पाकिस्तान में मिला 1,300 साल पुराना मंदिर

पाकिस्तान में मिला 1,300 साल पुराना मंदिर

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 21 नवम्बर 2020 दिन शानिवार को अमर उजाला हिंदी दैनिक समाचार पत्र के अनुसार उत्तर पाश्चिमी पाकिस्तान के स्वात जिले के एक पहाड़ में पाकिस्तानी और इतालवी पुरातात्विक विशेषज्ञों ने  1,300 साल पुराने एक हिन्दू मन्दिर को खोज निकाला है।बारिकोट घुंडई में खुदाई के दौरान इस मन्दिर का पता लगा। यह भगवान विष्णु का मन्दिर है और इसे हिन्दू शासनकाल के दौरान यहाँ बनाया गया था।

 

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पाकिस्तान में मिला 1,300 साल पुराना मंदिर

पुरातत्व विभाग के वारिष्ठ अधिकारी फजले खलीक ने बृहस्पतिवार को इसका ऐलान करते हुए पुष्टि की कि यहाँ भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित है और कई साल पहले उनकी पूजा की जाती थी। उन्होंने यह भी कहा कि इस मन्दिर को खुदाई के दौरान मन्दिर स्थल के पास छावनी और पहरे के लिए मीनारें आदि भो मिले हैं। मन्दिर के निकट पानी का कुण्ड मिला है। सम्भवतः यहाँ पूजा से पहले श्रद्वालु स्नान करते रहे होंगे। इस क्षेत्र में पहली बार हिन्दूशाही काल के निशान मिले हैं।
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विशेषज्ञों के अनुसार ,इस स्थान पर 850 से 1026 ईस्वी में हिन्दूशाही या काबुलशाही शासकों का शासन रहा है। यहाँ एक हिन्दू राजवंश था जिसने काबुल घाटी , गंधार(आधुनिक पाकिस्तान) और वर्तमान उत्तर पीश्चम भारत में शासन किया था। इटली के पुरातात्विक मिशन के प्रमुख डा० लुका ने कहा कि स्वात जिले में खोजी गई गंधार सभ्यता का यह पहला मन्दिर है।

 आइए जानते हैं कौन थे वो हिंदू शासक जिन्होंने वहाँ शासन किया।

शाही या शाहिया वंश-  हिंदूशाही साम्राज्य की सीमाएं चेनाब नदी से लेकर हिन्दुकुश पर्वत तक थी। काबुल इस राज्य के अंतर्गत था।

नवीं शताब्दी तक भारतीयकृत विदेशियों के एक रजवंश, जिसे तुर्की शाहिया कहा जाता था, ने काबुल घाटी और उत्तर-पिश्चमी सीमान्त प्रदेश पर शासन किया। अलबेरूनी के अनुसार इस वंश के शासक को कुषाण नरेश कनिष्क के वंशज थे। इस वंश का अंतिम शासक लगतूमीन  लोगतुर्मन था, उसका कल्लर नामक एक मंत्री था।  कल्लर ने लगतूमीन को सिंहासन से अपदस्थ करके हिंदू शाही या ब्राह्मण शाही वंश की स्थापना की।

हिन्दूशाही/ब्राह्मणशाही वंश–  उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश में स्थित इस हिन्दूशाही राज्य की राजधानी उद्भाण्डपुर(अटक से २४किमी0 दूरी पर स्थित ओहिन्द) थी। इस राजवंश के शासकों के कश्मीर के राजाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे।कल्हण की पुस्तक राजतरंगिणी से ज्ञात होता है जिसमें कल्लर को  लल्लियशाही कहा गया है और यह भी उल्लेख किया है कि इस राज्य की राजधानी उद्भाण्डपुर कश्मीर से निष्कासित लोगों की शरणास्थली थी।

कल्लर के पुत्र और तोरमाण को जब एक अज्ञात विदेशी आक्रमणकारी ने अपदस्थ कर दिया तो कश्माीर की सहायता से उसने पुनः अपनी सत्ता प्राप्त की।तोरमाण का पुत्र एवं उत्तराधिकारा भीमदेव था। कश्मीर की प्रसिद्ध रानी दिद्दा उसकी बेटी की बेटी थी। भीमदेव ने महाराजाधिराज परमेश्वर शाहि की उपाधि धारण की।

जयपाल–  जयपाल इस वंश का एक अन्य शासक था जिसका एक उत्कीर्ण  शिलालेख ( ऊपरी स्वात घाटी की एक पहाड़ी) मिला  है जिसमें  महाराजाधिराज जयपालदेव का नाम उल्लिखित है। इस शिलालेख में वाजिरस्थान (वजीरिस्तान) में उसके द्वारा एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है।

समकालीन मुस्लिम स्रोतों में उसके द्वारा 999 ई० में  लाहौर को भी जीत कर अपने साम्राज्य में शामिल कर लेने का संदर्भ प्राप्त होता है।  इस प्रकार सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जयपाल का साम्राज्य काफी सुविस्तृत था जिसमें पश्चिम में लघमान तक पूर्वी अफगानिस्तान के प्रदेश, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत प्रदेश, पूर्व में सरहिंद तक पंजाब एवं दक्षिण में मुल्तान के प्रदेश सम्मिलित थे।

भारत के उत्तर पश्चिमी सीमांत पर स्थित यह राज्य गजनी के अभ्युदय से पूर्व तक भारत का ‘सीमांत प्रहरी’ राज्य था। जब गजनी के सुल्तान सुबुक्तगीन (977- 997 ई०) ने भारत के उत्तर पश्चिमी  सीमांत प्रदेशों पर आक्रमण किया तो उस समय इस प्रदेश पर इसी वंश के राजा जयपाल का शासन था. जब सुबुक्तगीन ने लखमान को जीतने के लिए जयपाल पर आक्रमण किया तो उसने तुर्क आक्रमणकारी का सामना करने के लिए समकालीन गुर्जर प्रतिहार एवं चंदेल नरेशों से सहायता की प्रार्थना की परंतु इन राजवंशों द्वारा जयपाल को सैनिक सहायता प्रदान  करने के बावजूद जयपाल सुबुक्तगीन की सेनाओं से पराजित हुआ। 

 इस पराजय के कुछ समय उपरांत सुबुक्तगीन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूद गजनबी ने 1001 ईस्वी में लमगान से आगे बढ़ते हुए पेशावर पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में जयपाल महमूद गजनबी के हाथों पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। वृद्ध राजा जयपाल इस अपमान से इतना अधिक आत्मपीड़ित हुआ कि उसने अपनी चिता स्वयं तैयार करके उसे प्रज्वलित किया और उसमें कूद कर आत्मदाह कर लिया।

जयपाल की मृत्यु के उपरांत उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी आनंदपाल ने अपने पिता की यशस्वी परंपरा के अनुरूप महमूद गजनवी के आक्रमण के विरुद्ध हिंदू राजाओं के द्वितीय सैनिक संघ का गठन किया। जिसमें उत्तर भारत के 8 राज्यों की सेना शामिल थीं परंतु इस बार भी महमूद गजनबी विजयी रहा और उसने 1009 ई० में सिंधु नदी के पूर्व किनारे के पंजाब के प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
1014 ईस्वी में जब महमूद ने पंजाब पर पुनः आक्रमण किया था आनंदपाल इस युद्ध में लड़ते हुए मारा गया। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय आनंदपाल केवल एक मात्र भारतीय नरेश था जिसने विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध भारतीय नरेशों में एकता पैदा करने का प्रयास किया था।
कहा जाता है कि आनंदपाल द्वारा जागृत हिंदू प्रतिरोध इतना प्रबल था कि इस युद्ध में सहायता प्रदान करने के लिए हिंदू महिलाओं ने अपने रत्न आभूषण बेच दिए और अपने स्वर्ण आभूषणों को गला कर धन प्रदान किया। आनंदपाल की मृत्यु के बाद त्रिलोचन पाल वंश का  राजा हुआ उसके जीवन का भी तुर्को ने युद्ध करते हुए अंत कर दिया।
इस वंश का अंतिम शासक भीमपाल था जो 1026 ईस्वी में तुर्कों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। भीम पाल की मृत्यु के साथ ही हिंदूशाही राज्य का भी अंत हो गया और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश गजनी के साम्राज्य के अधीन हो गया.

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