भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के कारण
उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद का प्रभाव यूरोपीय विचारकों तथा आंदोलनों पर स्पष्ट था, परन्तु भारत में साम्राज्यवादी नीतियों के कारण इसका अधिक प्रभाव नहीं हो सका था। बीसवीं शताब्दी में कुछ फुटकर लेखों — जैसे वीर हरदयाल का ‘मॉर्डन रिव्यु’ में लेख — तथा अन्य कथा कहानियों में या फिर भारत से बाहर जाने वाले राजनैतिक नेताओं की गतिविधियों में भी उसी झलक मिलती थी। मगर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मार्क्सवाद और साम्यवाद का प्रभाव रुसी क्रांति और प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। इसी प्रभाव के अंतर्गत भारत के ट्रेड-यूनियन, किसान आंदोलन, छात्र और नौजवान संघ, महिला, बुद्धूजीवी तथा कई और छोटे-बड़े संघों ने नई दिशा ली और कांग्रेस ने भी जनांदोलन का सहारा लिया।
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कांग्रेस के बारे में मार्क्सवादी नेताओं को सोच
मार्क्सवादी नेताओं को विश्वास था कि कांग्रेस केवल उभरते हुए पूंजीपति वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर सकती है और इसी तरह वह स्वतंत्रता संग्राम ने समझौतावादी नीति अपनाती है। इन्होने महसूस किया कि शोषित वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए साम्यवादी पार्टी की स्थापना आवश्यक है।
कब हुई कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
भारत के तमाम शेषित वर्ग की अगुआई करने के लक्ष्य से 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गई। इसने भारत की स्वतंत्रता और मजदूरों, किसानों तथा अन्य शोषित वर्गों के हितों की रक्षा के लिए कई जुझारू संघर्ष किया और उन्हें नई दिशा प्रदान की। इस पार्टी ने उन्हें सचेत किया कि राजनैतिक शोषण से मुक्ति के साथ-साथ उन्हें आर्थिक व सामाजिक शोषण से भी मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिए। इसने यह भी आह्वान किया कि—
“राजनीतिक स्वतंत्रता एक साधन है और आर्थिक स्वतंत्रता एक लक्ष्य है।”
भारत में सबसे पहले स्वतंत्रता की मांग कम्युनिस्ट पार्टी ने की।
कम्युनिस्ट पार्टी ने सबसे पहले सम्पूर्ण स्वाधीनता की मांग की और इस पार्टी के सदस्यों ने मुक्ति आंदोलन में एक महत्वपूर्ण प्रभावशाली भूमिका निभाई। इसने मार्क्स द्वारा किये गए इतिहास के भौतिकवादी विश्लेषण को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसने जनसाधारण तक इस शाश्वत सच्चाई को पहुँचाने के लिए शोषित वर्ग के बीच यह प्रचार किया कि एक समाजवादी व्यवस्था में ही उनके वर्ग को शोषण से मुक्ति मिल सकती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसने समाजवाद के वैज्ञानिक विश्लेषण को अपना आधार बनाया और शोषित वर्गों में वर्ग चेतना उत्पन्न करने का प्रयास किया।
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भारत उभरती वर्ग संघर्ष चेतना
वर्ग संघर्ष और वर्ग-चेतना के विचार रूस की क्रांति के बाद भारत में बहुत तेजी से फैलने लगे। अक्टूबर 1917 में लेनिन के नेतृत्व में हुई समाजवादी क्रांति ने पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया। इस क्रंति के द्वारा रूस में न केवल तानाशाही का अंत हुआ बल्कि एक नई सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना की गई। इस क्रांति ने न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण एशिया में समाजवादी विचारों व जनांदोलनों को जन्म दिया। देश-विदेश के क्रन्तिकारी सोवियत संघ को अपना मित्र समझने लगे। उनके लिए मॉस्को एक नया तीर्थस्थल बन गया और वे सोवियत सरकार सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश करने लगे।
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प्रथम विश्व युद्ध का भारत पर राजनैतिक प्रभाव
प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होते ही, सारे देश में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किये गए और देश को स्वाधीन कराने के लिए बहुत से क्रांतिकारी विदेश चले गए। ये क्रन्तिकारी लम्बी सजा या फांसी से बचने के लिए विदेश नहीं गए थे अपितु ये योजनावबद्ध तरिके से अपने संगठनों द्वारा विदेश भेजे गए थे। उनका काम वहां पर ऐसे केन्दों को स्थापित करना था जो भारत की राषट्रीय स्वाधीनता के उद्देश्य को प्राप्त करने सहायक सिद्ध हों, और भारत को विदेशियों के चंगुल से मुक्त किया जा सके। साथ ही ये केंद्र आजादी की लड़ाई में विदेशी सरकारों से सहायता प्राप्त करना चाहते थे।
ये केंद्र पश्चिमी यूरोप, अमेरिका, मध्य-पूर्वी और दक्षिणी-पूर्वी एशिया में स्थापित किये गए। जर्मनी में इन क्रांतिकारियों ने ‘बर्लिन कमिटी’ की स्थापना की। बाद में इस कमेटी का नाम ‘भारतीय स्वतंत्रता कमेटी’ रखा गया। इस कमेटी के नेताओं में वी. चट्टोपाध्याय और डॉ. भूपेन्द्र नाथ दत्त – ने बोल्शेविकों और लेनिन के साथ सम्पर्क स्थापित करने का भरसक प्रयास भी किया। किन्तु जब नवम्बर 1918 में जर्मनी में हुई क्रांति के फलस्वरूप जर्मनी ने जनतन्त्रात्मक पद्धति अपना ली, तब यह कमेटी भंग होने के बाद इसके बहुत से सदस्यों ने भारत की सधीनता प्राप्ति के लिए सोवियत संघ की मदद चाही। इनमें से कुछ सदस्य रूस की अक्टूबर क्रांति से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट हो गए और उन्होंने ताशकंद में 1920 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।
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