प्राचीन वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था
- 1-ब्रह्मचर्य
- 2-गृहस्थ
- 3-वानप्रस्थ
- 4-संन्यास
आश्रम व्यवस्था के मनो-नैतिक आधार पुरुषार्थ हैं, जो आश्रम के माध्यम से व्यक्ति को समाज से जोड़कर उसकी व्यवस्था एवं संचालन में सहायता करते हैं। एक ओर जहां मनुष्य आश्रमों के माध्यम से जीवन में पुरुषार्थ के उपयोग करने का मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो दूसरी और व्यवहार में वह समाज के प्रति इनके अनुसार जीवन-यापन करता हुआ अपने कर्तव्यों को पूरा करता है।
प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। महाभारत में वेदव्यास ने चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक पहुंचने के मार्ग में चार सोपान निरूपित किया है। भारतीय विचारकों ने चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है।
धर्म शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित चतुराश्रम व्यवस्था के नियमों का पालन प्राचीन इतिहास के सभी कालों में समान रूप से किया गया हो ऐसी संभावना कम ही है। पूर्व मध्यकाल तक आते-आते हम इसमें कुछ परिवर्तन पाते हैं। इस काल के कुछ पुराण तथा विधि ग्रंथ यह विधान करते हैं कि कलयुग में दीघ्रकाल तक ब्रह्मचर्य पालन तथा वानप्रस्थ में प्रवेश से बचना चाहिए।
बाल विवाह के प्रचलन के कारण भी ब्रह्मचर्य का पालन कठिन हुआ होगा। शंकर तथा रामानुज दोनों ने इस बात का उल्लेख किया है कि साधनों के अभाव तथा निर्धनता के कारण अधिकांश व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं कर पाते थे।
चार आश्रम तथा उनके कर्तव्य हिंदू धर्म शास्त्र मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानते हैं तथा प्रत्येक आश्रम के निमित्त 25-25 वर्ष की अवधि निर्धारित करते हैं। चरों आश्रमों और उस आश्रम के लिए निर्धारित समय में किन-किन बातों या नियमों का पालन किया जाता था उसके बारे में वर्णन इस प्रकार से है—