प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

Share This Post With Friends

विश्व के किसी भी देश अथवा उसकी सभ्यता और उसकी प्रगति को समझने के लिए उसकी उपलब्धियों एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम आधार उस देश में स्त्रियों की दशा का अध्ययन करना है। स्त्रीयों की दशा किसी देश की संस्कृति का मानदंड को प्रदर्शित करती है। समुदाय का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक आधार रखता है। प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में, हिंदू समाज में इसका अध्ययन निश्चयतः ही उसकी गरिमा को इंगित करता है।

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल

वैदिक काल में स्त्रियों की दशा
हिंदू सभ्यता में स्त्रियों को अत्यंत आदरपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता के धर्म में माता देवी को सर्वोच्च पद प्रदान किया जाना उसके समाज में उन्नत स्त्री दशा का सूचक माना जा सकता है। ऋग्वैदिक काल में समाज ने उसे आदरणीय स्थान दिया। उसके धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार पुरुषों के ही समान थे।
विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता था दंपत्ति घर के संयुक्त अधिकारी होते थे। यद्यपि कहीं-कहीं कन्या के नाम पर चिंता व्यक्त की गई है तथापि कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां पिता विदुषी एवं योग्य कन्याओं की प्राप्ति के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं। कन्या को पुत्र जैसा ही शैक्षणिक अधिकार एवं सुविधाएं प्रदान की गई थीं।
कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था तथा वे भी ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करती थी। ऋग्वेद में अनेक ऐसी स्त्रियों का वर्णन है जो विदुषी तथा दार्शनिक थी और जिन्होंने कई मंत्रों एवं ऋचाओं की रचना भी की थी। विश्वारा को ‘ब्रह्मवादिनी’ तथा ‘मंत्रदृष्ट्रि’ कहा गया है, जिसने ऋग्वेद के एक स्तोत्र की रचना की थी।
घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इंद्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं जो वैदिक मंत्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता हैं। ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी ‘जुहु’ की कन्या की कथा मिलती है। बृहस्पति अपनी पत्नी को छोड़कर तपस्या करने गए किंतु देवताओं ने उन्हें बताया कि पत्नी के बिना अकेले तप करना अनुचित है। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि स्त्री पुरुष की ही भांति तपस्या करने की भी अधिकारिणी थी।

महिला छात्राओं के दो वर्ग थे- ‘ब्रह्मवादिनी’ तथा ‘सद्योद्वाहा’। प्रथम आजीवन धर्म तथा दर्शन के अध्येता थीं तथा द्वितीय अपने विवाह के समय तक ही अध्ययन करती थीं। इस बात के भी उदाहरण हैं कि ऋवैदिक महिलाएं दार्शनिक समस्याओं पर पुरुषों के साथ वाद-विवाद भी करती थी। इस काल में कन्याओं का विवाह प्रायः 15-16 वर्ष की आयु में होता था और इस प्रकार उन्हें अध्ययन का पर्याप्त अब अवसर मिल जाता था।
समाज में सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। किंतु दो दृष्टियों से इस समय स्त्री को अनुपयुक्त माना गया।
  • प्रथम– स्त्री को संपत्ति का अधिकार नहीं था।
  • द्वितीय– वह शासन करने के योग्य नहीं थी। 
ऋग्वैदिक युग में स्त्री को संपत्ति तथा शासन के अधिकारों से वंचित रखने के पीछे  मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि भू-संपत्ति का अधिकारी वह था जो शक्तिशाली शत्रुओं से बलपूर्वक उसकी रक्षा करने में समर्थ होता है क्योंकि यह कार्य स्त्री के बस का नहीं था। अतः उसके धन संबंधी अधिकारों को मान्यता नहीं मिली।
इसी प्रकार की असमर्थता शासन के क्षेत्र में भी रही है। आर्य एक विदेशी भूमि में क्रमशः अपना राज्य स्थापित कर रहे थे। उनके शत्रुओं ( संभवतः हड़प्पावाशी तथा किरात) की संख्या अधिक थी। ऐसी स्थिति में स्त्रियों को शासन संबंधी अधिकार देना उनके नवगठित राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त नहीं होता।
 

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा

उत्तरवैदिक काल में स्त्रियों की दशा- ऋग्वैदिक काल की भांति उत्तर वैदिक काल में भी स्त्रियों की दशा पूर्ववत बनी रही। यद्यपि अथर्ववेद में एक स्थान पर कन्या को चिंता का विषय बताया गया है। किंतु उनकी सामान्य स्थिति संतोषजनक बनी रही। कन्या की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। उसका उपनयन संस्कार भी होता था तथा ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए वह अध्ययन करती थी।
अथर्ववेद में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य द्वारा ही कन्या योग्य पति को प्राप्त करने में सफल होती है (ब्रहम्चर्येण कन्यान युवा विन्दते पतिम् )। विवाहिता स्त्रियों को यज्ञ में भाग लेने का भी अधिकार था, कुछ स्त्रियों ने धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में निपुणता तथा विद्वता प्राप्त कर ली थी। किंतु समय के प्रवाह के साथ हम स्त्री शिक्षा में कुछ गिरावट पाते हैं।
कन्याओं को गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजने की प्रथा समाप्त हो गई तथा घर पर ही शिक्षा देने का समर्थन किया जाने लगा। अब वे केवल अपने पिता, भाई, या चाचा आदि से शिक्षा ग्रहण कर सकती थी। ऐसी स्थिति में केवल कुलीन परिवार की कन्याएं ही शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं।
परिणामस्वरूप उनके धार्मिक अधिकार कम हो गए। कन्या का विवाह पहले जैसा ही व्यस्क हो जाने पर होता था। कभी-कभी वे स्वयं अपना पति चुनती थीं। क्षत्रिय समाज में स्वयंवर की प्रथा थी। सती प्रथा का अभाव था, तथा विधवा विवाह प्रचलित थे। पर्दा प्रथा का प्रचलन भी नहीं था। यद्यपि स्त्रियों का सामाजिक समारोह में जाना प्रतिबंधित हो गया था। इस काल के समाज में भी स्त्री के धन संबंधी अधिकारों को मान्यता प्रदान नहीं किया था।
अल्टेकर महोदय का विचार है कि वैदिक काल की राजनीतिक आवश्यकताएं ही प्रागैतिहासिक सती प्रथा की समाप्ति तथा नियोग एवं पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान किए जाने के लिए उत्तरदायी थीं ( The exigencies of the political situation in the vedic period were responsible for the abolition of the prehistoric Sati custom and sanctioning of Niyoga and remarriage. — position of women in hindu civilization ,page- 342 )
ब्राह्मण तथा उपनिषद ग्रंथों के अध्ययन से भी स्त्री की संतोषजनक दशा का ज्ञान होता है। शतपथ ब्राह्मण से ज्ञात होता है कि गृह कार्य एवं उत्तरदायित्व के निर्वाह में स्त्री पुरुष  की समान भागीदार होती है। अविवाहित व्यक्ति यज्ञ तथा धार्मिक कर्मकांडों का अनुष्ठान करने योग्य नहीं था। यज्ञ के अवसर पर मंत्रों के गायन का कार्य वस्तुतः पत्नी द्वारा ही संपन्न किया जाता था।

उपनिषद काल में हम कई महिलाओं को दार्शनिकों की श्रेणी में आगे निकलता हुआ पाते हैं मैत्रयी, गार्गी, अत्रेयी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। गार्गी ने तो उस समय के प्रख्यात दार्शनिक याज्ञवल्क्य से राजा जनक की सभा में गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों पर वाद-विवाद किया था। इस काल की कुछ महिलाएं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान करती हुई दर्शन का अध्ययन करती थीं।
अनेक शिक्षित महिलाएं अध्यापन कार्य का भी अनुसरण करती थी किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में यह है स्पष्ट भी किया गया है कि “स्त्री पुरुष की अपेक्षा दुर्बल एवं भावुक मस्तिष्क की होती है तथा बाह्म आकर्षणों के प्रति आसानी से आ जाती है। ललित कलाओं के प्रति भी उसका विशेष आकर्षण हुआ करता है।

सूत्र -महाकाव्य काल में स्त्री की दशा

 

सूत्र काल तक आते-आते स्त्रियों की दशा पतनोन्मुख होकर हीन दशा में पहुंच गई। कन्या का जन्म अभीष्ट (Intended) नहीं था। स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया तथा विवाह के अतिरिक्त उनसे संबंधित अन्य संस्कारों में वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं होता था। कन्याओं के विवाह की आयु भी घटा दी गई जिससे उनका विधिवत् शिक्षा प्राप्त कर पाना कठिन हो गया।

 

ईस्वी सन् के प्रथमार्ध तक अधिकांश कन्याओं का उपनयन औपचारिकता मात्र रह गया तथा इसे विवाह के कुछ पूर्व संपादित कर दिया जाता था। द्वितीय शती तक इसे पूर्णता बंद कर दिया गया था तब विवाह को ही उपनयन का विकल्प मान लिया गया। 

 

 वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिको मतः। 
पतिसेवा गुरौवासो गृहार्थोग्नि परिक्रिया।।—मनु० २.६७.                      तथा
नास्ति स्त्रिणां क्रिया धर्मे व्यवस्थित:।—–मनु० ९.१८.
सूत्र काल में  कन्याओं का विवाह नौ से लेकर बारह वर्ष तक की आयु में किया जाने लगा। उपनयन संस्कार के अभाव में कन्या की स्थिति शूद्रों की श्रेणी में हो गयी। अब वे न तो वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर सकती थी और ना ही यज्ञों का अनुष्ठान कर सकती थीं। यज्ञ तथा कर्मकांड में स्त्री की उसके पति के साथ उपस्थिति भी औपचारिकता ही रह गयी।
सिर्फ धनी एवं कुलीन परिवारों की कन्याओं को ही शिक्षा दी जाती थी। राज परिवार की महिलाएं भी शिक्षित होती थी उन्हें ललितकला तथा संगीत, नृत्य, चित्र, मालाकारी आदि की विधिवत शिक्षा दी जाती थी। वात्सायन ने लिखा है कि स्त्रियों को 64 कला में दक्ष होना चाहिए
सूत्रों के काल में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया गया। वशिष्ठ ने स्पष्ट किया है कि “स्त्री स्वतंत्रता के योग्य नहीं है बचपन में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करते हैं”।
पिता रक्षति भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वतन्त्रयमर्हति।।- वाशिष्ठ,१-२.
 
मनु आदि कुछ अन्य स्मृतिकारों ने भी इस मत का समर्थन किया है। मनु ने तो यहां तक कहा है कि पति के दुराचारी तथा चरित्रहीन होने की दशा में भी पत्नी का कर्तव्य है कि वह देवता के समान उसकी पूजा करे।
विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जित:।
उपचर्य: स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिम्।।- मनु०–५.१५४.
ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी ईस्वी तक का समय उत्तरी भारत में विदेशी आक्रमणों का काल रहा। जिससे समाज में भारी अव्यवस्था फैल गई। इसने स्त्रियों की स्थिति को प्रभावित किया।
नियोग प्रथा, पुनर्विवाह की प्रथाएं बंद हो गयी। स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह करने के स्थान पर सन्यास द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। समाज में सती प्रथा का भी प्रचलन हो गया और इसे एक महान धार्मिक यज्ञ बताया गया। इससे स्त्रियों की दशा और खराब हो गई किंतु एक दिशा में स्त्री की दशा में सुधार हुआ.
वैदिक काल में उसे संपत्ति संबंधी अधिकार प्रदान नहीं किए गए थे। अब पुनर्विवाह के अभाव में विधवा एवं पुत्रहीन स्त्रियों की संख्या में वृद्धि हुई अतः उनके पोषण एवं विवाह के निमित्त व्यवस्थाकारों ने उनके धन संबंधी अधिकारों को मान्यता देना प्रारंभ किया। क्रमशः उनका यह अधिकार माननीय हो गया।

पूर्व मध्यकाल में स्त्रियों की दशा

पांचवी से बारहवीं शती तक स्त्रियों की दशा—

इस समय उत्तरकालीन स्मृतियां लिखी गयीं तथा उन पर अनेक भाष्य प्रस्तुत किए गए। इस काल में स्त्रियों की दशा निरंतर पतनोन्मुख होती गयी। एकमात्र उसके धन संबंधी अधिकारों को ही समाज में मान्यता प्रदान की गयी। 12 वीं शती तक आते-आते संपूर्ण देश में विधवा के मृत पति का उत्तराधिकारी होने का सिद्धांत व्यावहारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। स्त्री की स्वयं की संपत्ति जिसके ऊपर उसका पूरा अधिकार होता था “स्त्रीधन” कहा गया।
इस काल में स्त्री धन का क्षेत्र व्यापक करके उसमें उत्तराधिकार एवं विभाजन की संपत्ति को भी सम्मिलित कर दिया गया। मिताक्षरा तथा दायभाग में स्त्री को मृत पति की संपत्ति का पूर्ण उत्तराधिकारी घोषित किया गया। किंतु जीवन के अन्य क्षेत्रों में उनकी दशा पूर्ववत् दयनीय बनी रही। उपनयन की समाप्ति एवं बाल विवाह के प्रचलन ने उसे समाज में अत्यंत निम्न स्थिति में ला दिया। उसकी स्थिति शूद्रों जैसी हो गयी।

इस युग में विवाह की आयु और कम कर दी गई तथा 8 से लेकर 10 वर्ष की आयु की कन्या को विवाह के लिए उपयुक्त माना गया। विधवा विवाह वर्जित हो गया तथा सती प्रथा का राजपूतों में विशेष प्रचलन हो गया। राजपूत वंशों में कन्याओं का विवाह 14 या 15 वर्ष की आयु में होता था। कई कन्याओं को संरक्षिका के रूप में शासन भार भी ग्रहण करना पड़ता था। उन्हें प्रशासनिक एवं सैनिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी इससे उनके विवाह की आयु में वृद्धि हुई। किंतु अशासकीय परिवारों की कन्याओं का विवाह अल्पायु में ही होता था।
बारहवीं शती तक कुलीन परिवार की कुछ कन्यायें साहित्य की शिक्षा ग्रहण करती थी तथा इनमें से कुछ ने कवयित्रियों एवं आलोचिकाओं के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त की। किंतु मुस्लिम सत्ता की स्थापना के साथ ही स्त्री शिक्षा का पूर्णतया ह्रास हो गया। 10 वर्ष की आयु जो विवाह के लिए आदर्श थी, के पूर्व किसी भी प्रकार की शिक्षा संभव नहीं रह गयी।
समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन हुआ जिससे कन्याओं का सार्वजनिक जीवन समाप्त हो गया तथा उनका कार्यक्षेत्र घर के भीतर ही सीमित रह गया। स्त्रियों के अज्ञानता के कारण स्मृतिकारों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि पति ही पत्नी का एकमात्र देवता है तथा उसका धर्म केवल उसकी आज्ञा मानना एवं उसकी पूजा करना है।
कुलीन परिवारो में बहुविवाह का प्रचलन सामान्य हो गया। बाल विधवाओं की संख्या भी समाज में बढ़ गई क्योंकि 1000 ईसवी के बाद किसी भी संभ्रान्त कुल की विधवा पुनर्विवाह नहीं कर सकती थी। आठवीं शताब्दी तक समाज में विधवाओं के मुंडन की प्रथा का भी प्रचलन हो गया। स्त्रियों की शुद्रों की कोटी में गणना की जाने लगी, उन्हें वैदिक साहित्य एवं दर्शन के अध्ययन से वंचित कर दिया गया।
 

स्त्री के धन संबंधी अधिकार— 

 

प्राचीन काल में स्त्री को स्वयं  चल-संपत्ति माना जाता था और उसे उपहार में दिया जा सकता था। पति का अपनी पत्नी के ऊपर पूर्ण अधिकार होता था। ऋग्वेद तथा महाभारत के कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि स्त्री को द्यूत क्रीड़ा के समय दांव पर रख दिया जाता था। युधिष्ठिर ने इसी अधिकार से द्रौपदी को दांव पर लगाया था। यद्यपि पति का पत्नी के शरीर पर पूरा अधिकार था और वह उसे अपनी इच्छा अनुसार उपहार में दे सकता था तथापि व्यावहारिक रूप से यह समाज में निंदनीय माना गया था।
स्वयं महाभारत से पता चलता है कि युधिष्ठर के कार्य का सभासदों द्वारा कड़ा प्रतिवाद किया गया था। वैदिक युग में भी सभ्य परिवारों में स्त्री का सम्मानित स्थान था तथा उसे परिवार की संपत्ति का पति के साथ समान अधिकारी माना गया, जैसा कि उसके लिए प्रयुक्त “दंपत्ति” शब्द से विदित होता है। स्त्री को दांव पर रखने अथवा उपहार में देने के जो कुछ उदाहरण प्रस्तुत होते हैं वे  जंगली परंपरा के द्योतक है न कि सभ्य समाज के।
प्रथम तथा द्वितीय सती के स्मृतिकारों ने यह स्पष्ट प्रावधान किया है कि किसी भी परिस्थिति में स्त्री  तथा पुत्र उपहार अथवा बिक्री की वस्तु नहीं हो सकते हैं
 
भारतीय सभ्यता में वैदिक युग से ही पति पत्नी दोनों को पारिवारिक संपत्ति का संयुक्त अधिकारी माना गया है। विवाह के अवसर पर पति यह प्रतिज्ञा करता था कि वह आर्थिक मामलों में अपनी पत्नी के अधिकारों तथा हितों की उपेक्षा नहीं करेगा। किंतु संयुक्त परिवार के सिद्धांत से स्त्री को बहुत कम लाभ हुए। उसे केवल अपने निर्वाह के लिए पति से हर्जाना प्राप्त करने का अधिकार मिल गया।
मनुस्मृति में कहा गया है कि अपनी पत्नी के उचित निर्वाह की व्यवस्था किए बिना पति कहीं यात्रा पर नहीं जा सकता। यदि पुरुष एक स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्री से विवाह करता है तो उसे प्रथम के जीवन निर्वाह के लिए उचित व्यवस्था करनी चाहिए। परिवारिक संपत्ति होने पर भी पति का धर्म था कि वह अपनी पत्नी के निर्वाह की व्यवस्था करे।
प्रारम्भिक व्यवस्थाकारों ने पत्नी को पति के विरुद्ध न्यायालय में जाने के अधिकार को मान्यता नहीं दी। किंतु विज्ञानेश्वर जैसे उत्तरकालीन शास्त्रकारों ने उसे स्पष्टतः यह अधिकार दिया है कि यदि पति अपनी साध्वी पत्नी का त्याग करे अथवा उसकी संपत्ति का अपहरण करे तो वह न्यायालय की शरण ले सकती है।
किंतु वयवहार में ऐसा नहीं था। पत्नी अपने पति की सम्मति बिना पारिवारिक संपत्ति का कोई भाग व्यय नहीं कर सकती थी। व्यवहार में पति ही उसका पूर्ण स्वामी होता था और वह अपनी इच्छा अनुसार परिवार की संपत्ति का उपभोग करता था। संयुक्त अधिकार का सिद्धांत एक वैधानिक कल्पना मात्र था। परिवार की अचल संपत्ति में स्त्री का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं था।

स्त्रीधन

 

हिंदू व्यवस्थाकारों ने स्त्री को चल संपत्ति में पूर्ण अधिकार प्रदान किया। इसमें बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण, जवाहरात आदि वस्तुएं आती थी। चल संपत्ति के अंतर्गत आने वाले वस्तुओं के लिए स्त्री धन की सामान्य संज्ञा प्रयुक्त की गई। यह वह संपत्ति थी जिसके ऊपर सामान्य परिस्थिति में स्त्री का पूर्ण स्वामित्व था।
अल्टेकर का विचार है कि स्त्री धन का विकास कन्या मूल्य शुल्क से हुआ जो असुर विवाह के अंतर्गत वर कन्या के पिता को प्रदान करता था। पुत्री के प्रति स्नेह के कारण माता-पिता उसे शुल्क का अंश अथवा कभी-कभी संपूर्ण भाग दे देते थे, ताकि वह स्वतंत्र रूप से उसका उपयोग कर सके। यदि कन्या की मृत्यु हो जाती और उसकी संतान नहीं होती तो उस दशा में संपूर्ण शुल्क उसके पिता अथवा भाई को वापस किए जाने का विधान था।
जहां कन्या मूल्य नहीं दिया जाता था वहां विवाह के समय कन्या कुछ उपहार प्राप्त करती थी जिसकी वह स्वामी नहीं होती थी। वैदिक साहित्य में इसके लिए “परिणाह्म” शब्द मिलता है। इस प्रकार के उपहारों में बहुमूल्य वस्त्राभूषण हुआ करते थे जिन्हें कन्या ही धारण करती थी। कालांतर में कन्या द्वारा विवाह के उपरांत प्राप्त उपहारों को भी स्त्री धन के अंतर्गत सम्मिलित कर लिया गया। सभी व्यवस्थाकार स्त्रीधन पर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व स्वीकार करते हैं।
स्मृति ग्रन्थों के अध्ययन से हमें विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। मनु ने स्त्रीधन के छः प्रकारों का निर्देश किया है—-
१- पिता द्वारा किसी भी समय दिये गये उपहार।
२- माता द्वारा दिये गये उपहार।
३- भाई द्वारा दिये गये उपहार।
४- पति द्वारा विवाहोपरान्त दिये गये उपहार।
५- किसी अन्य द्वारा विवाह के समय दिये गये उपहार।
६- विवाह के पश्चात किसी के द्वारा भी प्रदत्त उपहार।
मनु ने ऐसे लोगों की कड़ी निंदा की है जो स्त्री के पति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति को से छीनते हैं। विष्णु ने उसके अंतर्गत पुत्र द्वारा दिया गया उपहार तथा तलाक के समय पति द्वारा प्राप्त निर्वाह की राशि को भी शामिल किया है। सातवीं शताब्दी से हम स्त्रीधन के क्षेत्र में विस्तार पाते हैं देवल ने इसमें वृत्ति, आभरण, शुल्क तथा लाभ की गणना की है ( वृत्तिराभरणं शुल्क लाभश्च स्त्रीधन भवेत् )।
विज्ञानेश्वर ने इसका क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत कर दिया तथा इसके अंतर्गत उत्तराधिकार, क्रय, विभाजन, प्रतिग्रह तथा अधिग्रहण द्वारा प्राप्त की गई संपत्ति को भी समाहित कर लिया। ( रिक्थक्रम संविभाग परिग्रहाधिगम प्राप्तमेतत्स्त्रीधन )। इस प्रकार स्त्री धन के अंतर्गत स्त्री के अधीन प्रायः हर प्रकार की संपत्ति को सम्मिलित कर दिया गया।

स्त्रीधन पर अधिकार—– 

प्रारंभिक स्मृति लेखकों ने स्त्री धन के ऊपर स्त्री का अधिकार मानते हुए भी उस में सम्मिलित संपत्ति को बेचने का अधिकार उसे नहीं दिया। मनु के अनुसार पति की अनुमति बिना पत्नी निजी संपत्ति को भी बेच नहीं सकती।
न निहरी स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद्वहुम्ध्यगात् ।
स्वकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया।। —-मनु — ९.१९९
 
कालांतर में स्त्री धन के दो भाग कर दिए गए।
१- सौदायिक–– इसके अन्तर्गत  पिता, माता अथवा पति द्वारा स्त्री को दिए गए उपहार रखे गए तथा इसे उसके पूर्ण अधिकार में कर दिया गया।
२- असौदायिक–– सौदायिक धन के अतिरिक्त सभी धन असौदायिक की श्रेणी में था, जिसका स्त्री केवल उपयोग कर सकती थी, उसे बेच नहीं सकती थी।
इस प्रकार स्त्री द्वारा अचल संपत्ति को बेचे जाने के अधिकार के विषय में शास्त्रकार एकमत नहीं है। कात्यायन के अनुसार स्त्री अपनी संपत्ति (स्त्रीधन) को बेच सकती है अथवा उसे बंधक रख सकती है। नारद का विचार है की स्त्री को स्त्रीधन में निहित केवल चल संपत्ति को ही बेच सकने का अधिकार होता है पूर्व मध्यकाल के लेखकों ने नारद के मत का समर्थन।
हिंदू शास्त्रकार प्रायः इस मत के हैं कि स्त्री धन का उपयोग स्त्री के अतिरिक्त कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता। साधारणतः उसके पति का भी इस पर अधिकार नहीं होता है। परिवार के संकट में होने की स्थिति में ही पति इस धन का उपभोग कर सकता था। यहां कात्यायन ने यह व्यवस्था दी कि परिवार की स्थिति सुधरने पर पति को स्त्रीधन लौटा देना चाहिए। यदि उसकी मृत्यु हो जाए तो उसके उत्तराधिकारीयों का कर्तव्य है कि वे इसे वापस कर दें।

स्त्रीधन को उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार पुत्री को दिया गया था। यदि स्त्री की कोई संतान नहीं होती थी तो धन उसके पिता तथा भाई के पास चला जाता था। स्त्रीधन के उत्तराधिकार के लिए अविवाहित कन्याओं को ही प्राथमिकता दी जाती थी। यदि कन्याएं विवाहिता होती थीं तो उन्हें समान भाग दिए जाने का विधान था। जो स्त्रियां व्यभिचारिणी, अपवित्र एवं अच्छे आचरण वाली नहीं थी उन्हें स्त्रीधन से वंचित कर देने का विधान शास्त्र कारों ने प्रस्तुत किया।
अपकार क्रियायुक्ता निमर्यादार्थनाशिका ।
व्याभिचार रता च स्त्रीधनं न च सार्हति ।।—- देवल.
 
प्रारंभ में स्त्रीधन का क्षेत्र संकुचित था तथा इसमें वस्त्र, आभूषणादि ही आते थे। अतः इन्हें उत्तराधिकार में पुत्री को देने का किसी ने विरोध नहीं किया। किंतु जब इसका क्षेत्र व्यापक हो गया तब यह व्यवस्था की गई कि स्त्रीधन का विभाजन पुत्रों तथा पुत्रियों में समान रूप से किया जाए। मनुस्मृति में इसी सिद्धांत का प्रतिपादन मिलता है। देश के विभिन्न भागों में इसके लिए अलग-अलग विधान थे।
जनन्यानां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदरा: ।
भजेरन्मातृकं रिक्थं जनन्यश्च सनाभयः ।।—- मनु–९.१९२.
 

भारत में सती प्रथा कैसे शुरू हुई ?

 

सती-प्रथा का उदय तथा विकास- यदि हम प्रागैतिहासिक प्रथाओं और उस युग के लोगों के विचारों का अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि प्रागैतिहासिक युग के लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि मृत्यु के बाद भी मनुष्य का अस्तित्व बना रहता है तथा उसे इस लोक में काम आने वाली वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। इसी विश्वास के कारण लोग मृतकों के साथ-साथ दैनिक उपयोग की वस्तुओं को  दफनाते थे।
किसी राजा अथवा कुलीन व्यक्ति के मरने पर यह समझा जाता था कि उसके साथ उससे संबंधित सभी वस्तुओं तथा पत्नी, अश्व, नौकर आदि को भी दफनाया जाए ताकि यह उसे पारलौकिक जगत में सुख प्रदान कर सकें। इसी विश्वास ने  सती प्रथा की उत्पत्ति में योगदान दिया। जिसके अंतर्गत मृतक के साथ उसकी पत्नी को भी जलाया जाता था। विश्व की अनेक प्राचीन जातियों में यह प्रथा प्रचलित थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में आगमन के पूर्व यूरोपीय जातियों में भी इस प्रथा का प्रचलन था। भारत में प्रवेश करते समय तक यह प्रथा समाप्त हो चुकी थी। अवेस्ता अथवा ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता। अथर्ववेद से पता चलता है कि इस समय पुरातन सती प्रथा की औपचारिकता पूरी करने के लिए पत्नी अपने पति के साथ चिता पर लेटती थी जहां से उसके संबंधी उसे उठने के लिए आग्रह करते थे। इस अवसर पर यह प्रार्थना की जाती थी कि स्त्री पुत्रों एवं धन का उपयोग करते हुए समृद्धि का जीवन व्यतीत कर सके।
उदीर्ष्य नार्याभिजीव लोकं गतासुमेतमुपशेष एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि संबभूथ ।।
इमा नारीरविधवाः सपत्नीराजनेन सर्पिषा संविशन्तु ।
अनश्रवोऽनमीवाः सुरत्ना आरोह्न्तु जनयोयो निमग्रे ।।
इस प्रकार इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि वैदिक समाज में सती प्रथा प्रचलित नहीं थी तथा विधवा विवाह द्वारा स्त्री पुनः अपना घर बसाती थी। ब्राह्मण साहित्य तथा गृह्मसूत्रों में भी इस प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध साहित्य भी इससे अनभिज्ञ है। मेगस्थनीज तथा कौटिल्य दोनों ही इसका उल्लेख नहीं करते। धर्मसूत्रों तथा प्रारंभिक स्मृतियों से भी सती प्रथा के प्रचलित होने का संकेत नहीं मिलता। इस प्रकार यह स्पष्ट की चतुर्थ शती ईसा पूर्व तक सती प्रथा का प्रचलन भारतीय समाज में संभवत: नहीं था।
     
भारतीय समाज के संदर्भ में सती प्रथा का प्रचलन चतुर्थ शती ईसा पूर्व के बाद किसी समय हुआ होगा। रामायण के मूल अंश में इसका उल्लेख नहीं है किंतु उत्तरकांड में वेदवती की माता के सती होने का उल्लेख है जो संभवतः प्रक्षेपांश है। दशरथ अथवा रावण की पत्नियां उनके मरने के बाद सती होती हुई नहीं दिखाई गई हैं।
महाभारत में इस प्रथा का छिट-पुट उल्लेख मिलता है। पांडु की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी माद्री सती हो गई थी। कृष्ण के पिता वासुदेव के मरने पर उनकी पत्नियों ने सतीत्व का अनुसरण किया था। किंतु इस महाकाव्य में ही कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां पतियों की मृत्यु के बाद भी उनकी पत्नियां जीवित रहीं। अभिमन्यु, घटोत्कच तथा द्रोण की पत्नियां सती नहीं हुई। हमें हजारों यादव विधवाओं का भी उल्लेख मिलता है जो अर्जुन के साथ हस्तिनापुर तक गई थीं।
पुराणों में कुछ स्त्रियों के सती होने का उल्लेख मिलता है। इससे पता चलता है कि चतुर्थ शती ईस्वी के लगभग जब पुराणों का वर्तमान स्वरूप निर्धारित हो रहा था सती प्रथा समाज में आधार प्राप्त कर रही थी। यूनानी लेखक देश के कुछ भागों में सती प्रथा के प्रचलन का उल्लेख करते हैं।
स्ट्रैबो तक्षशिला की स्त्रियों एवं पंजाब की कठ जाति में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उलेख करता है। चतुर्थ शती ईस्वी के लगभग से यह प्रथा लोकप्रियता प्राप्त करने लगी। वातस्यायन, भास, कालिदास तथा शूद्रक जैसे लेखकों ने इसका उल्लेख किया है।  सती प्रथा के प्रचलन का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्त काल का है। 510 ईस्वी के एरण लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश भानुगुप्त का मित्र गोपराज हुणों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया तथा उसकी पत्नी अग्नि में जल मरी थी।
भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता,
भार्यावलग्नानुगताग्निराशिम्  । —– एरण का लेख
इसी प्रकार हर्षचरित में उल्लेखित है कि प्रभाकर वर्धन की पत्नी यशोमती अपने पति की मृत्यु के पूर्व भी सती हो गई थी राज्यश्री भी चिता बनाकर जलने जा रही थी किंतु हर्ष ने उसे बचा लिया नेपाल की रानी राज्यवती के भी सती होने का उल्लेख मिलता है। कुछ लेखकों तथा भाष्यकारों ने इस प्रथा का कड़ा विरोध किया।
महाकवि बाणभट्ट इसका विरोध करते हुए इसे महान मूर्खतापूर्ण कार्य बताया जिसका कोई फल नहीं होता। यह आत्महत्या है जिसका अनुगमन करने वाली स्त्री नरकगामिनी होती है। इसके विपरीत विधवा स्त्रियाँ अपना तथा अपने मृतक पति दोनों का कल्याण करती हैं। सती होकर वे किसी को भी लाभ नहीं पहुंचाती। मध्यकालीन टीकाकार मेधातिथि भी इसे आत्महत्या मानते स्त्रियों के लिए निषिद्ध बताते हैं देवण्णभट्ट का विचार है कि सती होना विधवा के ब्रह्मचारी रहने की अपेक्षा अधिक जघन्य होता है।
किंतु इस विरोधों के बावजूद सती प्रथा समाज में प्रचलित होती गई तथा इसके समर्थन में सातवीं शती ईस्वी से लोग आगे आने लगे। आंगिरस ने विधान किया कि विधवा के लिए सती होना ही एक मात्र धार्मिक विकल्प है। हारीत के अनुसार सती व्रत के द्वारा पत्नी अपने पति को जघन्य पापों से भी मुक्ति दिलाती है तथा दोनों स्वर्ग में साढ़े तीन करोड़ वर्षों तक सुखपूर्वक निवास करते हैं।
इस प्रकार के विचारों के फलस्वरुप सातवीं से 11वीं शती तक के काल में उत्तरी भारत में यह प्रथा काफी प्रचलित हो गयी। कश्मीर में इसका विशेष प्रचार प्रसार हुआ कल्हण की राजतरंगिणी से सती प्रथा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। राजपूतों में इसका व्यापक प्रचलन था यहां तक कि शासकों की रखैलें तथा वेश्याएं तक सती होती हुई दिखाई गई हैं। कथासरित्सागर में भी सती प्रथा के अनेक दृष्टांत मिलते हैं। दक्षिण भारत में यह प्रथा अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय रही।

सती प्रथा का प्रचलन प्रारंभ में क्षत्रिय अथवा योद्धा कुलों में ही था। पद्मपुराण में स्पष्टतः इस प्रथा को ब्राह्मण परिवारों के लिए निषिद्ध बताया गया है।  किंतु दसवीं शती से हम ब्राह्मणों में भी इस प्रथा का प्रचलन पाते हैं। राजपूत काल में यह प्रथा विशेष रूप से प्रचलित थी। कई राजपूत लेखों में भी इसका उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार धीरे-धीरे यह प्रथा हिंदू धर्म में एक माननीय प्रथा हो गयी। धार्मिक अंधविश्वास एवं कट्टरता ने इस अमानवीय एवं बर्बर प्रथा को लोकप्रिय बनाया। जीमूतवाहन ने दायभाग में लिखा है कि इसका उद्देश्य स्त्री को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना था तथा इसी कारण उसे पति के साथ जल मरने के लिए बाध्य किया जाता था।

सती प्रथा का अंत कब और किसने किया?

 

बारहवीं शती के बाद राजपूत कुलों में सती प्रथा का प्रचलन अत्याधिक हो गया। मुगल शासक अकबर ने इसे रोकने का प्रयास किया किंतु उसे सफलता नहीं मिली अंततोगत्वा ब्रिटिश काल में 1829 ईसवी में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने कानून बनाकर इस अमानुषिक प्रथा को बंद कर दिया।
 

राजस्थान में सती प्रथा का अंत किसने किया?

राजस्थान में सबसे पहले 1822 ईस्वी में बूंदी रियासत ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया। राजा राममोहन के प्रयासों से 1829 में लार्ड विलियम बेंटिक ने सम्पूर्ण भारत में सरकारी कानून बनाकर अवैध घोषित कर दिया।

प्राचीन भारत में विधवा की दशा

 
 विधवा की दशा— अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि वैदिक तथा उत्तरवैदिक युग में पति की मृत्यु के उपरांत पत्नी अपना पुनर्विवाह कर सकती थी। नियोग प्रथा भी समाज में प्रचलित थी, जिसके अनुसार वह संतानोत्पत्ति हेतु अपने देवर से यौन संबंध स्थापित कर सकती थी। पांचवी शती के लगभग में यह प्रथा बंद हो गयी।
विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा दसवीं शती तक चलती रही, किंतु इसके बाद यह भी बंद कर दी गयी। विधवाओं को अपवित्र माना जाने लगा।। उसके सिर के बाल काट दिए जाते थे और वे किसी भी मांगलिक कार्य में भाग नहीं ले सकती थीं। उन्हें कठोर ब्रह्मचर्य एवं साधना का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। कुछ विधवायें जीवन की कठोरताओं से मुक्ति पाने के लिए सतीव्रत का अनुसरण करती थीं।
 दूसरी शताब्दी ईस्वी के बाद से विधवाओं को संपत्ति एवं उत्तराधिकार संबंधी अधिकार दिए गए जिससे स्थिति में कुछ सुधार हुआ। किंतु सती प्रथा के चलन के साथ उनकी स्थिति गिरती गई कभी-कभी उन्हें बलात चिता में झोंक दिया जाता था।
समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण घृणा एवं निर्दयता का हो गया यदि वह अपने परिवार में रहती थीं तो उसे कठोर परिश्रम करके अपना जीवन यापन करना होता था। यदि वह अकेली रहती थी तो उसके निर्वाह के लिए अत्यल्प धन दिया जाता था। उसे नंगे हाथ तथा मुण्डित सिर होकर रहना पड़ता था। उसके दर्शन को ही अशुभ माना गया तथा उसे समस्त उत्सवों से बहिष्कृत कर दिया गया।
अमंगलेभ्यः सर्वेभ्यो विधवा स्याद मंगला  ।
विधवा दर्शनात्सिद्धिः क्वापि जातु। न विद्यते  ।। —स्कन्दपुराण  ३/७.५१.
 रामायण में वैधव्य स्त्री को महती आपदा कहा गया है।
न हीदृशं भयं किंचित्कुलस्त्रीणाभिहोच्यते ।
भयानामपि सर्वेषां वैधव्य व्यसनं महत्  ।। — रामायण- ८.४५.
 कुछ विधवायें धार्मिक पवित्रता एवं साधना का जीवन व्यतीत करती थी। परिवार में समाज की सेवा ही उनके आदर्श थे।

भारत में पर्दा प्रथा का प्रचलन कब से हुआ

 

 भारतीय हिंदू समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन कब हुआ इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है यह प्राय: निश्चित है कि वैदिक युग में इसका प्रचलन नहीं था। स्त्रियॉं स्वतंत्रपूर्वक सार्वजनिक स्थानों में विचरण करती थीं तथा पुरुषों के साथ हिल-मिल सकती थीं। ऋग्वेद से पता चलता है कि विवाह के बाद वधू सभी आगंतुकों को दिखलाई जाती थी।
यह आशा की जाती थी कि वृद्धावस्था तक जनसभाओं में भाषण करें। स्त्री के लिए “सभावती” शब्द का भी प्रयोग मिल किया गया है जो इस बात का द्योतक है कि समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। निरुक्त से पता चलता है कि कभी-कभी स्त्रियां अपना उत्तराधिकार सिद्ध करने के लिए न्यायालय में भी जाती थी।

 

भारत में पर्दा प्रथा का प्रचलन कब से हुआ

 

पर्दा प्रथा का प्राचीनतम उल्लेख महाकाव्यों के वर्तमान संस्करण ( लगभग १०० ई० पू० ) में प्राप्त होता है। किन्तु  इनके प्राचीन संस्करणों से इस प्रथा का प्रचलन होना पुष्ट नहीं होता। रामायण में एक स्थान पर कहा गया है  “गृह, वस्त्र, प्राकार तथा पार्थक्य सभी स्त्री के लिए व्यर्थ है। उसका चरित्र ही उसके लिए पर्दा होता है।
कौशल्या, कैकेयी तथा सुमित्रा जैसी रानियां कहीं भी पर्दा धारण करती हुई नहीं दिखाई गयी हैं। सीता भी अयोध्या की गलियों से जाते हुए अथवा वन में घूमते हुए पर्दा धारण की हुई नहीं दिखाई गई है। महाभारत में हम पाते हैं कि द्रौपदी सभा भवन में उन्मुक्त होकर आती है। कुंती अथवा गांधारी कहीं भी पर्दे में नहीं दिखाई देती हैं।

पर्दा प्रथा कब शुरू हुई 

 

हिंदू समाज में पर्दे की प्रथा ईस्वी सन के प्रारंभ में प्रचलित होती हुई दिखाई देती है। राजपूतों में हम इसका विशेष चलन देखते हैं जहां महिलाओं को सार्वजनिक दृष्टि से बचाने के लिए पर्दा धारण करने की संस्तुति की गयी। बौद्ध काल की कुछ रानियां पर्दा युक्त रथों पर यात्रा करती थीं। भास के नाटकों में पर्दा प्रथा का उल्लेख मिलता है। “प्रतिमा” नाटक में सीता को पर्दा में दिखाया गया है। स्वप्नवासवदत्ता में पद्मावती विवाह के पूर्व पर्दा धारण नहीं करती किंतु विवाह के बाद वह पर्दा में रहना पसंद करती है। हर्षकृत नागानंद से पता चलता कि विवाह के पश्चात स्त्रियाँ पर्दे में रहती थीं।
भवभूति तथा माघ की रचनाओं से भी पर्दा के प्रचलित होने की सूचना मिलती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तीसरी शती के लगभग से समाज के कुलीन या राजकुल की महिलाओं में पर्दा प्रथा का प्रारंभ हुआ और इसका अनुकरण समाज के सामान्य परिवारों में भी किया जाने लगा। मृच्छकटिक में हम बसंतसेना को पर्दा धारण करने का विरोध करते हुए भी पाते हैं।
कभी-कभी हम कन्याओं को पर्दा धारण करने का विरोध करते हुए भी पाते हैं। ललितविस्तार से ज्ञात होता है कि बुद्ध की पत्नी गोपा ने अपने मुंह पर घूंघट डालने का यह कहते हुए विरोध किया कि शुद्ध विचार वाले के लिए बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं होती।
     येकामासंवृत्ता गुप्तेनिद्रया सुनिवृत्ताश्च मनः प्रसन्ना किं तादृशानां वदनं प्रतिच्छादयित्वा ।- ललिलविस्तार.
इस प्रकार के विचारों के कारण पर्दा प्रथा का प्रचलन व्यापक रूप से नहीं हो पाया तथा यह कुछ परिवारों तक ही सीमित रही। सांची तथा अजंता की चित्रकारियों से पर्दा प्रथा की कोई सूचना नहीं मिलती। भारत की यात्रा पर आने वाले फाहियान, हुएनसांग तथा इत्सिंग जैसे चीनी यात्री प्रथा का उल्लेख नहीं करते हैं।
11 वीं सदी की रचना कथासरित्सागर में रत्नप्रभा नामक स्त्री को हम स्पष्ट शब्दों में इस प्रथा का विरोध करते हुए पाते हैं। वह अपना विचार इस प्रकार प्रकट करती है— “स्त्रियों का कड़ा पर्दा और नियंत्रण ईर्ष्या से उत्पन्न मूर्खता है। इसका कोई उपयोग नहीं है। चरित्रवती स्त्रियां अपने सदाचार से सुरक्षित रहती हैं, अन्य किसी पदार्थ से नहीं”।
कश्मीरी कवि कल्हण की राजतरंगिणी से भी पर्दा प्रथा के प्रचलन की सूचना नहीं मिलती। 10 वीं सदी के अरबी लेखक अबूजैद के विवरण से भी पता चलता है कि भारतीय रानियां बिना किसी पर्दे के राज्य सभा में उपस्थित होती थी।
प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 12 वीं शती के पूर्व हिंदू समाज में पर्दे की प्रथा का व्यापक रूप से प्रचलन नहीं था। वस्तुतः इसका प्रचलन इसके बाद ही प्रतीत हुआ दिखाई देता है।

ऐसा लगता है कि पर्दा प्रथा का हिंदू समाज में व्यापक रूप से परिचालन मुस्लिम आक्रमण के प्रभाव से हुआ मुस्लिम समाज में पर्दा का पालन कड़ाई से किया जाता था हिंदू सरदारों तथा सामंती प्रथा का अनुकरण अपने-अपने परिवारों में किया क्योंकि उत्तरी भारत में मुस्लिम सत्ता देकर कालचक्र बनी रही प्रथा पर्दा प्रथा यही अधिकाधिक लोकप्रिय हुए दक्षिण में इसका प्रचलन अपेक्षाकृत बहुत कम था.
सर्वप्रथम मराठा शासकों ने दक्षिण में इस प्रथा को अपनी स्त्रियों में प्रचलित करवाया इस प्रथा को ग्रहण करने के पीछे सुरक्षा की भावना भी थी विजेता मुस्लिम शासक एवं सैनिक हिंदू महिलाओं की और बुरी नजर से देखते थे आता यह आवश्यक माना गया कि उनके सम्मान की रक्षा करना पर्दे में रखा जाए इस काल की हिंदू महिलाओं ने भी इसका विरोध नहीं किया 12 वीं सदी के उपरांत हिंदू समाज में पर्दा प्रथा का व्यापक रूप से प्रचलन हो गया।

प्राचीन ग्रन्थों में स्त्रियों की प्रतिष्ठा—  

 

प्राचीन भारतीय ग्रंथों तथा लेखकों में स्त्रियों के संबंध में परस्पर विरोधी विचार प्राप्त होते हैं। यद्यपि कुछ ग्रंथ तथा लेखक उनके चरित्र में दोष देखते हुए उनकी कटु आलोचना करते हैं। तथापि शास्त्रों एवं महाकाव्यों में स्त्री के महत्वपूर्ण आदर्श की प्रतिष्ठा मिलती है। वैदिक काल में उसे पुरुषों के साथ ही सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा मिली।
शतपथ ब्राह्मण में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी बताया गया है ( अर्धो हवा एष आत्मनो ) । महाकाव्यों में स्त्री के उच्च आदर्श की प्रतिष्ठा मिलती है। महाभारत के अनुसार “ग्रहणी ही वस्तुतः गृह कही जाती है। गृहणी के बिना गृह अरण्य के समान है। स्त्रियों की सदा पूजा करनी चाहिए। जहां स्त्रियों का सम्मान है वहां सभी देवता प्रसन्न रहते हैं तथा जहां उनका अपमान है वहां सभी क्रियाएं निरर्थक ( अफला ) हो जाती हैं”। माता के रूप में स्त्री को भूमि से भी गुरुतर बताया गया है ( मातागुरुतरो भूमेः) ।
वशिष्ट के अनुसार आचार्य का गौरव दस उपाध्यायों से बढ़कर होता है, पिता का गौरव सौ आचार्यों से बढ़कर होता है किंतु माता का गौरव एक हजार पिताओं भी बढ़कर होता है। महाभारतकार ने यह भी लिखा है कि स्त्रियां समृद्धि की देवी हैं। समृद्धि चाहने वाले व्यक्ति को उनका सम्मान करना चाहिए। महाभारत में स्त्री को अबध्य कहा गया है।
स्मृतिग्रन्थों में भी नारी के प्रति प्रशंसा युक्त विचार व्यक्त किए गये हैं। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता रमण करते हैं तथा जहां स्त्रियों की पूजा नहीं होती वहां के सभी कार्य व्यर्थ हो जाते हैं। आगे बताया गया कि जिस कुल में नारियों का अपमान होता है वह कुल विनष्ट हो जाता है। अतः परिवार का कल्याण चाहने वाले व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सदा स्त्रीजनों का सम्मान करे।
ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर के अनुसार “स्त्रियाँ परिवार में लक्ष्मी होती हैं। अतः उनका सम्मान किया जाना चाहिए ( गृहे लक्ष्म्यो मान्याः सततं अबला मान विभवैः )। जो लोग उनके चरित्र में दोष देखते हैं वे स्वयं अधम हैं तथा उनके विचार सद्भाव से प्रेरित नहीं होते। वस्तुतः स्त्रियाँ  सभी प्रकार से पवित्र होती हैं। जिन कुलों में उनका सम्मान नहीं होता वे कुल विनष्ट हो जाते हैं। महाकवि कालिदास ने भी गृहणी, सम्मति देने वाली सहचरी तथा एकांत की सखा के रूप में स्त्री की महत्ता को स्वीकार किया है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिंदू समाज मैं स्त्रियों के प्रति सामान्यतः उदार एवं आदरपूर्ण विचार अपनाए गये।  माता के रूप में वस्तुतः उनकी महिमा अति महान थी। मनु ने स्पष्ट लिखा है कि माता का पद पिता से भी बढ़कर होता है। महाभारत में पत्नी को त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ तथा काम का मूल कहा गया है। ( भार्या मूल त्रिवर्गस्य)। हिंदू समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा इसी तथ्य से सुविदित है कि उसके देवसमूह में देवियों की उपासना सर्वप्रचलित है तथा अनेक प्रसिद्ध देवताओं के नाम के पूर्व देवियों के नाम संयुक्त मिलते हैं जैसे लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश, सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि।

 

OUR OTHER IMPORTANT BLOGS PLEASE CLICK AND READ 

1-भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-

2-ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का खान-पान ( भोजन)

30-अशोक के अभिलेख 


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading