बारदोली सत्याग्रह | बारदोली आंदोलन | Bardoli Satyagraha | bardoli movement

बारदोली सत्याग्रह | बारदोली आंदोलन | Bardoli Satyagraha | Bardoli Movement

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Last updated on October 31st, 2023 at 02:06 pm

सूरत जिले ( गुजरात ) के बारदोली तालुके में 1928 ईस्वी में एक प्रकार से असहयोग आंदोलन ही था जब किसानों ने लगान न चुकाने का निर्णय लिया था। 1922 में इसी बारदोली तालुके से महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया था, लेकिन चौरी-चौरा की घटना के बाद यह निर्णय अमल में नहीं लाया जा सका। 1922 में यहाँ से असहयोग आंदोलन तो प्रारम्भ नहीं हो पाया लेकिन सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयारियां होने लगीं।

बारदोली सत्याग्रह | बारदोली आंदोलन | Bardoli Satyagraha | Bardoli Movement
बारदोली आंदोलन के दौरान गाँधी और पटेल किसानों को सम्बोधित करते हुए – फोटो विकिपीडिया

बारदोली सत्याग्रह-बारदोली आंदोलन का परिचय

बारदोली आंदोलन भारत के गुजरात राज्य के एक छोटे से शहर बारदोली में 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ एक महत्वपूर्ण सविनय अवज्ञा अभियान था। इसका नेतृत्व प्रमुख भारतीय नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था, जो बाद में भारत के पहले उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री बने। आंदोलन 1928 में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की दमनकारी नीतियों की प्रतिक्रिया के रूप में शुरू किया गया था, जिसने बारदोली में किसानों पर अत्यधिक कर लगाया था।

बारदोली आंदोलन को स्थानीय कृषक समुदाय के साथ-साथ पूरे भारत से व्यापक समर्थन मिला। पटेल के नेतृत्व में किसानों ने अन्यायपूर्ण कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया और उनकी जब्त की गई भूमि की नीलामी का बहिष्कार किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के विरोध में शांतिपूर्ण विरोध, हड़ताल और प्रदर्शन भी आयोजित किए। ब्रिटिश अधिकारियों से कठोर दमन का सामना करने के बावजूद, बारदोली आंदोलन अहिंसक बना रहा और महात्मा गांधी के अहिंसा के दर्शन से प्रेरणा लेते हुए सविनय अवज्ञा के सिद्धांतों का पालन किया।

बारदोली आंदोलन अंततः ब्रिटिश सरकार को अन्यायपूर्ण कर को निरस्त करने और जब्त की गई भूमि को किसानों को वापस करने के लिए मजबूर करने में सफल रहा। यह स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बन गया और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ व्यापक आंदोलन में योगदान दिया। इसने एक नेता के रूप में वल्लभभाई पटेल के कद को भी ऊंचा किया और उन्हें “सरदार” की उपाधि जिसका अर्थ “नेता” होता है दी गई, जिसे वे आज भी प्रसिद्ध हैं। बारदोली आंदोलन को अहिंसक सविनय अवज्ञा के एक उल्लेखनीय उदाहरण के रूप में याद किया जाता है जिसने भारत की स्वतंत्रता की यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बारदोली आंदोलन की पृष्ठभूमि

बारदोली 1922 से ही राजनीतिक गतिविधियों का केंद्रबिंदु बन गया था।  वहां के कुछ स्थानिय नेता – कल्याणजी और कुंवरजी मेहता ( दोनों भाई ) और दयालजी देसाई ने असहयोग आंदोलन के लिए जनमत तैयार करने में बहुत सहयोग किया था। यही वह लोग थी जिनके प्रयास देखकर गाँधी जी ने खेड़ा की बजाय बारदोली को असहयोग आंदोलन शुरू करने के लिए चुना था। ये लोग असहयोग आंदोलन के भी 10 साल पहले से राजनीतिक जागरूकता और समजसेवा को लेकर सक्रीय थे।

इस क्षेत्र की दो प्रमुख जातियों अनाबिल ब्राह्मण और पट्टीदार के बीच इन नेताओं का बहुत सम्मान था। इन नेताओं ने अनाबिल और पट्टीदार आश्रम ( छात्रावास )की स्थापना की। इन नेताओं ने सामजिक कुरीतियों के विरुद्ध में आंदोलन किये।

असहयोग आन्दोलन और बारदोली

असहयोग आंदोलन के अचानक बापस लेने की घोषणा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोवल तोड़ दिया था पर वे जल्द ही रचनात्मक कार्यों में लग गए। 1922 में गाँधी जी ने बारदोली के कांग्रेसियों से कहा कि आप लोगों ने आदिवासी, नीच और अछूत जातियों के लिए कुछ नहीं किया है। गाँधी जी के सुझाव को मानते हुए वहां के स्थानीय नेताओं ने अछूतों और आदिवासियों के बीच, जिन्हें ‘कापिलराज” ( अश्वेतजन ) कहा जाता था के बीच  किया।

    “सवर्णों या उच्च जातियों को ‘उजलीपराज’ कहा जाता था।”

बारदोली तालुके में में कलिपराजों कीआवादी 60% थी। के इन स्वयंसेवी कार्यकर्ता ( जो सवर्ण थे ) कापिलराज’ यानि अछूतों के बीच छः आश्रम खोले। इन आश्रमों के माध्यम से इन जातियों (आदिवासी और पिछड़े ) के बीच शिक्षा का प्रसार किया। इनमें से कई आश्रम आज भी मौजूद हैं।

कृष्णजी मेहता और केशवजी गणेशजी ने आदिवासियों की भाषा सीखी और कपिलराज समुदाय के शिक्षित लोगों की मदद से “कपिलराज साहित्य” का सृजन  किया। कविताओं और गद्य के माध्यम से कापिलराजों में प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों के खिलाफ हमला किया। बंधुआ मजदूरी ( हाली पद्धति ) के खिलाफ आवाज उठाई।

1927 में बारदोली कस्वे में कापिलराज’ बच्चों के लिए एक स्कूल खोला गया आश्रम के कार्यकर्ताओं के सामने कई बार जमींदारों और उच्च जातीय लोगों ने विरोध प्रदर्शित किया। 1922 के बाद प्रत्येक वर्ष ‘कपिलराज सम्मलेन’ होता था। 1927 के वार्षिक आंदोलन की अध्यक्षता गाँधी जी ने की और कापिलराज’ समुदाय के आर्थिक-सामाजिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक जाँच समिति का गठन किया।

 “गाँधी जी ने कपिलराज का नाम परिवर्तित करके ‘रानीपराज’ कर दिया। जिसका अर्थ होता है -जंगल के वासी। गाँधी जी की नजर में ‘कापिलराज’  ( अश्वेतजन ) शब्द अपमानजनक था।”

गुजरात के कई प्रसिद्ध और जाने-माने नेताओं जैसे नरहरि पारीख और जगतराम दवे ने कापिलराज समुदाय के आर्थिक और सामजिक स्थितियों का अध्ययन किया और अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा कि ‘हाली पद्धति’ बहुत अमानवीय है।

रिपोर्ट अनुसार सूदखोर और जमींदार गरीब कापिलराज जनता का आर्थिक शोषण के साथ यौन शोषण भी करते हैं। गरीब कापिलराज समुदाय की स्त्रियां जमींदारों के बलात्कार का शिकार होती हैं। इन कार्यों से कापिलराज समुदाय के बीच कांग्रेस का एक मजबूत जनाधार तैयार हो गया ( सम्भवतः यही गाँधी जी का लक्ष्य भी था। )

बारदोली जांच समिति का गठन

जब 1926 में लगान पुनरीक्षण अधिकारी ने लगान में 30 फीसदी को बढ़ोत्तरी की तो कांग्रेस नेताओं ने इसका तीव्र विरोध किया और इस मामले की जाँच  के ‘बारदोली जाँच समिति’ का गठन किया। जाँच समिति ने जुलाई 1926 में अपनी रिपोर्ट पेश की और लगान बढ़ोतरी को हैरजरुरी बताया। इसके बाद बहरतीय अख़बारों ने इसके विरुद्ध लिखना शुरू किया।  और इसकी शुरुआत की यंग इंडिया ने  और ‘नवजीवन’ ने उसके बाद बॉम्बे क्रॉनिकल, बॉम्बे समाचार’ नवाकाल’ देशबंधु’ मराठा’ जाम-ए-जमशेद‘ और पराजबंधु प्रजाबंधु’ ने खूब विरोध किया।

संवैधानिक संघर्ष में विश्वास करने वाले क्षेत्रीय नेताओं ने जिनमें विधान परिषद के सदस्य भी शामिल  थे इस मुद्दे को अंग्रेज सरकार के सामने उठाया। मार्च 1927 में भीम भाई नाइक और शिवदासानी के नेतृत्व में किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल बम्बई सरकार के राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी ( रेवेन्यू मेंबर ) से मिला।  बढ़ते दबाव के बाद 1927 में सरकार ने लगान बढ़ोतरी को घटाकर 30 से 21.97 फीसदी कर दिया। लेकिन किसान इससे संतुष्ट नहीं हुए अंततः किसानों ने लगान अदायगी न करने का फैसला किया। केवल उतना ही लगान देने का निर्णय लिया जितना वे  पहले देते थे।

बारदोली आंदोलन में सरदार पटेल का प्रवेश

स्थानीय नेताओं ने धीरे-धीरे इस लगान विरोधी आंदोलन से हाथ खींचना शुरू  कर दिया। अब कांग्रेस ने वल्ल्भभाई से संपर्क किया और उनसे बारदोली आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह किया। कादोद संभाग के बामनों’ गांव में 60 गांव के प्रतिनिधियों की बैठक हुई जिसमें वल्ल्भभाई पटेल को आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित किया गया।

जनवरी 1928 में किसान समिति के सदस्य और स्थानीय नेता वल्लभभाई पटेल को बारदोली आने का निमंत्रण देने के लिए अहमदाबाद गए। वल्लभभाई ने निमंत्रण स्वीकार किया और 5 फरवरी 1928 से पहले बारदोली  आने का आश्वासन दिया ( वह तारीख जिस दिन से लगन देय था ) . स्थानीय नेताओं ने गाँधी जी से मुलाकात और जब गाँधी  जी  यह विश्वास हो गया कि किसान इस आंदोलन के साथ हैं तो गाँधी जी ने भी बारदोली आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया।

वल्ल्भभाई पटेल का बारदोली पहुंचना

4 फरवरी को वल्ल्भभाई पटेल बारदोली पहुंचे और किसानो के प्रतिनिधियों से बात की। पटेल ने कई दौर की बातचीत के बाद स्पष्ट कर दिया कि प्रस्तावित आंदोलन के क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं। बारदोली से लौटकर पटेल ने बम्बई के गवर्नर को एक खत लिखा। उन्होंने इस खत में सरकार की लगान  गणना को त्रुटिपूर्ण बताया और धमकी दी कि यदि इसकी निष्पक्ष जाँच नहीं हुई तो वे किसानों को लगान न चुकाने के लिए उकसायेंगे। गवर्नर के सचिव ने पटेल को बताया कि उनका खत राजस्व विभाग को भेज दिया है।

बारदोली सत्यग्रह कब शुरू हुआ

12 फरवरी को पटेल बारदोली लौटे और किसान प्रतिनिधियों से साड़ी बात बताई। इसके बाद बारदोली तालुके के किसानों की एक बैठक हुई और निर्णय लिया गया कि जब तक निष्पक्ष जाँच नहीं होती तब तक लगान की पूरी आदायगी पहले से दिए जा रहे लगान को ही माना जायेगा। किसानों ने ‘भगवान’ और ‘खुदा’  की शपथ ली कि वे लगान नहीं देंगे।  प्रस्ताव पास होने के बाद गीता और कुरान के पाठ हुए और हिन्दू-मुस्लिम एकता जताने वाले कबीर के दोहे गाए गए। सत्याग्रह शुरू हो गया।

वल्ल्भभाई पटेल को सरदार की उपाधि किसने दी

1847 ईस्वी को जन्मे वल्लभभाई पटेल ही इस आंदोलन के सही मुखिया हो सकते थे। ‘खेड़ा सत्याग्रह’ , ‘नागपुर फ्लैग सत्याग्रह’, और ‘बलसाड़ सत्याग्रह’ के माध्यम से वे गुजरात के बहुचर्चित और सम्मानित नेता बन चुके थे। गाँधी के बाद दूसरे नंबर पर पटेल ही आते थे। बारदोली आंदोलन में उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी गई। उन्हें यह ख़िताब दिया बारदोली की महिलाओं ने।

सरदार पटेल का बारदोली आंदोलन में योगदान

सरदार वल्ल्भ भाई पटेल ने पूरे तालुके को 13 कार्यकर्ता शिविरों में बाँट दिया और प्रत्येक शिविर के संचालन के लिए एक-एक अनुभवी नेता  को तैनात किया गया। प्रान्त के विभिन्न हिस्सों के लगभग 100 राजनीतिक कार्यकर्त्ता और 1500 स्वयंसेवी, जिनमें अधिकांश छात्र थे, इस आंदोलन के सैनिक थे।

एक प्रकाशन विभाग भी बनाया गया जहाँ से रोज ‘बारदोली सत्याग्रह पत्रिका’ का प्रकाशन होता था। स्वयंसेवक इस पत्रिका को तालुके के हर हिस्से तक पहुँचाते थे।

सरदार वल्ल्भभाई पटेल की बेटी और महिलाओं का आंदोलन में योदगान

इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण थी।  महिलाओं में जागरूकता फ़ैलाने के लिए बम्बई की पारसी महिला  मीठूबेन पेटिट, भक्तिबा ( दरबार गोपाल दास की पत्नी ), मनीबेन पटेल ( सरदार वल्ल्भभाई पटेल की बेटी ), शारदाबेन शाह और शारदा मेहता को विशेष रूप से लगाया गया था। इसका असर यह हुआ कि बैठकों में कई बार पुरुषों की संख्या से महिलाऐं जायदा थी। इस प्रकार किसान, छात्र, महिलाओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

आंदोलन के दौरान ऐसे बहुत से लोग थी जो चुपके से सरकार को लगान देने की सोच रहे थी या दे भी रहे थे। ऐसे लोगों की समझाने और धमकाने के लिए आंदोलनकारियों ने जाति वहिष्कार की धमकी दी जिसका असर हुआ और लोग आंदोलन से जुड़ते गए। सरकार ने इस तरह का आंदोलन कभी नहीं देखा था सरकारी अधिकारीयों का भी सामाजिक वहिष्कार किया गया।सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसाइटी ने अपनी रिपोर्ट में इस आंदोलन को सही ठहराया और इसका समर्थन किया।

जुलाई 1928 तक आते-आते वाइसराय लार्ड इरविन को भी लगने लगा की मामला गड़बड़ है।  उन्होंने गवर्नर विलसन पर दबाव डाला कि वह मामले को जल्द से जल्द सुलझाएं। ब्रिटिश संसद में भी इस मामले पर सवाल उठाए जाने लगे थे।

बारदोली आंदोलन की सफलता

2  अगस्त 1928 को गाँधी जी बारदोली पहुँच गए। इस आशय से कि यदि सरकार पटेल को गिरफ्तार करती है तो वह आंदोलन  की बागडोर अपने  हाथ में ले सकें। अब सरकार अपने लिए बहाने ढूंढ़ने लगी कि कैसे इस मामले से निपटा जाये।

सरकार को मुंह छिपाने का बहाना मिल गया। सूरत के विधान परिषद् सदस्यों ने गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था ”जाँच के लिए आपने जो शर्तें रखी हैं, वे मान ली जाएँगी।”
वे शर्ते क्या थीं इसका चिट्ठी में कोई जिक्र नहीं था। वास्तव में सरकार ने मान लिया था कि वह बढ़े हुए लगान को बसूलने पर जोर  नहीं देगी।

एक न्यायिक अधिकारी ब्रूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने सारे मामले की जाँच की और अपनी रिपोर्ट में ३० फीसदी लगान की बढ़ोतरी को गलत ठहराया। इसे घटाकर 6.03 फीसदी कर दिया।  लन्दन से प्रकाशित ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने 5 मई 1929 के अपने अंक में लिखा —

    “जाँच समिति की रिपोर्ट सरकार के मुंह पर तमाचा है….. इसके दूरगामी परिणाम होंगे।


गाँधी जी ने इस आंदोलन के संबंध में कहा —

“बारदोली किसान सत्याग्रह चाहे कुछ भी हो, यह स्वराज की प्राप्ति के लिए नहीं है। लेकिन इस तरह का हर कोशिश और संघर्ष, हमें स्वराज प्राप्ति के निकट पहुंचा रही हैं और हमें स्वराज की मंजिल तक पहुँचाने में शायद ये संघर्ष  स्वराज के लिए सीधे संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।”


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