सर वुल्जले हेग ने ठीक कहा है कि इस्लाम का उदय इतिहास के चमत्कारों में से एक है। सन 622 ईस्वी में एक पैगम्बर ने मक्का छोड़ कर मदीना की शरण ली। एक शताब्दी बाद उस शरणागत के उत्तराधिकारी और अनुयायी एक ऐसे साम्राज्य पर शासन करने लगे जिसका विस्तार प्रशांत महासागर से सिंधु तक और कैस्पियन से नील तक था। भारत पर मुसलमानों के आक्रमण से पूर्व भारत की दशा कैसी थी ? अरबों द्वारा सिंध विजय पर विचार करने से पूर्व आठवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत की दशा पर संक्षिप्त प्रकाश डालना आवश्यक है।
प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी
आठवीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक दशा
राजनीतिक रूप से भारत में कोई केंद्रीय शक्ति नहीं थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से अफगानिस्तान भारत का अंग था। हृवेनसांग के अनुसार काबुल की घाटी में एक क्षत्रिय राजा का शासन था और उसके उत्तराधिकारी नवीं शताब्दी तक शासन करते रहे। इसके पश्चात् लालीय की अधीनता में एक ब्राह्मण वंश की स्थापना हुयी।मुस्लमान लेखकों ने इस वंश को हिन्दुशाही साम्राज्य अथवा काबुल या जाबुल का साम्राज्य कहा है। अरबों के आक्रमण के समय अफगानिस्तान के शासकों के नाम अनभिज्ञ हैं।
सातवीं शतब्दी में कश्मीर में दुर्लभवर्मन ने हिदुवंश की स्थापना की। हृवेनसांग ने उसके शासनकाल में कश्मीर की यात्रा की। उसके उत्तराधिकारीप्रतापदित्य ने प्रतापपुर की नींव रखी।ललितादित्य मुक्तापीड़ जो 724 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा, पंजाब, कन्नौज, दर्दिस्तान और काबुल का विजेता सिद्ध हुआ। वह अपने वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था।उसके समय में सूर्य देवता के लिए मार्तण्ड मंदिर बनवाया गया। 740 ईस्वी के लगभग उसने कन्नौज के राजा यशोवर्मन को परजित किया।
सातवीं शताब्दी में नेपाल, जिसके पूर्व में तिब्बत व् दक्षिण में कन्नौज का राज्य था, हर्ष के साम्राज्य में मध्यवर्ती राज्य था। अंशुवर्मन ने ठाकुरी वंश की नींव रखी। उसने तिब्बत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये। आ उसने अपनी कन्या का विवाह तिब्बत के शासक के साथ किया। हर्ष की मृत्यु के बाद तिब्बत व नेपाल की सेना ने चीन के राजदूत वांग ह्युन्सी ( wang-hieun -tse ) को कन्नौज के सिंहासन का अपहरण करने वाले अर्जुन के विरुद्ध सहायता प्रदान की। 730 ईस्वी में नेपाल स्वतंत्र हो गया।
हर्ष के समय असम में भास्करवर्मन का शासन था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। परन्तु वह एड्ज अधिक समय तक स्वतंत्र न रह सका और शिलास्तंभ ( एक म्लेच्छ ) ने भास्करवर्मन को पराजित किया और लगभग 300 वर्षों तक असम म्लेच्छों की अधीनता में रहा।
हर्ष की मृत्यु के पश्चात् अर्जुन ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने चीन के राजदूत वान ह्यूंगसे का विरोध किया जो हर्ष की मृत्यु के उपरंत वहां पहुंचा था। उसके कुछ साथियों को कारावास में डाल दिया गया अथवा कुछ की हत्या कर दी गई और उनकी संपत्ति भी लूट ली गयी। वान ह्यूंगसे किसी प्रकार बचकर नेपाल पहुँच गया और असम, तिब्बत व नेपाल की सहायता लेकर लौटा।अर्जुन पराजित हुआ और चीन ले जाया गया। आठवीं शताब्दी के आरम्भ में कन्नौज के सिंहासन पर यशोवर्मन बैठा। उसने कन्नौज का पुराना गौरव लौटाया। वह सिंध के राजा दाहिर का समकालीन था।
सिंध में शूद्र वंश का राज्य था। सिंध पर हर्ष ने विजय प्राप्त की थी परन्तु हर्ष की मृत्यु के उपरंत सिंध स्वतंत्र हो गया। शूद्र वंश का अंतिम शासक साहसी था। उसकी मृत्यु के उपरांत उसके ब्राह्मण मंत्री छाछ ने उसके राज्य पर अधिकार कर नए वंश की नींव रखी। छाछ के पश्चात् चंद्र व चंद्र के पश्चात् दाहिर गद्दी सी पर बैठा। इसी दाहिर ने सिंध में अरबों का सामना किया।
बंगाल में शशांक हर्ष का समकालीन था। इसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल में अराजकता फ़ैल गई। 750 ईस्वी में प्रजा ने गोपाल को अपना शासक चुना। गोपाल ने 750-770 ईस्वी तक शासन किया। गोपाल द्वारा स्थापित किये गए वंश ने 12 वीं शताब्दी तक शासन किया। धर्मपाल, देवपाल व महिपाल इस वंश के प्रसिद्ध शासक हुए।
केंद्रीय राजपुताना में मंडोर के स्थान पर प्रतिहारों का सबसे पुराना व प्रसिद्ध राज्य था। हरिश्चंद्र के परिवार ने यहाँ शासन किया। उनकी एक शाखा दक्षिण में कन्नौज की ओर स्थापित हो गई। राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने गुर्जर नेता को पराजित किया। यह बताया जाता है कि कन्नौज की विजय से पूर्व प्रतिहार अवन्ति के स्वामी थे।
यह भी बताया जाता है कि नागभट्ट प्रथम ने म्लेच्छ राजा की विशाल सेनाओं को नष्ट कर किया। उसने अरबों से पश्चिमी भारत की रक्षा की।
नागभट्ट व दन्ति दुर्ग दोनों ने अरबों के आक्रमणों उत्पन्न अशांति में लाभ उठाने का प्रयास किया। यद्यपि आरम्भ में दन्तिदुर्ग को कुछ लाभ हुआ किन्तु वह लाभ स्थायी न रहा। आरम्भ में असफलता होने पर भी नागभट्ट ने मृत्यु समय एक शक्तिशाली साम्राज्य छोड़ा जिसमें मालवा, राजपुताना, व गुजरात के कुछ भाग सम्मिलित थे।
चालुक्य वंश का सबसेप्रतापी राजा पुलकेशिन द्वतीय हर्ष का समकालीन था। 665 ईस्वी से 681 ईस्वी तक विक्रमादित्य ने राज्य किया।उसके पुत्र विनयादित्य ने 681 ईस्वी से 689 ईस्वी तक शासन किया। उसका उत्तराधिकारी विजयादित्य हुआ जिसने 689 से 733 ईस्वी तक शासन किया। उसने कांची पर प्राप्त करके पल्लव राजाओं से कर प्राप्त किया। वह अरबों के आक्रमण के समय राज्य कर रहा था।
अरबों के आक्रमण के समय पल्लवों का शासक नरसिंहवर्मन द्वितीय था। उसने 695 से 722 ईस्वी तक राज्य किया। उसने ‘राजसिंह’ ( राजाओं में सिंह ), ‘आगमप्रिय’ ( शास्त्रों का प्रेमी ) और ‘शंकरभक्त’ ( शिव का उपासक ) की उपाधियाँ धारण कीं। उसने कांची में कैलाशनाथ का मंदिर बनवाया।
उपरोक्त अध्य्यन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिंध पर अरबों के समय ऐसा एक भी शक्तिशाली राज्य नहीं था जो सफलतापूर्वक मुसलमानों के आक्रमण को रोक पाता। भारतीय शासक संकट के समय भी एक न हो सके। देशभक्ति पूर्णतया अभाव था। भारतीय शासक व्यक्तिगत विजयों के लिए ही लड़ते थे।
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शासन-प्रबन्ध – उस समय राजतन्त्र था। ज्येष्ठाधिकार का पालन होता था। कभी-कभी शासकों का चुनाव भी होता था। गोपाल जिसने पालवंश स्थापना की थी, प्रसिद्ध राजनीतिक दलों द्वारा चुना गया था। राजा कार्यपालिका का प्रधान, सेना का मुख्य सेनापति और न्याय का स्रोत होता था। कुछ शासक निरंकुश भी होते थे परन्तु उनसे धर्मानुसार शासन की आशा की जाती थी।
राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। जिसमें – संधिविग्रहिक, सुमंत, महादण्डनायक, महाबलाधिकृत, अमात्य, अक्षपटाधिकृत आदि मंत्री होते थे। इसके अतिरिक्त एक पुरोहित भी होता था जो धर्म विभाग का अधिकारी होता था। मंत्रिपद पैतृक होते थे।
उत्तर भारत के राज्य कई प्रांतों ( भुक्ति ) में बंटे थे दक्षिण में इन्हें मंडल कहा जाता था। इनके लिए कहीं-कहीं राष्ट्र अथवा देश शब्द का किया गया है। प्रत्येक राज्य उपरिक के अधीन था। प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त था जिन्हें ‘विषय’ कहा जाता था। इनका अधिकारी विषयपति होता था। जिलों में कई गांव के समूह थे और शासन-प्रबंध की इकाई था।
प्रत्येक गांव में एक मुखिया और गांव के वृद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। प्रत्येक पंचायत में विभिन्न छोटी-छोटी समितियां होती थीं जो गांवों की आवश्यकताओं की देखभाल करती थीं। गांव का अध्यक्ष ( अधिकारी ) ‘अधिकारिन’ कहलाता था। नगर का प्रबंध नगरपति के अधीन था जिसकी सहायता के लिए कई नगरों में नागरिकों द्वारा चुनी हुई सभा थी।
राज्य की आय का मुख्य साधन राजकीय भूमिकर, अधीनस्थ राजाओं से भेंट, चुंगी कर, सिंचाई कर, सड़कों व नावों व खानों आदि पर कर थे। इसे ‘भाग’ कहते थे।
धार्मिक दशा ( Religious Condition ) इस समय बौद्ध धर्म अवनति पर था, किन्तु फिर भी बिहार में पाल व बंगाल में सेन राजाओं के समय तक इस धर्म के अनुयायी मिलते थे। धर्मपाल ने, जिसने 780 ईस्वी से 810 ईस्वी तक शासन किया, एक विशाल बौद्ध विश्विद्यालय विक्रमशिला ( जिसमें 107 मंदिर व 6 विद्यालय थे ) की स्थापना की। जैन धर्म अधिक समय तक चलता रहा और विशेषकर दक्षिण के लगभग सभी राज्यों में जैन धर्म का थोड़ा बहुत प्रभाव शेष था।
राष्ट्रकूट, चालुक्य, गंग और होयसल राज्यों में वैष्णव और शैव धर्म की स्थापना के पहले जैन धर्म चरम पर रह चुका था। कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, रामानुज और माधवाचार्य जैसे प्रसिद्ध धार्मिक उपदेशकों ने हिन्दू समाज की धार्मिक मनोवृत्ति में परिवर्तन किया। सुधरा हुआ हिन्दू धर्म एक शक्तिशाली धर्म बन गया। अधिकांश शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, किन्तु वे अन्य धर्मों के प्रति भी सहनशील थे। उस समय किसी प्रकार के धार्मिक अत्याचार नहीं किये जाते थे।
सामाजिक दशा ( social condition ) जाति प्रथा पहले से अधिक कठोर हो चुकी थी। इस समय ब्राह्मणों के सैनिक और क्षत्रियों के व्यापरी बनने के उदाहरण भी मिलते हैं लेकिन शूद्रों के लिए व्यवसाय बदलना असम्भव था। यद्यपि वैश्यों और शूद्रों ने शक्तिशाली राज्यों का शासन भी संभाला।
अंतर्जातीय विवाह निषिद्ध थे और अधिकांश लोग अपनी ही जाति में विवाह करते थे। अधिकांश सवर्ण लोग शाकाहारी थे और वे प्याज व लहसुन तक का प्रयोग नहीं करते थे। अस्पृश्यता चार्म पर थी। हिन्दू समाज में बहुविवाह की प्रथा थी प्रचलित थी, परन्तु स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह वर्जित था। सती प्रथा भी प्रचलित थी। शिक्षा सिर्फ उच्च वर्ग में प्रचलित थी। हर तरफ अन्धविश्वास का बोलवाला था। सम्पूर्ण हिंदू समाज जातियों में बिखरा एक कमजोर समाज था जो मुसलमानों के आक्रमणों को रोकने में पूर्णतया असमर्थ था।
यह ठीक है कि वास्तव में सिंध को अरबों ने 722 ईस्वी में विजय किया परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उससे पूर्व कोई कोशिश न हुई थी। खलीफा उमर के समय 636-637 ईस्वी में बम्बई के निकट थाना ( Thana ) की विजय के लिए एक मुस्लिम नाविक अभियान भेजा गया परन्तु वह असफल रहा।
दूसरा प्रयास 644 ईस्वी में स्थल मार्ग द्वारा मकरान के तट से पश्चिमी सिंध में किया गया। यह अभियान अब्दुल्ला-बिन-अमर के नेतृत्व में खलीफा उस्मान ने भेजा था। वह सिस्तान की विजय करके मकरान की ओर अग्रसर हुआ। उसने मकरान और सिंध के शासकों को हराया। सिंध को विजय करके भी उसको राज्य में मिलाना उपयुक्त न समझा गया।
खलीफा को बतया गया कि सिंध में पानी और फलों की कमी है और वहां के डाकू बड़े साहसी हैं। यदि थोड़े सैनिकों को भेजा गया तो उनकी हत्या कर दी जाएगी और यदि भूतों को भेजा गया तो वे भूखे मर जायेंगे। ऐसा होते हुए भी अरब लोग सिंध के सीमावर्ती क्षेत्रों पर स्थल मार्ग से आक्रमण करते रहे।
अल-हरीस ने सन 659 ईस्वी में प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त की परन्तु अंत में वह हार गया और 662 ईस्वी में मारा गया। अल-मुहल्लब ने 664 ईस्वी में फिर हिम्मत की परन्तु वह हार गया। अब्दुल्ला इस काम को करता हुआ मारा गया। अंत में अरबों ने आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मकरान विजय कर लिया। इस प्रकार सिंध की विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ।
अरबों ने भारत पर आक्रमण क्यों किया
कहा जाता है की 711 ईस्वी में सिंध विजय के लिए अरबों को उकसाया गया था। इसके कई खाएं बताये गए हैं। लंका के राजा ने खलीफा के उत्तरी प्रांतों के अध्यक्ष, हज्जाज के पास अपने राज्य के उन मुसलमान व्यापारियों की, जिनकी मृत्यु हो चुकी थी, अनाथ कन्याओं को भेजा, उसके नौकरों पर आक्रमण करके समुद्री लुटेरों ने सिंध के तट के पास उन्हें लूटा। एक अन्य वर्णन के अनुसार लंका के राजा ने स्वयं इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और वह खलीफा के पास सैनिक व मूलयवान उपहार भेज रहा था। सिंध के तट के पास उन्हें लूट लिया गया।
एक अन्य वर्णन के अनुसार, खलीफा ने अपने प्रतिनिधियों को भारत से दासियाँ और अन्य वस्तुएं खरीदने के लिए भेजा। दाहिर के राज्य के मुख्य बंदरगाह देवल पहुँचने पर समुद्री लुटेरों ने उन्हें लूट लिया। इस पर खलीफा ने सिंध के राजा से क्षति-पूर्ति की मांग की किन्तु दाहिर ने यह कहते हुए यह इंकार कर दिया कि इस लूट के लिए लुटेरे जिम्मेदार हैं जो उसके नियंत्रण में नहीं आते। इसलिए वह क्षति-पूर्ति के लिए उत्तरदायी नहीं था।
लेकिन इन सब कारणों का इतना महत्व नहीं है। अरबों की सिंध विजय के उद्देश्य के पीछे इस्लाम धर्म का प्रचार करना मुख्य कारण था, साथ ही भारत की धन सम्पदा लूटकर धनवान बनना। अरबों की सिंध विजय, उनकी सामान्य आक्रमणशील नीति का केवल एक पहलू था जिसके द्वारा उन्होंने उत्तरी यूरोप, अफ्रीका और यूरोप के विशाल क्षेत्रों को अपने अधीन किया।
मुहम्मद-बिन-कासिम का भारत पर आक्रमण
सन 711 ईस्वी में उबैदुल्लाह के नेतृत्व में एक अभियान भेजा गया, परन्तु वह स्वयं पराजित हुआ हुए मारा गया। दूसरा अभियान बुदैल के नतृत्व में भेजा गया और वह भी असफल रहा। इन परिस्थितियों में एक अभियान मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिंध की विजय के लिए भेजा गया।
मुहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण के विषय में डा० ईश्वरीप्रसाद का कहना है कि “सिंध पर मुहम्मद-बिन-कासिम का आक्रमण इतिहास में एक रोमांचकारी घटना है। उसका भरपूर यौवन, उसकी वीरता व साहस, अभियान में आदि से अंत तक उसका उदार व्यवहार एवं उसके करुणा जनक पतन समस्त कार्यों को शहीद की उपाधि प्रदान की है।”
मुहम्मद-बिन-कासिम के सीरिया के अश्वारोही जो खलीफा की सेना के उत्तम सैनिक थे, 6000 ऊंट सवार और 3000 बैकट्रिया के पशुओं पर लदी हुई युद्ध सामग्री का काफिला था। मुहम्मद-बिन-कासिम को मकरान के राज्यपाल मुहम्मद हारून से 5 बालिश्त ( पत्थर फेंकने के लिए प्राचीन युग के यंत्र ) मिले जिनसे मध्यकाल में तोपखाने का काम लिया जाता था। एक यंत्र को चलाने के लिए 500 प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती थी। अतः 2500 व्यक्ति केवल तोपखाने में थे।
अब्दुल-अवसाद-जहाँ को मुहम्मद-बिन-कासिम से पूर्व सिंध की सीमा पर उसका साथ देने के लिए भेज दिया गया था। मुहम्मद-बिन-कासिम की सेना की संख्या, जब उसने मुल्तान की ओर प्रस्थान किया, बढ़ते-बढ़ते 50 हज़ार तक गई थी।
देबल पर आक्रमण – मकरान से मुहम्मद-बिन-कासिम देवल की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में जाटों और मेढ़ों ने दाहिर के विरुद्ध उसे सहयोग दिया। 712 ईस्वी की बसंत ऋतु में मुहम्मद-बिन-कासिम देबल की बंदरगाह में पहुंचा और उसे घेर लिया। दाहिर के एक भतीजे ने वीरता से सामना किया। ऐसा कहा जाता है कि देबल के ब्राह्मणों ने रक्षा कवच ( Talisman ) तैयार करके मंदिर पर लहरा महान ध्वजा के समीप रख दिया।
अरब अथक परिश्रम के पश्चात् भी देबल को न जीत सके। तब एक ब्राह्मण ने दाहिर के साथ विश्वासघात किया और रक्षा-कवच का रहस्य अरबों को बता दिया। इसके पश्चात् अरबों ने ध्वजा को उखाड़ फेंका और रक्षा-कवच तोड़ दिया। रक्षा-कवच टूटते ही जनता में भगदड़ मच गई, तीन दिन तक नरसंहार चलता रहा। देबल के लोगों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए कहा गया जिन्होंने आज्ञा नहीं मानी उनका वध कर दिया गया।
सत्रह साल तक के सभी व्यक्तियों का वध कर दिया गया। विजेताओं के हाथ अपार -राशि लगी। बुद्ध की शरण में रहने वाली 700 कन्याएं मुहम्मद-बिन-कासिम को लूट में प्राप्त हुईं। लूट का कुछ भाग और सूंदर कन्याएं हज्जाज को भेजी गयीं। शेष सम्पप्ति सैनिकों में बाँट दी गई। मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं।
मुहम्मद-बिन-कासिम ने हज़्ज़ाज़ इन शब्दों में सूचित किया : “राजा दाहिर के भतीजे, उसके वीरों और मुख्य कर्मचारियों का अंत कर दिया गया है और मूर्ति-पूजकों को मुसलमान बना दिया गया है अथवा वध कर दिया गया है। मंदिरों को तोड़ मस्जिदें बना दी गई हैं। नमाज के लिए अजान की जाती है। ख़ुतबा ( शुक्रवार की नमाज ) पढ़ा जाता है। नमाज के लिए अजान की जाती है जिससे नमाजी समय से आ सकें। तकबीर और सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रशंसा प्रातः एवं सायंकाल की जाती है।”
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निरून पर हमला – देबल विजय के बाद कासिम नीरून की ओर बढ़ा। उस समय यह नगर बौद्ध-भिक्षुओं और श्रमणों के हाथ में था। बौद्धों ने बिना युद्ध किये ही अधीनता स्वीकार कर ली। उन्होंने ऐसा कहा : “हम भिक्षुओं की श्रेणीं में आते हैं। हमारा धर्म शांति है। हमारा धर्म युद्ध और हत्याकांड की अनुमति नहीं देता।”
सेहवान – नीरून से अरबों ने सेहवान की और प्रस्थान किया। वहां दाहिर का चचेरा भाई बजहरा शासन करता था। थोड़े से विरोध के उपरांत उसने अधीनता स्वीकार कर ली। इसलिए जनसंहार का अवसर नहीं आया।
दाहिर पर आक्रमण – दाहिर पर आक्रमण करने के लिए मुहम्मद-बिन-कासिम ने सिंध नदी को पार करने के लिए नावों का पुल एक पुल बनाया। दाहिर इस आक्रमण से चकित रह गया, दाहिर ने भगकर रावड़ में शरण ली। इस सस्थान पर अरबों का सामना हाथियों से सुसज्जित युद्ध के लिए उतावली सेना से हुआ। दाहिर हाथी पर बैठा था। उसका हाथी उसे नदी में ले गया। ऐसा होने पर भी दाहिर सुरक्षित था घोड़े पर चढ़कर युद्ध कर रहा था। परन्तु सेना में अफवाह फ़ैल गई कि राजा मारा गया और सेना में भगदड़ मच गई। अंत में दाहिर मारा गया दाहिर की विधवा रानी ने वीरतापूर्वक रावड़ के किले की रक्षा की और उसके 1500 वीर सैनिकों ने अरबों पर पत्थरों वर्षा की। जब वे अपनी रक्षा न कर सके तब उन्होंने जौहर कर अपने सम्मान की रक्षा की ताकि दुश्मन उनकी आवरू न लूट पाएं।
ब्राह्मणवाद- रावड़ से मुहम्मद-बिन-कासिम ने ब्रह्मणावाद की ओर प्रस्थान किया। उसकी रक्षा दाहिर का बेटा जयसिंह कर रहा था। भीषण युद्ध हुआ 20 हजार से ज्यादा व्यक्तियों की हत्या की गई। जयसिंह युद्ध मैदान छोड़कर भाग गया। ब्रह्मणावाद के पतन के पश्चात् मुहम्मद-बिन-कासिम ने दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी और की दो कन्याओं सूर्यदेवी और परमलदेवी को बंदी बनाया गया।
अरोर – सिंध की राजधानी अरोर की रक्षा का कार्य दाहिर के अन्य बेटे के हाथ में था। कुछ समय तक उसने साहस के साथ मुक़ाबला किया लेकिन पराजित हुआ। इस प्रकार सिंध की विजय पूर्ण हुई।
मुल्तान – 713 ईस्वी के आरम्भ में मुहम्मद-कासिम ऊपरी सिंध के मुख्य नगर मुल्तान की ओर बढ़ा। घोर संग्राम के बाद मुहम्मद-बिन-कासिम मुल्तान के द्वारों के बाहर उपस्थित हुआ और उसे क्रूरता से विजय किया। एक विश्वासघाती ने कासिम को उस नदी के बारे में बताया जिससे लोग अपनी पानी की आवश्यकता पूरी करते थे। इस नदी का पानी रोक कर मुहम्मद-बिन-कासिम ने मुल्तान को विजय किया। मुल्तान की विजय से अरबों को इतना सोना मिला कि वे इसे स्वर्ण नगरी कहने लगे। मुल्तान विजय के बाद कासिम शेष भारत की विजय की योजनाएं बनाने लगा। उसने कन्नौज के लिए अबु-हकिम के नेतृत्व में 1000 अश्वारोही सेना भेजी। इसके पूर्ण होने से पहले ही कासिम का अंत हो गया।
मुहम्मद-बिन-कासिम की मृत्यु किस प्रकार हुई
मुहम्मद-बिन-कासिम की मृत्यु के विषय में काफी मतभेद हैं। कासिम की मृत्यु से संबंधित एक मत ये है कि कासिम ने दाहिर की दोनों बेटियों सूर्य देवी और परमलदेवी को खलीफा को भेंट किया। खलीफा ने सूर्यदेवी को चुना। लेकिन सूर्यदेवी ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए खलीफा से कहा कि मुहम्मद-बिन-कासिम ने उन्हें भेजने से पूर्व उनके सतीत्व को नष्ट कर दिया है। यह सुनकर खलीफा ने क्रोधावेश में अपने हस्ताक्षरों में आज्ञा लिखी कि मुहम्मद को कच्ची खाल में सिलवा कर खलीफा की राजधानी में भेज दिया जाये। मुहम्मद-बिन-कासिम के पास पहुँचते आज्ञा का पालन किया गया।
कासिम ने खुद बैल की खाल में खुदको सिलवा दिया। उसके शव को संदूक में रखकर दश्मिक भेजा गया। जब यह सन्दूक खलीफा के सामने खोला गया तब सूर्यदेवी ने खलीफा से कहा मुहम्मद निर्दोष था उसने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए झूठ बोला था। तब खलीफा ने आज्ञा दी कि इन राजकुमारियों को घोड़ों की पूंछ से बांधकर तब तक घसीटा जाये जब तक इनके प्राण न निकल जाएं।
एक अन्य विवरण के अनुसार, खलीफा के दरबार में दो विरोधी दल थे। एक दल हज़्ज़ाज़ का विरोधी था और मुहम्मद-बिन कासिम हज्जाज का चचेरा भाई और जमाई था। हज्जाज के विरोधियों ने खलीफा को कासिम के विरुद्ध उकसाया और उसकी कष्टपूर्ण मृत्यु के लिए आज्ञा दिलवा दी।
दाहिर का मुस्लिम संबंध
मुहम्मद-बिन-कासिम की असमय मृत्यु से सिंध विजय अपूर्ण रह गई। 715 ईस्वी में खलीफा का भी देहांत हो गया। उसके बेटे ( खलीफा के बेटे ) उम्र द्वित्य के समय में दाहिर का बेटा जयसिंह मुसलमान बन गया। तब भी वह अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर पाया। खलीफा हिशाम ( 725-43 ) के समय में सिंध के राजयपाल जुनैद ने जयसिंह के राज्य पर आक्रमण कर उसका अंत कर दिया।
750 ईस्वी में दशमिक में एक क्रांति हुई और अबासिदों ने उमैय्यदों का स्थाम ग्रहण कर लिया। ख़लीफ़ों का नियंत्रण प्रतिदिन कम होने लगा और सिंध के राजयपाल और सरदार अधिक स्वतंत्र होते गये। 781 ईस्वी के लगभग सिंध में खलीफा का अधिकार नाममात्र के लिए भी नहीं रहा। अरब सरदारों ने दो स्वतंत्र राज्य एक अरोर, मनसूराह अथवा सिंध में सिंधु नदी के तट पर और दूसरा मुल्तान में स्थापित किये।
भारत पर अरबों की विजय का प्रभाव
लगभग 150 वर्षों तक सिंध मुल्तान के प्रान्त खलीफा के साम्राज्य के अंतर्गत रहे। इस काल में अरबों ने इन प्रांतों पर शासन किया। डा० स्टैनले लेनपूल में “सिंध को अरबों ने विजय किया, किंतु यह विजय ऐतिहासिक और इस्लाम धर्म की घटना मात्र ही रही। यह एक प्रभावरहित विजय थी।”
वूल्जले हेग ने अपने विचार में यह कहा है : “अरबों की सिंध विजय कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता। यह केवल ऐतिहासिक घटना भी, जिसने विशाल देश के छोटे से भाग को प्रभावित किया। इस विजय ने सीमा के भू-भाग में उस धर्म का सूत्रपात किया जिसने लगभग पांच शताब्दियों तक भारत के मुख्य भाग पर छा जाना था।
टाड ( Tod ) ने अपनी पुस्तक Annals of Rajsthan में सिंध की विजय के दृढ़ प्रभावों को जो महत्व दिया है वह मिथ्या है। मुहम्मद-बिन-कासिम राजपुताना के केंद्र चित्तौड़ तक कदापि न पहुंचा। खलीजा वालिद प्रथम ने गंगा के उस ओर के भारत का सारा भाग कभी भी कर के रूप में न दिया।”
आक्रमणकारी कदापि कन्नौज के राजा हरचंद के साथ युद्ध करने के लिए तैयार न हुआ। युद्ध में लड़ने की तो कोई घटना ही नहीं है। यदि हारुन-उर-रशीद ने अपने दूसरे लड़के को अल-मासून, खुरासान, जबुलिस्तान, सिंध और हिदुस्तान के प्रदेश दिए तो इनमें से एक प्रदेश ऐसा था जिस पर उसका कोई अधिकार न था।
टॉड के लेखानुसार, अरबों के आक्रमण का वेग सारे उत्तरी भारत को न हिला सका। एक अभियान कच्छ में अधोई की ओर हुआ जो किसी निर्णय तक पहुँचने में असफल रहा। यह अभियान एक छापे का रूप ही रह गया। राजपूतों ने इसकी सम्भावना की सूचना से पूरे युद्ध की तैयारियां की थीं और अशांति का वातावरण फ़ैल गया था।
इस्लाम धर्म का ज्वार-भाटा सिंध और पंजाब के दक्षिणी भाग में फ़ैल कर शांत हो गया था। इसने कुछ प्रभाव पीछे छोड़े। मरुस्थल के दूसरी ओर के शासकों को कोई भय न था। कुछ समय बाद अरब, नहीं, वरन तुर्क उनके शत्रु बने। तुर्कों ने अरब के खलीफा का धर्म देशवासी अरबों से अधिक भयंकर रूप में प्रचारित किया।
अरबों ने सिंध में निवास करने पर यह महसूस किया कि भारतीय बहुत योग्य हैं। भारतीयों को प्रभावित करने के स्थान पर अरब निवासी स्वयं उनसे प्रभावित हो गए। अरब विद्वानों ने, ब्राह्मणों और बौद्ध-भिक्षुओं के चरणों में बैठकर दर्शन, ज्योतिष विद्या, गणित-विद्या, चिकित्सा, रसायन-शास्त्र आदि की शिक्षा ग्रहण की और इसका दान यूरोप को दिया।
हिंदसा ( संख्या अरबी नाम ) का मूलस्थान भारत है। आठवीं शताब्दी ईस्वी में मनसूर की खिलाफत के समय अरब विद्वान अपने साथ ब्रह्म-सिद्धांत और खण्ड-खंडवाक जिसका लेखक ब्रह्मगुप्त था जिसका अनुवाद भारतीय विद्वानों की सहायता से अरबी भाषा में किया गया था,भारत से बगदाद ले गए।
वैज्ञानिक ज्योतिष के प्रथम सिद्धांत भी अरबों ने भारतीयों से ग्रहण किये। हारून की खिलाफत के समय 786-808 ईस्वी तक बरमक मंत्री के परिवार ने हिन्दू ज्ञान को प्रोत्साहन किया। उन्होंने हिन्दू विद्वानों को बग़दाद में बुलाकर चिकित्सा, दर्शन और ज्योतिष विद्या की संस्कृत भाषा की पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद करवाया। अपने चिकित्सालयों का निरीक्षण भी उन्होंने भारतीय वैद्यों को सौंपा।
हेवल के मतानुसार, राजनैतिक दृष्टि से, अरबों की सिंध की विजय की घटना का तुलनात्मक महत्व नाममात्र ही है। परन्तु इस्लाम की संस्कृति पर इसके प्रभाव की महत्ता उल्लेखनीय है। प्रथम बार अरब के रेगिस्तान के रहने वाले भ्रमणप्रिय लोगों का सम्पर्क आर्यों की पवित्र भूमि की सभ्यता के साथ हुआ।
हिन्दू-आर्यों की सभ्यता राजनैतिक, आर्थिक तथा विद्व्त्ता के सब दृष्टिकोणों से अरबों से बहुत ऊँचे स्तर की थी। अरबों को भारत देश अद्भुत प्रतीत हुआ। शांति के साधनों में भारत महत्ता के शिखर पर था।
अरब के लोग भारतीय गायकों की प्रवीणता और हिन्दू चित्रकारों की चतुरता से चकित रह गए। मंदिरों के मण्डप के बुर्ज को उन्होंने मस्जिदों और मकबरों के बुर्ज बनाकर भारत की कला का अनुकरण किया। मुसलामानों के धार्मिक संस्कारों की सरलता भी भारतीय देन है।
प्रार्थना के गलीचों के नुकीले घुमाव और मेहराव हिन्दुओं और बौद्धों के धर्मस्थलों के चिन्ह थे। मस्जिदें विष्णु मंदिर की भांति थीं। मस्जिदों के प्रवेश द्वार मंदिरों के गोपुरम और भारतीय गांव के के द्वारों से मिलते-जुलते थे। मस्जिदों की मीनारें भारत के विजत-स्तम्भों की नक़ल थीं।
हेवल ने लिखा है कि सिंध में अरब के शेखों ने भारत के ब्राह्मणों से कूटनीति की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने अपनी प्राचीन पैतृक राजनीती को अपनाया और शताब्दियों के अनुभव से बने हुए, आर्यों के साम्राज्यवादी, जटिल किन्तु अत्युत्तम शासन को स्वीकार किया। आर्यों सभ्यता की फ़ारसी शाखा से राजभाषा और शिष्टता और साहित्यिक योग्ताएं सीखीं। वे सब वैज्ञानिक ज्ञान, जिनसे अरबों को यूरोप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई, भारत से ग्रहण किये गए।
इस्लाम धर्म ने भारत की आध्यात्मिक और भौतिक शक्ति को हानि पहुंचाई और उनका यूरोप में प्रचार करने का स्वयं साधन बना। भारतीय पंडितों ने ब्रह्मगुप्त के ग्रंथों को बग़दाद में ले जाकर उनका अनुवाद अरबी भाषा में किया। अरब-निवासी भारतीय विश्वविद्यालयों में ज्ञान प्राप्त करने गए। हेवल के अनुसार, यूनान नहीं अपितु भारत ने इस्लाम की बाल्यावस्था में दर्शन गूढ़ धार्मिक सिद्धांतों का निर्माण करने में सहयता दी और साहित्य, कला और वास्तु कला में विशेषताएं ग्रहण करने में प्रेरणा दी।
निष्कर्ष
इस प्रकार यह कहना उचित नहीं कि अरबों की सिंध विजय बिलकुल प्रभावरहित थी। हमें यह स्वीकार करना होगा कि उससे भारत में इस्लाम धर्म का बीजारोपण हुआ। सिंध में असंख्य लोग इस्लाम बनाए गए। इस नींव ने स्थायी रूप धारण किया। ऐसा कहा जाता है कि अरबों की सिंध की विजय की देन “उन प्राचीन भवनों के खण्डहरों में है जिन्होंने संसार के सम्मुख विध्वंसक के अत्याचारों की घोषणा की अथवा सिंध में मुसलमानों के के परिवारों की उन वस्तियों में है जो अरबों की सिंध विजय के स्मारक हैं।
अरबों की सिंध विजय ने मुसलमानों के लिए भारत की विजय के द्वार खोल दिए। सिंध विजय से प्रेरणा पाकर ही गजनबी और गोरी जैसे आक्रन्ताओं ने भारत को लूटा और मुस्लिम शासन की स्थापना की।
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