वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट 1878: इतिहास, प्रभाव और विवाद

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वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 में भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किया गया था ताकि भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर अधिक कड़ा नियंत्रण रखा जा सके। उस समय लॉर्ड लिटन भारत के वायसराय थे। इस अधिनियम में ऐसी सामग्री को पत्रिकाओं में छापने पर सख्त कार्रवाई का प्रावधान था, जिससे ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता में असंतोष पैदा होने की संभावना हो।

दरअसल यह कानून भाषाई अखबारों को दबाने के लिए लाया गया था। स्वदेशी प्रेस अधिनियम के पारित होने के अगले ही दिन कोलकाता से बांग्ला में प्रकाशित अमृत बाजार पत्रिका ने खुद को एक ‘अंग्रेजी दैनिक’ अखबार बना लिया। इसके संपादक शिशिर कुमार घोष थे।

वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट 1878: इतिहास, प्रभाव और विवाद
फोटो स्रोत -https://historyflame.in/

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878

1878 का वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा पेश किया गया एक विवादास्पद कानून था। कानून को भारतीय स्थानीय प्रेस को नियंत्रित करने और दबाने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के लिए खतरे के रूप में देखा गया था।

अधिनियम के तहत, किसी भी भाषा में प्रकाशित किसी भी समाचार पत्र (अर्थात, अंग्रेजी में नहीं) के लिए सरकार से लाइसेंस लेना आवश्यक था, जिसे किसी भी समय रद्द किया जा सकता था। सरकार के पास किसी भी लेख या सामग्री को सेंसर करने की शक्ति भी थी जिसे वह देशद्रोही या आपत्तिजनक मानती थी।

वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट की भारतीय राष्ट्रवादियों और भारतीय प्रेस द्वारा व्यापक रूप से आलोचना की गई, जिन्होंने इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस पर सीधे हमले के रूप में देखा। कई समाचार पत्र विरोध में बंद हो गए, और कानून के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए।

विरोध के बावजूद, कानून 1881 तक लागू रहा, जब इसे अंततः निरस्त कर दिया गया। हालाँकि, कई वर्षों तक भारत में वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट की विरासत को महसूस किया जाता रहा, जिसमें कई भारतीय पत्रकारों और लेखकों ने प्रेस की स्वतंत्रता और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए लड़ाई जारी रखी।

इस अधिनियम के तहत सैकड़ों देशी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को जब्त कर लिया गया। प्रेस में ताले लगा दिए गए। देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय (1838-1894) ने ‘आनंद मठ’ का वंदे मातरम लाया जो ब्रिटिश शासकों के क्रोध का कारण बना। मुसलमानों को भड़काकर ‘आनंदमठ’ की कई प्रतियां जला दी गईं (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका: रमेश चंद्र दत्त)।

वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट बहुत बदनाम हो गया और 1881 में इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन के बाद लॉर्ड रिपन द्वारा निरस्त कर दिया गया और 1867 के पुराने कानून को जारी रखा गया। भारतीय समाचार पत्र अधिनियम, 1910E को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय समाचार पत्रों पर फिर से नियंत्रण स्थापित करने के लिए लाया गया था, जिसमें वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम से संबंधित सभी घृणित प्रावधानों को पुनर्जीवित किया गया था।

भारतीय समाचारपत्रों ने प्रेस के माध्यम से 1870 के दशक में मजबूती से पैर जमाना शुरू कर दिया था।  लार्ड लिटन के प्रशासन की भारतीय समाचारपत्रों ने खुलकर आलोचना की। विशेषकर 1876-77  के अकालपीड़ितों  के प्रति ब्रिटिश सरकार के आमनवीय व्यवहार की तो जबदस्त आलोचना की गई। 

इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार विरोधी अख़बारों का प्रसार भी बढ़ने लगा था और मध्यम वर्ग के पाठकों तक ही ये सिमित नहीं रह गए थे, बल्कि आम भारतीय नागरिक तक भी पहुँचने लगे थे। इससे ब्रिटिश सरकार में खलबली मचना स्वभाविक ही था।

वर्नाकुलर प्रेस एक्ट 1878

भारतीय समाचार पत्रों द्वारा ब्रिटिश सरकार की हो रही निरंतर आलोचना से ब्रिटिश सरकार बोखला उठी और उसने अचानक भारतीय अख़बारों के खिलाफ दमनचक्र चलाना शुरू किया और 1878 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया। यह कानून भाषाई अख़बारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया था क्योंकि ब्रिटिश सरकार को उनकी ओर से ही बड़ा खतरा महसूस हो रहा था।

वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट क्यों लागू किया गया

स्पष्ट था कि देशी भाषाई अख़बार निरंतर आम जनता में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ माहौल बनने लगे थे।  1878 का वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू करने का निर्णय अचानक लिया गया था और इस मामले में बड़ी गोपनीयता बरती गई थी और लेजिस्लेटिव कौंसिल ने चंद मिनटों की चर्चा के बाद ही इस विधेयक को पारित कर दिया था।  

क्या था वर्नाकुलर प्रेस एक्ट

इस कानून में यह प्रावधान था कि “अगर सरकार यह समझती है कि कोई अख़बार राजद्रोहात्मक सामग्री छाप रहा है या उसने सरकारी चेतावनी का उल्लंघन किया है, तो सरकार उस अख़बार, उसके प्रेस व् अन्य सामग्री को जब्त कर सकती है।

भारतीयों द्वारा वर्नाकुलर प्रेस एक्ट का विरोध

भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस कानून का जमकर विरोध किया। इस मुद्दे को लेकर कलकत्ता के टाउनहाल  विशाल सार्वजनिक सभा  हुई। किसी सार्वजनिक मुद्दे को लेकर यह पहला बड़ा विरोध-प्रदर्शन था। इस कानून के खिलाफ भारतीय प्रेस और दूसरे अन्य संगठनों ने संघर्ष ने भी संघर्ष छेड़ा, फलस्वरूप 1881 में लार्ड रिपन ने यह कानून वापस लिया।

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ  भारतीय समाचारपत्रों की भूमिका

 ब्रिटिश सरकार की दमनकारी चालों के खिलाफ भारतीय प्रेस ने कितनी चालाकी से काम किया, इसकी कई दिलचस्प मिसालें है। कई बार भारतीय अख़बारों ने ब्रिटिश नौकरशाही को बेबकूफ बनाया।  वर्नाकुलर प्रेस एक्ट की ही बात लें, दरअसल यह कानून खासतौर पर ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के लिए बनाया गया था, उस समय अख़बार अंग्रेजी और बंगला दोनों भाषाओँ में छपता था। 

कानून का उद्देश्य इस अख़बार के  खिलाफ  सरसरी कार्यवाई करना था लेकिन कानून लागू होने के अगले दिन ब्रिटिश अफसर हक्के-बक्के रह गए ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के सम्पादकों ने रातों-रात इस अख़बार में सिर्फ अंग्रेजी अख़बार में तब्दील कर दिया था। 

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