ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन 1942 के दौरान कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की सफलता से भी भारतीय जनमानस में निराशा का माहौल था। परन्तु शिमला कॉन्फ्रेंस के आरम्भ के समय नेताओं की रिहाई और नेहरू तथा पटेल द्वारा उनकी गिरफ्तारी के परिणामस्वरूप आरम्भ किये गए जन-आंदोलन के पक्ष में दिए गए बयानों ने उनमें फिर से आशा का संचार किया।
अपने बयानों में इन नेताओं ने जनता की कुर्बानियों की प्रशंसा करते हुए लोगों द्वारा की गई हिंसा को भी उचित ठहराया था, जिससे लोग प्रसन्न थे। अब कांग्रेस फिर से लोकप्रिय होने लगी थी।
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कैबिनेट मिशन
कैबिनेट मिशन मार्च 1946 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण की योजना का प्रस्ताव करने के लिए भेजा गया एक प्रतिनिधिमंडल था। मिशन का नेतृत्व तीन ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों ने किया: लॉर्ड पैथिक-लॉरेंस, भारत के राज्य सचिव, सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स, व्यापार मंडल के अध्यक्ष, और ए.वी. अलेक्जेंडर, First Lord of the Admiralty।
मिशन ने भारत में एक संघीय सरकार के गठन की योजना प्रस्तावित की, जिसमें मुस्लिम बहुल प्रांतों को अलग राज्य बनाने या प्रस्तावित संघ में शामिल होने का विकल्प दिया गया। इस योजना को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया, लेकिन मुस्लिम लीग ने खारिज कर दिया, जिसने पाकिस्तान के एक अलग मुस्लिम राज्य की मांग की।
मिशन की विफलता के कारण भारत में व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई और अंततः अगस्त 1947 में देश का विभाजन हुआ, भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग स्वतंत्र देश बन गए। कैबिनेट मिशन को अक्सर विभाजन से पहले भारत को एकजुट रखने के अंग्रेजों के अंतिम प्रयास के रूप में देखा जाता है।
इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन और भारत के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवर्तन
तत्कालीन परिस्थिति ने भी भारत के पक्ष में सकारात्मक माहौल पैदा किया। इसी बीच इंग्लैंड में भी कुछ परिवर्तन हुए जिनका प्रभाव भारतीय राजनीति पर भी पड़ा।
“20 अक्टूबर, 1943 को वाइसराय लिनलिथगो के सेवा-निवृत्त होने पर उनके स्थान पर लार्ड वेवेल भारत के नए वाइसराय नियुक्त हुए। उन्होंने सभी दलों की एक कॉन्फ्रेंस बुलाई जो विफल रही।”
युद्ध काल की संयुक्त सरकार में दरारें पड़ जाने के कारण और युद्ध में विजय से प्राप्त लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए प्रधानमंत्री चर्चिल ने 1945 के मध्य आम चुनाव कराये जिसमें उन्हें अप्रत्याशित रूप से हार का सामना करना पड़ा।
इस प्रकार इंग्लैंड में लेबर पार्टी सरकार सत्ता में आ गई। नए प्रधानमंत्री एटली ने जुलाई 1945 में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और भारत मंत्री ( भारत सचिव ) एमरी का स्थान पैथिक लॉरेंस ने ले लिया। अब सरकार के सामने दो विकल्प थे —
पहला – भारत को शक्ति के बल पर अपने अधीन रखा जाये तथा
दूसरा – भारत को स्वतंत्र कर दिया जाये।
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आज़ाद हिन्द फ़ौज ( INA ) और नौ-सैनिकों ( R.I.N. ) का विरोध
यद्यपि चर्चिल पहले विकल्प के पक्ष में थे, एटली का अत्यंत स्पष्ट मत था कि ब्रिटेन को भारत की आज़ादी की माँग को स्वीकार कर लेना चाहिए।
“ज्ञात हो कि एटली अथवा ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय का कारण युद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फ़ौज ( INA ) और नौ-सैनिकों ( R.I.N. ) का विरोध था।”
अब अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब भारतीय सैनिकों की सहायता और वफादारी पर निर्भर रहकर इस देश को अपने अधीन रखना अब संभव नहीं है। इन आंदोलनों ने भारतीय समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की निगाह में स्थान दे दिया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज के अफसरों पर मुकदमें और रॉयल इंडियन नेवी द्वारा विद्रोह के समय भारतीयों को ब्रिटिश-विरोधी भावना में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी।
इसके अतिरिक्त, जैसा कि हम परिचित हैं दूसरे महायुद्ध के दौरान ब्रिटेन आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से अत्यधिक कमजोर हो गया था। वह अब दूसरे अथवा तीसरे दर्जे की ही शक्ति रह गया था। इन सब घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने भारत में कैबिनेट मिशन भेजने के विषय में सोचा। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की एक सभा 21 से 23 सितम्बर, 1945 को बम्बई में हुई जिसमें यह प्रस्ताव पास किया कि आने वाले चुनाव में भाग लिया जाये।