दलित व पिछड़े वर्गों के सामाजिक व आर्थिक तथा छुआछूत उन्मूलन के लिए संघर्ष 1924 के बाद भी चलता रहा। यह गाँधी जी के ‘रचनात्मक कार्यक्रमों’ का एक हिस्सा था। केरल में एक बार इस संघर्ष ने जोर पकड़ा। गुरुवायूर मंदिर प्रवेश आंदोलन एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार आंदोलन था जो 1931 में भारत के केरल के त्रिशूर जिले के एक शहर गुरुवयूर में हुआ था। इस आंदोलन का उद्देश्य निचली जाति के हिंदुओं और गैर-हिंदुओं को गुरुवयूर श्रीकृष्ण मंदिर में प्रवेश से वंचित करने की भेदभावपूर्ण प्रथा को चुनौती देना था, जिसे हिंदुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता था।
गुरुवायूर मंदिर प्रवेश सत्याग्रह केरल -फोटो jagran.com |
गुरुवायूर मंदिर प्रवेश सत्याग्रह
उस समय, मंदिर में केवल उच्च जाति के हिंदुओं को अपने परिसर में प्रवेश करने की अनुमति देने की सख्त प्रथा थी, जबकि निचली जाति के हिंदुओं और गैर-हिंदुओं को मंदिर के मैदान में प्रवेश करने से रोक दिया जाता था। यह प्रथा प्रचलित जाति व्यवस्था पर आधारित थी, जो सामाजिक पदानुक्रम और जन्म के आधार पर भेदभाव को लागू करती थी।
आंदोलन की शुरुआत समाज सुधारकों और पिछड़े वर्गों के नेताओं द्वारा की गई थी, जिसमें के. केलप्पन, सी. कृष्णन और टीके माधवन जैसे प्रमुख व्यक्ति शामिल थे, जिन्होंने भेदभावपूर्ण प्रथा को चुनौती देने और निम्न-जाति के हिंदुओं और गैर-जाति के अधिकारों की वकालत करने की मांग की थी। -हिंदुओं का मंदिर में प्रवेश।
के. कोलप्पण के उकसाने पर केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने 1931 में मंदिर में प्रवेश का मुद्दा उठाया। इस समय असहयोग आंदोलन स्थगित किया जा चुका था। मलाबार जनसभाएं आयोजित की गयीं। केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने पहली नवम्बर 1931 को गुरुवयूर में मंदिर प्रवेश सत्याग्रह छेड़ने का निर्णय किया।
गुरुवायूर मंदिर प्रवेश आंदोलन 1931
पीत सुब्रह्मणियम तिरुमाबु के नेतृत्व में 16 स्वयंसेवकों का एक जत्था 21 अक्टूबर को कन्नामूर से गुरुवायूर की ओर पैदल मार्च करता हुआ चल पड़ा। इस जत्थे में सबसे पिछड़ी जाति, हरिजन से लेकर सबसे ऊँची जाति, नंबूदिरी तक के लोग शामिल थे। इस मार्च ने पूरे देश में जाति-विरोधी भावना को उकसाया। पहली नवम्बर को, अखिल केरल मंदिर प्रवेश दिवस मनाया गया, प्रार्थनाएं हुईं, जुलुस निकले, सभाएं आयोजित की गईं और चंदा इकट्ठा किया गया।
मद्रास, बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली व कोलोंबो ( श्रीलंका ) में भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किये गए। इसे गजब की लोकप्रियता मिली। राष्ट्रीय स्तर के तमाम नेता मलाबार पहुंचे। न स्वयं-सेवकों की कमी थी न पैसों की। सबसे अधिक उत्साहित था युवा वर्ग। हज़ारों युवक संघर्ष में सबसे आगे थे और लगातार इसमें शामिल होते जा रहे थे।
छुआछूत-विरोधी आंदोलन ने काफी जोर पकड़ा और इसे गजब का समर्थन मिला। तमाम दर्शनार्थियों ने अपने चढ़ावे को पुजारी को देने के बजाय सत्यग्रहियों को दे दिया। इन्हें लगा कि सत्याग्रहियों दे दिया। इन्हें लगा कि सत्याग्रहियों का शिविर शायद मंदिर से भी ज्यादा पवित्र है।
मंदिर के पुजारियों ने और महंतों ने सत्यग्रहियों को मंदिर से दूर रखने का इंतज़ाम किया था। मंदिर को चरों ओर कंटीले तार लगाए गए थे और भारी संख्या में पहरेदार तैनात किये गए थे, ताकि सत्यग्रही अंदर घुस न सके। सत्याग्रहियों को मारने-पीटने की भी धमकी दी गई।
पहली नवम्बर को ही शुभ्र खादी पहने 16 सत्याग्रहियों ने मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वारा की ओर मार्च किया। लेकिन पुलिस ने उन्हें रोक लिया पुलिस अधीक्षक भी वहां मौजूद था। मंदिर के कर्मचारियों और और स्थानीय प्रतिक्रियावादी लोगों ने इन सत्याग्रहियों पर हमला बोल दिया। पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही।
पी. कृष्ण पिल्लै और ए. के. गोपालन को ( ये दोनों व्यक्ति बाद में केरल में कम्युनिष्ट आंदोलन के बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे ) बहुत बुरी तरह पीटा गया था।
अंत में, 30 नवंबर, 1931 को, मंदिर के अधिकारियों ने भरोसा किया, और ऐतिहासिक मंदिर प्रवेश उद्घोषणा की गई, जिससे निचली जाति के हिंदुओं और गैर-हिंदुओं को गुरुवयूर श्रीकृष्ण मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति मिली। आंदोलन को केरल में सामाजिक सुधारों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया, क्योंकि इसने जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती दी और मंदिर प्रवेश प्रथाओं में अधिक सामाजिक समावेश और समानता का मार्ग प्रशस्त किया।
1931 का गुरुवयूर मंदिर प्रवेश आंदोलन भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बना हुआ है, क्योंकि यह एक उदाहरण के रूप में खड़ा है कि कैसे सामूहिक प्रयास भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती दे सकते हैं और सामाजिक समानता को बढ़ावा दे सकते हैं।
21 सितम्बर 1932 को सत्याग्रह ने जुझारू रूख अख्तियार कर लिया। के. केलप्पण आमरण अनशन पर बैठ गए। उन्होंने घोषणा की कि जब तब मंदिर के दरबाजे दलितों के लिए नहीं खोले जाते, तब तक वह अनशन करते रहेंगे। एक बार फिर सम्पूर्ण देश में छुआछूत-विरोधी लहर उठी। केरल व देश के अन्य हिस्सों में फिर से सभाएं आयोजित की जाने लगीं।
केरल व देश के अन्य हिस्सों में हिन्दुओं ने मंदिर के संरक्षक कालीकट के जामोरिन से अपील की कि वे मंदिरों में हरिजनों व दलितों की भी प्रवेश की अनुमति दें, पर इस अपील का कोई असर न पड़ा।
गाँधी ने केलप्पण से कई बार अनशन तोड़ने का अनुरोध किया और उन्हें यह आश्वासन दिया कि वह खुद मंदिर में दलितों और हरिजनों प्रवेश के लिए संघर्ष करेंगे। 2 अक्टूबर को केलप्पण ने अनशन तोड़ दिया। सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया गया, लेकिन मंदिर में प्रवेश के लिए आंदोलन चलता रहा। इसे और तेज कर दिया गया।
ए. के. गोपालन के नेतृत्व में एक जत्थे ने पुरे केरल में पदयात्रा की। मंदिर में अवर्णों ( हरिजनों और शूद्रों ) के प्रवेश के समर्थन में जनमत तैयार किया गया, तमाम सभाएं आयोजित की गईं, जत्थे पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया, मगर तब तक इसने एक हज़ार मील की यात्रा कर ली थी और 500 सभाओं को सम्बोधित किया जा चुका था।
यद्यपि गुरुवायूर मंदिर उस समय मंदिर उस समय नहीं खुला, लेकिन व्यापक सन्दर्भ में इस सत्याग्रह को कई सफलताएं मिलीं। ए. के. गोपालन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है —
“हालाँकि गुरुवायूर मंदिर के दरबाजे अवर्णों के लिए अब भी बंद थे, पर यह आंदोलन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणादायक साबित हुआ। इसके चलते हर जगह सामाजिक बदलाब की प्रक्रिया शुरू हुई।”
छुआछूत उन्मूलन और मंदिर में प्रवेश आंदोलन के बाद के वर्षों में में भी चलता रहा। “नवम्बर 1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने एक आदेश जारी कर सरकार नियंत्रित सभी मंदिरों को हिन्दुओं की सभी जातियों के लिए खोल दिया”।
“मद्रास में 1938 में सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल ने भी ऐसा ही किया। कांग्रेस शासित अन्य प्रांतों में भी इसका अनुसरण किया गया।”
निष्कर्ष
मंदिर प्रवेश आंदोलन और छुआछूत के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसने जनता को छुआछूत उन्मूलन के लिए उद्वलित किया, पर जाति प्रथा के खिलाफ आंदोलन नहीं छेड़ा। हालाँकि स्वाधीन भारत के संविधान में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पड़ा और जातीय असमानता को नकारा गया, छुआछूत को अपराध घोषित किया गया तथा सभी नागरिकों को समान अवसर देने का वादा। लेकिन इस आंदोलन की कमजोरियां आज़ाद भारत में स्पष्ट दिखाई दीं। जातिवाद की जड़ें होती गईं और पिछड़े और दलित वर्गों पर अत्याचार व उनके प्रति प्रति भेदभाव आज भी उसी तरह व्याप्त है।