भारत का विभाजन इतिहास की महान दुर्घटना थी। यह सब अंग्रेजों की प्राचीन निति ‘बांटों और राज्य करों’ तथा मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक सोच का परिणाम थी ! बहुत से भारतीय विभाजन के लिए नेहरू-गाँधी और कांग्रेस को मुख्य रूप से जिम्मेदार मानते हैं। ‘भारत विभाजन के मूल कारण,जानिए भारत विभाजन के वास्तविक कारणों को’ क्या वास्तव में सिर्फ कांग्रेस या गाँधी-नेहरू ही भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे? इस ब्लोग्स के माध्यम से हम उन वास्तविकताओं का अध्ययन करेंगे जो भारत के वभाजन के लिए वास्तव में जिम्मेदार थी, उन भ्रांतियों से भी पर्दा उठेगा जिनसे हम एकतरफ़ा धारणा बना लेते हैं।
भारत विभाजन के मूल कारण
भारत विभाजन के मूल कारण
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही इस उपमहाद्वीप का भूगोल बदल गया। इसके साथ ही आर्थिक, सामाज़िक और राजनितिक परिस्थितियां पूरी तरह बदल गयी। इस विभाजन के अनेक कारण थे। अलग-अलग लोगों ने अपने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। समाजवादी लेखक राममनोहर लोहिया और कुछ अन्य लेखकों के मतानुसार कांग्रेस के वयोवृद्ध नेताओं की सत्ता की भूख, आंदोलन से थकान, तथा श्रीमति माउंटबैटन के व्यक्तिगत प्रभाव के कारण विभाजन हुआ।
यहाँ वामपंथियों का विचार भी जानना जरुरी है। वामपंथी लेखकों के अनुसार सम्प्रदायवाद वर्ग-संघर्ष का विकृत रूप है और मुस्लिम पूंजीपतियों तथा मुस्लिम माध्यम वर्ग अपने राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए धर्म और संस्कृति का सहारा लिया जिसके कारण पाकिस्तान की स्थापना हुई।
भारत विभाजन के कारण
भारत का विभाजन के मूल कारण, विभाजन के लिए कांग्रेस जिम्मेदार थी? यदि हम भारत विभाजन के मूल कारणों का सिंहावलोकन करें तो किसी एक कारण को विभाजन का जिम्मेदार मानने की धारणा का भी समाधान मिल जायेगा। भारत का विभाजन भिन्न-भिन्न कारणों से हुआ इन कारणों का अध्ययन कर हम विभाजन के मूल कारणों को जान लेंगे।
साम्प्रदायिकता
अंग्रेजी साम्राज्य भारतीय जनता को शुरू से ही स्वीकार नहीं था। लेकिन यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है की एक वर्ग ऐसा भी था जिसने अंग्रेजी राज्य का सहयोग किया और लाभ उठाया। ये था हिन्दू और मुस्लिम उच्च वर्ग। हिन्दू व्यपारी वर्ग जो पहले मुस्लिम शासनकाल में अपनी स्थिति बनाये रखी, उसने अंग्रेजों के साथ भी तालमेल कर लिया। लेकिन मुस्लिम उच्च वर्ग की अपेक्षा हिन्दू उच्च वर्ग ने अंग्रेजी शासन का कहीं ज्यादा लाभ उठाया और उच्च शिक्षा प्राप्त कर ब्रिटिश नौकरशाही में भी अपनी जगह बना ली।
मुस्लिम अभिजात वर्ग के पतन और घटते रोजगार के अवसरों की वजह से मुस्लिम उच्च वर्ग घोर निराशा में डूब रहा था। मुस्लिम उच्च वर्ग के पतन का सीधा प्रभाव सामान्य मुस्लिम वर्ग पर पड़ा। 1857 के विद्रोह के बाद स्थिति और विपरीत हो गयी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने अब मुस्लिमों को कमजोर करने और हिन्दुओं को समर्थन देने की निति अपनाई। इससे मुस्लिम समुदाय हिन्दुओं से घृणा करने लगा। इसी घृणा को अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता में परिवर्तित कर दिया।
इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए हडसन ( H. V. Hudson) ने लिखा “फूट डालना और राज्य करना तब तक संभव नहीं जब तक शासित लोग फूट की बातों में आने को तैयार न हों। संभव है कि ब्रिटिश लोगों ने हिन्दू-मुसलिम स्पर्द्धा का फायदा उठाया हो, किन्तु इस स्पर्द्धा का आविष्कार नहीं किया”
पुनरुत्थानवादी राजनीति का जन्म
1885 में कांग्रेस की स्थापना से अंग्रेजों ने अपने लिए एक सुरक्षा दीवार तैयार की थी लेकिन यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया जब एक मुखर जागरूक युवा वर्ग ने अंग्रेजी नीतियों की आलोचना शुरू कर दी। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की जगह अब उग्र विचारधारा वाले तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविन्द घोष ने ले ली।
इन नए उग्र विचारों वाले क्रांतिकारियों ने अपने प्राचीन मूल्यों का सहारा लेकर धर्म तथा प्रादेशिक अंधभक्ति के आधार पर नए नारे गढ़े जिससे प्राचीन परम्परा और संस्कृति के गौरव में भारतीय जनता का विश्वास जीत सकें। इस क्रम में बाल गंगाधर तिलक ने ‘गणेश त्यौहार’ और ‘शिवाजी त्यौहार’ से नई जान फूँकि। इसी प्रकार अरविन्द घोष ने ‘काली पंथ’ और लाला लाजपत राय ने आर्य समाज को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया।
इन नए उग्रवादी नेताओं ने धर्म और स्थानीय कट्टर राजनीति के आधार पर भारत की प्राचीन-संस्कृति के प्रति गौरव की भावना को पुनर्जीवित किया जिसके फलस्वरूप हिन्दुओं में अग्रेजों के विरद्ध आंदोलन को गति और एक नई ऊर्जा मिली। लेकिन मुसलमानों ने इसे धार्मिक संघर्ष के रूप में देखा। मुसलमानों ने राष्ट्रीय आंदोलन दे दूरी बना ली।
इस प्रकार इन धार्मिक तथा सांस्कृतिक नारों से मुसलमान और हिन्दू के एक साथ अंग्रेजों से लड़ने की सम्भावना को धक्का लगा। और आगे चलकर यही नीतियां राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा अपनाई गयी जिसके कारण साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ।
अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की निति
1857 के विद्रोह के बाद परिस्थितियां बदली और मुसलमानों की दशा पहले से ज्यादा दयनीय हो गयी। ऐसे में मुसलमानों ने भी अंग्रेजों से सहयोग की निति अपनाने का निर्णय लिया और इस काम को अंजाम दिया सर सैयद अहमद खां ने। सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों को जागरूक और शिक्षित करने के उद्देश्य से अंग्रेजों से मिलकर एक शैक्षिक संस्था अलीगढ़ में स्थापित की। अब अंग्रेजों ने मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया और यहीं से फूट डालो राज करो की निति का प्रारम्भ शुरू कर दिया।
1906 में मुस्लिम लीग के गठन के बाद मुसलमानो ने अपनी मांगें अंग्रेजी सरकार के सामने रखनी शुरू कर दीं। मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मंडल वाइसराय लार्ड मिंटों से मिला और मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचनमंडल की मांग की। मुसलमानों की इस मांग को 1909 के मार्ले-मिंटों सुधार अधिनियम द्वारा कार्यान्वित किया गया और मुसलामानों को पृथक निर्वाचन मण्डल दिया गया।
यहाँ से हिन्दू-मुसलिम साम्प्रदायिकता की खाई चौड़ी होनी शुरू हो गई। हिन्दुओं और मुसलमानो में धार्मिक, सामाजिक, और आर्थिक आधार पर तो भिन्नता थी ही अब राजनितिक आधार पर भी भिन्नता हो गई। अब तक हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता सिर्फ फूट डालो और राज करो की निति के रूप में प्रयुक्त हो रही थी, पाकिस्तान की मांग ने इसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
मुसलमानों के पृथक प्रतिनिधित्व का भारतीय राजनीति पर प्रभाव
उन्न्नीसवीं शताब्दी अंतिम 50 वर्षों में साम्प्रदायिकता को खूब खाद-पानी मिला और ये आज तक जारी है. साम्प्रदायिकता ने जब एक बार राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने में हथियार का काम कर दिया तब इसने भारतीय राजनीति में दीमक की तरह अपनी जगह बना ली और अंदर ही अंदर खोखला कर दिया।
पृथक निर्वाचन मंडल ने एक ऐसे समाज में अवरोध उत्पन्न किया जो पहले से ही सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त था। मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट ( 1919 ) में ही यह स्वीकार किया गया है कि धर्म तथा वर्ग विभाजन के आधार पर विभाजन का अर्थ होगा , “एक-दूसरे के खिलाफ संगठित राजनीतिक शिविरों का निर्माण और यह लोगों को पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाना सिखाता है”।
1909 के पृथक प्रतिनिधित्व की पद्धति के लागू होने की स्थिति को मोतीलाल नेहरू ने अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू (जो उस समय कैम्ब्रिज में पढ़ रहे थे ) को लिखा ( 25 मार्च 1909 ) कि “कितना भी कॉउन्सिल सुधार इस शरारत की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता”। इस पृथक प्रतिनिधित्व का कांग्रेस खुलकर विरोध नहीं कर पाई। स्थिति तब और अंग्रेजों के लिए अनुकूल हो गयी जब कांग्रेस-लीग समझौता ( लखनऊ समझौता 1916 ) स्वीकार किया गया।
इसी को आधार बनाकर चेम्सफोर्ड ने सिक्खों को पृथक प्रतिनिधित्व देते हुए कहा “यद्पि यह प्रजातान्त्रिक आदर्श के विरुद्ध है, किन्तु यदि कांग्रेस और लीग दोनों यही चाहते हैं तो हम क्या कर सकते हैं और यदि मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया जाता है तो सिक्खों को –जो उसी आधार पर इसकी मांग कर रहे थे — इस अधिकार से कैसे बंचित रखा जा सकता है।? इस प्रकार पृथक प्रतिनिधित्व ने भारत के राष्ट्रीय जीवन को छिन्न-भिन्न कर दिया।
सरकार ने ऐसे समाचार-पत्रों को सेंसर में ढील दी जो साम्प्रदायिक ख़बरें छापते थे जबकि राष्ट्रीय अख़बारों पर कड़ी निगरानी रखी। इस सब से राष्ट्रीय क्रांतिकारियों और जनता को यही लगा कि मुसलमान देश की आज़ादी की लड़ाई में बाधा बन गए हैं, इसके विपरीत मुस्लिम यह सोचने लगे कि कांग्रेस एक हिन्दू प्रतिनित्धित्व वाली संस्था है ये उनका दमन करती है।
1919-1937 के बीच राष्ट्रीय परिदृश्य में घटी घटनाएं
1919 से 1937 के बीच का समय भारतीय स्वतंत्रता आंन्दोलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। गाँधी जी ने 1920-22 में असहयोग आंदोलन और 1930-35 तक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। मगर इस दौर का सबसे खराब पहलू ये भी रहा कि देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे भी हुए। जिन्हें डॉक्टर अम्बेडकर ने गृह युद्ध की संज्ञा दी है।
मुसलिम नेताओं ने कांग्रेस को मुसलमानों की दुश्मन के रूप में मुसलिम जनता के सामने प्रचारित किया, और एक हिन्दू प्रतिनिधित्व संस्था के रूप में पेश किया। इस धारणा को तब और बल मिला जब तिलक की तरह गाँधी ने भी ‘गो रक्षा’ ‘हिंदी प्रचार’ ‘रामराज्य’ जैसे नारों का उद्घोष किया। मुसलमानों ने इन्हें कांग्रेस के हिन्दू-राज्य स्थापित करने की निति बताया।
कांग्रेस के कुछ नेता, लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय, आदि हिन्दू संगठनों जैसे , हिन्दू महासभा, ‘आर्यसमाज’ आदि से भी जुड़े थे। इन हिन्दू नेताओं ने हिन्दू राष्ट्र के विचार को खाद पानी दिया। लाला लाजपत राय और लालचंद ने कांग्रेस के एकराष्ट्र के सिद्धांत की आलोचना की और कहा कि हिन्दू मुसलमान एक नहीं दो राष्ट्र हैं। साम्प्रदायिकता कभी न कभी अवश्य फूटती है और इसका एक उदाहरण 23 दिसम्बर, 1926 को स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या है।
कांग्रेस के मुस्लिम नेता — हाकिम अजमल खान. तैयब जी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद. डा. एम. ए अंसारी , डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू , डॉक्टर जाकिर हुसैन जो पाके राष्ट्रवादी थे को मुस्लिम जनता ने नकार दिया था। अब अंगेर्ज सरकार और कांग्रेस दोनों ने ही लीग को मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था मान लिया था।
1937 के चुनावों का भारतीय राजनीति पर प्रभाव
1936 तक मुस्लिम लीग का दायरा बहुत सिमित था और यह मुस्लिम बहूल प्रांतों में भी नगण्य थी। 1937 के चुनाव में मुस्लिम बहुल इलाकों की बजाय लीग को हिन्दू बहुल सीटों पर ज्यादा सफलता मिली। हिन्दू बहुल प्रांतों की 482 मुसलिम सीटों पर कांग्रेस ने 58 उम्मीदवार खड़े किये और सिर्फ 26 जीत पाए। बाकी अधिकतर सीटों पर मुस्लिम लीग के प्रत्यासी विजय रहे।
इन चुनावों का कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व को धक्का लगा जबकि मुस्लिम लीग का मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में उदय हो गया था। कांग्रेस ने मुसलमानों को अपनी ओर लाने के लिए विभिन्न प्रोग्राम शुरू किये। इसकी प्रतिक्रिया में लीग ने भी मुस्लिमों से सम्पर्क शुरू कर दिया। इस काम में लीग को कांग्रेस से ज्यादा सफलता मिली।
साम्प्रदायिकता के उदय का चुनावी-राजनीति पर प्रभाव
1935 के ऐक्ट से भारत की आज़ादी की खुशबू आनी शुरू हो गयी थी। इसी के साथ लीग को ये डर सताने लगा था कि आज़ादी के बाद उन्हें हिन्दू नेतृत्व को स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि वह बहुसंख्यक हैं। पुराने मुसलिम पूंजीपति नए उभरे हिन्दू पूंजीपतियों के सामने अब कमजोर पड़ गए थे।
अब भारत के अधिकांश साहूकार, उद्योगपति, और पूंजीपति हिन्दू थे। इस बात को लीग ने अपने प्रचार का माध्यम बना लिया कि हिन्दू मुसलमानों के दुश्मन हैं अंग्रेज नहीं।मुसलमानों ने अब राष्ट्रीय आन्दोलनों से दुरी बना ली और ब्रिटिश सरकार को समर्थन करने लगे। अंततः मुसलमानों ने अलग राष्ट्र की मांग का विचार सृजित कर लिया।
भौगोलिक संरचना का विभाजन में उत्तरदायित्व
उत्तर-पश्चिमी भौगोलिक परिस्थितियों ने भी स्वतंत्र मुस्लिम राज्य बनाने में एक सहायक की भूमिका निभाई। भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के राज्यों ( सिंध, बलूचिस्तान, पंजाब और कश्मीर ) मुसलमानों की बहुजनसँख्या वाले राज्य थे और भौगोलिक दृष्टि से ये सभी राज्य एक दूसरे से जुड़े थे। इसी भौगोलिक स्थिति ने पाकिस्तान की परिकल्पना को जन्म दिया और मुहम्मद इक़बाल और चौधरी रहमत अली ( इन्होंने ने ही पहली बार अलग मुस्लिम राज्य बनाने की बात कही थी ) ने पाकिस्तान शब्द गढ़ा। 1940 के बाद एकराष्ट्र की परिकल्पना को मुसलमान ख़ारिज कर चुके थे।
पाकिस्तान की धारणा का उत्तरोत्तर विकास
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना( ढाका ) हुई, मगर इसे मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था के रूम में स्वीकार करने में कई वर्ष लग गए।1916 के लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस ने लीग से समझौता कर, लीग को मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में स्वीकार कर लिया। स्वीकारोक्ति के दो परिणाम हुए एक तो कांग्रेस ने इस युक्ति का विरोध करने का हक़ खो दिया जिससे ब्रटिश सरकार इसे बाकी धार्मिक सम्प्रदायों पर भी लागू करने की छूट मिल गयी, दूसरा मुस्लिम लीग अब मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधित्व वाली संस्था के रूप में स्वीकार ली गई।
मोतीलाल नेहरू ने जनवरी 1929 में जिन्ना के 13 सूत्रीय प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तो जिन्ना ने निराश होकर वाकआउट कर दिया। इसके बाद लीग में मुस्लिम कटटरपंथियों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को और तेज कर दिया।
कैसे हुआ पाकिस्तान का जन्म ? इक़बाल , रहमत अली पाकिस्तान के असली जन्मदाता
जिन्ना ने सिर्फ मुस्लिम लीग का एकीकरण किया बल्कि अन्य भारतीय अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भी संबंध बनाये। प्रथम गोलमेज सम्मलेन ( जिसका कांग्रेस ने बॉयकाट किया था ) में मुस्लिम लीग अल्पसंख्यक समझौते की वार्ता में सफल रही जिसमें सवर्ण हिंदुओं को छोड़कर भारतीय राजनीति के सभी वर्गों ने मुसलमानों का साथ दिया था।
गोलमेज सम्मलेन की पूर्व संध्या पर भारत के प्रसिद्ध कवि मुहम्मद इक़बाल ने मुस्लिम लीग के लिए लक्ष्य निर्धारित किया। उसने कहा कि “बेहतर होगा कि हम यह स्वीकार करें कि भारतीय मुसलमानों का स्वयं अपने देश में जैसे वे चाहें विकास करने का पूरा अधिकार है।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने 1930 में मुस्लिम लीग के वार्षिक अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि वे पंजाब , उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त, सिंध, और बलूचिस्तान को एक राज्य में सम्मिलित हुए देखना चाहेंगे। आगे उन्होंने कहा “एक समेकित उत्तर-पश्चिम भारतीय मुसलिम राज्य का निर्माण मुझे मुसलमानों, विशेषकर उत्तर-पश्चिम भारत में मुसलमानों की अंतिम नियति मालूम है।
मुहम्मद इक़बाल ने तो यहाँ तक कहा कि इस राज्य को स्पष्ट तौर पर मुसलिम बहुल बनाने के लिए अम्बाला डिवीज़न को अलग किया जाये मगर उन्होंने साफ़ कहा कि मुसलिम राज्य भारत का ही अंग होगा। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को उस समय एक कवि की कल्पना कहकर टाल दिया।
‘भारत विभाजन के मूल कारण,जानिए पाकिस्तान के असली जन्मदाताओं को’ चौधरी रहमत अली, जो कि कम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे, इस मांग की तरफ बहुत आकर्षित हुए और ‘1933 में उन्होंने पाकिस्तान शब्द गढ़ा’ उन्होंने मांग की कि इन प्रांतों का एक स्वतंत्र संघ बनाना चाहिए।
1937 का चुनाव और मुसलिम लीग प्रतिक्रिया
1935 के एक्ट ने मुसलिम बहुल क्षेत्रों का एकीकरण किया सिंध को बम्बई से अलग कर उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया। 1937 चुनाव परिणाम में कांग्रेस छ: हिन्दू बहुल प्रांतों और उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत में विजयी रही। मुसलिम बहुल इलाकों में लीग के बजाय अन्य दलों ने बाजी मारी इससे लीग में घोर निराशा छा गयी। कांग्रेस बहुमत वाले राज्यों ने लीग के साथ मिलकर सरकार बनाने से इंकार कर दिया। इसके बाद लीग ने कांग्रेस पर हिंदूवादी होने का आरोप लगाकर साम्प्रदायिक माहौल बनाना शुरू कर दिया।
कांग्रेस मंत्रिमंडल, मुसलिम लीग, स्वतन्त्र मुसलिम राज्य ( पाकिस्तान ) की मांग
मुसलिम लीग ने कांग्रेस मंत्रिमंडलों पर यह आरोप लगाया कि वे मुसलमानों के प्रति भेदभाव की निति अपना रहे हैं। 1939 में जब कांग्रेस के सभी प्रांतीय मंत्रिमंडलों ने सामूहिक स्तीफा दिया तो लीग ने इस दिन को ‘मुक्ति’ दिवस के रूप में मनाया। अलीगढ़ प्रोफेसर ( सर सैयद अहमद खां का विचार ) योजना से प्रथम बार इस बात पर जोर दिया गया कि भारतीय मुसलमान अपने आप में एक राष्ट्र हैं और वे अंग्रेज या अन्य किसी जाति के नीचे या प्रभुत्व में नहीं रह सकते। अतः उन्होंने दो प्रभुत्व-संपन्न राज्यों “भारत के पुनर्विचार की मांग की –मुस्लिम भारत और हिन्दू भारत”
मुसलिम लीग का लाहौर प्रस्ताव
मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य गठन का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुसलिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पास किया गया। इसमें कहा गया “भारत की समस्या का चरित्र अन्तः साम्प्रदायिक नहीं है बल्कि स्पष्ट रूप से अर्न्तराष्ट्रीय किस्म का है और इसी रूप में इस पर विचार किया जाना चाहिए अब हमारे लिए एकमात्र रास्ता यह रह गया है कि हम भारत को ‘स्वायत्त राष्ट्रीय राज्यों’ में विभाजित करके प्रमुख राष्ट्रों को अलग-अलग हो जाने दें” जिन्ना ने मीटिंग में स्पष्ट घोषणा कर दी कि मुसलमान किसी ऐसे संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे जिसमें हिन्दुओं का बहुमत हो।
लियाकत अली खान ने कहा “आज पाकिस्तान की मांग केंद्र में हिन्दू-बहुमतके भय पर आधारित नहीं है। इसके विपरीत यह एक राष्ट्र की आकांक्षा है, जिसके पीछे अपने आदर्शों तथा संस्कृति को गढ़ने की भावना निहित है। यह आकांक्षा सम्पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त किये बिना शांत नहीं हो सकती, जिसका अर्थ होगा बिना किसी अपवाद के राज्य के सभी विभागों पर प्रभुत्व।
लाहौर प्रस्ताव का प्रभाव और विभाजन की रूपरेखा
लाहौर प्रस्ताव में पृथक मुसलिम राज्य की मांग बिल्कुल स्पष्ट थी। प्रारम्भ में कांग्रेस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। डा. अम्बेडकर ने भारत में लोकमत की दृष्टि से महत्वपूर्ण हर वर्ग से यह अपील की कि वे साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल निकाले क्योंकि अंततः इसी पर भारत की राजनीतिक स्वंत्रता निर्भर है।
विभाजन के प्रस्ताव ( लाहौर प्रस्ताव ) पर कांग्रेस का रवैया
लाहौर प्रस्ताव से कांग्रेस में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। गाँधी जी ने सितम्बर 1940 में ‘हरिजन’ में चिंता व्यक्त करते हुए लिखा “विभाजन के प्रस्ताव ने हिन्दू-मुसलिम समस्या की दशा ही बदल दी है कतरनों ( अख़बार की ) से यह प्रकट होता है कि हिन्दू-मुसलिम पहले से ही परस्पर संघर्ष की स्थिति में हैं और अब उन्हें अंतिम संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए”।
1942 के क्रिप्स प्रस्ताव में राज्यों को भारत से अलग रहने की स्वतंत्रता की बात कही गई तो कांग्रेस को एहसास हो गया कि जो राज्य स्वेच्छा से भारत संघ के साथ शामिल नहीं होंगे उन्हें अर्से तक मिलाए रखना मुश्किल होगा। अतः २ अप्रैल 1942 को कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें उसने आत्म-निर्णय के सिद्धांत को मान्यता दी।
इस गतिरोध को दूर करने के लिए सी. राजगोपालाचारी ने एक फॉर्मूला तैयार करने का निर्णय लिया जो सभी दलों को स्वीकार्य हो। किन्तु यह प्रयास भी असफल रहे।
विभाजन की समस्याएं और विभाजन रोकने के वैकल्पिक उपाय
भारत का विभाजन सिर्फ एक समुदाय का विभाजन नहीं था, इसमें अनेक समस्याएं अन्तर्निहित थीं , जैसे एक प्राकृतिक-भौगोलिक इकाई का विच्छेद, भारतीय सेना और परिसम्पत्तियों व् देयताओं का विभाजन; पंजाब तथा बंगाल की समस्या जिसमें मुस्लिम हिन्दू के अलाबा अन्य जनसँख्या भी बहुत बड़ी मात्रा में थी। इससे अल्पसंख्यकों की समस्या सुलझेगी नहीं क्योंकि विभाजन के बाद भी दोनों तरफ बहुत बड़ी मात्रा में अल्पसंख्यक होंगे। बहुत से लोगों ने गंभीर चिंताएं व्यक्त की।
1944 में सप्रू समिति से समस्या का हल निकालने का असफल प्रयास किया गया, जिसमें मुसलिम लीग को संतुष्ट करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में सवर्ण हिन्दुओं व् मुसलमानों के बीच समानता की नवीन योजना पेश की गई।
मई 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन से और उसके बाद जो विचार-विमर्श चला उससे समस्या और भी ज्यादा जटिल हो गई। भारत को अखंड रखने के जो प्रयास चल रहे थे उसमें कैबिनेट मिशन प्रस्ताव एक प्रकार से अंतिम प्रयास था 1946 के आम चुनावों ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को देश की दो सम्प्रदाय की शक्तियों के रूप में मान्यता मिल गयी क्योंकि लीग ने मुस्लिम बाहुल्य अधिकांश सीटें जीती थीं। इससे जिन्ना के हाथ मजबूत हुए वे पाकिस्तान की मांग पर और दृढ़ हो गए।
कैबिनेट मिशन योजना के तहत जो मिली-जुली सरकार बनी –जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे –मुसलिम लीग ने उसमें शामिल होने से इंकार कर दिया ( क्योंकि कांग्रेस ने लीग का विलय कांग्रेस में करने की शर्त रखी थी ) और 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यवाही दिवस मानाने का निर्णय लिया। मुस्लिम नेताओं ने मंच से अत्यंत भड़काऊ भाषण दिए जिससे तनाव का माहौल बन गया। यद्पि कुछ शर्तों के साथ लीग सरकार में शामिल हुयी ( सहयोग के लिए नहीं व्यवधान डालने के लिए )
विभाजन से पूर्व साम्प्रदायिक दंगे
कलकत्ता, नोआखली, बिहार, गढ़मुक्तेश्वर आदि स्थानों में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और मार्च 1947 तक पुरे पंजाब तक फ़ैल गए। इन दंगों ने हिन्दू-मुसलिम के बीच एकता को अतीत की बात सिद्ध कर दिया। अब कांग्रेस नेतृत्व लीग की चालों से तंग आ चुका था और उनमें से कई शीघ्र सत्ता प्राप्ति को उतावले थे चाहे यह विभाजन की कीमत पर ही क्यों न मिले। अब देश की साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने-अपने संगठन सक्रीय कर दिए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, मुसलिम नेशनल गार्ड तथा अकाली दल के लड़ाकू अपने-अपने धार्मिक सम्प्रदाय के युवाओं को अपने अधिकार के लिए कुर्बानी देने को उकसा रहे थे। जब फरवरी को ब्रिटिश सरकार ने शीघ्र जिम्मेदार भारतियों को सत्ता हस्तांतरित करने की घोषणा की तो ये सांप्रदायिक सत्ता संघर्ष और तीव्र हो गया।
गाँधी ने कैबिनेट मिशन के सामने विभाजन की योजना को आगे न बढ़ाने की अपील की मगर इसका कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि अब समस्त कांग्रेस कार्य समिति ( जसमे पटेल और नेहरू भी थे ) विभाजन को ही समस्या का एकमात्र हल स्वीकार कर चुके थे।
माउंटबेटन योजना और भारत का विभाजन
लम्बे विचार-विमर्श के बाद माउंटबेटन ने अपनी योजना जो इस बात का संकेत था कि भारतीय नेतृत्व हर स्थिति में कोई समझौता करने पर तुला है।
ब्रिटिश सरकार ने 3 जून 1947 को भारत के बंटबारे की घोषणा की उसमे पंजाब और बंगाल के विभाजन पर भी विचार किया गया था क्योंकि इन प्रांतों के सभी मुसलमानों से अलग दलों ने इसकी मांग की थी। जिन्ना ने इससे असहमति प्रकट की और इसे “द्वेष और कटुता से प्रेरित दृष्टतापूर्ण कार्यवाही” कहकर इसकी निंदा की क्योंकि इससे मुसलमानों को जो पाकिस्तान मिलेगा वह “विकृत और खंडित” होगा।
किंतु लीग के पास इस योजना को स्वीकार करने के आलावा कोई चारा नहीं था क्योंकि जिन दलीलों के आधार पर पाकिस्तान की मांग की गई थी उनकी यह तर्कसंगत परिणति थी। परिणामस्वरूप 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान एक नए राष्ट्र के रूप में दुनियां के नक्से पर दर्ज हो गया। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत बना।
निष्कर्ष
विभाजन सिर्फ दो देशों का नहीं हुआ था बल्कि यह भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और बहुत बड़ी संख्या में मानव सम्पदा की अदला-बदली हुई थी। भारत के बँटवारे से भारतीय लोगों, विशेषकर पंजाब और बंगाल के लोगों के लिए यह एक भयंकर त्राश्दी लेकर आया। लाखों की संख्या में जनता बेघर हो गए, हज़ारों बेगुनाह लोग अपने ही भाई-बन्दों के हाथों निर्दयतापूर्वक क़त्ल कर दिए गए और भरी संख्या में महिलाओं का अपहरण कर उनका धर्म परिवर्तन किया गया।
लगभग 10 लाख लोग मारे गए और 1.45 करोड़ शरणार्थी के रूप में आये। इस प्रकार कांग्रेस तथा राष्ट्रवादियों के लापरवाही या भूलचूक के कार्यों , मुसलिम बुर्जुआज़ी की सत्ता-आकांक्षा और औपनिवेशिक शक्ति द्वारा सत्ता को जब तक संभव हो सके तब तक बनाये रखने की बजह से जो देश का विभाजन हुआ उसके परिणामस्वरूप जनता को भारी कीमत है।