उत्तर वैदिक काल: राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन

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हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों पर पनपी वैदिक सभ्यता जिसने एक नई प्रकार की सांस्कृतिक विरासत को जन्म दिया। वैदिक सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता और संस्कृति पर आधारित थी जिसमें काल्पनिक देवी-देवताओं की स्तुति को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस ब्लॉग के माध्यम से हम ऋग्वैदिक काल ( 1500-1000 ईसा पूर्व ) अथवा पूर्व वैदिक कालीन संस्कृति के बाद के काल जिसे हम सामन्यता उत्तर वैदिक काल के नाम से जानते हैं जिसका समय (1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व ) था के विषय में विस्तार से जानेंगे। इस लेख में हम उत्तर वैदिक काल की प्रमुख विशेषताओं यथा-राजनितिक संगठन, सामजिक जीवन की विशेषताओं, आर्थिक जीवन की विशेषताओं, उत्तर वैदिक काल की धार्मिक दशा पर चर्चा करेंगे।  

उत्तर वैदिक काल: राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन

उत्तर वैदिक काल

वैदिक साहित्य के समय से लगभग 1000 ईसा पूर्व तक के दौरान था। यह काल वेदों के अनुसार वैदिक साहित्य के विकास का समय है और इसके दौरान बहुत सारी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियां हुईं।

इस दौरान वैदिक संस्कृति का विकास हुआ और इस विकास का विस्तार विभिन्न भागों में हुआ। इस दौरान ब्राह्मण वर्ग तैयार हुआ जो यज्ञों और पूजाओं के पंडित बने। जैन और बौद्ध धर्म भी इस दौरान उत्पन्न हुए। इसके अलावा, उत्तर वैदिक काल में वैदिक संस्कृति और वैदिक साहित्य के अलावा शिल्पकला, विज्ञान और गणित का विकास भी हुआ।

उत्तर वैदिक काल की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक उपनिषदों का विकास था। उपनिषदों में वैदिक धर्म के अन्य विवरणों के साथ-साथ ब्रह्म का विस्तार और ज्ञान का अर्थ प्रदान किया गया।

उत्तर वैदिक संस्कृति की प्रमुख विषेशताओं का वर्णन

 उत्तर वैदिक काल भारतीय संस्कृति  सभ्यता का वह काल था जब आर्यों को लोहे की जानकारी हो चुकी थी कृषि अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर चुकी थी। चारों वेदों ( सहिंताओं ) के बाद ब्राह्मण, आरण्यक, तथा उपनिषदों की रचना हुयी। 

उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का क्षेत्र —

पूर्व वैदिक काल अथवा ऋग्वैदिक काल में आर्यों का विस्तार केवल पंजाब तथा सिंध क्षेत्र तक ही हुआ था। लेकिन उत्तर वैदिक काल तक आर्यों का विस्तार एक व्यापक क्षेत्रों तक विस्तारित हो चुका था।उत्तर-वैदिक काल की समाप्ति तक आर्यों ने गंगा, युमना, एक सदानीरा ( गण्डक या राप्ती ) जैसी नदियों से सिंचित पूर्णतया उपजाऊ मैदानों पर अपना विस्तार कर लिया था। 

ज्ञात हो की आर्य-सभ्यता का केंद्र सरस्वती तथा गंगा तक विस्तृत दो आब तक था जिसे मध्य देश कहा गया है। इस क्षेत्र में कुरु, पाञ्चाल जैसे बड़े राज्य थे।  यहाँ से आर्य सभ्यता का विस्तार पूर्व की ओर कोशल, कशी, विदेह ( उत्तरी बिहार ) तक हुआ।  कोसल, कशी, विदेह, मगध, अंग आदि राज्यों का महत्व निरंतर बढ़ता गया और कुरु, पाञ्चाल आदि अपना महत्व खोते गए। 

अथर्ववेद में मगध के लोगों के विषय में कहा गया है कि ‘वे व्रात्य हैं जो प्राकृत भाषा बोलते हैं और उनके प्रति तिरस्कार पूर्ण भाव व्यक्त किये गए हैं ( शायद संस्कृत न बोलने के कारण ) ‘ . यहाँ तक कहा गया है कि अंग तथा मगध के लोग ‘ज्वर’ द्वारा ग्रसित हों। 

पूर्व-वैदिक कालीन आर्य  लोगों का विस्तार दक्षिण भारत तक नहीं हुआ था क्योंकि किसी भी वैदिक ग्रन्थ में दक्षिण के राज्यों का नाम तक नहीं मिलता। 

उत्तर वैदिक कालीन आर्यों का विस्तार किन राज्यों तक था 

उतार वैदिक काल तक आर्य जन की प्रमुख शाखाओं अनु, द्रुह्यं, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत का नाम समाप्त हो गया तथा उनके स्थान नवीन विशाल राज्यों ने ग्रहण कर लिया। इन नवीन राज्यों में कुरु और पञ्चाल सबसे अधिक प्रसिद्ध राज्य थे। 

शतपथ ब्राह्मण में कुरु तथा पञ्चाल के लोगों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है 

 यहाँ के लोग बहुत शिष्टाचारी, विधि-विधान से यज्ञ करते हैं तथा बहुत अच्छी संस्कृत बोलते हैं, इनके  राजा सबसे शक्तिशाली हैं, इनकी परिषदें सर्वश्रेष्ठ थीं। ये संयुक्त राज्य थे जिनकी राजधानियां क्रमशः असांदिवत तथा काम्पिल्य थी। असदिवत के अंतर्गत सरस्वती और दृशद्वती नदियों के बीच की भूमि ( कुरुक्षेत्र ) सम्मिलित थी, इसी प्रकार काम्पिल्य के अंर्तगत फरुखाबाद, बदायूं और बरेली जिले आते थे। 

उत्तर वैदिक संस्कृति

उत्तर-वैदिक कालीन आर्यों की  राजनीतिक व्यवस्था 

उत्तर वैदिक काल में छोटे-छोटे जनों का स्थान अब बड़े राज्यों ने ले लिया अब मुखिया के स्थान पर राजा की उतपत्ति हो चुकी थी। 

ऐतरेय ब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति संबंधी एक रोचक विवरण मिलता है जिसके अनुसार ‘देवताओं और असुरों के बीच हुए युद्ध में देवताओं की पराजय हुयी।  तब देवताओं ने गहन विचार किया और निष्कर्ष निकला कि उनकी हार का कारण राजा का आभाव है तब उन्होंने राजा का चुनाव किया और असुरों पर विजय प्राप्त की। 

अतः राजा के पद का उदय सैनिक विजयों के उद्देश्य पूर्ति हेतु हुआ। 

उत्तर-वैदिककालीन राजाओं की उपाधियाँ 

 इस काल के राजा राजाधिराज, सम्राट, एकराट जैसी विशिष्ट उपाधियाँ धारण करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में  एकराट उपाधि धारक राजा को ‘समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासक’ कहा गया है। 

  •  इसी प्रकार अथर्ववेद में एकराट उपाधि के राजा को सर्वश्रेष्ठ राजा मन गया है। 
  •  अथर्ववेद परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहता है।
  • राजसूय तथा अश्वमेध जैसे यज्ञों का आयोजन होता था। 
  • सभा और समिति नामक संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। 
  • राजा के चुनाव में जनता की भी सहमति प्राप्त की जाती थी। 
  • अन्यायी राजा को प्रजा दंड दे सकती थी। 
  • उत्तर-वैदिक कालीन राजा की सहायता के लिए निम्न मंत्री होते थे 

मंत्रियों को ‘रत्नी’ कहा जाता था। 

सेनानी सेनापति
सूत रथ सेना का कमांडर
ग्रामणी गांव का मुखिया या प्रधान
संग्रहीता कोषागार का अध्यक्ष
भागधुक अर्थमंत्री या वित्तमंत्री

दरबारी मंत्रियों के पद इस प्रकार थे 

क्षता दौवारिक
अक्षावाप आय-व्यय का हिसाब रखने वाला
पालागल विदूषक या विद्वान्

इसके अतिरिक्त शतपथ ब्रह्मण तथा काठक सहिंता में कुछ रत्नीयों के ना इस प्रकार हैं —

गोविकर्तन गवाध्यक्ष
तक्षा बढ़ई
रथकार रथ बनाने वाला

  • अथर्ववेद में सभा और समिति को “प्रजापति की दो पुत्रियां’ कहकर सम्बोधित किया गया है” 
  • सभा उच्च सदन ( वर्तमान राजयसभा जैसे ) थी समिति निम्न सदन। 
  • एक अन्य संस्था ‘विदथ’ थी -जिसमें धार्मिक और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श होता था। 
  • राजा को जनता कर ( बलि ) प्रदान करती थी। ब्राह्मण और क्षत्रिय इस कर से मुक्त थे। 

उत्तर-वैदिक कालीन सामाजिक व्यवस्था तथा संगठन 

  •  पूर्व वैदिक काल की तरह उत्तर-वैदिक काल में भी पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था प्रचलित थी। 
  •  परिवार का मुखिया पिता होता था और उसके अधिकार निरंकुश तथा असीमित थे। 
  •  पिता अपने पुत्रों को बेचने और घर से निकलने  के लिए स्वतन्त्र था।
  •  वर्ण अब कठोरता की ओर अग्रसर होकर जाति में परिवर्तित होने लगे थे। 
  •  ब्राह्मण को दान लेने वाला ( आदायी ) , भ्रमणशील ( यथाकाम प्राप्य ) कहा गया है। 
  • बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। 
  • वहु विवाह तथा विधवा विवाह प्रचलित थे। 
  • स्त्रियों को राजनीतिक तथा धन संबंधी अधिकार नहीं थे। 
  • अथर्ववेद कन्या के जन्म की निंदा करता है। 
  • मैत्रायणी संहिता स्त्री को द्युत तथा मदिरा की श्रेणी में रखता है। 

उत्तर-वैदिक कालीन आर्थिक व्यवस्था 

  •  पशुपालन और खेती अब भी आर्यों के मुख्य व्यवसाय थे। 
  • शतपथ ब्राह्मण में खेती की चारों विधियों – कृषन्त:, वपन्त:, लुनन्त:, और मृणन्तः ( जुताई, बुवाई, कटाई और मड़ाई ) का उल्लेख है।  

24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख किस संहिता में मिलता है ?

  • काठक संहिता में एक ऐसे हल का वर्णन मिलता है जो 24 बैलों द्वारा खिंचा जाता था।

  • इस समय के प्रमुख अन्न – जौ, चावल, मूँग, उड़द, तिल, और गेहूं आदि थे। 
  • लोग पशुओं की गोबर की खाद से परिचित थे इसे मूलयवान खाद माना गया है। 
  • गाय, बैल, भेड़, बकरी, गधे, और सूअर पालतू पशु थे। 
  • उत्तर-वैदिक कालीन लोग हाथी से परिचित थे। 
  • व्यापारी को श्रेणी कहा गया है, ‘श्रेष्ठिन’ श्रेणीं का प्रधान था। 
  • ब्याज पर ऋण देने का प्रचलन था तैत्तिरीय संहिता में इसके लिए ‘कुसीद’ शब्द आया है। 
  • शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले को ‘कुसिदिन’ कहकर पुकारा गया है। 
  • निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल आदि माप की अलग-अलग इकाइयां थीं। 
  • ‘कृष्णल’ बाट की प्रमुख इकाई थी। 
  • रत्तिका को साहित्य में तुलाबीज कहा गया है। 
  •  वाजसनेयी सभ्यता में 100 डाडों वाले जलपोतों का उल्लेख हुआ है। 
  • शतपथब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख है। 
  • उत्तर-वैदिककालीन आर्य सोना, लोहा, तांबा, टिन, चांदी, शीशा आदि धातुओं से परिचित थे। 
  • वैदिक साहित्य में लोहे के लिए कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग किया गया है 

उत्तर-वैदिक काल की धार्मिक दशा।

  • ऋग्वैदिक काल में जो प्रमुख देवता थे जैसे – इंद्र , वरुण आदि , अब उनके स्थान पर रूद्र-शिव, प्रजापति, और विष्णु का बोलबाला हो गया। 
  • यज्ञों में जटिल आ गयी और अब पशुबलि को प्राथमिकता दी जाने लगी। 
  •  इस काल में लोग भूत-प्रेत , वशीकरण , इद्रजाल जादू-टोने जैसी अंधविश्वासी कुरीतियों को मैंने लगे थे। 
  • पुरोहितों के बढ़ते प्रभाव के कारण यज्ञीय कर्मकांड तथा अनुष्ठानो का प्रचलन बढ़ गया। 

 निष्कर्ष 

इस प्रकार उत्तर वैदिककाल में जहाँ खेती और पशुपालन से लोगों का जीवन आसान हुआ वहीँ यज्ञीय विधि-विधानों के प्रचलन से लोग पाखंडवाद की तरफ भी अग्रसर हो गए।  वर्णों की कठोरता ने आधुनिक जातिवाद को जन्म दिया और समाज में भेदभाव जैसी अमानुषिक प्रथा को दैवी रूप दे दिया। जातिवाद जो सिर्फ आर्थिक और राजनितिक रूप से वर्चस्व स्थापित करने के लिए वर्ग विशेष द्वारा बनाई गयी उसको ईश्वरीय रचना का रूप देखर विधि सम्मत ठहराया गया। अतः भारतीय समाज में धार्मिक तथा सामजिक कुरीतियों का जन्म उत्तर वैदिक काल में ही प्रारम्भ हुआ।

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