश्य के अन्तर्गत निर्देशित होने के कारण पितृसत्तात्मक आधार लिये हुई थी। इस प्रवासी अर्थव्यवस्था ने स्त्रियों पर श्रम का दबाव बढ़ा दिया। प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के अभाव में उत्तराखण्ड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व पशुचारण रूपी अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी। वनोत्पाद उनके जीवन का मुख्य आधार थे।
जनजातियों की संख्या उत्तराखण्ड में प्राचीनकाल से ही रही है इनमें शौका घास, बोक्सा राजी जैसी जनजाति महत्वपूर्ण हैं। ये जन जातियां अपनी परम्परागत जीवन शैली को पीढी-दर पीढ़ी ढो रहे है। य़द्यपि बाहरी आगन्तुकों के आने से इनकी भी जीवन शैली अब बदल रही है। ये भी अब शहरी वातावरण के मौह में आकर पलायन कर रहे है।
आदिवासी समाज में श्रम का विभाजन एक परम्परागत व्यवस्था से होता है। जहाॅ पुरूष एवं स्त्री को साझा अर्थव्यवस्था का बोझ उठाना होता है। परन्तु अंग्रेजों की वन एवं भू-प्रबन्ध नीति ने इन समुदायों के प्राकृतिक नियमों एवं अधिकारों में दखल दिया। उन्हें जंगलों से दूर कर दिया जिसका सीधा प्रभाव उनकी दैनिक दिनचर्या पर पड़ा।
कुली बेगार प्रथा का आदिवासी समाज पर प्रभाव
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की सीमाओं को परिभाषित करने वाली आदिवासी समाज द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं का विशेष महत्व था। आदिवासी समाज के बुजुर्ग आश्यकता पढ़ने पर स्थानान्तरित कृषि के लिए अलग-अलग परिवारों को आवश्यकतानुसार भूमि आवंटित करते थे। इससे वनों का संतुलन बना रहता था। परन्तु आदिवासी के जीवन यापन पद्धति के विघटन व उनके संरक्षण के लिए कोई प्रबन्ध व्यवस्था सभ्यता के हाथों में नहीं है। इनका मिटना व विघटन वो विकास और प्रगति का पर्याय माना जाता है।
अंग्रेजी प्रशासकों ने मिशनरियों को आर्थिक सहायता मुहैया कराई जिससे व भारत में धार्मिक व शैक्षिक गतिविधियों को चला सके उसी का परिणाम था कि उत्तराखण्ड का आदिवासी समाज भी शैक्षिक प्रगति में सम्मिलित हो पाया। स्त्रियों ने भी स्कूलों में जाना प्रारम्भ किया।
औपनिवेशिक उत्तराखण्ड में महिलाओं की शिक्षा के विस्तार की सीमित या अल्प प्रगति इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि स्त्री शिक्षा के विकास के लिए औपनिवेशिक शासकों का नैतिक व आर्थिक सहयोग जरूरी तो था किन्तु न तो यह पर्याप्त था और न ही एकमेव हो सकता है। कुली बेगार प्रथा ने भी आदिवासी समाज का अत्याधिक दोहन किया।
कुली बेगार प्रथा के विरद्ध आंदोलन
कुली बेगार प्रथा से त्रस्त उत्तराखंडी समाज के लोगों ने इसके विरुद्ध आंदोलन करने की ठानी और 14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के दिन कुली बेगार के विरुद्ध आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। इस आंदोलन में उत्तराखंड के दूर-दराज के इलाकों से हज़ारों लोगों की भीड़ एकत्र हुयी तथा यह भीड़ एक विशाल परिवर्तित हो गयी। सरयू और गोमती नदियों के संगम ( बगड़ ) के में इस आंदोलन का बिगुल बजा।
आंदोलन को सम्बोधित करते बद्रीदत्त पांडे |
अंग्रेज सरकार ने इस आंदोलन से पूर्व ही जिलाधिकारी ने लाला चिरंजीलाल, पांडित हरगोविंद पंत, और बद्रीदत्त पांडेय को चेतावनी भरा नोटिस थमा दिया, मगर इस नोटिस का इन कोई असर नहीं हुआ। आंदोलनकारियों की उपस्थित भीड़ ने सबसे पहले बागनाथ के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की , इसके बाद 40 हज़ार लोगों का हुजूम सरयू बगड़ की ओर प्रस्थान कर गया। आंदोलनकारियों की भीड़ ने सबसे आगे एक झण्डा पकडे लोगों को आगे किया जिस पर लिखा था “कुली बेगार बंद करो” , इसके पश्चात् सरयू मैदान में विशाल सभा का आयोजन हुआ।
बद्रीदत्त पांडे ने सभा को ओजस्वी शब्दों में सम्बोधित करते कहा “पवित्र सरयू का निर्मल जल हाथ में लेकर हम आज ये शपथ लेते हैं कि आजके बाद कोई भी कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।” भीड़ में उपस्थित लोगों ने शपथ ली और ग्राम प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख और भारत माता के उद्घोष के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम प्रवाहित कर दिया गया। भीड़ की उत्तेजना देखने लायक थी। इस प्रकार इस प्रथा का अंत कर दिया गया।
तत्कालीन अल्मोड़ा के डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में उपस्थित था और आंदोलनकारी भीड़ पर गोली चलाना चाहता था मगर पुलिस की संख्या और आंदोलनकारियों की भीड़ में बहुत अंतर था जिसके कारण उसे अपना विचार बदलना पड़ा।
कुली बेगार आंदोलन की सफलता के बाद इस आंदोलन के प्रमुख प्रणेता बद्रीदत्त पांडे को जनता द्वारा “कुमायूं केसरी” की उपाधि से सम्मानित किया। इस आंदोलन का लोगों ने न सिर्फ समर्थन किया बल्कि कड़ाई से पालन भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार को सदन में एक प्रस्ताव लाना पड़ा और इस प्रथा को समाप्त घोषित किया।
आंदोलन के प्रणेता बद्रीदत्त पांडे |
कुली बेगार आंदोलन ने महात्मा गाँधी को इतना प्रभावित किया कि वे स्वयं बागेश्वर में आये चनौंदा में गाँधी आश्रम की नीव रखी। इसके बाद गाँधी जी ने इस आंदोलन के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा “यह एक सफल रक्तहीन क्रांति थी, इसका प्रभाव सम्पूर्ण था।