ब्रिटिश उपनिवेशवाद या ब्रिटिश साम्राज्यवाद, ब्रिटिश इम्पीर के रूप में भी जाना जाता है, एक ऐसी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है जो ब्रिटिश साम्राज्य के स्थापित होने के बाद 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी के अंत तक स्थापित रही। इस व्यवस्था में ब्रिटिश सरकार ने अन्य देशों को अपने अधीन करने के लिए सत्ता, संसाधन और संस्कृति का उपयोग किया।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं को स्थापित किया और इसका उपयोग अपने लाभ के लिए किया। उदाहरण के लिए, वे अधिकांश उपनिवेशों में अपनी वस्तुओं को बेचने वाले व्यापारिक नीतियों को लागू करते रहे। वे भी अपने साम्राज्य के लोगों को विभिन्न स्तरों पर बंटाकर संभालते रहे।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का स्वरूप
उपनिवेशवाद का मूल तत्व आर्थिक शोषण में निहित है। परन्तु इसका अभिप्रायः यह बिल्कुल नहीं है कि एक उपनिवेश पर राजनीतिक कब्जा बनाए रखना महत्वपूर्ण नहीं है। उपनिवेशवाद की प्रकृति मुख्यतः इसके आर्थिक शोषण के विभिन्न तरीकों से जानी जाती है। आर्थिक शोषण कुछ खास तरीकों से सम्पन्न हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि उपनिवेश राष्ट्रीय उत्पादन की एक विशेष मात्रा का उत्पादन करता है जिसका एक भाग उस उपनिवेश के रख-रखाव और निर्वाह के लिए आवश्यक होता है। इसके अलावा जो बचता है वह उस उपनिवेश का आर्थिक अधिशेष होता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उपनिवेशवाद एक ऐसी प्रक्रिया थी जो यूरोप के उप महानगरों द्वारा आरम्भ की गई जहाँ व्यापारिक या औद्योगिक क्रांति पहले हुई। अंग्रेज पहले विजेता थे जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी और इसलिए हिन्दुस्तानी सभ्यता उन्हें अपने अन्दर न समेट सकी। उन्होंने स्थानीय समुदायों को तोड़कर भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया, स्थानीय उद्योग को जड़ से उखाड़ फेंका तथा स्थानीय समाज में जो कुछ उन्नत और श्रेष्ठ था उसे मटियामेट कर दिया। भारत में ब्रिटिश शासन के ऐतिहासिक पृष्ठ विनाश की कहानी के सिवाय और कुछ नहीं कहते।
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद लगभग दो सौ वर्षों तक रहा। औपनिवेशिक हितों तथा विदेशी पूँजीवाद के प्रकार के लिए यह आवश्यक हो गया था कि भारत प्रशासनिक तथा आर्थिक दृष्टि से एक ही इकाई हो ताकि अधिक से अधिक शोषण किया जा सके। अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने भारतीय साम्राज्य के विस्तार के क्रम में 1815 में गोरखाओं के साथ सिगौली की सन्धि के उपरान्त उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की नींव डाली गई। और यह भारत की स्वाधीनता तक अनवरत चलती रही। औपनिवेशिक प्रशासकों ने गढ़वाल का आधा हिस्सा टिहरी रियासत के नाम से पंवार राजवंश को सौंपा। किन्तु परदे के पीछे शासन ब्रिटिश क्राउन का ही था।
साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत-Part 1
उत्तराखंड में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रवेश
उत्तराखण्ड हिमालय में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नई व्यवस्था के प्रणयन के उपरान्त इस क्षेत्र के निवासियों की जीवन पद्धति और परम्परागत आर्थिक व्यवस्था व संसाधनों के शोषण के स्वरूप में ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। प्रायः यह कहा जाता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय सामाजिक जीवन को सबसे कम प्रभावित किया।
ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा आर्थिक, व्यावसायिक और औ़द्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा साम्राज्यवादी हितों के संरक्षण के लिए औपनिवेशिक चिन्तन पर आधारित नीतियां बनाई गई। इस क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक सम्पदा का अधिकाधिक दोहन किया जाने लगा और ग्रामीण जनता के प्राकृतिक अधिकारों को प्रतिबंधित किया जाने लगा।
परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शासन तथा ग्रामीणों के प्राकृतिक परम्परागत अधिकारों को लेकर तत्कालीन समय में विस्तृत बहस छिड़ गयी थी परन्तु विजेता होने के कारण औपनिवेशिक हितों की ही विजय हुई। अब ग्रामीण औपनिवेशिक शासकों की कृपा कर आश्रित हो गये। बदलाव व हस्तक्षेप की इस प्रक्रिया ने उत्तराखण्ड के ग्रामीण कृषकों और वनों में निवास करने वाली आदिवासी जनजातियांे की जीवन-पद्धति व उत्पादन से जुड़े प्रत्येक कारक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
इसी काल में तराई-भाबर में थी थारू, बुक्सा जनजातियों की परम्परागत बस्तियां, समाप्त होने लगी। पश्चिमी हिमालय में वनो के दोहन से बढ़ते दबावों के कारण तराई क्षेत्रों की ओर गुज्जर जनजातियों का आव्रजन बड़ी संख्या में तेजी से होना प्रारम्भ हुआ समय पर उत्तराखण्ड के किसानों ने अपने परम्परागत वन्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए असन्तोष और सामूहिक प्रतिक्रिया विरोध के रूप में व्यक्त की। ग्रामीणों का असन्तोष मूलतः भू-प्रबन्ध, वन प्रबन्ध और औपनिवेशिक नीतियों का परिणाम था।