हड़प्पा सभ्यता से संबंधित प्रमुख पुरातत्ववेत्ता | Major archaeologist related to Harappan civilization

हड़प्पा सभ्यता से संबंधित प्रमुख पुरातत्ववेत्ता | Major archaeologist related to Harappan civilization

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Last updated on October 23rd, 2023 at 01:39 pm

हड़प्पा सभ्यता को दुनियां के नक्से पर लाने वाले पुरातत्ववेत्ता जिनके नाम ही हम सुनते हैं, जैसे जॉन मार्शल, दयाराम साहनी, राखालदास बनर्जी, मार्टिन व्हीलर, अमलानंद घोष, अर्नेस्ट मैके, अरेल स्टीन, जे. पी. जोशी आदि।  इस लेख के द्वारा हम तीन  प्रमुख पुरातत्ववेत्ताओं सर जॉन मार्शल, दयाराम साहनी और राखालदास बनर्जी के विषय में विस्तार से जानेंगे। 

हड़प्पा सभ्यता से संबंधित प्रमुख पुरातत्ववेत्ता | Major archaeologist related to Harappan civilization

हड़प्पा सभ्यता

पुरातत्वविद किसे कहते हैं

पुरातत्वविद कलाकृतियों, संरचनाओं और अन्य भौतिक साक्ष्यों सहित भौतिक अवशेषों की खुदाई, विश्लेषण और व्याख्या के माध्यम से मानव इतिहास और प्रागितिहास का अध्ययन करते हैं। वे अक्सर इन भौतिक अवशेषों को “पुरातात्विक खोज” या “कलाकृतियों” के रूप में संदर्भित करते हैं, जिसमें उपकरण, मिट्टी के बर्तन, गहने और अन्य वस्तुएं शामिल हो सकती हैं जो पिछले समाजों के जीवन और संस्कृतियों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त, पुरातत्वविद् उन साइटों को भी संदर्भित कर सकते हैं जहां ये कलाकृतियां “पुरातात्विक स्थलों” के रूप में पाई जाती हैं, जो छोटे, व्यक्तिगत खोजों से लेकर पूरे शहरों या सभ्यताओं तक हो सकती हैं।

सर जॉन मार्शल-Sir John Marshall-

 सर जॉन मार्शल जिनका पूरा नाम ( Sir John Hubert Marshall ) है।  इनका जन्म 19 मार्च 1876 को चेस्टर इंग्लैंड में हुआ था। जॉन मार्शल की मृत्यु 17 अगस्त 1958 को गिल्डफोर्ड इंग्लैंड में हुई। मार्शल ने अपनी शिक्षा डुलविच कॉलेज और किंग्स कॉलेज कैंब्रिज से पूरी की। उन्होंने पोर्सन पुरस्कार भी जीता।

सर जॉन मार्शल-Sir John Marshall-

1902 में भारत के नए वायसराय लार्ड कर्जन ने मार्शल को ब्रिटिश भारतीय प्रशासन के भीतर पुरातत्व के महानिदेशक के रूप में नियुक्त किया। मार्शल ने भारतीय महाद्वीप में पुरातत्व के दृष्टिकोण को आधुनिक बनाया और प्राचीन स्मारकों,  के कैटलॉगिंग और संरक्षण का एक विस्तृत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। 

मार्शल ने भारतीयों को अपने देश में भाग लेने की अनुमति देने की परम्परा शुरू की।1913 में उन्होंने तक्षशिला में खुदाई शुरू की, जो बीस वर्षों तक चली।1918 में उन्होंने तक्षशिला संग्रहालय की आधारशिला रखी, जो आज कई कलाकृतियों और मार्शल के कुछ चित्रों में से एक की मेजबानी करता है। इसके बाद उन्होंने साँची और सारनाथ के बौद्ध केंद्रों सहित अन्य स्थलों पर भी कार्य किया। 

उनके काम ने भारतीय सभ्यता विशेषकर सिंधु घाटी सभ्यता और मौर्य काल ( मौर्य काल ) की कालावधि का प्रमाण दिया। 1920 में अपने पूर्ववर्ती अलेक्सेंडर कनिंघम, मार्शल के नेतृत्व के बाद, निर्देशक के रूप में दयाराम साहनी के साथ हड़प्पा में उत्खनन शुरू किया। 1922 में मोहनजोदड़ो में उत्खनन शुरू किया गया। इन प्रयासों के परिणाम, जो अपनी लेखन प्रणाली के साथ एक प्रतीत होती प्राचीन संस्कृति को उजगार करते थे, 20 सितम्बर 1924 को इलस्ट्रेटड लंदन समाचर में प्रकाशित हुए थे।

विद्वानों ने मेसोपोटामिया में सुमेर की प्राचीन सभ्यता के साथ कलाकृतियों को जोड़कर देखा था। बाद में खुदाई में मोहनजोदड़ो को विस्तृत जलनिकास प्रणाली और स्नानगृह के साथ परिष्कृत शहर के रूप में प्रस्तुत किया। 

मार्शल ने बलूचिस्तान नाल के पास प्रागैतिहासिक स्थल सोहल दाँव टीले की खुदाई का भी नेतृत्व किया और इस स्थल से मिटटी के बर्तनों का एक छोटा संग्रह प्राप्त किया जो अब ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है। उन्होंने 1898 और 1901 के बीच क्रेस्ट पर नोसोस और विभिन्न अन्य स्थलों पर खुदाई में उनके योगदान के लिए भी उन्हें जाना जाता है। उन्हें 1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा एक मानद उपाधि डॉक्टर ऑफ़ फिलॉसफी से सम्मानित किया गया।

 भारतीय पुरातत्व में जॉन मार्शल का योगदान- हड़प्पा का पहली बार उत्खनन 1921 ईस्वी में किया गया था।1902 से 1928 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक रहे। प्रथम उत्खनन का कार्य तत्कालीन पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष और निर्देशक जॉन मार्शल के नेतृत्व में दयाराम साहनी के द्वारा किया गया। 

 हड़प्पा और मोहनजोदड़ो पर जॉन मार्शल की पुस्तक 1931 में दो खण्डों में प्रकाशित हुयी थी, तब जवाहर लाल नेहरू देहरादून जेल में थे।  उन दिनों वह अपनी बेटी इंदिरा के नाम दुनियां के इतिहास पर केंद्रित चिट्ठियां एक क्रम से लिख रहे थे, जिसका संकलित रूप ‘ग्लिम्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ के रूप में बाद में प्रकशित हुआ।

14 जून 1932 को जवाहर लाल नेहरू ने एक पत्र लिखा जिसका शीर्षक था ‘अ जम्प बैक टू मोहनजोदड़ो’ । उन्होंने तब तक जॉन मार्शल की किताब नहीं पढ़ी थी, उसकी समीक्षा ही पढ़ी थी। लेकिन इतना ही पढ़ के वह इतने अभिभूत हुए कि यकायक पीछे मुड़कर देखने के लिए मजबूर हो गए। उत्साह से भरे नेहरू ने हड़प्पा जाने की योजना बना ली। 

जॉन मार्शल 1928 में भारतीय पुतवत्व महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। परन्तु वह अपने किये हुए कार्यों को प्रदर्शित करना चाहते थे इसलिए भारत सरकार ने उन्हें पुनः सेवा का मौका दिया।  मार्शल ने मोहनजोदड़ों के लेख तीन भागों में प्रस्तुत किये। जिसका शीर्षक था ‘मोहनजोदड़ो एंड दी इंडस वैली सिविलाइज़ेशन 1931’ 

1934 में मार्शल ने भारत छोड़ दिया, इसके साथ ही भारतीय पुरातत्व का एक महत्वपूर्ण युग समाप्त हो गया। यद्पि मार्शल ने प्रायः उन स्थानों पर कार्य किया जो कनिघम द्वारा खोजे गए थे, जहाँ प्रागैतिहासिक कार्य बहुत अच्छे से किये गए। मार्शल के कार्यों ने घडी की सूई 2500 वर्ष पीछे करदी और भारतीय सभ्यता बहुत पीछे चली गयी। 

दयाराम साहनी – Dayaram Sahni –

राय बहादुर दयाराम साहनी का जन्म 16 दिसम्बर 1879 को भीरा पंजाब ( अब पाकिस्तान ) में हुआ था। साहनी ने पंजाब विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातक की पढाई की थी। 1903 में ओरिएण्टल कॉलेज से  एम. ए. की डिग्री प्राप्त की। साहनी ने स्कोलरशिप भी जीती, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण दवरा आयोजित की गयी थी जिससे उन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण की। 

दयाराम साहनी - Dayaram Sahni - 

     1903 में पुरातत्ववेत्ता के रूप में साहनी को पंजाब और यूनाइटेड प्रोविंस सर्कल  किया गया, जहां उन्होंने जे. पी. वोगल के नेतृत्व में काम किया। साहनी जॉन मार्शल के साथ 1905 में कसिया की खुदाई और 1906 में राजगीर की खुदाई, 1907 में चम्पारण जिले के रमपुरवा स्तूप की खुदाई में मार्शल के साथ योगदान किया। साहनी ने सारनाथ में पुरातात्विक खंडरों की एक सूची  भी तैयार की। 

    दयाराम साहनी ने 1911-1912 तक लखनऊ संग्रहालय के क्यूरेटर के रूप में कार्य किया जहाँ से उन्हें कश्मीर राज्य के पुरातत्व विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया। 1917 में साहनी लाहौर लौट आये और उन्हें पंजाब और संयुक्त प्रान्त का प्रभारी बनाया गया। सहायक अधीक्षक के रूप में काम करते हुए साहनी ने हड़प्पा में सिंधु स्थल की खुदाई की 

    1925 में साहनी को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उप महानिदेशक के रूप में दिल्ली स्थानान्तरित कर दिया गया। जुलाई 1931 में साहनी ने ASI के महानिदेशक के रूप में हरगेव्स हो सफलता दिलाई। साहनी ASI के पद पर नियुक्त होने वाले प्रथम भारतीय थे। 

     मार्च 1920 में साहनी को रावलपिंडी के एक दरवार में पंजाब के राज्यपाल द्वारा “रायबहादुर पदक” से सम्मानित किया गया। साहनी 1935 में सेवानिवृत्त हुए। 7 मार्च 1939 में 59 वर्ष की आयु में जयपुर राजस्थान में दयाराम साहनी की मृत्यु हो गयी। 

राखलदास बनर्जी-Rakhaldas Banerjee-

राखल दास बंधोपाध्याय ( आर. डी. बनर्जी ) का जन्म 12 अप्रैल 1885 को मुर्शिदाबाद जिले के बेरहामपोर में ( वर्तमान पश्चिम बंगाल के मत्तीलाल और कालीमाटी ) हुआ था।  1900 ईस्वी में उन्होंने बेरहामपुर के कृष्णनाथ कॉलेज स्कूल की प्रवेश परीक्षा पास की। उनकी शादी नरेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय की बेटी कंचनमाला से हुयी। 1907  में उन्होंने स्नातक ओनर्स इतिहास की परीक्षा कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से पास की। 1911 में उन्होंने एम. ए. इतिहास कलकत्ता विश्वविद्यालय से पास किया। 

राखलदास बनर्जी-Rakhaldas Banerjee-

     1910 ईस्वी में बंधोपाध्याय ने कलकत्ता में भारतीय संग्रहालय में सहायक पुरातत्ववेत्ता के रूप में कार्यभार ग्रहण किया।  1911 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में सहायक अधीक्षक के पद पर नियुक्त हुए। 1917 में वह अधीक्षण पुरातत्ववेत्ता पश्चिमी क्षेत्र के पद पर प्रोन्नत हुए।

1924 में उन्हें पूर्वी सर्कल में स्थानांतरित कर दिया गया जहाँ उन्होंने पहाड़पुर की खुदाई में योगदान दिया। 1926 में उन्होंने स्वयं सेवानिवृत्ति ले ली। कलकत्ता विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य करने के बाद 1928 में उन्होंने वनारस विश्वविद्यालय में कार्यभार ग्रहण किया। वह वहां अपनी अकाल मृत्यु 23 मई 1930 तक बने रहे। 

 बंदोपाध्याय का पहला स्वतंत्र व्यावसायिक कार्य palaeography और epigraphy के क्षेत्र में था। 1919 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय का जयंती अनुसन्धान पुरस्कार भी जीता, जो उन्हें उनकी पुस्तक ‘बंगाली लिपि की उत्पत्ति’ के लिए दिया गया। वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने प्रोटो-बांग्ला लिपि का अध्यन किया, जो बांग्ला लिपि का मूल था। उन्होंने मध्यकालीन भारतीय सिक्कों पर क्लासिक ऐतिहासिक रचनाएं लिखीं।

इसके अतिरिक्त उन्होंने मानक कलाकृतियों, विशेष रूप से गुप्त मूर्ति कला और वास्तुकला में भारतीय कला के मानक पर कार्य किया। उनका सबसे प्रसिद्ध काम था ईस्टर्न इंडियन मध्यकालीन स्कूल ऑफ़ स्कल्प्चर, जो 1933 में उनकी मृत्युपरांत प्रकशित हुआ। 

     राखल दास बनर्जी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य 1922 में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के सिलसिले में मोहनजोदड़ो की प्राचीन सभ्यता की खोज है। इस सभ्यता की उनकी व्याख्या कई लेखों और पुस्तकों में प्रकाशित हुई, “एक भारतीय शहर पांच हज़ार साल पहले”, “मोहनजोदड़ो”, प्रेहिस्टोरिक , एन्सिएंट एंड हिन्दू भारत ,  मोहनजोदड़ो -ए फॉरगॉटन। 

     बंदोपाध्याय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए दो पुस्तकें लिखीं जिनका नाम था- भारत का इतिहास (1924 ) और जूनियर हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (1928) .   ऐज ऑफ़ दी इम्पीरियल गुप्तास (1933) 1924 में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यानों का एक संग्रह है। बंगाली में उनका मानक दो – खंड बंगाल इतिहास ( बंगाल का इतिहास) (1914 और 1917 ) वैज्ञानिक लेखन के प्रथम प्रयासों में से एक था। उन्होंने उड़ीसा के इतिहास पर भी दो खंड लिखे हिस्ट्री ऑफ़ उड़ीसा अर्ली टाइम्स टू ब्रिटिश ऐज (1930 और 1931 )

      उनकी  अन्य गैर काल्पनिक रचनाएं – प्राचीन मुद्रा ( 1915 ), बंगाल का पलास ( 1915 ), दी टेम्पल ऑफ़ शिवा इन भूमरा ( 1924 ), द पैलियोग्राफी ऑफ़ हाथीगुम्फा एंड ननगांव अभिलेख ( 1924 ), बादामी के बास रिलीफ ( 1928 ) और द हाइहास ऑफ़ त्रिपुरी एंड देयर मोनुमेंट्स ( 1931 ) 


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