लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823), पिंडारियों और मराठों का दमन | Lord Hastings (1813-1823), Suppression of Pindaris and Marathas in hindi

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यदि वैल्जली  ने भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का सैनिक प्रभुत्व स्थापित किया, फ्रान्सीसियों को निकाला  तथा भारतीय प्रतिद्वंदियों को हराया तो हेस्टिंग्ज ने राजनैतिक सर्वश्रेष्ठता स्थापित की। यह भी सत्य है कि उसने अपने महान पूर्ववर्ती की योजनानुसार ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का ढांचा बनाया। 

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लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823), पिंडारियों और मराठों का दमन  |  Lord Hastings (1813-1823), Suppression of Pindaris and Marathas in  hindi
Image-wikipedia
फोटो स्रोत – ब्रितान्निका  डॉट कॉम

 

लॉर्ड हेस्टिंग्स

लॉर्ड हेस्टिंग्स 1813 से 1823 तक भारत के गवर्नर जनरल थे। उन्हें भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिश क्राउन द्वारा इस पद पर नियुक्त किया गया था।

अपने कार्यकाल के दौरान, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये जिससे भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण को मजबूत करने में मदद मिली। उन्होंने मराठा परिसंघ, नेपाल के गोरखा साम्राज्य और पिंडारियों का अंत सहित विभिन्न राज्यों के विलय के माध्यम से भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों का विस्तार किया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स भारत में कई प्रशासनिक और न्यायिक सुधार शुरू करने के लिए भी जिम्मेदार थे, जिसका उद्देश्य देश में ब्रिटिश सरकार की दक्षता में सुधार करना था। उन्होंने लोक निर्माण विभाग और राजस्व विभाग सहित कई प्रशासनिक विभागों की स्थापना की और राजस्व संग्रह और प्रशासन में सुधार के लिए जिला कलेक्टरों की प्रणाली की शुरुआत की।

इसके अलावा, लॉर्ड हेस्टिंग्स कला के संरक्षक थे और उन्होंने भारतीय संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1824 में कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय साहित्य, दर्शन और धर्म के अध्ययन को बढ़ावा देना था।

कुल मिलाकर, लॉर्ड हेस्टिंग्स को भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में याद किया जाता है, और गवर्नर जनरल के रूप में उनके कार्यकाल को महत्वपूर्ण राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक विकासों द्वारा चिह्नित किया गया था।

भारत में हेस्टिंग्ज के कार्य

आंग्ल-नेपाल युद्ध 1814-16 — 

हेस्टिंग्ज का  पहला सामना गोरखों से हुआ जिन्होंने भाट गांव के रणजीत मल्ल के उत्तराधिकारियों से 1768 में नेपाल विजय कर लिया था। शीघ्र ही गोरखों ने एक शक्तिशाली राज्य स्थापित  कर  लिया। चीन की ओर से तगड़ा प्रतिकार मिलने के बाद गोरखों ने बंगाल तथा अवध की अनिश्चित सीमाओं से लाभ उठाना  चाहा गोरखों और अंग्रेजों के बीच विवाद तब उत्पन्न हुआ जब 1801 में अंग्रेजों ने गोरखपुर और बस्ती जिले कम्पनी शासन में शामिल कर लिए इस प्रकार नेपाल और भारत की सीमाएं मिल गईं। नेपालियों ने बस्ती के उत्तर में बटवाल तथा उसके पूर्व में शिवराज जिलों अपर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने बिना किसी बड़े झगड़े के पुनः इन दोनों जिलों पर अधीकार कर लिया।

प्रतिक्रियास्वरूप नेपालियों   ने 1814 में बटवाल जिले की तीन अंग्रेज पुलिस चौकियों पर आक्रमण कर दिया। हेस्टिंग्ज ने बिना देर किये नेपालियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अंग्रेजों ने 34000 सैनिक एकत्रित किये जबकि नेपालियों के पास के वाल 12000 सैनिक थे।  जनरल गिलिसपाई के नेतृत्व में पहला आक्रमण 1814-15 पूर्णतया  रहे वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

उसके उत्तराधिकारी मेजर जनरल मार्टिंडल भी असफल रहा।  उसके बाद कर्नल निकलस तथा गार्डनर ने कुमाऊं की पहाड़ियों में स्थित अल्मोड़ा नगर विजय (अप्रैल 1815 ) कर लिया। इसी प्रकार 1815 में जनरल ऑक्टरलोनी ने अमर सिंह थापा से मालाओं नगर को छीन लिया।

इसके बाद गोरखों ने संधि की गुहार लगाई मगर अत्यधिक कठीन शर्तों के कारण संधि नहीं हो सकी। डेविड ऑक्टरलोनी ने 28 फरवरी 1816 को मकवनपुर के स्थान पर गोरखों को करारी मात दी। परिणास्वरूप फिरसे संधि की वार्ता चली।

संगौली की संधि 1816 —

        इस संधि के अनुसार निम्नलिखित शर्तें तय की गईं —

  • कम्पनी के हाथ गढ़वाल तथा कुमाऊं के जिले आये।
  • सीमाओं पर पक्के खम्बे लगा दिए गए।
  • गोरखों ने एक ब्रिटिश रेजिडेंट काठमांडू में रखने की शर्त मान ली और सिक्किम भी खली कर दिया।
  • अवध नवाब से लिए ऋण के बदले कम्पनी ने तराई तथा रुहेलखंड के जिले नवाब को दे दिए।
  • कम्पनी की उत्तरी सीमाएं हिमाचल तक पहुँच गयीं।
  • रानीखेत, शिमला, मसूरी, लण्डौर, तथा नैनीताल जैसे मनमोहक स्थान कम्पनी के कब्जे में आ गए।
  • इस संधि से पूर्व हो गोरखे भारतीय सेना  में शामिल होना शुरू हो गए जो आज तक जारी है।

पिंडारियों का दमन/पिंडारी कौन थे —

  • पिंडारी शब्द सम्भवतः मराठी भाषा  से निकला है, यानि पिण्ड जो एक प्रकार की आसव ( खमीरा/शराब ) थी उसके पिने वाले लोगों  पिंडारी कहा गया।
  • इन लोगों का मुख्य काम लूट-मार और हत्या करना था।
  • बाजीराव प्रथम के समय ये लोग मराठा सेना में अवैतनिक सैनिक थे और केवल लूट का माल लेते थे।
  • 1794 में सिंधिया ने इन्हें नर्मदा घाटी  में जागीर भी दे दी जिसका इन्होने शीघ्र ही विस्तार कर लिया।
  • अंग्रेज अधिकारी मेल्कम ने इन्हें “मराठा शिकारियों के साथ शिकारी कुत्तों के नाम से सम्बोधित किया है।
  • हिन्दू और मुसलमान दोनों लोग इसमें शामिल थे।

पिंडारियों के तीन प्रमुख नेता थे – 

  • चीतू, 
  • वासिल मुहम्मद तथा 
  • करीम खां।

  • हेस्टिंग्ज पिंडारियों के बहाने सिंधिया का भी दमन  चाहता था, इसलिए उसने पिंडारियों के साथ सिंधिया के संबंधों का झूठा उल्लेख किया।
  • अपने दोहरे उद्देश्य की पूर्ति हेतु हेस्टिंग्ज ने 113000 सेना तथा 300 तोपें एकत्र की।
  • उत्तरी सेना की कमान स्वयं हेस्टिंग्ज ने संभाली और दक्षिण की कमान टॉमस हिसलोप की दी।
  • करीम खां ने मेल्कम  को आत्मसमर्पण कर दिया।
  • वासिल मुहम्मद ने अपनी जान बचाने के लिए सिंधिया के यहाँ शरण ली मगर  सिंधिया ने उसे अंग्रेजों के हवाले कर दिया । उसने जेल में आत्महत्या कर ली।
  • चीतु को जंगल में शेर खा गया।
  • 1824 तक पिंडारियों  सफाया हो गया। 

 लार्ड हेस्टिंग्स की मराठा निति

लॉर्ड हेस्टिंग्स की तीसरी बड़ी उपलब्धि मराठों के खिलाफ थी। वास्तव में, पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) और अंग्रेजों के खिलाफ बाद के दो युद्धों के बाद मराठा शक्ति बिलकुल  कमजोर हो गई थी। लेकिन मराठा अंततः कुचले नहीं थे। मराठा सरदार आपस में लड़ते थे और उनके उत्तराधिकारी निरपवाद रूप से कमजोर और अक्षम थे। भोंसले, गायकवाड़, सिंधिया, होल्कर और पेशवा जैसे शक्तिशाली मराठा सरदारों के रिश्ते आपसी ईर्ष्या से भरे हुए थे।

पेशवा बाजी राव द्वितीय मराठा संघ का मुखिया बनना चाहते थे और साथ ही ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्ति चाहते थे। उनके मुख्यमंत्री तिरिंबकजी ने उन्हें प्रोत्साहित किया।

कंपनी की सलाह पर गायकवाड़ ने अपने प्रधान मंत्री गंगाधर शास्त्री को पेशवा के साथ बातचीत करने के लिए भेजा। वापस लौटते समय, जुलाई 1815 में त्र्यंबकजी के कहने पर नासिक में गंगाधर शास्त्री की हत्या कर दी गई।

इससे न केवल मराठों में बल्कि अंग्रेजों में भी काफी आक्रोश था। बाद वाले ने पेशवा से त्र्यंबकजी को उन्हें सौंपने के लिए कहा। पेशवा ने अपने मंत्री को अंग्रेजों को सौंप दिया, जिन्होंने उन्हें थाना जेल में बंद कर दिया, जहां से वे भाग निकले। नतीजतन, 13 जून 1817 को, ब्रिटिश रेजिडेंट एलफिंस्टन ने पेशवा को पूना की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। बाजी राव ने मराठों के सर्वोच्च मुखिया बनने की इच्छा छोड़ दी।

तीसरा मराठा युद्ध (1817-1819)

लेकिन जल्द ही पेशवा ने अंग्रेजों के साथ इस संधि को रद्द कर दिया और 5 नवंबर 1817 को ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला कर दिया। वह किरकी नामक स्थान पर पराजित हुआ। इसी तरह, भोंसले प्रमुख, अप्पा साहिब ने भी नागपुर की संधि का पालन करने से इनकार कर दिया, जिस पर उन्होंने 17 मई 1816 को अंग्रेजों के साथ हस्ताक्षर किए थे।

इस संधि के अनुसार, नागपुर कंपनी के नियंत्रण में आ गया। उन्होंने नवंबर 1817 में सीताबल्दी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन हार गए। पेशवा ने अब मदद के लिए होल्कर की ओर रुख किया, लेकिन होल्कर भी 21 दिसंबर 1817 को बड़ौदा में अंग्रेजों से हार गए। इसलिए, दिसंबर 1817 तक एक शक्तिशाली मराठा संघ का सपना आखिरकार चकनाचूर हो गया।

1818 में सिंधिया को अंग्रेजों के साथ एक नई संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए भी मजबूर होना पड़ा, जिसके आधार पर अजमेर भोपाल के नवाब को दे दिया गया, जिन्होंने ब्रिटिश आधिपत्य भी स्वीकार कर लिया। बड़ौदा के गायकवाड़ ने सहायक गठबंधन को स्वीकार करते हुए अहमदाबाद के कुछ क्षेत्रों को अंग्रेजों को सौंपने पर सहमति व्यक्त की। राजपूत राज्य जो पिंडारियों के अधीन थे, बाद के दमन के बाद मुक्त हो गए।

 अंग्रेजों के लिए प्रमुख राजनीतिक उपलब्धियों के कारण वर्ष 1818 एक महत्वपूर्ण वर्ष था। भारत में सर्वोपरि शक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने का मराठा सपना पूरी तरह से नष्ट हो गया। इस प्रकार, ब्रिटिश सर्वोच्चता के रास्ते में आखिरी बाधा को हटा दिया गया था।

मराठों की हार के कारण

आंग्ल-मराठा युद्धों में मराठों की हार के कई कारण थे—-

  •  एक ठोस सक्षम नेतृत्व की कमी
  •  मराठों की सैन्य शक्ति की कमजोरी।
  • मराठा शक्ति की सबसे बड़ी कमी आपसी शत्रुता  और आपस में सहयोग की कमी थी। मराठों ने विजित क्षेत्रों पर शायद ही कोई सकारात्मक प्रभाव छोड़ा हो।
  • मराठों के भारत के अन्य राजकुमारों और नवाबों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं थे।
  • मराठा अंग्रेजों की राजनीतिक और कूटनीतिक ताकत का सही अनुमान लगाने में विफल रहे।

हेस्टिंग्स के सुधार

लॉर्ड हेस्टिंग्स के गवर्नर-जनरलशिप ने न केवल क्षेत्रीय विस्तार बल्कि प्रशासन की प्रगति को भी देखा। उन्होंने सर थॉमस मुनरो द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी में शुरू की गई भू-राजस्व की रैयतवारी प्रणाली को मंजूरी दी। न्यायपालिका के क्षेत्र में कार्नवालिस संहिता में सुधार किया गया। बंगाल की पुलिस व्यवस्था को अन्य क्षेत्रों में विस्तारित किया गया था। उसके प्रशासन के दौरान भारतीय मुंसिफों का महत्व बढ़ गया था। न्यायिक और राजस्व विभागों के पृथक्करण का कड़ाई से पालन नहीं किया गया। इसके बजाय, जिला कलेक्टर ने मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया।

हेस्टिंग्स ने मिशनरियों और अन्य लोगों द्वारा स्थानीय भाषा स्कूलों की नींव को भी प्रोत्साहित किया था। 1817 में, अंग्रेजी और पश्चिमी विज्ञान के शिक्षण के लिए जनता द्वारा कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की गई थी। हेस्टिंग्स इस कॉलेज के संरक्षक थे। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित किया और 1799 में शुरू की गई सेंसरशिप को समाप्त कर दिया। बंगाली साप्ताहिक, समाचार दर्पण की शुरुआत 1818 में सेरामपुर मिशनरी मार्शमैन ने की थी।

 लार्ड हेस्टिंग्स का मूल्यांकन

लॉर्ड हेस्टिंग्स एक योग्य सैनिक और एक शानदार प्रशासक थे। शिक्षा और प्रेस पर उनके उदार विचार प्रशंसनीय हैं। उसने पिंडारियों का दमन किया, मराठों को हराया और गोरखाओं की शक्ति पर अंकुश लगाया। उनके क्षेत्रीय लाभ ने भारत में ब्रिटिश शक्ति को मजबूत किया। उन्हें बॉम्बे प्रेसीडेंसी का निर्माता माना जाता था। संक्षेप में, उन्होंने वेलेस्ली के काम को पूरा किया और समेकित किया। अल्मोड़ा कुमायूं, नैनीताल , रानीखेत जैसे स्वाथ्यवर्धक क्षेत्रों को भारत में शामिल किया।


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