विजयनगर साम्राज्य: इतिहास, शासक, शासन व्यवस्था और महत्व

विजयनगर साम्राज्य: इतिहास, शासक, शासन व्यवस्था और महत्व

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Last updated on April 19th, 2023 at 04:53 pm

विजयनगर साम्राज्य एक शक्तिशाली दक्षिण भारतीय साम्राज्य था जो 14वीं से 17वीं शताब्दी तक अस्तित्व में था। इसकी स्थापना 1336 में ऋषि विद्यारण्य के मार्गदर्शन में हरिहर प्रथम और उनके भाई बुक्का राय प्रथम ने की थी। साम्राज्य वर्तमान कर्नाटक में विजयनगर (अब हम्पी) शहर में केंद्रित था, और यह दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में फैल गया। विजयनगर साम्राज्य अपनी प्रभावशाली वास्तुकला, जीवंत संस्कृति और मजबूत सेना के लिए जाना जाता था। यह एक हिंदू राज्य था, लेकिन इसमें अच्छी खासी मुस्लिम आबादी भी थी। 16वीं शताब्दी में साम्राज्य का पतन हो गया, और अंततः 1565 में मुस्लिम सल्तनतों के गठबंधन द्वारा इसे जीत लिया गया।

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विजयनगर साम्राज्य: इतिहास, शासक, शासन व्यवस्था और महत्व
 

विषय सूची

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति– 

विजयनगर का प्रारंभिक इतिहास स्पष्ट नहीं है। “ए फॉरगॉटेन एंपायर” के प्रसिद्ध लेखक सीवेल (Sewell) ने विजयनगर की उत्पत्ति के विषय में बहुत सी परंपरागत कथाओं पर प्रकाश डाला है और उन्होंने यह विचार प्रकट किया है कि, “शायद अत्यधिक न्याय संगत विवरण तभी मिल सकता है जबकि हिंदुओं की किवदंतियों का सामान्य प्रवाह ऐतिहासिक तथ्यों की निश्चितता में मिश्रित कर दिया जाए।”

सीवेल ने उस परंपरा को स्वीकार किया है जिसके अनुसार संगम के पांच पुत्रों ने ( जिनमें से दो का नाम हरिहर व बुक्का था ) तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर उसके उत्तरी तट वाले अनागोंडी दुर्ग के सामने विजयनगर की नींव डाली थी। संगम के पुत्रों की इस आवश्यकता को प्रेरणा देने का उत्तरदायित्व उस समय के दो महान विद्वान सायण व माधव विद्यारण्य पर है।

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के उद्भव से संबंधित तीन मुख्य विचारधाराएं प्रचलित हैं—

(क)- तेलुगू, आंध्र या काकतीय उद्भव,
(
ख)- कर्नाट (कर्नाटक) या होयसल उद्भव,
(
ग)-कम्पिली उद्भव,

प्रथम विचारधारा के अनुसार हरिहर और बुक्काअंतिम काकतीय शासक प्रताप रूद्रदेव काकतीय के कोषाधिकारी (प्रतिहार) थे।तुगलक सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक द्वारा काकतीय राज्य की विजय के पश्चात ये दोनों भाई विजयनगर के वर्तमान स्थान पर पहुंचे जहां एक वैष्णव संत विद्यारण्य ने उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हें विजयनगर नामक नगर तथा साम्राज्य की स्थापना करने के लिए अनुप्रेरित किया। इस मान्यता की पुष्टि मुख्यत: कालज्ञान ग्रंथों विशेषकर विद्यारण्य कालज्ञान तथा कुछ अन्य स्रोतों से होती है।

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के तेलुगु या काकतीय उद्भव की मान्यता का समर्थन करने वाले आधुनिक विद्वानों ने अपनी मान्यता के समर्थन में यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि विजयनगर नरेशों ने अपने राज्य चिन्ह और प्रशासकीय प्रभावों को काकतीय से ग्रहण किया था। इसके अतिरिक्त विजयनगर नरेशों ने तेलुगु भाषा और साहित्य को अत्यधिक संरक्षण प्रदान किया था।

दूसरे सिद्धांत (कर्नाट या होयसल उद्भव संबंधी मान्यता) के अनुसार हरिहर और बुक्का होयसल राजा बीर बल्लाल तृतीय की राज सेवा में थे, जिसने अपने पुत्र के नाम पर विजयविरुपाक्षपुर नामक नगर की स्थापना की, जो बाद में विजयनगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो विद्वान इस सिद्धांत का समर्थन करते  हैं, उनका यह मत है कि हरिहर और बुक्का होयसलों के सामन्त तथा सेनापति थे।

तीसरे सिद्धांत के अनुसार, हरिहर और बुक्का कम्पिली (कर्नाटक में सागर के पास) के राय के यहां नौकरी करते थे। जब मुहम्मद-बिन-तुगलक के भतीजे बहाउद्दीन गुर्शप ने उसके विरुद्ध विद्रोह करके काम्पिली  के राय के पास शरण लीतब सुल्तान ने कम्पिली पर आक्रमण करके उसे सल्तनत में शामिल कर लिया। इस युद्ध के समय हरिहर और बुक्का दोनों को युद्ध बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया।

1335 ई० में जब दक्षिण में तुगलक प्रदेशों में विद्रोह के कारण भयंकर अव्यवस्था व्याप्त थी, तो सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने दोनों बंधुओं को कारागार से मुक्त करके, दक्षिण में पुनर्व्यवस्था स्थापित करने के लिए, तुगलक सेनाओं का सेनानायक नियुक्त करके दक्षिण भेजा जहां एक संत की प्रेरणा से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की परिस्थितियों तथा उसके संस्थापकों के उद्भव संबंधी विषय अभी तक अनिर्णीत हैं और प्रत्येक सिद्धांत के समर्थन में अनेक तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं।

विजयनगर साम्राज्य का संस्थापक कौन था?

यह बात अधिक निश्चितता के साथ कही जा सकती है कि विजयनगर का साम्राज्य हरिहर  व बुक्का ने स्थापित किया। उन्होंने उत्तर की ओर से आने वाले आक्रमणकारियों के विरुद्ध अपने विरोध का संगठन किया और लगभग तीन शताब्दियों तक वे ऐसा करने में सफल रहे।

विजयनगर शासन करने वाला प्रथम राजवंश

1-संगम वंश – 1336-1485

हरिहर प्रथम 1336-54-

हरिहर प्रथम संगम वंश का प्रथम शासक था

▪️ हरिहर प्रथम व बुक्का प्रथम द्वारा स्थापित  वंश उनके पिता संगम के नाम पर संगम वंश के नाम से प्रसिद्ध है।
▪️ 1340 ईस्वी में उन्होंने तो तुगभद्रा नदी की घाटी, कोपाकन के भागों व मालाबार के तट तक अपना अधिकार कर लिया।
▪️ लगभग 1346 ईस्वी तक होयसल राज्य को विजित कर लिया गया तथा 1347 ईस्वी में कदम्ब प्रदेश को विजयनगर में शामिल कर लिया गया।

▪️ हरिहर और बुक्का ने कोई शाही उपाधि धारण ने की क्योंकि होयसल वंश का बल्लाल तृतीय अभी जीवित था और वह दक्षिणी जिलों पर अपना अधिकार जमाए हुए था और मदुरा का सुल्तान प्रायद्वीप के दक्षिणी-उत्तरी भाग पर अपनी सत्ता का दावेदार बना हुआ था।
▪️ हरिहर प्रथम के जीवनकाल में ही विजयनगर का राज्य उत्तर में कृष्णा नदी से दक्षिण में कावेरी नदी के आस-पास तक पहुंच गया।
▪️ 1354 ईस्वी में हरिहर की मृत्यु हो गई और उसके बाद उसके भाई बुक्का प्रथम का राज्यारोहण हुआ।

बुक्का प्रथम 1354-77

▪️ बुक्का प्रथम ने 1354 से 1377 ईसवी तक शासन किया।
▪️ बुक्का प्रथम ने विजयनगर के शहर का निर्माण पूरा कराया और अपना साम्राज्य भी बढ़ाया।
▪️ उसने चीन के सम्राट के पास अपना दूत भेजा।
▪️ उसने बहमनी राज्य के मुहम्मद शाह व मुजाहिद शाह के विरुद्ध संग्राम किया जिसमें उसे हार का सामना करना पड़ा और असंख्य हिंदुओं की हत्या हुई।

हरिहर द्वितीय 1377-1404

▪️ बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सिंहासनारुढ़ हुआ। जिसने 1377 से 1404 ईस्वी तक शासन किया।
▪️ हरिहर द्वितीय ने महाराजाधिराज व राजपरमेश्वर की उपाधि धारण की।

देवराय प्रथम 1404-1422

▪️ देवराय प्रथम को बहमनी राज्य के साथ युद्ध करने पड़े जिसमें वह पराजित हुआ।
▪️ देवराय प्रथम ने 1410 ईस्वी में  तुगभद्रा नदी पर एक बांध का निर्माण करवाया इससे कृषि का अत्यधिक विकास हुआ।
▪️ देवराय प्रथम ने तुगभद्रा से अपनी राजधानी (विजयनगर) तक 24 किलोमीटर लम्बे एक जलसेतू या जलप्रणाली का भी निर्माण करवाया। इस जलप्रणाली के निर्माण से राजधानी में जल का अभाव समाप्त हो गया।
▪️देवराय प्रथम के शासनकाल में इतालवी यात्री निकोलो कोंटी ने विजयनगर की यात्रा की। उसने लिखा है कि नगर की परिधि 96 किलोमीटर थी और उसमें 90000 शक्तिशाली सैनिक निवास करते थे।
▪️निकोलो कोंटी ने नगर और उसके नरेश का उल्लेख करते विजय नगर में मनाए जाने वाले दीपावली नवरात्रि आदि जैसे उत्सवों का भी वर्णन किया है।
▪️देवराय प्रथम विद्वानों के भी महान संरक्षक थे। उनके राज दरबार को हरविलासम् और अन्य ग्रंथों के रचनाकार प्रसिद्ध तेलुगु कभी श्रीनाथ सुशोभित करते थे।
▪️देवराय प्रथम अपने राजप्रसाद के मुक्ता सभागारमें प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित करता था।
▪️1422 ईस्वी में देवराय की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र रामचंद्र उनका उत्तराधिकारी हुआ। रामचंद्र अपने पिता के शासनकाल में 1390-91 से उदयगिरी प्रांत की शासन व्यवस्था से संबंधित थे। परंतु वे छह माह ही शासन कर पाए। रामचंद्र का उत्तराधिकारी उनका भाई विजय प्रथम हुआ। वह विजयभूति , विजय बुक्का या वीर बुक्का तृतीय के रूप में प्रसिद्ध था।

देवराय द्वितीय 1422-1446

▪️ देवराय द्वितीय को उसकी प्रजा इम्माडि देवराय और साथ ही प्रौध  (प्रौढ़) देवराय या महान देवराय अविहित करती थी।
▪️ उसके अभिलेखों में उसके लिए गजबेतेकरउपाधि अर्थात हाथियों के शिकारी, का उल्लेख मिलता है।
▪️ देवराज द्वितीय ने कोंडविदु (आंध्र प्रदेश) को विजयनगर साम्राज्य में शामिल कर लिया।
▪️ 1442 ईस्वी में श्रीलंका के विरुद्ध एक सैनिक अभियान भेजा, जो विजयनगर को वार्षिक कर-राशि प्रदान करने के लिए सहमत हो गया।
▪️ फारस के राजदूत अब्दुर रज्जाक जो उसके राज दरबार में आया था, ने समकालीन विजयनगर साम्राज्य का विस्तार से वर्णन किया है।
▪️1446 ईस्वी में देवराय द्वितीय की मृत्यु के उपरांत विजयनगर साम्राज्य विदेशी आक्रमणों के द्वारा अक्रांत हुआ।

मल्लिकार्जुन-1446-1465

▪️ मल्लिकार्जुन ने 1446 से 1465 तक राज्य किया।
▪️ वह बहमनी सुल्तानों के मिश्रित आक्रमणों को और उड़ीसा के राजा तक के अभियान को परास्त करने में सफल हुआ।
▪️

विरुपाक्ष द्वितीय 1465-1486

▪️ मल्लिकार्जुन के बाद विरुपाक्ष द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने 1465 से 1486 तक शासन किया।
▪️ विरुपाक्ष एक अयोग्य शासक था। इसलिए देश में अशांति व गड़बड़ी फैल गई। परिणामस्वरुप कुछ प्रांतों ने उसके राज्य के विरुद्ध उपद्रव कर दिए।
▪️ विजयनगर साम्राज्य को बचाने के लिए 1486 में नरसिंह ने विरुपाक्ष द्वितीय को अपदस्थ कर स्वयं उसकी गद्दी पर अधिकार कर लिया। इसे प्रथम अपरहणकहते हैं। इससे संगम वंश का अंत हुआ और उसके स्थान पर सलुवा वंश की सत्ता का आरंभ हुआ।

2- सलुवा वंश-1486-1505

▪️ 1486 से 1492 तक नरसिंह ने विजयनगर के साम्राज्य पर शासन किया।

▪️ नरसिंह की मृत्यु के पश्चात नरेश नायक ने नरसिंह सलुवा के पुत्र इम्मादी नरसिंह को सिंहासन पर बैठा दिया और समस्त सत्ता अपने पास रखी।
▪️ 1505 में नरेश नायक  की मृत्यु हो गई और उसके पुत्र वीर नरसिंह ने सलुआ वंश के अंतिम शासक को हटाकर उसकी गद्दी का अपहरण कर लिया। इसे द्वितीय अपरणकहते हैं जिसने सलुआ वंश के शासन का अंत कर दिया और उसके स्थान पर तलुवा वंश आया।

3- तलुवा वंश- 1505-1570

वीर नरसिंह तलुवा वंश का संस्थापक था। उसने 1505 से 1509 तक शासन किया। वह एक धार्मिक राजा था जो धार्मिक अवसरों पर उपहार वितरण करता था।

कृष्णदेव राय-1509-1530
 ▪️ वीर नरसिंह के बाद उसके भाई कृष्णदेव राय ने राजमुकुट धारण किया और उसने 1509 से 1530 तक राज्य किया। यह विजयनगर का सबसे बड़ा शासक हुआ और वह भारत के प्रसिद्ध राजाओं में से एक है।

▪️ कृष्णदेव राय हुमायूँ और शेरशाह सूरी के समकालीन थे।
▪️ कृष्णदेव राय ने 1509-10 में बीदर एवं बीजापुर के संयुक्त आकमण को विफल किया।बीजापुर के सुल्तान को पराजित किया और युद्ध में बीजापुर का सुल्तान युसूफ आदिल मारा गया।
▪️कृष्णदेव राय ने संपूर्ण रायचूर दोआब पर अधिकार कर लिया। तदुपरांत उन्होंने बीदर और गुलबर्गा पर आक्रमण करके बहमनी सुल्तान महमूद शाह को कारागार से मुक्त करके बीदर की राजगद्दी पर आसीन किया और इस उपलब्धि की स्मृति में कृष्णदेव राय ने यवनराज्य स्थापनाचार्य का विरुद धारण किया।
▪️ कृष्णदेव राय ने उड़ीसा के गजपति सेनाओं को चारों युद्ध में पराजित किया और अंततः विजयनगर की सेना गजपति नरेश की राजधानी कटक तक जा पहुंची।
▪️ इन पराजयों के पश्चात उड़ीसा नरेश प्रतापरूद्र गजपति ने कृष्णदेव राय से शांति समझौते की याचना की जिसके अंतर्गत उसने अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेव राय के साथ कर दिया और बदले में कृष्ण देवराय ने उड़ीसा के विजित प्रदेशों को गजपति नरेश को लौटा दिया।
▪️कृष्णदेव राय ने प्रसिद्ध अपने प्रासिद्ध तेलुगु ग्रंथअमुक्तमाल्यदमें अपने राजनीतिक विचारों और प्रशासकीय नीतियों का विवेचन किया है।
▪️ कृष्णदेवराय एक महान विद्वान, विद्याप्रेमी और विद्वानों के उदार संरक्षक भी थे। जिसके कारण वे अभिनव भोज के रूप में प्रसिद्ध हैं।
▪️ उनका राजदरबार अष्टदिग्गज के रूप में विख्यात आठ प्रसिद्ध तेलुगु कवियों एवं विद्वानों से सुशोभित था।

कृष्णदेव राय के अष्टदिग्गज

        1-अल्लसनी पेड्डन

        2- नन्दि तिम्मन                              

        3-थूर्जटि

        4-मादय्यगारि मल्लन

        5-अय्मलराजू रामभध्रडु

        6-पिंगळि सूरन

        7-रामराज भूषणुडु (भटटू मूर्ति)

        8-पंडित तेनाली रामाकृष्ण

▪️ पेड्डन इन तेलुगु कवियों में सर्वप्रमुख थे जो संस्कृत एवं तेलुगु दोनों भाषाओं के महापंडित थे। जिन्हें कृष्णदेव राय ने विशेष रूप से सम्मानित किया।
▪️ कृष्णदेव राय का शासनकाल तेलुगु साहित्य का क्लासिकल या शास्त्रीय युग माना जाता है। अतः उन्हें उचित रूप से आंध्र पितामाह की उपाधि से सम्मानपूर्वक संबोधित किया गया।
▪️ कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रसिद्ध पुर्तगाली यात्री डॉमिंगो ने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की और कुछ समय तक कृष्णदेव राय के दरबार में भी रहा।
▪️ एक अन्य पुर्तगाली यात्री डुआर्टे बारबोसा ने भी कृष्णदेव राय के समय में विजयनगर की यात्रा की।
कृष्णदेव राय के संबंध पुर्तगालियों के साथ बहुत मैत्रीपूर्ण रहे। उसने उन्हें बहुत सी सुविधाएं दीं, क्योंकि घोड़ों व अन्य वस्तुओं के आयात से उसे लाभ हुआ था। 1510 ईस्वी में पुर्तगाली प्रांताध्यक्ष अल्बुकर्क ने भटकल में दुर्ग बनाने की स्वीकृति मांगी जो उसे मिल गई।

अच्युत राय-1530-1542

▪️ कृष्णदेव राय के बाद उसके पद पर अच्युत राय आया जिसने 1530 से 1542 तक शासन किया।

सदाशिव राय-1542-1570

▪️ सदाशिव राय ने 1542 से 1570 ईस्वी तक राज्य किया। वह अपने मंत्री राजाराम के हाथों में एक कठपुतली मात्र था। राजाराम एक योग्य व्यक्ति था और दक्षिणी के शासकों में चलने वाले संघर्षों में सचेष्ट रूप से हस्तक्षेप करके और एक के विरुद्ध दूसरे से मिलकर और इस प्रकार उन्हें कमजोर करके उसने विजयनगर साम्राज्य की मर्यादा को पुनः स्थापित करने का दृढ़ निश्चय किया।

रक्षसी-तंगड़ी/ तालीकोट का युद्ध-1565

25 दिसंबर 1564 को चारों शासकों ( अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर) की मिश्रित सेनाओं ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। 23 जनवरी 1565 को रक्षक-तंगड़ी के ग्रामों के बीच मित्र-दक्षिण राज्यों ने विजय नगर के राज्य के विरुद्ध आक्रमण किया। इसे तालीकोट का युद्ध कहते हैं और इसमें मुसलमानों की विजय हुई।

हुसैन निजाम शाह ने अपने हाथ से राजाराम का वध कर दिया और चिल्लाकर कहा, “अब मैंने तुझ से बदला ले लिया है या खुदा अब तू वह कर ले, जो तू चाहता है।” युद्ध का अंत पराजय में नहीं वरन पूर्ण संहार में हुआ। गड़बड़ रोकने के लिए विभिन्न पक्षों के नेताओं ने कोई प्रयत्न नहीं किया। बड़ी बुरी तरह से हिंदुओं की हत्या की गयी।

फरिश्ता के अनुसार  “लूटमार इतनी बड़ी थी कि संयुक्त सेना का प्रत्येक व्यक्ति सोना, जवाहरात, तंबूहथियार, घोड़े और दासों से मालामाल हो गया, क्योंकि सुल्तानों ने अपने पास केवल हाथी रखकर बाकी जिस सैनिक ने जो कुछ प्राप्त किया था वह उसी के पास रहने दिया।”  इस युद्ध में लगभग एक लाख लोगों की हत्या की गई।

विजयनगर साम्राज्य का पतन

राजाराम के भाई तिरुमल के अधीन बिजयनगर एक बार फिर अपनी सत्ता कायम करने के योग्य हो गया। मुसलमानों के संघ के टूट जाने के बाद वह पेनुकोंडा पहुंचा और उसने विजयनगर साम्राज्य की मर्यादा तथा प्रतिष्ठा उस सीमा तक उठा दी कि वह दक्षिण के मुस्लिम राज्यों के विषय में हस्तक्षेप करने के लिए एक बार फिर योग्य हो गया।

1570 तक सदाशिव नाममात्र का शासक रहा। किंतु उसे तिरुमल ने हटा दिया और स्वयं उस  सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। तिरुमल के समय से विजयनगर में अरविंदु वंश का आरंभ हुआ। तिरुमल के बाद उसका पुत्र रंगा द्वितीय सिंहासन पर बैठा। वह एक सफल शासक सिद्ध हुआ। उसके बाद वेंकट द्वतीय हुआ, जिसने 1586 से 1614 तक राज्य किया। वह विजयनगर का अंतिम महान शासक हुआ जिसने साम्राज्य को सुरक्षित रखा।

वेंकट द्वितीय की मृत्यु के बाद साम्राज्य का विघटन शुरू हुआ और उत्तराधिकार के लिए संघर्ष चल पड़ा। इस उत्तराधिकार की लड़ाई में ही विजय नगर साम्राज्य का पतन हो गया।

इस प्रकार वेंकट द्वितीय विजयनगर साम्राज्य के आन्तिम शासक थे।

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन

विजयनगर के शासक शासन-प्रबंध की कुशल व्यवस्था को अच्छा रूप देने में सफल हो सके। यह कहना गलत है कि विजयनगर साम्राज्य का शासन-प्रबंध “शासन के सिद्धांतों से विहीन था या मानव प्रगति के आदर्शों से रहित था और वह इसलिए स्थायी न रह सका।” परंतु सत्य यह है कि विजयनगर के शासक शासन-प्रबंध के संगठन को निरंतर कायम रख सके जिसने परिस्थितियों की मांग की पूर्ति की।

केंद्रीय प्रशासन

राजा- विजयनगर राज्य की राजधानी तथा राजा प्रशासन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग था और वस्तुत है उसे ईश्वर के समतुल्य माना जाता था।
राजा राज्याभिषेक के उपरांत सिंहासन पर बैठा था। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति मंदिर में संपन्न करवाया था।
उत्तराधिकार का नियम प्रचलित था, सामान्यत: ज्येष्ठ राजकुमार का युवराज के रूप में अभिषेक कर दिया जाता था।
विजयनगर के शासक सामान्यतः  व्यक्तिगत जीवन में वे पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष नीतियों का अनुसरण करते थे।
सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, जब किसी को निचली अदालत से सम्यक न्याय प्राप्त नहीं हो पाता था तो दुखी व्यक्ति न्याय के लिए राजा से याचना कर सकता था। यद्यपि राजा संपूर्ण प्रशासनतंत्र का केंद्रबिंदु था, तथापि वह निरंकुश नहीं होता था।

राजपरिषद- टी०वी० महालिंगम ने प्रशासन की राजपरिषद और मंत्रिपरिषद में अंतर स्पष्ट किया है। राजपरिषद प्रांतों के नायकों, सामन्त शासकों, प्रमुख धर्माचार्यों, विद्वानों, संगीतकारों, कलाकारों, व्यापारियों और यहां तक कि विदेशी राज्यों के राजदूतों को शामिल करके गठित किया गया एक विशाल संगठन होता था।

कृष्ण देवराय और उनके राजदरबार के प्रमुख विद्वान पेड्डन दोनों ही इस परिषद के सदस्य थे। यह स्पष्ट है कि इतने विविध तत्वों को मिलाकर गठित की गई इतनी विशाल परिषद बहुत प्रभावशाली नहीं रही होगी। इसकी तुलना इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल से की जाती है जिसका महत्व शासकीय के अपेक्षा औपचारिक अधिक था।

मंत्रीपरिषद- विजयनगर कालीन मंत्री परिषद की तुलना कौटिल्य के मंत्री परिषद के साथ की जा सकती है—

विजयनगर साम्राज्य की मंत्री परिषद संभवत: शिवाजी के अष्टप्रधान की भांति रहा होगा।

मंत्रीपरिषद की सभाएं वेंकट विलासमंडप नामक सभागार में आयोजित की जाती थीं
मंत्रीपरिषद का प्रमुख प्रधानी या प्रधानमंत्री होता था, जो मराठा पेशवा का पूर्वगामी था। प्रधानीमंत्री परिषद की सभाओं की अध्यक्षता करता था।
मंत्रियों को दंडनायक की उपाधि प्रदान की जाती थी। इस उपाधि के अर्थ थे “प्रशासन का प्रमुख” और “सेनाओं का नायक”।
मंत्रीगण केवल ब्राह्मणों ही में से नहीं होते थे, किंतु क्षत्रियों व वैश्यों से भी लिए जाते थे।

केंद्रीय सचिवालय- विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन एक विशाल सचिवालय द्वारा संचालित किया जाता था, जिसका विजयनगर साम्राज्य में आने वाले प्रत्येक विदेशी यात्री ने उल्लेख किया है।

रायसम्- राजा के मौखिक आदेशों को लिपिबद्ध करता था।

कर्णिकम्- कर्णिकम् लेखाधिकारी था। विजयनगर साम्राज्य में शायद ही ऐसा कोई कार्यालय या विभाग हो जिसमें कर्णिकम् नामक कर्मचारी कार्यरत ना हो।

सर्वनायक, मुद्राकर्ता और वसल्कार्यम्  राजा और राज दरबार से संबंधित कुछ अन्य अधिकारी होते थे।

फारस के राजदूत अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर के सचिवालय का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह 40 स्तंभों वाला भवन था जिसे वह दीवानखाना के रूप में उल्लेखित करता है, और यह भी बताता है कि इसमें राजकर्मचारी कैसे बैठते थे और किस प्रकार आलेख रखे जाते थे।

आय और व्यय- भू-राजस्व, संपत्ति कर, व्यापारिक कर, व्यवसायिक कर, उद्योगों पर लगाए जाने वाले कर, सामाजिक और सामुदायिक कर तथा अपराधियों के लिए आरोपित अर्थदंड आदि से राज्य को आय प्राप्त होती थी।

विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किए जाने वाले विविध कारों के नाम इस प्रकार थे—
कदमाईमगमाइकनिक्कई, कत्तनम्कणम्, वरम्, भोगम्, वारिपत्तमइराई और कत्तायम्।

राजस्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत भूमिकर होता था। भूमि का भली-भांति सर्वेक्षण किया जाता था और राज्य उपज का छठवें भाग को भूमि कर के रूप में वसूल करता था।
ग्राम के स्वरूप (कि वह देवदान, ब्रह्मदेय, दलवाय अग्रहार या करग्राम है), भू स्वामित्व भूमि की उत्पादकता और उगाई जाने वाली फसलों का ध्यान रखते हुए भूमि-कर का निर्धारण किया जाता था।

भूमि मापक पट्टी गांव या गरीबों के विभिन्न नाम से जैसे कि नदलक्कुल, राजव्थदंकोल, और गंडरायगण्डकोल।
कृष्णदेव राय के कोंडविदु शिलालेख में 59 वस्तुओं पर वसूल किए जाने वाले करों की दरों का भी उल्लेख है।
प्याज और हल्दी पर प्रति बोरी एक दम्म, गुड़ और अदरक पर प्रति बोरी दो दम्म, काली मिर्च और चंदन पर प्रति बोरी छः दम्म कर लगाया जाता था।
स्वर्णकार पाँच पणम् और मछुआरे आधा पणम् वार्षिक कर देते थे।
विजयनगर साम्राज्य में हीरा उद्योग बहुत समृद्ध स्थिति में था।
विजयनगर साम्राज्य में विवाह-कर भी वसूल किया जाता था।
विजयनगर के शासकों ने विधवा-विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए विधवा-विवाह को कर मुक्त रखा था।
केंद्रीय राजस्व विभाग को अथवन या अस्थवन कहा जाता था। राजस्व मंत्री इस विभाग का प्रमुख होता था।
सैन्य व्ययों का एक बहुत बड़ा अंश घोड़ों के आयात पर खर्च होता था।

विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा प्रणाली भारत की सर्वाधिक प्रशंसनीय मुद्रा प्रणालियों में से थी। विजयनगर साम्राज्य के स्वर्ण के सिक्कों से साम्राज्य की समृद्धि का पता चलता है।
विजय नगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का वरहाथा जिसका वजन 52 ग्रेन होता था, जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लिलिखित किया है।
26 ग्राम वजन का आधे वरहा को प्रताप, चौथाई वरहा या आधा-प्रताप 13 ग्राम का और फणम 5.5 गेन का होता था।
चांदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। एक वराह साठ तारों के समतुल्य होता था।
विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर के स्वर्ण वरहा सिक्कों पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृति अंकित हैं।
तुलुव वंश के सिक्कों पर बैल, गरुड़, उमामाहेश्वर, वेंकटेश और बालकृष्ण की आकृतियां एवं सदाशिव राय के सिक्कों पर लक्ष्मीनारायण की आकृति अंकित हैं।
अरविदु राजवंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे अतः उनके सिक्कों पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित है।

विजयनगर साम्राज्य के कानून और व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की अपनी विशिष्ट विधि एवं न्याय व्यवस्था थी। धर्मशास्त्र, स्मृतियां और राज्यतंत्र विषयक ग्रंथ कानूनों का स्रोत थे।
अपराधों के लिए दोषी पाए गए अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता था। प्राण-दंड , अंग-भंग, कारावास तथा अर्थदंड सामान्य दंड थे। देशद्रोहियों को जीवित सूली पर चढ़ा दिया जाता था। हत्यारों का बाजारों में खुलेआम सर काट दिया जाता था। कुछ अपराधियों को प्राण-दंड के रूप में हाथियों के पैरों, सूँड और दांतो से कुचल कर मार डाला जाता था।
कृष्णदेव राय ने “अपनी एक बड़ी सिंचाई योजना के सफल समापन” का उत्सव मनाने के लिए नर बलि चढ़ाई थी।
प्रांतों में पुलिस के कार्यों का निष्पादन नायकों के अधीन कार्यरत कवलकारों द्वारा किया जाता था।

सैन्य संगठन-

विजयनगर के शासकों के पास एक शक्तिशाली और विशाल सेना का गठन बहुत आवश्यक था। विजयनगर साम्राज्य के इतिहास से स्पष्ट होता है कि इसका अस्तित्व वस्तुतः इसकी सैनिक शक्ति पर ही निर्भर था। उसे बहमनियों के प्रायिक आक्रमणों से आत्मरक्षा करनी पड़ती थी।
सैनिक विभाग को खण्डाचार कहा जाता
 था।
सैनिकों को सामान्यतः राजकोष से नगद वेतन दिया जाता था, जिसकी पुष्टि विदेशी यात्रियों की रचनाओं से भी होती है।
सेना के चार अंग थे पदाति, अश्वारोही, हस्तीसेना और तोपखाना।
कृष्णदेवराय प्रतिवर्ष तेरह हजार घोड़े खरीदते थे। जिन्हें मुख्यतः हारमुज से लाया जाता।
नविजित प्रदेशों में निर्मित किलों को पदाइपर्रू कहा जाता था।

प्रांतीय प्रशासन-

विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के इतिहास में एक विशालतम साम्राज्य था। इसके महानतम दिनों में कृष्णा नदी के दक्षिण का समस्त क्षेत्र इसके साम्राज्य का अंग था। लेकिन सुदूर दक्षिण के कुछ राज्य विजयनगर से स्वतंत्र थे। पुर्तगाली यात्री पायज़ के अनुसार “कृष्णदेव राय के साम्राज्य में 600 लीग लंबा सामुद्रिक तटवर्ती क्षेत्र और उससे आगे 348 लीग लंबा अंतर्वर्ती प्रदेश शामिल था।”
प्रांतों को सामान्यतः राज्य कहा जाता था। परंतु तमिल प्रदेश में उन्हें कहीं-कहीं मंडलम् और कर्नाटक में पिर्थिक भी कहा जाता था।
बड़े राज्यों को महाराज्य कहा जाता था।

गवर्नर- सामान्यतः राजपरिवार के कुमारों और राजकुमारों को प्रांतों के गवर्नरों के रूप में नियुक्त किया जाता था। संगम राजवंश के युग में अनेक राजकुमारों को प्रांतीय गवर्नर के रूप में कार्य करने के संदर्भ प्राप्त होते हैं। परंतु रालुव और तुलुव राजवंशों के काल में इस परंपरा का ह्रास हो गया क्योंकि इन दो वंशों के शासनकाल में पुत्रों की संख्या बहुत कम थी। संगम युग में गवर्नरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों ने उदैयर की उपाधि को धारण किया।
राजवंशों के राजकुमारों से अलग नियुक्त होने वाले गवर्नरों को दंडनायक कहा जाता था।

विजयनगर साम्राज्य की नायंकार व्यवस्था–

विजयनगर साम्राज्य की प्रांतीय शासन व्यवस्था में एक अन्य महत्वपूर्ण पद नायंकार का था। इसके उत्पत्ति और स्वरूप के संबंध में विवाद हैं। कुछ इतिहासकार इसे विजयनगर साम्राज्य में सेना  नायकों को नायक कहा जाता था से जोड़ते हैं। परंतु अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि अनुवांशिक सैनिक गवर्नरों के अधीन प्रांतीय प्रशासन प्रणाली को नायंकार व्यवस्था कहा जाता था।     

नायंकार शब्द दो शब्दों नायक एवं अमरम् को मिलाकर बनता है, जिसका अर्थ है अमरम् भूमि का उपयोग करने वाले नायक। अतः इस प्रमार की भूमि प्राप्त करने वाले नायकों के दो प्रमुख कर्तव्य होते थे– प्रथमतः नायक को अमरम् भूमि से प्राप्त आय का एक भाग केंद्र के खजाने में जमा करना पड़ता था। यह वार्षिक वित्तीय अनुदान सामान्यतः अमरम् भूमि की आय का आधा होता था। दूसरे नायकों को राजा की सैनिक सहायता के लिए सेना रखनी पड़ती थी।

सेना की संख्या अमरम् भूमि के आकार पर निर्भर करती थी। यह व्यवस्था सामन्तवाद और मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था का ही प्रतिरूप प्रतीत होती है।
   नायंकार व्यवस्था का सर्वाधिक प्रचलन तमिलनाडु में प्रचलित था। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि रक्षसी-तंगड़ी के युद्ध (1565) के बाद अधिकांश नायकों ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर सुदूर दक्षिण में अपने छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की।

विजयनगर साम्राज्य की शासन-व्यवस्था—-

  • विजयनगर के शासकों ने प्रांतीय शासन व्यवस्था के सरलीकरण के लिए राज्य या प्रान्त को छोटे-छोटे प्रशासकी खण्डों और उपखण्डों में विभाजित किया था। विल्कुल आजके जनपद और तहसील के समान व्यवस्था।
        
  • तमिल प्रदेश में ये जनपद कोट्टमया कुर्रमकहे जाते थे। कोट्टम को तालुकों अर्थात नाडु में विभाजित किया गया था।
       
  • नाडु को एैयम्बदु मेलाग्राम अर्थात ग्रामों के समूह के रूप में गठित किया गया था।
       
  • ग्राम (गाँव) प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थे।

ग्रामसभाएँ–विजयनगर साम्राज्य में ग्राम समाज व्यवस्था का वह स्वरूप लगभग समाप्त हो गया था जो चोल-युग में प्रसिद्ध था। इस काल में ग्रामसभाओं की कार्य प्रणाली और शाक्तियाँ सीमित थीं।

 नाडु– बड़े-बड़े प्रादेशिक या क्षेत्रीय मण्डलों को नाडु कहा जाता था।

स्थानीय ग्रामसभाओं का पतन—चोल युग (907-1120) तक ग्राम सभाएँ अपने स्वर्णिम युग में थीं। नायंकार और आयगार व्यवस्था ने ग्राम सभाओं को पर्याप्त रूप से क्षति पहुँचायी।

आयगार व्यवस्था– आयगार और व्यवस्था ग्रामीण प्रशासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। आयगार व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक ग्राम एक स्वतंत्र प्रशासकीय इकाई था और ग्राम प्रशासन के कार्यों को 12 कर्मचारियों द्वारा संचालित किया जाता था, जिन्हें सम्मिलित या संयुक्त रूप से आयगारपुकारा जाता था।
     
विजयनगर साम्राज्य में मंदिरों का महत्व– विजयनगर साम्राज्य में मंदिरों को अर्ध राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। मंदिरों को अनुदान के रूप में बड़ी-बड़ी जागीर प्रदान की जाती थी, जिनमें वह स्वयं की व्यवस्था के अनुसार स्थानीय कर भी वसूल करते थे

कृष्णदेव राय ने चोल-मंडलम् में शिव और विष्णु के मंदिरों को 10 हजार वरहा दान में प्रदान किए और इन मंदिरों को इतनी ही धनराशि कर के रूप में वसूल करने की अनुमति प्रदान की गई थी। मंदिर विशाल भू-स्वामी होते थे और उन्हें भूमि के क्रय विक्रय का अधिकार प्राप्त था।

यह मंदिर आपदाग्रस्त लोगों को ऋण प्रदान करते थे और इस प्रकार बैंकों के रूप में भी काम करते थे। यदि ऋण लेने वाला व्यक्ति ऋण की अदायगी नहीं कर पाता था तो वह मंदिर को अपनी कुछ जमीने बेचकर ऋण से मुक्ति पा लेता था। यह मंदिर स्थानीय न्याय प्रदान करने का भी कार्य करते थे।

विजयनगर साम्राज्य के स्थानीय अधिकारी

परूपत्यगार— यह अधिकारी किसी स्थान विशेष में राजा या गवर्नर का प्रतिनिधि होता था। वह उक्त क्षेत्र में शासन की ओर से प्रधान कर संग्रहकर्ता (कलेक्टर) के रूप में काम करता था।

अधिकारी– विजयनगर साम्राज्य का यह दूसरा महत्वपूर्ण अधिकारी होता था ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रत्येक नगर और ग्राम में इस अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी। यह बहुत सम्मानित व्यक्ति होता था। इसकी उपस्थिति में ही समस्त दस्तावेज पूरे किए जाते थे। संपत्ति के बंटवारे संबंधी वसीयतें और भूमि-अनुदान की पुष्टि उन्हीं अधिकारियों द्वारा की जाती थी।

अंत्रिमार– प्रशासनिक अधिकारियों के रूप में अंत्रिमार ग्रामसभा और अन्य स्थानीय संगठनों की व्यवस्था को नियंत्रित करते थे और स्थानीय सभाओं की पूर्ण स्वायत्तता पर अंकुश रखते थे।

नत्तुनायक्कर– ये नाडुओं के अधीक्षक थे और उन्हें उनकी सेवाओं के बदले राजा से कर-मुक्त भूमि प्राप्त होती थी।

स्थल गौडिक– जो व्यक्ति साम्राज्य की प्रशंसनीय सेवाएं करते थे जैसे कि किलों के बुर्जों का निर्माण उन्हें ग्रामों का स्थल गौडिक नियुक्त किया जाता था।

सेनबोवस— यह ग्रामों या नाडुओं के लेखाधिकारी होते थे जो राजस्व पुस्तिकाओं को तैयार करते थे।

मध्यस्थ– यह एक निर्णायक होता था और इनका कार्य है भूमि के क्रय-विक्रय के समय उसका मूल्य निर्धारण करना होता था
 

निष्कर्ष–

इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य अपनी विशाल सेनाओं और महान राजाओं के लिए हमेशा इतिहास में विशेष स्थान रखता है। इस साम्राज्य ने दक्षिण में मुसलमानों के प्रसार को सीमित रखा और लगभग 300 वर्ष तक दक्षिण में हिंदू शासन को बनाए रखा। इस साम्राज्य ने महान शासकों विशेषकर कृष्णदेव राय जैसे साहित्य प्रेमी और महान शासक को इतिहास में अमर कर दिया।

यद्यपि अधिकांश विजय नगर के शासक अपने निरंकुश शासन के लिए जाने जाते हैं और वह चारित्रिक रूप से भी महान नहीं थे, जिसके कारण उन्हें अनेक बार मुस्लिम सेनाओं से पराजय का सामना करना पड़ा। जिसके कारण धीरे-धीरे विजयनगर साम्राज्य अपनी महान महत्ता को खोता गया और अंततः उसका पतन हो गया। यद्यपि उसके पतन के पश्चात भी विजयनगर साम्राज्य का गौरव बना रहा यद्यपि उसका स्थान हिंदुओं के बजाय मुस्लिमों के हाथ में आ गया जो अंग्रेजों के स्थापित होने तक बना रहा।


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