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Svetambara and Digambara-जैन चतुर्विध-संघ

अनुशासित समूह को ‘संघ’ कहते है। संघ के कुछ नियमोपनियम तथा मर्यादाएँ निर्धारित होती हैं जिनका परिपालन संघ के प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य होता है। निर्धारित नियमोपनियमों और मर्यादाओं की निष्ठा और समर्पण के परिपालन से संघ सुदृढ़ बनता है और सामूहिक रूप से लक्षित लक्ष्य की साधना सहज हो जाती है। महावीर इस नियम के ज्ञाता थे। संघीय व्यवस्था का दायित्व उन्होंने ग्यारह सर्वविध योग्य श्रमणों को प्रदान किया। यही ग्यारह श्रमण ग्यारह गणधरों के रूप में प्रख्यात हुए।

भगवान महावीर ने अपनी अद्भुत संगठन शक्ति के द्वारा गणतंत्र पद्धति, जो तत्कालीन कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, के आधार पर मुनि और गृहस्थ धर्म की अलग-अलग व्यवस्थाएँ बाँधी और मुनि (साधु), आर्यिका (श्रमणी), श्रावक (गृहस्थ अनुयायी) व श्राविका (गृहणियाँ) के आधार पर चतुर्विध-तीर्थ को सुसंगठित किया। इनमें से प्रथम दो- मुनि (श्रमण) और आर्यिका (श्रमणी)- श्रमण परिव्राजकों के थे और अंतिम दो- श्रावक  व श्राविका- गृहस्थ परिव्राजकों के।  इनमें मुनि (पुरुष) तथा आर्यिका (स्त्री) गृहस्थावस्था छोड्‌कर दीक्षित होते हैं तथा श्रावक एवं श्राविका गृहस्थ अणुव्रतादि का पालन करने वाले पुरुष व स्त्री हैं ।

‘भिक्षु’ या ‘साधु’ को श्रमण कहते हैं, जो सर्वविरत कहलाता है। ‘श्रमण’ शब्द के संस्कृत एवं प्राकृत में निकटतम तीन रूप हैं – श्रमण, समन, शमन । श्रमण परंपरा का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है। ‘श्रमण’ शब्द ‘श्रम’ धातु से बना है, इसका अर्थ है ‘परिश्रम करना।’  श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद में ‘श्रमणोऽश्रमणस’ के रूप में हुआ है, अर्थात् यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के समवशरण में जहाँ एक तरफ कुल मुनियों की संख्या 84,084 (चौरासी हजार चौरासी) थी, जबकि अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के समवशरण में 14,000 (चौदह हजार) मुनि थे। श्रमण को पाँच महाव्रतों – सर्वप्राणपात, सर्वमृषावाद, सर्वअदत्तादान, सर्वमैथुन और सर्वपरिग्रह विरमण को तन, मन तथा कार्य से पालन करना पड़ता है।

चतुर्विध संघ में ‘आर्यिका’ का द्वितीय स्थान है। दिगम्बर जैन परंपरा में जीव की स्त्री पर्याय से मुक्ति यद्यपि स्वीकार नहीं की गई है; किन्तु स्त्री अवस्था में भी संभव उकृष्ट धर्म साधना की उन्हें पूर्ण अनुमति तथा सुविधा प्रदान की गई है। दिगम्बर परंपरा में दीक्षित स्त्री को ‘आर्यिका’ कहा जाता है, जबकि श्वेताम्बर परंपरा में दीक्षित स्त्री को ‘साध्वी’ कहा जाता है ।

प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के समवशरण में आर्यिकाओं की संख्या 3,50,000 (तीन लाख पचास हजार) थी। तीर्थंकर भगवान महावीर के समवशरण में आर्यिकाओं की संख्या 36,000 थी।  महावीर के उपदेशों से प्रभावित होकर भी अनेक नारियों (श्रमणी) ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। अंग महाजनपद की राजकुमारी और महावीर की प्रमुख शिष्या चंदना इनकी प्रमुख थी।

जैन धर्म में ‘श्रावक’ शब्द का प्रयोग गृहस्थ के लिए किया गया हैं। ‘श्रावक’ अहिंसा आदि व्रतों को संपूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ होता हैं, किंतु त्यागवृत्तियुक्त, गृहस्थ मर्यादा में ही रहकर अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार इन व्रतों को अल्पांश में स्वीकार करता है।

‘श्रावक’ शब्द का मूल ‘श्रवण’ शब्द में हैं, अर्थात, वह जो (संतों के प्रवचन) सुनता हैं।  उपासक, अणुव्रती, देशविरत, सागार आदि श्रावक के पर्यायी शब्द हैं। ऋषभदेव के समवशरण में श्रावकों की संख्या 3,00,000(तीन लाख) थी, जबकि भगवान महावीर के समवशरण में 1,00,000 श्रावक थे। महावीर के गृहस्थ अनुयायियों (श्रावकों) का प्रधान शंख शतक था। यद्यपि धार्मिक कर्त्तव्य श्रमण और श्रावक के समान थे, परंतु निर्धारित अंतर प्रकार में नहीं होते हुए पालन करने की मात्रा में विहित था।

चतुर्विध संघ का चौथा समुदाय ‘श्राविकाओं’ का था। महावीर के समवशरण में इनकी संख्या लगभग 2,58,000 थी। महावीर के चतुर्विध संघ में श्राविकाओं की मुखिया सुलसा और रेवती थीं। श्रावकों के समान इन्हें भी धार्मिक कर्त्तव्य एवं पंच-महाव्रतों का निर्धारित मात्रा के अनुसार पालन करना अनिवार्य था। कुल मिलाकर महावीर के सकलधर्म संघ में संख्या की दृष्टि से 14000 श्रमण, 36000 श्रमणी, 159000 श्रावक और 318000 श्राविकाएँ थीं। यद्यपि चतुर्विध निर्ग्रंथ-संघ की सदस्य संख्या के विवरण अतिरंजित लगते हैं, किंतु इस तथ्य के सबल प्रमाण हैं कि हजारों पुरुष और स्त्रियाँ श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका के रूप में महावीर-प्ररूपित धर्म के अनुगामी थे।

चतुर्विध-संघ की व्यवस्था

भगवान महावीर चतुर्विध-संघ के प्रधान थे। उनके निर्वाण के पश्चात् आर्य सुधर्मा स्वामी के कंधों पर सकल चतुर्विध-संघ का दायित्व आ गया। उनके निर्वाण के बाद उनके प्रधान शिष्य जंबूस्वामी युग प्रधान आचार्य बने। महावीर से जंबू तक पहुँचते-पहुँचते धर्म-संघ अत्यंत विस्तार पा चुका था, परंतु उस समय तक विभिन्न क्षेत्रों और अंचलों में विहार करने वाले श्रमण नये दीक्षार्थियों को संघशास्ता के शिष्य के रूप में ही दीक्षित करते थे। अतः पूरा श्रमण-वृंद एक ही गुरु का शिष्य समुदाय रूप था। इससे संघ में एकरूपता और अनुशासन की अप्रतिम सुव्यवस्था बनी रही।

इस व्यवस्था में आचार्य भद्रबाहु तक पहुँचते-पहुँचते महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आ गया। श्रमण संघ अत्यंत समृद्ध और सुविशाल होने के साथ-साथ सुदूर जनपदों में फैल गया था। श्रमण का आचार अत्यंत क्लिष्ट होने से सुदूरवर्ती श्रमण नियमित रूप से संघशास्ता मुनि से मिल नहीं पाते थे, इसलिए नवीन दीक्षार्थियों को वे श्रमण स्वयं की निश्राय में ही दीक्षा देने लगे। ऐसा करना मर्यादा विरुद्ध तो नहीं था, किंतु इससे अनेक छोटे-छोटे कुल अस्तित्व में आ गये। आचार्य भद्रबाहु तक श्रमण परंपरा रूप सरिता अविछिन्न रूप से बही, परंतु कालांतर में वह अनेक धाराओं में विभक्त होकर बनकर बहने लगी।

श्रमणों के सात विभाग

गुण अथवा वैशिष्ट्य की दृष्टि से भगवान महावीर के श्रमण सात विभागों में विभक्त थे। जैसे- 1. केवल ज्ञानी, 2. मनःपर्यायज्ञानी, 3. अवधिज्ञानी, 4. वैक्रियलब्धिधारी, 5. चतुर्दश पूर्वी, 6. वादी और 7. सामान्य श्रमण।

महावीर के ही समान पूर्णता प्राप्त केवल-ज्ञानी श्रमणों की संख्या 700 थी। समस्त मन वाले प्राणियों के मनोभावों को जानने की क्षमता रखने वाले मनःपर्याज्ञानी श्रमणों की संख्या 500 थी। अवधिज्ञानी श्रमणों की संख्या 1300 थी। ये श्रमण मन और इंद्रियों की सहायता के बिना ही सभी रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते थे। विभिन्न लब्धियों के धारक लब्धिधारी श्रमणों की संख्या 700 थी। समस्त अक्षर-ज्ञान के पारगामी विद्वान श्रमणों की संख्या 300 थी। ये पूर्वधर कहलाते थे और श्रमणों को ज्ञानाभ्यास करवाते थे। जैन दर्शन के गंभीर ज्ञाता और वादकुशल श्रमणों की संख्या 400 थी। ये वादी कहलाते थे। सामान्य श्रमणों की संख्या 14000 व श्रमणियों की संख्या 36000 थी।

कुल और गण

एक आचार्य की शिष्य परंपरा ‘कुल’ कहलाती थी। एक कुल में श्रमणों की संख्या न्यूनतम् नौ होना आवश्यक माना गया था। तीन कुलों के समूह को ‘गण’ कहा जाता था। ‘गण’ मुख्य इकाई था और कुल रूप इकाइयाँ उसकी पूरक थीं। विभिन्न कुलों, शाखाओं और गच्छों के रूप में श्रमण संघ निरंतर विस्तार पाता गया। इस विस्तार में भी समन्वय के सूत्र विलुप्त नहीं हुए। श्रमण अपनी सामर्थ्य के अनुसार साधना में लीन रहते थे। उनके मूल व्रतों और मर्यादाओं में अभिन्नता थी।

नौ गणधर

महावीर ने अनुशासन को दृष्टिगत रखते हुए चौदह हजार श्रमणों को नौ भागों (गण) में विभाजित कर दिया, जो ‘गण’ कहलाये। प्रथम से सप्तम गण अपने-अपने गणधर  थे। अष्टम् और नवम् गणों का एक गणधर था तथा दशवें और ग्यारहवें गणों का भी एक ही गणधर था। प्रमुख गणधरों के अधीन पाँच सौ श्रमण ही रखे गये थे। यह विभाजन मात्र व्यवस्था और अनुशासन की दृष्टि से था। इसमें मौलिक भेद नहीं था। विचार और आचार के धरातल पर वे अभिन्न थे।

श्रमणी संघ के अध्ययन-अध्यापन का दायित्व भी स्यात् गणधरों द्वारा होता था। अनुशासनात्मक दृष्टि से आर्या चंदनबाला श्रमणी संघ की प्रमुख थी। श्रावक और श्राविका संघ के प्रमुखों में शंख, शतक, रेवती व सुलसा आदि के नाम प्रमुख हैं।

महावीर के जीवनकाल में नौ गणधर निर्वाण को प्राप्त हो गये। उनके गणों का दीर्घजीवी सुधर्मा स्वामी के गण में विलय कर दिया गया। महावीर के निर्वाण के बाद इंद्रभूति गौतम केवली बन गये। केवली संघीय व्यवस्थाओं से निपेक्ष बन जाता है। इसलिए उनके गण का विलय भी सुधर्मा स्वामी के गण में कर दिया गया।

संघ में विभिन्न पद

अध्यापन, अनुशासन आदि की दृष्टि से संघ में विभिन्न पदों की व्यवस्था निर्मित हुई। आचार्य भद्रबाहु ने संघ को समुचित व्यवस्था देने वाले सात पदों का छेद सूत्रों में उल्लेख किया है। वे सात पद हैं- 1. आचार्य, 2. उपाध्याय, 3. प्रवर्तक, 4. स्थविर, 5. गणी, 6. गणधर और 7. गणावच्छेदक।

आचार्य

श्रमण संघ में आचार्य का पद सर्वोच्च माना गया है। आचार्य संघ का सर्वमान्य तथा सर्वोपरि नेता होता है। उनका आदेश प्रत्येक श्रमण और श्रमणी के लिए आप्त वाक्य माना गया है, वे सकल संघ के लिए मेढ़ीभूत स्तंभ के समान होते हैं। वे स्वयं आचार संपन्न होते हैं तथा सकल संघ को आचार पालन के लिए सतत् प्रेरणा प्रदान करते हैं। संघ में सुचारु व्यवस्थाओं का पूर्ण दायित्व आचार्य पर होता है। वर्तमान में भी यही परंपरा प्रवाहमान है। शेष पदाधिकारी मुनिराज आचार्य के दायित्वों को ही सहयोगी के रूप में निर्वहन करते थे। इन पदाधिकारी मुनिराजों की नियुक्ति स्वयं आचार्य करते थे। इन पदाधिकारी मुनियों के कार्य विभाजन का पूर्ण विश्लेषण छेद-सूत्रों में प्राप्त होता है।

अनुशास्ता होते हुए भी आचार्य व्यवहार में अत्यंत मृदु और सरल होते हैं। आगम साहित्य में आचार्य के गुण का व्याख्यान करते हुए कहा गया है कि आचार्य मातृत्व-ममता और पितृत्व-दायित्व से पूर्ण होता है। आचार्य छत्तीस गुणों के धारक होते हैं। आचार संपदा, श्रुत संपदा, शरीर संपदा, वाचना संपदा, मति संपदा, प्रयोग संपदा तथा संग्रह संपदा- इन आठ संपदाओं के आचार्य स्वामी होते हैं ।

जैन परंपरा के शाश्वत महामंत्र नवकार में आचार्य को अरिहंतों और सिद्धों के पश्चात किया गया प्रणाम् उनके श्रेष्ठतम् पद को सहज ही प्रमाणित करता है। आचार्य की विषिष्टताओं का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य अभयदेव कहते हैं-

सुतत्थ विऊ लक्खण जुत्तो गच्छस्स मेढ़िभूओ य।

गणतत्ति  विप्पमुक्को  अत्थं  वाएइ  आयरिओ।।

उपाध्याय

श्रमण संघ में आचार्य के पश्चात् दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण पद उपाध्याय का है। आचार्य पर संघ के आचार-विचार का दायित्व रहता है, तो उपाध्याय पर संघ के अध्ययन-अध्यापन का गुरुतर दायित्व रहता है। उपाध्याय द्वादशांगी के विशाल वांड़ग्मय के पारगामी पंडित होते हैं। जैनेत्तर दर्शनों में भी उनका सफल प्रवेश होता है। वे अध्यापन कला में कुशल होते हैं। शब्द में अर्थ और अर्थ में शब्द के अन्वेषी उपाध्याय पर द्वादशांगी के संरक्षण का गुरुत्तर दायित्व रहता है। उपाध्याय को ज्ञान का देवता कहा जा सकता है। नवकार महामंत्र में आचार्य के बाद उपाध्याय को प्रणाम किया गया है, जिससे उपाध्याय की गरिमा सहज ही प्रमाणित हो जाती है। आचार्य शीलांक लिखते हैं, ‘उपाध्याय अध्यापकः’ अर्थात् उपाध्याय अध्यापक होता है क्योंकि वह ज्ञान पिपासु श्रमणों को अध्यापन कराता है और श्रमणों में अध्ययन के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करता है, इसलिए वह अध्यापक होता है। भगवती आराधना में उल्लेख है, ‘रत्रन्न्येषूद्यता जिनागमार्थ सम्यगुपदिशंति ये ते उपाध्यायाः’ अर्थात् ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में स्वयं निपुण बनकर जो दूसरों को आगमों का अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय हैं। उपाध्याय के पच्चीस गुण होते हैं और वे आठ प्रभावनाओं से पूर्ण होते हैं। आचार्य और उपाध्याय पद जैन परंपरा के शाश्वत पद हैं।

प्रवर्तक

आचार्य पर समग्र संघ का बृहद् दायित्व होता है। प्रवर्तक आचार्य के दायित्वों के निर्वहन में सम्यक् सहयोग करते हैं। उनका प्रधान कार्य होता है, श्रमणों को उनकी रूचि के अनुरूप प्रवृत्तियों में प्रेरित तथा प्रवृत्त करना। कहा गया है-

‘तप संयम योगेषु, योग्यं योहि प्रवर्त्तयेत ।

निवर्त्तयेदयोग्यं च गणचिन्ती प्रवर्त्तकः।।’

अर्थात् प्रवर्तक गण अथवा संघ के शुभ के चिंतक होते हैं। वे रूचि तथा योग्यता के अनुरूप श्रमणों को तप, संयम तथा योग में प्रवृत्त करते हैं और अयोग्य श्रमणों को उनसे निवृत्त कर उनकी योग्यतानुसार अन्यान्य प्रवृत्तियों में प्रवृत्त करते हैं।

स्थविर

स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ़ या वृद्ध होता है। ‘स्थविर’ शब्द की परिभाषा इस प्रकार है- जो स्वयं तप, संयम और अहिंसा की साधना में स्थिर हैं और दूसरों को उसके लिए उत्प्रेरित करते हैं तथा अस्थिर चित्त वाले श्रमणों के चित्त में संयमीय स्थिरता भरते हैं,  वे स्थविर कहलाते हैं।

आगमों में तीन प्रकार के स्थविर कहे हैं- 1. वय स्थविर,  2. श्रुत स्थविर और 3. पर्याय स्थविर। साठ वर्ष की आयु वाला वृद्ध वय स्थविर है। आगमों का पारगामी विद्वान भले ही वह अल्प आयु वाला हो, श्रुत स्थविर तथा बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण, पर्याय स्थविर कहलाता है। प्रवचन सारोद्धार में कहा गया है-

प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः साधून् ज्ञानादिशु।

ऐहिकामुष्मिकापाय दर्शनतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः।।

जो श्रमण सांसारिक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होने लगते हैं, संयम पालन और ज्ञानानुशीलन में कष्ट का अनुभव करने लगते हैं, उन्हें ऐहिक और पारलौकिक हानि दिखलाकर जो पुनः श्रमण जीवन में स्थिर कर देते हैं, वे स्थविर कहलाते हैं। संघ में स्थविर का वही स्थान होता है जो परिवार में एक ज्येष्ठ पुरुष का होता है। स्थविर संघ के उत्थान व श्रमणों के कल्याण के लिए सदैव चिंतनशील रहते हैं। स्थविर का आचार और विचार दृढ़ होता है, उनका व्यवहार अत्यंत मृदु होता है, वे स्वयं संयम में स्थिर होते हैं तथा अन्य श्रमणों को तदर्थ प्रेरित करते रहते हैं।

गणी

गण के नायक को ‘गणी’ कहा जाता है। यत्र-तत्र आचार्य के लिए भी ‘गणी’ शब्द का व्यवहार होता रहा है। आचारांग चूर्णी में उल्लेख है, ‘यस्स पार्श्वे आचार्याः सूत्रार्थ अभ्यस्यन्ति।’ अर्थात् जिनके पास आचार्य भी सूत्र और अर्थ का अभ्यास करते हैं, वे गणी कहलाते हैं। यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि गणी ज्ञान के देवता होते हैं। संघ में उनका ज्ञान अप्रतिम और सर्वोच्च होता है। आचार्य को भी ज्ञानाराधना की आवश्यकता पड़ती है, तो वे गणी से वाचना लेते हैं। गणी पद उसी श्रमण को दिया जाता था जो अप्रतिम विद्वान होता था।

गणधर

जो गण को धारण करे, उसे ‘गणधर’ कहते हैं। एक अन्य परिभाषा के अनुसार जो ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को धारण करते हैं, वे गणधर कहलाते हैं। आगम साहित्य में गणधर शब्द का व्यवहार दो अर्थों में हुआ है-

  1. तीर्थंकरों के प्रथम तथा प्रमुख शिष्य, जो उनकी वाणी को सूत्र रूप में संग्रथित करते हैं तथा उनके धर्मसंघ के गणों का नेतृत्व करते हैं। इस अर्थ में गणधर तीर्थंकर के जीवन-काल में ही होते हैं। तीर्थंकर के सिद्ध होने के पश्चात गणधरों के साथ गणधर शब्द का व्यवहार प्रायः नहीं होता है।
  2. दूसरे अर्थों में ‘गणधर’ शब्द का व्यवहार एक सघीय पद के रूप में हुआ है। सामान्यतः यह पद उस योग्य और वरिष्ठ श्रमण को दिया जाता था, जो श्रमणी संघ का सर्वविध नेतृत्व करने में कुशल होता था। स्थानांग वृत्ति के अनुसार- ‘आर्यिका प्रति जागरको वा साधु विशेषः समय प्रसिद्धः।’

अर्थात् आर्याओं के प्रति जागृत रखने वाला उन्हें आध्यात्मिक उत्साह और दिशा निर्देश देने वाला श्रमण गणधर कहलाता है।

गणावच्छेदक

गण का वात्सल्यपूर्वक पालन करने वाला ‘गणावच्छेदक’ होता है। गणावच्छेदक पद पर उस योग्य श्रमण को प्रतिष्ठित किया जाता है जो श्रमणों के लिए उनके संयमीय जीवन के लिए आवश्यक उपकरणों आदि की संयमीय परिधि में रहते हुए संयोजना करने में कुशल होता है।

श्रमण जीवन प्रारंभ से ही अध्यात्म साधना प्रधान जीवन रहा है। श्रमण के लिए वैयक्तिक रूप से पदादि का महत्त्व नहीं होता है। परंतु विश्व कल्याण तथा परार्थ रूप में श्रमणों ने संघ के महत्त्व को स्वीकार किया। संघ में समुचित व्यवस्था के लिए दायित्वों का प्रश्न उभरना स्वाभाविक है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि पद उसी दायित्व की संपूर्ति करने वाले पद हैं।

दीक्षा पर्याय की दृष्टि से आचार्य पद के लिए आठ वर्ष का दीक्षा पर्याय आवश्यक माना गया है। कभी-कभी तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले योग्य श्रमण को भी आचार्य पद दिया जा सकता है और विशेष परिस्थितियों में एक दिन के दीक्षार्थी को भी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। अंतिम बात निरूद्ध-वास-पर्याय-श्रमण के लिए कही गई है। तात्पर्य उस श्रमण से है जो पहले सुदीर्घकाल तक श्रमण पर्याय का पालन कर चुका हो पर किन्हीं सामान्य कारणो से जिसने श्रमण जीवन छोड़ दिया हो। ऐसा व्यक्ति आत्म-प्रेरणा से पुनः संयमी जीवन धारण कर ले तथा उसके विगत अनुभवों से संघ का महान हित संभव हो। ऐसे एक दिन के दीक्षित श्रमण को भी आचार्य पद दिया जा सकता है। गुणों और योग्यताओं की दृष्टि से वही श्रमण आचार्यादि पदों का अधिकारी है जिसका ज्ञान सुविशाल हो, दर्शन संपुष्ट हो, चारित्र सुनिर्मल हो, जो आचार, संयम, प्रवचन, संग्रह, उपग्रह आदि में परम कुशल हो तथा जो स्थानांग-समवायांग आदि आगमों का पारगामी हो। उपरोक्त सातों पदों के लिए श्रमण में इन गुणों का होना आवश्यक है।

ब्रह्मचर्य श्रमण जीवन का आधार स्तंभ है। श्रमण जीवन में रहते हुए किसी श्रमण ने यदि अब्रह्म का सेवन किया है, तो वह उपरोक्त किसी भी पद का अधिकारी नहीं है। इसी तरह जिस श्रमण ने माया अथवा असत्य का आचरण किया, वह भी उपरोक्त पदों का अधिकारी नहीं है क्योंकि सत्य, सरलता और ब्रह्मचर्य श्रमण जीवन की मूल भित्तियाँ हैं। उनका सुदृढ़ होना अनिवार्य माना गया है।

श्रमणसंघ के समान ही श्रमणी संघ भी आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि द्वारा अनुशासित संचालित होता है, परंतु व्यवस्था में सुगमता की दृष्टि से प्रवर्तिनी, स्थविरा, गणावच्छेदिका आदि पद श्रमणियों को प्रदान किए जाते थे।

समस्त पदों में आचार्य का पद सर्वोपरि होता है। आचार्य संघ के सर्वज्येष्ठ और सर्वमान्य नेता होते हैं। समस्त पदों पर आचार्य ही योग्य श्रमणों की नियुक्ति करते हैं। आचार्य सर्वाधिकार संपन्न होते हैं। संघीय सुचारू व्यवस्था के लिए वे जो चाहें, जैसा चाहें करने के लिए स्वतंत्र और अधिकार संपन्न होते हैं।

संघभेद के प्रारंभिक प्रयास

महावीर के जीवनकाल में ही जैन संघ में भेद उत्पन्न करने के दो प्रयास हो चुके थे। यह दोनों भेद महावीर के अपने शिष्यों के द्वारा किये गये थे। महावीर स्वामी के साधना-काल में मख्खलि गोशाल उनसे विलग होकर विरोधी बन गया था और मृत्यपर्यंत अपने मत की मौलिकता बनाये रखी, जिसके कारण शताब्दियों बाद तक आजीवक संप्रदाय का अस्तित्व बना रहा। महावीर के धर्मदेशना के बाद भी निर्ग्रंथ संघ में भेद उत्पन्न होने का विवरण नेमिचंद्र के ‘उत्तराध्ययन’ तथा ‘आवश्यक निर्युक्ति’ के टीका में मिलता है। प्रथम भेद बहुर्यवादी कहलाता है। ‘भगवतीसूत्र’ से ज्ञात होता है कि महावीर के ‘केवली’ होने के चौदहवें वर्ष में ही उनका भानजा और जामाता जामालि उनका विरोधी हो गया था। जामालि के अनुसार कर्म का प्रभाव उसके किये जाने के पूर्व ही हो जाता है। परवर्ती उल्लेखों के अनुसार ‘प्रियदर्शना’ भी अपने साध्वी परिवार के साथ महावीर की विरोधी हो गई थी, किंतु जामालि के जीवन-काल में ही वह श्रावस्ती के कुंभकार ‘ढ़ंक’ के प्रतिबोध से सत्य-मार्ग पर आरूढ़ होकर पुनः महावीर के संघ में प्रविष्ट हो गई थी।

इसी प्रकार दो वर्ष बाद निर्ग्रंथ संघ के ‘तिसगुत्त’ नामक श्रमण ने भी महावीर के सिद्धांतों का तथ्यपरक विरोध किया था, जिसे ‘जीवपेशीय’ कहा जाता है। तिस्सगगुप्त के अनुसार आत्मा शरीर के सारे अणुओं को नहीं भेदती है। किंतु इन भेदों से संघ को किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं हुई और महावीर स्वामी ने तत्परतापूर्वक अपनी धर्मदेशना द्वारा इन भेदों को रोक दिया था।

जैन धर्म के संप्रदाय 

जैन धर्म के छः अन्य भेद भगवान महावीर की मृत्यु के पश्चात हुए जिनमें पाँच का विवरण निम्न है-

अवट्टगवादी : यह सुघभेद आचार्य आसाढ़भूति के द्वारा किया गया। इनके अनुसार भिक्षु इसी जीवन में ईश्वर बन सकता है।

समुच्चयवादी : यह भेद महावीर की मृत्यु के 220 वर्ष बाद अस्समित या अश्वमित्र के नेतृत्व में हुआ। इसके अनुसार सभी प्रकार के जीवन का अंत निश्चित है चाहे वह अच्छा हो या बुरा।

दोक्रियावादी : यह भेद गंगा नामक आचार्य के द्वारा महावीर की मृत्यु के 228 वर्ष बाद हुआ था। इसके अनुसार दो विभिन्न प्रकार के कर्मों का अनुभव एक साथ किया जा सकता है।

नोज्यावादी : महावीर के 544 वर्ष बाद यह भेद रोहगुडर के द्वारा किया गया। रोहगुडर जीव, अजीव के साथ तीसरे तत्त्व नाजीव को भी मानते थे।

अवधीयवादी : यह भेद गाथामहिला के द्वारा महावीर के 584 वर्ष बाद किया गया था। इसके अनुसार आत्मा कार्मिक अणुओं के द्वारा स्पर्श की जाती है। किंतु कार्मिक अणु उसे बंधन में नहीं रख सकता है।

श्वेताम्बर और दिगम्बर में विभाजन

महावीर के जीवनकाल या उनकी मृत्यु के बाद होने वाले संघ भेदों ने जैन धर्म में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया। किंतु श्वेताम्बर और दिगम्बर विभाजन ने इसे स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजि कर दिया। वस्तुतः यह विभाजन पार्श्वनाथ और महावीर के विचारों से संबंधित किया जाता है। महावीर का श्रमण जीवन पार्श्व के जीवन से अधिक कठोर था। उन्होंने ही श्रमणों को नग्न रहने का आदेश दिया। महावीर के जीवनकाल में ऐसे लोगों की संख्या कम थी और उनके जीवित रहते यह बँटवारा संभव नहीं हो सका था।

भद्रबाहुकृत जैनकल्पसूत्र से पता चलता है कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन् की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जंबू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा। अंतिम नंद शासक के समय में सम्भूतिविजय तथा स्थूलभद्र संघ के अध्यक्ष थे। यही दोनों प्राचीन जैन ग्रंथों- चौदह पूर्वों को जाननेवाले अंतिम व्यक्ति थे। सम्भूतिविजय की मृत्यु चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के समय हो गई।

तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न ही जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गई- दिगम्बर और श्वेताम्बर। परंपरागत विचारधारा के अनुसार दो प्रकार के व्यवहारों जिनकल्प तथा स्थविरकल्प का वर्णन मिलता है। दिगम्बर परंपरा के अनुसार विभाजन के दो प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं। ईसापूर्व 310 के आसपास आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में बारह वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है, इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। आचार्य भद्रबाहु के साथ 12000 जैनमुनि (श्रमण) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गये और अपनी साधना में लगे रहे। परंतु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गये थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं नहीं हो पा रहा था, इसलिए उत्तर भारत के जैन भिक्षुओं ने उज्जैन में सभा की और अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, 7 घरों से भिक्षा ग्रहण करना, 14 उपकरण साथ में रखना आदि। यह वर्ग श्वेताम्बर शाखा से संबंधित हुआ। स्थूलभद्र ने उत्तर भारत में भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति दी थी।

बारह वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परंपरा को अपना लें, पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगम्बर और श्वेताम्बर दो संप्रदाय पैदा हो गये।

पाटलिपुत्र में जैन सभा 

पवित्र जैन साहित्य का संकलन करवाने के उद्देश्य से स्थूलभद्र ने चतुर्थ शताब्दी ई.पू. में पाटलिपुत्र में जैन भिक्षुओं की एक सभा आयोजित की, किंतु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग नहीं लिया। इस जैन समिति में केवल ग्यारह अंगों का ही संकलन हो सका। बारहवाँ अंग पूर्ण नहीं हो सका क्योंकि उसमें वर्णित चौदह पूर्वों की जानकारी स्थूलभद्र को पूर्णरूप से नहीं थी। भद्रबाहु ने चौदह पूर्वों में से केवल दस का ही ज्ञान स्थूलभद्र को दिया था। यह साहित्य दिगम्बरों द्वारा मान्य नहीं किया गया, किंतु पाटलिपुत्र की सभा में जो निर्णय किये गये, वही श्वेतांबर संप्रदाय के मूल सिद्धांत बन गये।

बल्लभी (गुजरात) की महासभा

जैन धर्म का स्वरूप निश्चित करने के लिए छठी शताब्दी ई. में जैनियों की एक दूसरी महासभा बल्लभी (गुजरात) में आयोजित की गई। इस सभा की अध्यक्षता देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने की। इस सभा में प्राकृत भाषा में जैन धर्म के मूल ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया।

एक अन्य दिगम्बर परंपरा के अनुसार विभाजन मुख्यतः वल्लभी में राजा लोकपाल की रानी चंद्रलेखा के कारण हुआ। राजा ने भिक्षुओं को महल में आमंत्रित किया तो राजा अर्धनग्न भिक्षुओं को देखकर क्रोधित हो गया और भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने का आदेश दिया। इसी कारण ये भिक्षु श्वेतपात या श्वेताम्बर कहलाये। छः सौ ईस्वी के श्रवणबेलगोला के अभिलेख से दिगम्बर श्वेताम्बर विभाजन की जानकारी मिलती है। उड़ीसा के धौली, उदयगिरि, खण्ंडगिरि गुफाओं में महावीर को नग्न प्रदर्शित किया गया है।

श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार जैन धर्म का विभाजन महावीर के 609 वर्षें बाद हुआ था। यह रथवीरपुर के शिवभूति नामक जैन श्रमण द्वारा प्रारंभ किया गया था। शिवभूति  ने ‘बोडिय’ नामक जैन संप्रदाय प्रारंभ किया था। शिवभूति को एक राजा ने सुंदर कंबल प्रदान किया था जिससे शिवभूति को अत्यधिक लगाव हो गया था। उसके आचार्य ने इस राग को दूर करने के लिए कंबलल को फाड़ डाला। शिववभूति ने क्रोधित होकर कहा कि यदि मैं श्रमण होकर एक कंबल नहीं रख सकता हूँ तो मैं कोई भी वस्त्र धारण नहीं करूँगा। इस परंपरा के द्वारा जैन भिक्षुओं ने नग्नता पालन करने का प्रारंभ किया।

श्वेताम्बर और दिगम्बर में अंतर

श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक चरित्र विशेषकर, नग्नता को लेकर है।

दिगम्बर संप्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। ‘दिग’ अर्थात् दिशा, दिशाएँ ही अंबर हैं जिसका वह ‘दिगम्बर’ है। वेदों में इन्हें ‘वातरशना’ कहा गया है। श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।

दिगम्बर मत के तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनाई जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया जाता है, पूजन पद्धति में फल और फूल नहीं चढाये जाते हैं। श्वेताम्बर तीर्थकरों की प्रतिमाएँ लंगोट और धातु की आँख, कुंडल सहित बनाई जाती हैं और उनका श्रृंगार किया जाता है।

दिगम्बर संप्रदाय में महावीर को त्रिशला का पुत्र माना गया है, जबकि श्वेताम्बर विचारधारा में कल्पसूत्र, आचारांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र के अनुसार महावीर सर्वप्रथम ब्राह्मणी देवानंदा के गर्भ में आये, फिर इंद्र ने इनको क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया।

दिगम्बर परंपरा के अनुसार महावीर ने अचानक सांसारिक माया-मोह से दूर होकर गृहत्याग कर दिया। गृहत्याग के पूर्व उन्होंने राजसी जीवन व्यतीत किया। श्वेताम्बरों के अनुसार महावीर बचपन से ही दार्शनिक प्रवृत्ति के थे किंतु माता-पिता के जीवित रहते उनके दबाव में गृहत्याग नहीं कर पाये। उनकी मृत्यु के बाद ही गृह-त्याग संभव हो सका।

दिगम्बरों के अनुसार महावीर ने वैवाहिक जीवन नहीं जिया था। जैन ग्रंथों के अनुसार पाँच तीर्थंकरों ने कुमार जीवन व्यतीत किया था। महावीर उनमें से एक थे। श्वेताम्बर महावीर को न केवल विवाहित मानते हैं, परंतु उनकी पुत्री अणोज्या का भी वर्णन करते हैं। दिगम्बर संप्रदाय मानता है कि मूल आगम ग्रंथ चौदह पूर्व एवं बारह अंग लुप्त हो चुके हैं। श्वेताम्बर विचारधारा के अनुसार केवल चौदह पूर्व ही नष्ट हुए थे तथा ग्यारह अंग समाप्त नहीं हुए थे।

दिगम्बर के अनुसार साधारण उपासक जैन साहित्य का अध्ययन नहीं कर सकता है। श्वेताम्बर विचारधारा के अनुसार यह सभी वर्ग के लिए संभव है।

दिगम्बर मतानुसार स्त्री शरीर से ‘कैवल्य ज्ञान’ संभव नहीं है। स्त्री तीर्थंकर तभी बन सकती है, जब वह पुनः पुरुष जन्म ले। श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुयायी मानते हैं कि स्त्री कैवल्य की अधिकारिणी है। उन्होंने उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री माना है।

दिगम्बर मोर के पंख, तथा दातून के अतिरिक्त कुछ नहीं रखते हैं, जबकि श्वेताम्बर चौदह वस्तुएँ रख सकते हैं- पात्र, पात्रबंध, पात्र स्थापन, पात्र पार्मजनिका, पटल, रजस्त्राण, गुच्छक, दो चादरें, ऊनी कंबल, रजोहरण, मुखवस्त्र, मातक व चोलपष्टक।

तीर्थों के जीवन-चरित लिखते समय दिगम्बर ‘पुराण’ शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि श्वेताम्बर ‘चरित्र’ शब्द का उल्लेख करते हैं।

श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों संप्रदायों में समयकालिक विभाजन प्राप्त होते हैं। ये गण, कुल, गच्छ तथा शाखाओं आदि में विभक्त थे। कई संभागों को मिलकर गण बनता था, जिनका प्रधान ‘गणिन’ कहलाता था। गण को ‘गच्छ’ नाम से जाना गया। ‘गच्छ’ का अर्थ भिक्षु का एक निश्चित मार्ग पर चलना होता है।’ जैन साहित्य में 117 गच्छों का वर्णन मिलता है जो जैन संतों क्षेत्र विशेष आदि के नाम पर आधारित थे।

दिगम्बर की शाखाएँ

जैन धर्म की दिगम्बर शाखा में तीन शाखाएँ हैं- मंदिरमार्गी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी। श्वेताम्बर में शाखाओं की संख्या दो है- मंदिरमार्गी और स्थानकवासी। ये लोग मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं। जैनियों की अन्य शाखाओं में ‘तेरहपंथी’, ‘बीसपंथी’, ‘तारणपंथी’ और ‘यापनीय’ आदि कुछ और भी उप-शाखाएँ हैं।

देवसेन के दर्शनसार के अनुसार ‘यापनीय संप्रदाय’ की स्थापना 148 ईस्वी में ‘श्रीकलश’ नामक भिक्षु ने हैदराबाद के निकट स्थित कल्याण नगर में की थी। इस संप्रदाय में भिक्षु नग्न रहते थे तथा मोरपंखों को धारण करते थे और हथेली पर भोजन करते थे। किंतु उनमें स्त्रियाँ कैवल्य प्राप्त कर सकती थीं। वस्तुतः यह श्वेताम्बर एवं दिगम्बर संप्रदाय का मिश्रित रूप था। यह मत कदंबों, राष्ट्रकुटों तथा अन्य दक्षिण के वंशों में प्रचलित था। वर्तमान में इसकी कोई शाखा प्राप्त नहीं होती है।

जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।

जैन धर्म एवं तंत्रवाद

जैन धर्म भी तंत्रवाद के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। परंपरा के अनुसार महावीर ने स्वयं विभिन्न प्रकार के चमत्कार दिखाये थे। तीर्थंकरों के साथ उनके शासन देवताओं का संबंध जैन धर्म की शक्ति परंपरा को दर्शाता है। चक्रेश्वरी देवी, सचिवा देवी आदि जैन धर्म की प्रमुख देवियाँ थीं। इस धर्म में चौसठ योगिनियों पर नियंत्रण करने की तांत्रिक क्रियाएँ विकसित की गईं। जैन के पारसनाथ तथा मिणनाथी संप्रदाय शैव एवं तंत्र से प्रभावित थे। गुजरात के जैन संत कृष्णदास ने गोरखनाथ को जैन माना है।

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