शक महाक्षत्रप रुद्रदामन, जूनागढ़ अभिलेख, उसकी उपलब्धियां shaka mahashatrap rudradamana kaa junagarh abhilekh

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Last updated on April 16th, 2023 at 12:33 pm

शक महाक्षत्रप रुद्रदामन एक ऐतिहासिक शासक थे जो प्राचीन भारत में दूसरी शताब्दी ईस्वी के शासन करते थे। वह पश्चिमी क्षत्रप वंश का शासक था, जिसे शक वंश के नाम से भी जाना जाता है, जिसने पहली शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईस्वी तक पश्चिमी और मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। रुद्रदामन को उनके शिलालेखों और सिक्कों के लिए जाना जाता है, जो उनके शासनकाल और उपलब्धियों के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं।
शक महाक्षत्रप रुद्रदामन, जूनागढ़ अभिलेख, उसकी उपलब्धियां shaka mahashatrap rudradamana kaa junagarh abhilekh

शक महाक्षत्रप रुद्रदामन

चीनी ग्रंथों के अनुसार 165 ईसा पूर्व लगभग यू. ची. नामक एक अन्य जाति  ने शकों को परास्त कर सीरदरया के उत्तरी क्षेत्रों से खदेड़ दिया। शकों  ने सीरदरया को पार करके बल्ख ( बेक्ट्रिया ) पर अधिकार कर लिया तथा वहां से यवनों को परास्त करके खदेड़ दिया। परन्तु यू. ची. जनजाति ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा और वहां से भी शकों को खदेड़ दिया। पराजित शक दो भागों में बँट गए उनकी एक शाखा दक्षिण की ओर गयी तथा कि-पिन (कपिशा ) पर अधिकार कर लिया और  दूसरी शाखा पश्चिम में ईरान की ओर गयी। परन्तु शकों को ईरान में ज्यादा समय टिकने नहीं दिया गया था उन्हें ईरान के शासकों ने खदेड़ दिया।

उसके पश्चात् शक अफगानिस्तान और सिंध  में बस गए। उसके पश्चात् शक भारत में तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र और उज्जयनी आदि स्थानों पर अपने राज्य स्थापित किये ।  शकों की महाराष्ट्र शाखा के वंश को क्षहरात वंश के नाम से भी जाना जाता है जिसका संथापक ‘भूमक’ था नहपान इस वंश का एक अन्य  हुआ। 

रुद्रदामन का सबसे प्रसिद्ध शिलालेख जूनागढ़ शिलालेख है, जो जूनागढ़, गुजरात, भारत में खोजा गया था। शिलालेख संस्कृत में लिखा गया है और एक बड़ी चट्टान पर खुदा हुआ है, और यह रुद्रदामन की वंशावली, उपलब्धियों और उनके व्यापक सैन्य अभियानों के बारे में विवरण प्रदान करता है। शिलालेख के अनुसार, रुद्रदामन जैन धर्म का एक भक्त संरक्षक था और उसने अपने शासनकाल के दौरान कई जैन मंदिरों की मरम्मत और निर्माण किया।

शक महाक्षत्रप रुद्रदामन,जूनागढ़ अभिलेख, उसकी उपलब्धियां 

 नहपान की मृत्यु  के साथ ही क्षहरात वंश का पतन हो गया और उसका स्थान कार्दमक ( चष्टन ) वंश ने ले लिया। इस वंश का पहला शासक था चष्टन। चष्टन की मृत्यु के बाद उसका पौत्र रुद्रदामन पश्चिमी भारत के शकों का राजा हुआ। वह शकों का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसका एक अभिलेख जूनागढ़ ( गिरनार ) से मिला है जो शक संवत 72 ( 150 ईस्वी ) का है। इस अभिलेख से उसकी विजयों, व्यक्तित्व, और कृतित्व का उल्लेख है। 

 जूनागढ़ अभिलेख कहाँ है ?

 जूनागढ़  अभिलेख भारत के पश्चिमी तटीय राज्य गुजरात के जूनागढ़ ज़िले में गिरनार पर्वत पर स्थित  है। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि ‘सभी जातियों के लोगों ने रुद्रदामन को अपना रक्षक चुना था’ तथा उसने ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि स्वयं ग्रहण की थी। 

    सर्ववर्णेंरभिगम्य रक्षार्थ पतित्वे वृतेन। 

    स्वयंधिगत-महाक्षत्रपनाम्ना । ।

इस वृतांत से यह आभास होता होता है कि रुद्रदामन से पूर्व शकों की शक्ति कमजोर पड़ गयी थी। शकों की गिरी हुयी प्रतिष्ठा को रुद्रदामन ने अपने बाहुबल से पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। वह एक महान विजेता था। 

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जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन की विजयों का उल्लेख 

   जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन की विजयों का उल्लेख प्राप्त होता है उसने निम्नलिखित राज्यों की विजय की —

  • आकर-अवन्ति – इस स्थान का तारतम्य पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा से लगया गया है। आकर की राजधानी विदिशा तथा अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी में थी। 
  • अनूप – नर्मदा तट पर स्थित महिष्मती में यह प्रदेश स्थित था। इस स्थान की पहचान मध्य प्रदेश के निमाड़ जिले में स्थित माहेश्वर अथवा मान्धाता से की जाती है। 
  • अपरान्त – इसके अंर्तगत उत्तरी कोंकण राज्य आता था।इसकी राजधानी शूर्पारक में थी। प्राचीन साहित्य में इस स्थान का प्रयोग पश्चिमी देशों को दर्शाने के लिए किया गया है। महाभारत में इस स्थान को परशुराम की भूमि कहा गया है। 
  • आनर्त तथा सुराष्ट्र – इस स्थान की पहचान उत्तरी तथा दक्षिणी काठियावाड़ से है। पहले की राजधानी द्वारका तथा दूसरे की गिरिनगर में थी। ये सभी गुजरात राज्य में हैं। 
  • कुकुर – यह आनर्त का पडोसी राज्य था। डी. सी. सरकार के  अनुसार यह उत्तरी काठियावाड़ में था। 
  • स्वभ्र – गुजरात की  साबरमती नदी के किनारे पर यह प्रदेश स्थित था। 
  • मरु – यह स्थान राजस्थान स्थित मारवाड़ से संबंधित था। 
  • सिंध तथा सौवीर – निचली सिंध नदी घाटी के कमशः पश्चिम तथा पूर्व की ओर ये प्रदेश स्थित थे। कनिष्क के सुई-बिहार अभिलेख से निचली सिंधु घाटी पर उसका अधिकार सिद्ध होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि रुद्रदामन ने कनिष्क के उत्तराधिकारियों को हराकर इस भूक्षेत्र पर अधिकार जमा लिया था। 
  • निषाद – महाभारत में इस स्थान का उल्लेख मत्स्य के बाद मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि यह उत्तरी राजस्थान में स्थित था। यही विनशन तीर्थ था। बूलर ने निषाद देश की पहचान हरियाणा के हिसार-भटनेर क्षेत्र में निर्धारित की है। 

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जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने ‘दक्षिणापथ का स्वामी शातकर्णि को दो बार पराजित किया। यही निश्चित नरेश वसिष्ठिपुत्र पुलुमावी था। नासिक अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि असिक, अस्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर तथा अवन्ति का शासक था। ऐसा प्रतीत होता  है कि उसकी मृत्यु के बाद रुद्रदामन ने उसके उत्तराधिकारी वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी से उपर्युक्त में से अधिकांश प्रदेशों को जीत लिया था। सिंध-सौवीर क्षेत्र को उसने कनिष्क के उत्तराधिकारियों से जीता होगा। 

 जूनागढ़ अभिलेख स्वाभिमानी तथा अदम्य यौदयो के साथ उसके युद्ध तथा उनकी पराजय का भी उल्लेख करता है जिन्होंने सम्भवतः उत्तर की ओर से उसके राज्य पर आक्रमण किया होगा। यौधेय गणराज्य पूर्वी पंजाब में स्थित था। वे अत्यंत वीर तथा स्वाधीनता प्रेमी थे। पाणिनि ने उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’ अर्थात ‘शस्त्रों के सहारे जीवित रहने वाला’ कहा है। यौधेय को पराजित कर रुद्रदामन ने उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया तथा उसका राज्य उनके आक्रमणों से सदा के लिए सुरक्षित हो गया। 

रुद्रदामन का चारित्रिक मूल्यांकन 

 रुद्रदामन एक महान  विजेता और प्रजा का ध्यान रखने वाला उदार ह्रदय का सम्राट था। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसके शासनकाल में सुराष्ट्र में सुदर्शन झील, जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के के समय में सुराष्ट्र के राज्यपाल वैश्य पुष्यगुप्त द्वारा कराया गया था तथा सम्राट अशोक के समय में इससे नहरें निकलवायी थीं, जिसका बांध भारी वर्षा के कारण टूट गया था और उसमें 24 हाथ लम्बी, इतनी ही चौड़ी और पचहत्तर हाथ गहरी दरार बन गयी।

परिणामस्वरूप झील का सारा पानी वह गया। पानी की भारी त्रासदी  के कारण जनता का जीवन अत्यंत कष्टमय हो गया तथा चारों ओर हाहाकार मच गया। चूँकि बांध के पुनर्निर्माण में धन की बहुत आवश्यकता थी, अतः उसकी मंत्रिपरिषद ने इस कार्य के लिए धन व्यय किये जाने की स्वीकृति प्रदान नहीं की।  किन्तु रुद्रदामन ने जनता पर बिना कोई अतिरिक्त कर लगाए ही अपने निजी कोष से धन देकर राज्यपाल ‘सुविशाख’ के निर्देशन में बांध की फिरसे मरम्मत कराई तथा उससे तीन गुना अधिक मजबूत बांध बनवा दिया। 

रुद्रदामन एक उदार शासक था जिसने कभी अपनी प्रजा से न तो अनुचित धन उगाही की और न ही बेगार ( बिष्टि ) तथा प्रणय ( पुण्यकर ) ही लिया —-

     “अपीडयित्वा करविष्टिप्रणयक्रियाभि: पौरजनपदं जन”

रुद्रदामन का कोष स्वर्ण, रजत, हीरे आदि बहुमूल्य धातुओं से परिपूर्ण था —-

      “कनककररजतवज्रवैदूर्यरत्नोपचययविष्यंदमानकोशेन”

रुद्रदामन के राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था 

  • साम्राज्य को प्रांतों मेंविभक्त किया था।
  • प्रान्त का शासन अमात्य ( राज्यपाल ) के अधीन होता था। 
  • एक मंत्रिपरिषद होती थी जिसमें दो प्रकार के मंत्री होते थे–(1) मतिसचिव ( सलाहकार ), (2) कर्मसचिव कार्यकारी-मंत्री ) . 
  • शासक निरंकुश नहीं था और प्रशासनिक कार्यों में मंत्रिपरिषद से परामर्श लिया जाता था। 
  • मति-सचिव सम्राट के व्यक्तिगत सलाहकार होते थे। 
  • कर्म-सचिव कार्यपालिका के अधिकारी थे। 

 रुद्रदामन एक महान विजेता एवं कुशल प्रशासक तो था ही साथ ही वह एक उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या प्रेमी था। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था तथा संस्कृत भाषा को उसने राज्याश्रय प्रदान किया था। उसका शिलालेख अपनी शैली की रोचकता, भाव-प्रवणता एवं हृदयावर्जन के लिए प्रसिद्ध है। बल्कि यूँ कहिये कि उसका शिलालेख एक छोटा गद्य-काव्य ही है। उसके अभिलेख को देखकर ज्ञात होता है कि रुद्रदामन व्याकरण, राजनीति, संगीत तथा तर्क विद्या में कुशल था। 

जूनागढ़ अभिलेख विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है जो प्राचीनतम अभिलेखों में से एक है तथा इससे उस समय संस्कृत भाषा के पर्याप्त रूप से विकसित होने का प्रमाण मिलता है। उज्जयनी उस समय शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था। 

इस प्रकार रुद्रदामन एक महान विजेता, साम्राज्य-निर्माता, उदार एवं लोकोपकारी प्रशासक तथा हिन्दू धर्म और संस्कृति का महान उन्नायक था। उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी। उसका शसन कल 130 ईस्वी से 150 ईस्वी तक माना जाता है। रुद्रदामन का शासनकाल पश्चिमी क्षत्रप राजवंश के इतिहास में सबसे समृद्ध काल में से एक माना जाता है। उनके शिलालेख और सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास, विशेष रूप से उनके समय के दौरान क्षेत्र के राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विकास का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों और विद्वानों के लिए जानकारी के मूल्यवान स्रोत हैं।


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