प्राचीन भारतीय इतिहास में शिक्षा का कितना महत्व था यह हम भारत के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तक्षशिला से समझ सकते हैं। तक्षशिला प्राचीन भारत में शिक्षा का एक प्रसिद्द केंद्र था। यह पश्चिमी पंजाब के रावलपिण्डी नगर में लगभग बत्तीस किलोमीटर दूर स्थित था। तक्षशिला के विषय में ऐसा कहा जाता है कि राम छोटे भाई भरत के कनिष्ठ पुत्र ‘तक्ष’ ने यह नगर ( तक्षशिला ) बसाया था और वह उसका प्रथम शासक था।
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प्राचीन तक्षशिला विश्वविद्यालय के अवशेष – photo credit- wikipedia |
तक्षशिला
प्राचीन युग में यह सभ्यता के प्रसिद्ध केंद्र के रूप में जाना जाता था। ईस्वी सन के पांच सौ वर्ष से लेकर ईस्वी सन की छठी शताब्दी तक इस नगर की प्रभुत प्रगति हुई। इस नगर का सामरिक महत्व था क्योंकि यह सीमा पर स्थित था परिणामस्वरूप भारत पर होने वाले अनवरत विदेशी आक्रमणों के कारण यह नगर विध्वंस का शिकार हो गया।
तक्षशिला के विषय में किवदंतियां
तक्षशिला के विषय में किवदंती है कि तक्षशिला को ‘नागराज तक्षक’ ने बसाया था। तक्षक के विष देने या डसने पाण्डव राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई थी। इसलिए परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए तक्षक पर आक्रमण किया। नागराज तक्षक को पराजित कर जनमेजय ने उसका राज्य और तक्षशिला को अपने राज्य में सम्मलित कर लिया और नागों का विशाल ‘यज्ञ’ किया। इससे यही प्रतीत होता है कि तक्षशिला अत्यंत प्राचीन नगर था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की
जैसा कि हमने पहले ही बताया कि तक्षशिला नगर और यह विश्विद्यालय की स्थापना के संबंध में केवल हमें अनैतिहासिक तथ्य ही प्राप्त होते हैं। यह विश्वविद्यालय किस शासक अथवा व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया इसके विषय में ठोस जानकारी का अभाव है।
तक्षशिला बुद्धकालीन शिक्षा का सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध केन्द्र था। इसकी स्थापना ईसा पूर्व 6 वीं शताब्दी में बताई जाती है। और साक्ष्य बताते हैं (अनैतिहासिक ) कि 5वीं शताब्दी तक यह शिक्षा का प्रमुख केन्द्र के रूप में सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध था। तक्षशिला चाणक्य ( चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्र ग्रन्थ के लेखक ) को लेकर जाना जाता है।
चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ तक्षशिला में ही लिखी थी और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त और आयुर्वेद के प्रसिद्ध चिकित्सक ‘चरक’ ने भी तक्षशिला से ही शिक्षा प्राप्त की थी। यह आज के गांधार क्षेत्र में स्थित थी,जो आज पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में है। यहाँ लगभग 68 विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इसके स्थापक के बारे में जानकारी का अभाव है। तक्षशिला में सामान्यतः एक विद्यार्थी 16 साल की आयु में प्रवेश लेता था।
पांचवी शताब्दी प्रारम्भ में फाहियान अथवा Faxian ( चीन का यात्री ) तक्षशिला में आया था तब उसने यहाँ बौद्ध धर्म को फलता-फूलता पाया। सातवीं शताब्दी में आने वाले चीनी यात्री हुएनसांग जब तक्षशिला पहुंचा तो उसने यहाँ पतनोमुख तक्षशिला को देखा। अभी यह पंजाब प्रांत के रावलपिंडी जिले की एक तहसील है। यह छठी सदी ई.पू. के 16 महाजनपदों में एक गंधार की राजधानी हुआ करता था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा का स्वरुप
आधुनिक काल के समान तक्षशिला विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, सुव्यवस्थित विद्यापीठ या वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे, न हो कोई निश्चित पाठ्यक्रम था और न निश्चित शिक्षा अवधि थी। इसके अतिरिक्त परीक्षा प्रणांली या उपाधियाँ भी नहीं थी।
यहाँ शिक्षा विभिन्न विद्याओं और कलाओं के महान पंडितों और विद्वानों द्वारा प्रदान की जाती थी। इन विद्वानों के घर पर रहकर छात्र विद्याध्यन करते थे। कई प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है कि एक-एक आचार्य ( शिक्षक ) के पास सौ तक छात्र पढ़ते थे। जातक ग्रंथों में पांच सौ तक छात्रों का वर्णन मिलता है।
तक्षशिला में छात्रों का प्रवेश कैसे होता था
इस विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के लिए छात्र की आयु 16 वर्ष निर्धारित थी। यहाँ वह छः से आठ वर्ष तक विद्याध्यन करता था। निर्धन छात्र दिन में मेहनत मजदूरी करते थे और रात्रि में विद्याध्यन करते थे। ऐसे भी प्रसंग मिलते हैं जब छात्र शिक्षा समाप्त होने पर शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे, शुल्क अदा करने वाले छात्रों को आचार्य अपने घर पर पुत्र के समान रखते थे। गुरु व्यक्तिगत रूप से छात्र की ओर ध्यान देता था। छात्रों के लिए अनिवार्य था कि वे उच्च चरित्रवान हों, उनका जीवन सादा हो।
तक्षशिला में पढ़ाये जाने वाले विषय
तक्षशिला में साहित्यिक, धार्मिक और लौकिक सभी प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती थी। मुख्य रूप से तीनों वेदों और शिल्प-विद्या का अध्ययन कराया जाता था। इसके अतिरिक्त व्याकरण, धनुर्विद्या, हस्त-विद्या, मन्त्र-विद्या, शल्य-विद्या और चिकित्सा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्रत्येक आचार्य अपना कोर्स और शिक्षाकाल निश्चित करने के लिए स्वतंत्र था।
शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् छात्रगण शिल्प-कलाओं और व्यवसायों का क्रियात्मक अनुशीलन और अध्ययन करने तथा विभिन्न प्रदेशों के रीती-रिवाज, रहन-सहन आदि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भ्रमण के लिए जाते थे।
तक्षशिला की प्रसिद्धि थी विश्वभर में
ईस्वी सन की प्रारम्भिक सदियों में तक्षशिला शिक्षा के क्षेत्र में अपना एक विशेष स्थान स्थापित कर चुका था। भारत के दूर-दराज और राजगृह, वाराणसी, मिथिला जैसे नगरों से विद्यार्थी यहाँ विद्याध्ययन के लिए आते थे। भारत के अतिरिक्त विदेशों से भी छात्र अध्ययन के लिए यहाँ आते थे। यहाँ के विद्यार्थी और स्नातक बनने वाले छात्र खुदको गौरवशाली समझते थे।
तक्षशिला के प्रसिद्ध विद्वान
आचार्य कश्यप मातंग जिन्होंने चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था वह भी तक्षशिला के विद्यार्थी थे। राजनीति और कूटनीति के महापंडित विष्णुगुप्त ( चाणक्य/ कौटिल्य ) यहीं पढ़ते थे और फिर यहीं आचार्य नियुक्त हो गए। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की। वह चन्द्र्गुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री भी थे।
- व्याकरण महापंडित पाणिनि यहाँ शिक्षक थे।
- कौशल नरेश प्रसेनजित ने भी यहाँ शिक्षा ग्रहण की थी।
- तक्षशिला आयुर्वेद और चिकित्सा की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। शल्य-चिकित्सा का यहाँ विशेष महत्व था।
- प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक ‘कुमारजीव’ तक्षशिला के विद्यार्थी थे।
- प्रसिद्ध राजवैद्य ‘जीवक’ ( सम्राट बिम्बिसार के दरबार में ) जिन्होंने गौतम बुद्ध की चिकित्सा की थी, भी यहीं के छात्र थे।
स्पष्ट है कि तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का अन्यतम केन्द्र थी। वहाँ के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे। आयुर्वेद और विधिशास्त्र के वहाँ विशेष विद्यालय थे। तक्षशिला के स्नातकों में भारतीय इतिहास के कुछ अत्यन्त प्रसिद्ध पुरुषों के नाम मिलते हैं। संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण पाणिनि गांधार स्थित शालातुर के निवासी थे और असंभव नहीं, उन्होने तक्षशिला में ही शिक्षा पाई हो।
गौतम बुद्ध के समकालीन कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति भी वहीं के विद्यार्थी रह चुके थे जिनमें मुख्य थे तीन सहपाठी कोसलराज प्रसेनजित्, मल्ल सरदार बन्धुल एवं लिच्छवि महालि; प्रमुख वैद्य और शल्यक जीवक तथा ब्राह्मण लुटेरा अंगुलिमाल। वहाँ से प्राप्त आयुर्वेद सम्बन्धी जीवक के अपार ज्ञान और कौशल का विवरण विनयपिटक से मिलता है। चाणक्य वहीं के स्नातक और अध्यापक थे और उनके शिष्यों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ चन्द्रगुप्त मौर्य, जिसने अपने गुरु के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
तक्षशिला का पतन कैसे हुआ
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में बौद्ध धर्म का भी पतन प्रारम्भ हो गया। पुष्यमित्र शुंग के समय में ब्राह्मण धर्म ने अपनी पहचान मजबूत की। अतः तक्षशिला का महत्व घटता चला गया। पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण धर्म को राजकीय आश्रय प्रदान किया और बहुत से बौद्ध भिक्षुओं को मौत के घाट उतरवा दिया। इस प्रकार यह प्रसिद्ध शिक्षा का केंद्र नष्ट होता चला गया।