लार्ड लिटन, डिजरैली की कन्सेर्वटिवे गवर्नमेंट द्वारा मध्य एशिया की घटनाओं को विशेष ध्यान में रखते हुए भारत में गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया था। लिटन को डिजरैली का लिखा वह पत्र विशेष उल्लेखनीय है जिसमें लिटन को क्या करना है का उल्लेख किया गया था–“मध्य एशिया की सोचनीय अवस्था को एक राजनीतिज्ञ की आवश्यकता है और मैं विश्वास करता हूँ कि यदि आप इस उच्च पद को ग्रहण कर लें तो आपको एक ऐसा अवसर मिलेगा कि आप न केवल देश की सेवा करेंगे अपितु चिरस्थाई कीर्ति के पात्र भी बन सकेंगे।”
गवर्नर जनरल लार्ड लिटन (Lord Lytton) ब्रिटिश शासित भारत के दूसरे गवर्नर जनरल थे जिन्होंने भारत की सत्ता को ब्रिटिश शासन के अधीन करने के लिए कई नीतियां बनाईं। उन्होंने भारतीय तंत्र को बदलने के लिए विभिन्न कदम उठाए, जिसमें से कुछ अच्छे और कुछ बुरे भी रहे।
उन्होंने 1876 में भारत में द्वितीय एंग्लो-अफगान युद्ध (Second Anglo-Afghan War) के दौरान अफगानिस्तान से भारत तक सीमा के स्थान पर दुर्ग तथा पुल बनवाये। इसके अलावा उन्होंने भारत में विद्यालयों, पुस्तकालयों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं की स्थापना की।
लेकिन उनकी सर्वाधिक विवादित नीति “समाचार पत्र अधिनियम” (The Vernacular Press Act) थी, जिसके तहत स्थानीय अखबारों को अनुमति सिर्फ अंग्रेजी में प्रकाशित होने के लिए दी जाती थी। यह नीति मुक्त विचार के प्रतिबंध लगाने का प्रयास था जिससे भारत की स्वतंत्रता के प्रति जनता की आंदोलन की उत्प्रेरणा बढ़ी।
गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने 1880 ई. को अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव में उन्होंने साहित्य लेखन में रूचि दिखाई थी। उनकी रचनाएं “बारिश के बाद” (After the Rain) तथा “लाइफ अंडर तेज़ा” (Life and the Treshing Floor) जैसी हैं। उनका जन्म 8 दिसंबर 1831 को लंदन में हुआ था और उन्हें 24 नवंबर 1891 को मुंबई में इंफ्लुएंजा के कारण मृत्यु हो गई थी।
लार्ड लिटन: भारत का वायसराय कब बना ?
अप्रैल १८७६ ईस्वी में लार्ड लिटन ने लार्ड नार्थब्रुक से अपने पद का कार्य भार ग्रहण किया। लिटन प्रकृति से एक कूटनीतिज्ञ था हुए वह ब्रिटिश विदेश कार्यालय में कई पदों पर कार्य कर चुका था।
वह एक विख्यात कवि, उपन्यासकार और निबंध लेखक था और साहित्य जगत में “ओवन मैरिडिथ” के नाम से मशहूर था। 1876 ईस्वी तक लिटन को भारतीय परिस्थितियों का कोई ज्ञान नहीं था।
लार्ड लिटन और अबाध व्यापार ( Lytton and Free Trade )
इंग्लैंड स्थित लंकाशायर के उद्योगपति बम्बई में खुलने वाले सूती मीलों से ईर्ष्या करते थे और उन्होंने भारत में कपास मिल के माल पर लगे आयात शुल्कों की बहुत आलोचना की।
डिजरैली की रूढ़िवादी सरकार के लिए लंकाशायर के वोट का बहुत महत्व था, 11 जुलाई 1877 को सदन में एक प्रस्ताव प्र्स्तुत किया गया जिसके अनुसार “इस सदन के मतानुसार भारत में आयात किये सूती माल पर लगा शुल्क जो निश्चय ही रक्षात्मक है, स्वस्थ वाणिज्य नीतियों के विरुद्ध है और उसे जितना शीघ्र भारत की वित्तीय परिस्थिति अनुमति दे समाप्त कर देना चाहिए।”
भारत सरकार को मिले इस प्रस्ताव पर निर्णय लेना था। अकाल से उत्पन्न भयंकर वित्तीय संकट को दरकिनार लिटन ने 29 वस्तुओं से आयत शुल्क हटा लिया – जिसमें चीनी, लट्ठा और विस्थूला इत्यादि प्रकार का कपडा सम्मिलित था।
वित्तीय सुधार
लार्ड मेयो वित्तीय विकेन्द्रीकरण की नीति जारी रखते हुए उसमें कुछ और प्रावधान किये गए। प्रांतीय सरकारों को साधारण प्रांतीय सेवाओं- भूमि कर, उत्पाद कर, और आबकारी, टिकटें, कानून और व्यवस्था, साधारण प्रशासन इत्यादि सम्मिलित थीं- पर व्यय करने का अधिकार दे दिया गया।
जॉन स्ट्रेची, जो वायसराय की कार्यकारी परिषद् के वित्तीय सदस्य थे, प्रांतों नमक के कर की दर को बराबर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भारतीय राजाओं को वित्तीय क्षतिपूर्ति के बदले नमक बनाने के अधिकार को छोड़ को प्रेरित किया। नमक की अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी समाप्त हो गयी और सरकार को नमक से अधिक कर प्राप्त होने लगा।
1876-78 का अकाल
- 1876-78 तक भारत को भयंकर अकाल से गुजरना पड़ा। मद्रास, बम्बई, मैसूर, हैदराबाद, मध्यभारत के कुछ भाग तथा पंजाब प्रमुख प्रभावित क्षेत्र थे।
- अकाल का प्रभाव 5 करोड़ 80 लाख लोगों पर पड़ा तथा इसका प्रभाव 257000 वर्ग मील क्षेत्र पर था।
- रमेश चंद दत्त अनुसार 50 लाख लोग एक वर्ष में ही मर गए।
- 1878 में एक अकाल आयोग गठित किया गया जिसके अध्यक्ष जॉन स्ट्रेची बनाये गए।
- इस आयोग ने प्रत्येक प्रान्त में एक अकाल कोष के गठन का सुझाब दिया।
मुफ्त सहयता केवल विकलांग और असहायों तथा निर्धनों को देने की बात कही। स्वस्थ शरीर वालों को पर्याप्त काम और मजदूरी देने को कहा। नहरों और रेलवे के विकास पर ध्यान देने को कहा।
राज-उपाधि अधिनियम 1876 royal titleact 1876
अंग्रेजी संसद ने एक अधिनियम द्वारा महारानी विक्टोरिया को कैसर-ए-हिन्द की उपाधि से विभूषित किया।
1 जनवरी 1877 को दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया। यह सब तब हुआ जब देश भयंकर अकाल की चपेट में था।
भारतीय भाषा समाचारपत्र अधिनियम मार्च 1878 varnacular press act 1878
वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, ब्रिटिश भारत में, भारतीय भाषा (यानी, गैर-अंग्रेजी) प्रेस की स्वतंत्रता को कम करने के लिए 1878 में कानून बनाया गया था। लॉर्ड लिटन द्वारा प्रस्तावित, भारत के तत्कालीन वायसराय (1876-80 में शासित), इस अधिनियम का उद्देश्य देशी भाषा के प्रेस को ब्रिटिश नीतियों की आलोचना व्यक्त करने से रोकना था – विशेष रूप से, उस विरोध को जो दूसरे एंग्लो-अफगान युद्ध की शुरुआत के साथ विकसित हुआ था। 1878-80)।
अधिनियम ने अंग्रेजी भाषा के प्रकाशनों को बाहर कर दिया। इसने भारतीय आबादी के व्यापक स्पेक्ट्रम से मजबूत और निरंतर विरोध प्राप्त किया।
लिटन के बाद आये वाइसराय, लॉर्ड रिपन (1880-84 ) ने 1881 में इस कानून को निरस्त कर दिया गया था। भारतीयों में इस घृणित कानून से जो आक्रोश पैदा हुआ, वह भारत के बढ़ते स्वतंत्रता आंदोलन को जन्म देने वाले उत्प्रेरकों में से एक बन गया। अधिनियम के सबसे मुखर आलोचकों में इंडियन एसोसिएशन (1876 की स्थापना) थी, जिसे आम तौर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 की स्थापना) के अग्रदूतों में से एक माना जाता है।
शस्त्र अधिनियम 1878.
इस अधिनियम ने बिना लाइसेंस के यातायात में हथियारों को रखना, एक आपराधिक अपराध बना दिया। इस अधिनियम का मुख्य रूप से इस आधार पर विरोध किया गया था कि इसमें नस्लीय भेदभाव की बू आ रही थी क्योंकि यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन और कुछ अन्य श्रेणियों के सरकारी अधिकारी इस अधिनियम के संचालन से बच गए थे।
वैधानिक सिविल सेवा
1833 के चार्टर अधिनियम ने कंपनी के तहत उच्च सेवा में भर्ती के लिए लंदन में एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करने का प्रावधान किया था। भारत में ब्रिटिश नौकरशाही सिविल सेवाओं में भारतीयों के प्रवेश का विरोध कर रही थी। लॉर्ड लिटन भी उसी मानसिकता के थे और भारतीयों के लिए अनुबंधित सेवा के दरवाजे पूरी तरह से बंद करना चाहते थे।
ऐसा करने में विफल रहने पर, उन्होंने भारतीयों को उक्त परीक्षा के लिए प्रतिस्पर्धा करने से हतोत्साहित करने के लिए अधिकतम आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष करने की योजना बनाई। ” यह सब भारतीयों को इस परीक्षा में सम्मिलित होने से रोकने के लिए किया गया।
- 1864 में पहले भारतीय सत्येन्द्रनाथ टैगोर थे जो भारतीय जनपद सेवा में भर्ती हुए।
- 1862 से 1875 तक केवल 50 भारतीय इस परीक्षा में सम्मिलित हुए और केवल 10 ही सफल हुए।
दूसरा अफगान युद्ध, 1878,
लिटन ने उत्तर-पश्चिम की ओर एक वैज्ञानिक सीमा स्थापित करने की दृष्टि से अफगान के साथ एक मूर्खतापूर्ण युद्ध को उकसाया। यह जंगली साहसिक कार्य विफल साबित हुआ, जबकि सरकार ने गरीब भारतीयों से जबरन वसूली किए गए लाखों लोगों को बर्बाद कर दिया