प्राचीन संस्कृत साहित्य: स्त्री और शूद्र का स्थान

प्राचीन संस्कृत साहित्य: स्त्री और शूद्र का स्थान

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Last updated on April 25th, 2023 at 05:54 pm

शूद्र और स्त्री के संबंध में प्राचीन साहित्य में जिस प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं उन्हीं के आधार पर इन दोनों का सदियों तक शोषण किया जाता रहा और इनकी प्रगति के मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए। प्राचीन संस्कृत साहित्य में स्त्री और शूद्र का स्थान prachin kaal me shudra aur striyon ki sthiti . स्त्री और शूद्र के संबंध में उल्लेख प्रारम्भकालीन साहित्य – ब्राह्मण , गृह्मसूत्र, तथा धर्म सूत्र और उसके बाद के साहित्य जैसे  स्मृति ग्रन्थ, पुराण, और ज्योतिष ग्रन्थ में पाए जाते हैं। इन ग्रंथो से स्त्री ओर शूद्र के संबंध में सभी प्रकार की अवस्थाओं का पता चलता है  जैसे – उनकी सामाजिक स्थिति , धार्मिक स्थिति, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति। 

प्राचीन संस्कृत साहित्य: स्त्री और शूद्र का स्थान

भारत के प्राचीन साहित्य में समाज में शूद्रों और महिलाओं की भूमिका और स्थिति पर चर्चा की गई है। शूद्रों को हिंदू सामाजिक पदानुक्रम में चार वर्णों या जातियों में सबसे नीचे माना जाता था, जबकि महिलाएं भी पारंपरिक भारतीय समाज में विभिन्न प्रतिबंधों और सीमाओं के अधीन थीं।

मनुस्मृति, 200 ईसा पूर्व और 200 सीई के बीच लिखा गया एक प्राचीन हिंदू पाठ, शूद्रों सहित प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है। इसमें कहा गया है कि शूद्रों का प्राथमिक कर्तव्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना है और उन्हें वेद पढ़ने या वैदिक अनुष्ठान करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। मनुस्मृति में भी महिलाओं का उल्लेख किया गया है, उनकी शिक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों में भागीदारी पर इसी तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं।

हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्राचीन भारतीय साहित्य अखंड नहीं है और ऐसे कई अन्य ग्रंथ और परंपराएँ थीं जो शूद्रों और महिलाओं की स्थिति पर वैकल्पिक विचार प्रस्तुत करती थीं। उदाहरण के लिए, भगवद गीता, एक हिंदू धर्मग्रंथ जो 5वीं-दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है, जन्म और जाति पर कर्तव्य (धर्म) और कर्म (कर्म) के महत्व पर जोर देता है। पाठ शूद्रों या महिलाओं को आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने से बाहर नहीं करता है, बल्कि उनके कार्यों और भक्ति के माध्यम से ऐसा करने की उनकी क्षमता पर जोर देता है।

इसी तरह, ऋग्वेद, हिंदू धर्म के सबसे पुराने पवित्र ग्रंथों में से एक है, जिसमें महिलाओं द्वारा रचित भजन शामिल हैं और समाज में उनके योगदान का जश्न मनाते हैं। प्राचीन भारत में कई महिला संत और विद्वान भी थे जिन्होंने भजनों की रचना की, दर्शन पर ग्रंथ लिखे और समाज में महत्वपूर्ण पदों पर रहे।

शूद्र और स्त्री के नागरिक अधिकार 

जहाँ तक स्त्री और शूद्र के नागरिक अधिकारों का प्रश्न है, तो प्राचीन संस्कृत साहित्य में दोनों को एक ही स्थिति में रखा गया है, दोनों के जीवन का मूल्य एक ही समझा गया है। 

* अग्निपुराण में बतलाया गया है कि स्त्री हत्या के दोषी व्यक्ति को शुद्रहत्या का व्रत करना चाहिए। कुत्ते, गोह, उल्लू और कौवे की हत्या में भी वही व्रत करना पड़ता है। 

         “अप्रदुष्यं स्त्रियं हत्वा शुद्रहत्याव्रत्माचरेत्” — अग्निपुराण, 173-13 

* इसी प्रकार का वर्णन पराशर स्मृति में भी देखने को मिलता है।  इसमें बताया गया है कि जो व्यक्ति शिल्पी, कारीगर, शूद्र अथवा स्त्री की हत्या करे उसे प्रजापत्य व्रत करना चाहिए और दक्षिणा में ग्यारह साँड़ देने चाहिए। 

        “शिल्पिनं कारूकं शूद्रं स्त्रियं वा यस्तु घात्येत्। 

         प्रजापत्यं द्वियं कृत्वा वृषैकादस दक्षिणा।” पराशर स्मृति, VI-16 

इन नियमों को देखने से पता चलता है कि स्त्री और शूद्र की हत्या करने पर एकसमान दण्ड का विधान था। नागरिक अधिकारों की बात ही क्या करना उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता था। उनकी तुलना जानवरों और पक्षियों से की जाती थी। अब मनु महाराज का विवरण देखिये – 

मनु के अनुसार स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य और सगे भाई के अपराध करने पर उन्हें रस्सी से अथवा बाँस के डण्डे से मारना चाहिए। 

         “भर्या पुत्रश्च दासश्च शिष्यो भ्राता व सोदर: ।

          कृतापराधास्ताड्या: स्यू रज्जा वेणुदलेन वा || मनु VIII, 299; अग्निपुराण 226, 45-46 

आगे कहा गया है कि शूद्र ही दास हुआ करते थे, और इसलिए यहाँ भी स्त्री और शूद्र के लिए एक ही प्रकार के दण्ड का विधान है। 

शूद्र और स्त्री की सामाजिक स्थिति 

शूद्र और स्त्री के सामाजिक स्थिति कोई ज्यादा फर्क नहीं था, दोनों के संबंध में एकसमान उल्लेख पाए जाते हैं। 

* गीता स्त्री, शूद्र और वैश्य- तीनों को एक ही श्रेणी में स्थान देती है। 

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं –-“हे पार्थ, वे भी जो पापयोनि हैं (अर्थात ) स्त्री, वैश्य और शूद्र, मेरी शरण में आकर परम गति को प्राप्त करते हैं।” इसमें संदेह नहीं कि तीनों को परम गति पाने का आश्वासन मिलता है किन्तु उन्हें “पापयोनि” बतलाने से उनके प्रति तत्कालीन समाज ( उस समय का समाज ) की घृणा प्रकट होती है। 

            “मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोन्य:।

           स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।” || गीता, IX.32

इसी प्रकार धर्मसूत्रों और पुराणों में भी स्त्री और शूद्र के प्रति घृणा प्रकट की गयी है।  स्त्री और शूद्र समाज के अत्यंत ही अशुद्ध वर्ग समझे जाते थे। द्विज, तथा स्त्री और शूद्र की शुद्धता दो प्रकार की होती थी।  जहाँ द्विज का का शारीरिक शौच तीन बार आचमन करने से होता था वहां स्त्री और शूद्र की शुद्धता के लिए एक ही बार जल को छूना पर्याप्त था। 

            “त्रिचामेदप: पूर्व द्वि: प्रमृज्यात्ततो मुखम। 

           शारीरं शौचमिच्छन्हि स्त्री शूद्रस्तु सकृत्सकृत।” II मनु V. 139 

पुराणों  में शौच के प्रकार का वर्णन है।

1- जल के हृदय तक पहुँचने से ब्राह्मण,

2- जल के कंठ तक पहुँचने से क्षत्रिय और 

3-  जल को मुंह लगाने मात्र से वैश्य पवित्र हो सकता है, लेकिन 

4-स्त्री और शूद्र केवल  स्पर्श से ही पवित्र हो सकते थे।

        “हृदयाभि: पूयते विप्र: कण्ठ्याभि क्षत्रिय: शुचि: | 

          प्रशातिभिस्तथा वैश्या: स्त्रीशूद्रौ स्पर्शतोऽम्भस: || कूर्मपुराण।

          हृतकण्ठतालुनाभिस्तु यथासंख्यं द्विजातयः |

           शुध्येरन स्त्रीचं शुद्रश्च सकृतस्पृष्टाभिरन्तत: || गरूडपुराण, 215.33

ऐसे भी द्विजों को प्रयत्नपूर्वक शौच प्राप्त करने को कहा गया है किन्तु स्त्री और उपनयन-रहित लोगों ( जिनमे शूद्र आ जाते थे ) की पवित्रता पर उतना जोर नहीं दिया गया है।

    “गन्धेलेपक्षयकरं शौचं कुय्र्यात्प्रयत्नतः | स्त्रीणामनु पनीतानां गन्धलेपक्षयावधि ||   वृहन्मारदीयपुराण”, अ०XXV

स्त्री और शूद्र का जूठा खाना या उनके साथ रहना अपवित्र समझा जाता था।  उनका जूठा खाने से सात दिन तक जौ की दलिया पीने पर प्रायश्चित सकता था।

          “अभोज्यानां तु भुक्त्वात्रं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च ।

         जग्ध्वा मांससभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान्तिपबेत्” || मनु. IX.153.

स्त्री और शूद्र की की संगति उसी तरह मानी जाती थी जैसे विश्वासघातकों और कृतघ्नों की संगति और उनकी संगति में रहने वालों की मुक्ति नहीं हो सकती  थी। 

           “विश्वासघातकानाञ्व कृतघ्नानां जनेश्वर।

            शूद्रस्त्री संगिनाञ्चैव निष्कृतिर्नास्ति कुत्रचित् “|| वृहत्रारदीयपुराण, अ०14

  यह आशंका प्रकट की गयी  कलयुग में लोग स्त्रीपरक और शुद्रपरक बन जायेंगे।

             “करिष्यन्ति कलौ प्राप्ते न च पितेत्र्यदकक्रियाम् ।

            स्त्रीपराश्चजना: सर्वे शूद्रप्रायाश्च शौनक” ||33|| गरूडपुराण,215.33

अर्थात समाज में इन दोनों वर्गों का प्रभाव बढ़ जायेगा।  ( अतः  ऋषि इन दोनों को गुलाम ही रखना चाहते थे ) ऐसा प्रतीत होता है कि साधारणतः स्त्री  से किसी अच्छी वस्तु की आशा नहीं की जा सकती थी क्योंकि नियम यह था कि यदि स्त्री और अवरज ( निम्न वर्ग  लोग ) भी कोई श्रेयस्कर कार्य करें तो ब्रह्मचारी उसे भी मन लगाकर करे।

                  “यदि स्त्रीयद्यवरज: श्रेयः किंचित्समाचरेत्।

                  तत्सर्वमाचेरद्युक्तो यत्र वास्य रमेन्मनः” || मनु II.223

एक दूसरे स्थान पर यह भी बतलाया गया है कि स्त्री और भृत्य को क्रमशः प्रेम तथा दान के द्वारा मिला कर रखना चाहिए।

               “सद्भावेन हरेन् मित्रं सम्भ्रमेण च बाधवान् | |

             स्त्रीभृत्यान् प्रेमदानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनम्” | अग्निपुराण, 237. 18-19

स्त्री और शूद्र की धार्मिक स्थिति

स्त्री और शूद्र की धार्मिक अवस्था के विषय में एकसमान उल्लेखों से भी समाज में दोनों की निम्न दशा और निम्नकोटि के स्थान का पता चलता है।  उन्हें मन्त्र के साथ पिण्ड देने का अधिकार नहीं था।

               “मन्त्रवर्जमिदं कम्र्म शूद्रस्य तु विधीयते।

             सपिण्डीकरणं स्त्रीणां कार्यमेवं तदा भवेत्” | | अग्निपुराण,157. 33

* अग्निहोत्री द्विजाति श्राद्धकर्म ऐसी अमावस्या में करते थे जिसमें चन्द्रमा दिखाई पड़े किन्तु अग्निव्यवहार से वंचित स्त्री और शूद्र यह कर्म अँधेरी अमावस में ही कर सकते थे।

              “सिनीवाली द्विजैग्रह्र्या साग्निकै: श्राद्धकर्मणि।

               कुहू: शूद्रैस्तथा स्त्रीभिरपि चानग्निकैस्तथा” || वृहत्रारदीयपुराण, अ० 27

तीनों उच्च वर्ण के लोग वैदिक विधि से स्नान और जप कर सकते थे किन्तु स्त्री और शूद्र को यह अधिकार प्राप्त नहीं था। 

                   “वेदोक्तम् त्रिषु वर्णेषु स्नानं जापयमुदाहृतम् ।

                   स्त्रीशूद्रयोः स्नानजाप्यं वेदोक्तविधिवार्जितम्” || व्रह्मपुराण, 67.19

विप्रो के  अनुशासन के अनुसार  स्त्री और शूद्र तथा अवर वर्ण के लोगों का अग्नियज्ञ वर्जित था।

                  “स्त्रीभिर्वर्णावरै: शूद्रै: विप्राणामनुशासनात् ।

                  अमन्त्रकं विधिपूर्व वह्वियागविवर्जितम्” || वृहत्रारदीयपुराण अ०   220

ऐसा लगता है कि  स्त्री और शूद्र शिवलिंग की पूजा निकट जाकर नहीं कर सकते थे। बतलाया गया है कि जब विधिपूर्वक मन्त्र द्वारा लिंग को प्रतिष्ठित किया जाये तो शूद्र और स्त्री को इसे छूना नहीं चाहिए।

                   “यदा प्रतिष्ठित लिंगं मन्त्रविद्विभर्यथाविधि ।

                   तदाप्रभृति शूद्रश्च योषितो वापि न स्पृशेत्” | | वृहत्रारदीयपुराण, अ० 14

यह भी कहा गया है कि स्त्री बिना उपनयन वाले लोग और शूद्रों को विष्णु तथा शंकर की मूर्ति छूने का अधिकार नहीं है

             “स्त्रीणामनुपनीतानां शूद्राणाञ्च जनेश्वर

              स्पर्शने नाधिकारोऽस्ति विष्र्णोव्वा शङ्करस्यवा” | | वृहत्रारदीयपुराण, अ० 14

यदि वे लोग केशव अथवा शिव का स्पर्श करें तो उन्हें नरक मिलेगा।

                      “शुद्रोर्वानुपनीतो वा स्त्रियो वा पपुतिर्तोपि वा ।

                      केशवं वा शिवं र्वापि स्पृष्ट्वा नरकमश्नुते” | | वृहत्रारदीयपुराण, अ० 14

इसी प्रकार द्विज ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ यह मंत्र ॐकारसहित जब कर सकते थे किंतु स्त्री और शूद्र को ॐकार के साथ जप करने का अधिकार नहीं था।

                “द्विजातीनां सहोंकारः सहितो द्वादशाक्षरः ।

                 स्त्रीशूद्राणां नमस्कारपूर्वक: समुदाहृतः” | | स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड चातुर्मास्य माहात्म्य, 25.21 

शूद्र और स्त्री के शिक्षा संबंधी अधिकार

ये सम्मिलित उल्लेख बतलाते हैं कि स्त्री और शूद्र की सांस्कृतिक अवस्था भी एक ही समान थी।  ऐसे आदेश मिलते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि साधारणत:  स्त्री तथा शूद्रों को शिक्षा एवं संस्कृति से कोई संपर्क नहीं था। शतपथ ब्राह्मण बतलाता है कि प्रव्रज्या ( की शिक्षा ) देने के समय शिक्षक स्त्री, शूद्र,  कुत्ते और काले पक्षी को न देखें क्योंकि वह असत्य हैं।

           —-“स्त्रीशूद्र: श्वाकृष्ण शकुनिस्तानि प्रेक्षेत् ।शतपथ ब्राह्मण “, 2.8.3.

उसी नियम की पुनरावृत्ति पारस्कर गृह्यसूत्र में हुई है। इसके अनुसार समावर्तन के बाद स्त्री, शव, शूद्र, कुत्ते और काले पक्षी को न देखना चाहिए और न उनके साथ संभाषण ( बातचीत ) करना चाहिए।

         “स्त्रीशूद्रशवकृष्णशकुनिशुनां चादर्शन संभाषा च तै: | पारस्करगृह्या सूत्र, 2.8.3

         स्त्रीशूद्र पतितरभसरजस्वलैवां न संभावेतेति च्यवनो भृगुः” | काठकगृह्यासूत्र, 4.15

कई अवसरों पर स्त्री और शूद्र के साथ शिक्षितों के संभाषण को अनुचित बतलाया गया है बौधायन के अनुसार सफलता के लिए व्रत करने वाले ब्रह्मचारी को स्त्री और शूद्र के साथ संभाषण नहीं करना चाहिए।

              “स्त्रीशूद्रै: नाऽभिभाषेत् ब्रहम्चारी हविव्रितः वौधायन धर्म सूत्र, 4.45

              स्त्रीशूद्रं नाभिभाषेत् । काठकगृह्यसूत्र 5.3

मनु ने भी चांद्रायण व्रत में स्त्री, शूद्र  और पतित  के साथ बोलना मना किया है।

             स्त्रीशूद्रपतितांश्चैव नाभिभाषेत् कर्हिचित् । मनु, 11.224

मनु स्मृति और कूर्मपुराण में बतलाया गया है कि स्नातक ( शिक्षित ब्राह्मण ) को यह नहीं चाहिए कि व्रत के बहाने  वह अपने पाप को छिपावेऔर स्त्री तथा शूद्र को उनकी अज्ञानता के कारण ठगने की चेष्टा करे ।

            “न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत |

            व्रतेन पापं प्रच्छाद्य कुर्बन् स्त्रीशूद्रदम्भनम्” !  मनु IV.198 कूम्र्मपुराण , 554-55

इससे प्रकट होता है कि स्त्री और शूद्र अज्ञानी समझे जाते थे और उनके साथ संपर्क वर्जित था। शिक्षा तथा शिक्षित व्यक्तियों के साथ इन दोनों का संबंध नहीं हो सके, इसके लिए और भी कई नियम थे। सांख्यायन, गृह्यसूत्र के अनुसार शूद्र अथवा राजस्वाला स्त्री के निकट वेदाध्ययन नहीं हो सकता था। (सांख्यायन गृह्यसूत्र, 4.7.47)

         किंतु आपस्तंब  धर्मसूत्र के अनुसार स्त्री और शूद्र को अथर्ववेद का उपदेश पाने का अधिकार था।

            “स्त्रीषुशूद्रेषु या विद्या सा निष्ठा समाप्ति: ।

           तस्यामप्यधिगता यां विद्याकर्म परितिष्ठतीति” | | ( बुइलर द्वारा संपादित आपस्तसम्बधर्मसूत्र)

इसका कारण यह था कि अथर्ववेद में अवैदिकों की परंपरा रहने के कारण आरंभ में इसकी गणना वेदों में न थी, और समाज में दूषित समझे जाने वाले व्यक्तियों को इसका ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार देते थे। विदित है कि बाद में स्त्री और शूद्र को पुराण के ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार का उल्लेख मिलता है किंतु 12 वीं सदी ईस्वी सन् में भी उन दोनों के निकट वेद पढ़ने की मनाही थी।

                  “स्त्रीशूद्राणां समीपे वेदाध्यननकृन्रर: ।

                  कल्पकोटि सहस्रेत्रेषु प्राप्नोतिनंरकान्क्रमात्” । वृहन्रनारदीपुराण, XIV.143

मालूम पड़ता है कि शिक्षित तथा  सुसंस्कृत नहीं होने कारण वे दोनों संस्कृत भाषा नहीं बोल सकते थे और इसलिए प्राचीन नाटकों में दोनों अपभ्रंश बोलते हैं

प्राचीन काल में स्त्री और शूद्र के सम्मिलित उल्लेख करने की परंपरा इतनी चल गई थी कि इसका उदाहरण ज्योतिष की रचना में भी मिलता है बृहत्संहितामें बतलाया गया है कि  सूर्य और चंद्रमा का छठा भाग होने पर जो ग्रहण लगता है उससे स्त्री और शूद्र का विनाश होता है।(वृहत्संहिता, V.28–31)

स्त्री और शूद्र के संबंध में जो सम्मिलित उल्लेख एकत्र किए गए हैं उनसे एक ऐसे समाज का परिचय मिलता है जिसके वास्तविक स्वरूप असाधारणत: प्रकाश नहीं डाला गया है। इसके आधार पर कहना तो पड़ेगा कि स्त्री और शूद्र  समाज के अत्यंत ही दलित तथा गर्हित अंग थे।  इसमें संदेह नहीं कि आज के समान उस समय भी देश में उनकी बहुसंख्या थी। स्त्रियों की संख्या संभवत: आधी ही होगी जनसंख्या में अधिकांश भाग ( वैश्य और) प्रधानत: शूद्रों का था, इसका प्रमाण कौटिल्य, विष्णुस्मृति, अग्निपुराण और मार्कंडेयपुराण में मिलता है।

अर्थशास्त्र, अधि० 6 अ० 1; विष्णु 3–4 और 5: अग्निपुराण 222.1–2; मार्कण्डेयपुराण ,49.47

प्राचीन ब्रह्मण  साहित्य में स्त्री और शूद्र के आर्थिक अधिकार   

 समाज में बहुसंख्यक होने पर भी स्त्री और शूद्रों को ऐसी दरिद्र दशा में रखा जाए, यह वर्तमान जनतांत्रिक सिद्धांतों की दृष्टि में बड़ा बुरा लगता है। परंतु प्राचीन पितृसत्तात्मक वर्गविभाजित समाज में, जिसका आधार स्त्री पर पुरुष का, और छोटे-छोटे व्यापारियों तथा उत्पादन करने वाली जनता को पर पुरोहितों और योद्धाओं का प्रभुत्व था, ऐसी अवस्था सामान्यतः पाई जाती है।

मूल्यत: पितृसत्तात्मक और वर्गविभाजित समाज रहने के कारण भारत में स्त्री और शूद्र तथा यूनान और रोम में स्त्री और दास को एक ही कोटि में रखा जाता था। इस संबंध में प्राचीन भारत के संपत्ति-संबंधी विधान की तुलना प्राचीन रोम के विधान से की जा सकती है। मनु स्मृति और शुक्रनीतिसार में प्रावधान है कि स्त्री, पुत्र और दास तीनों अधन ( जिन्हें धन रखने का अधिकार नहीं ) हैं। वह जो  कुछ भी कमाते हैं वह उनके स्वामी की संपत्ति है।

              “भार्यापुत्रश्चदासश्च त्रयएवाधना; स्मृताः” ।

 इससे पता चलता है परिवार के प्रधान को अपनी स्त्री और दास पर जो साधारणत: शूद्र वर्ग का होता था-पूरा अधिकार था।  नियम था कि खरीद के हो या बिना खरीद के, शूद्र को तो दास बनाना ही चाहिए क्योंकि दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं ईश्वर ने उनकी सृष्टि की है।

                  “शूद्रं तु कारयेद्दास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा”। 

                 दास्या वैव हि  सृष्टोऽसौ  स्वयमेव  स्वयंभुवा ” || कात्यायन स्मृति  

प्राचीन भारत के इस प्रावधान की, जिसके अनुसार कर्त्ता को अपनी स्त्री, पुत्र और दास पर असीम अधिकार था, प्रतिच्छाया हम रोमन विधान में भी पाते हैं। इसके अनुसार रोमन कर्त्ता को अपने बच्चे, स्त्री और दासों पर अनियंत्रित अधिकार प्राप्त था; इसमें सरकार कोई  हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी।  ( डब्ल्यू० ए० हन्टर, इन्ट्रोडक्शन टूरोमन ला, लंदन 1934 पृ० 24)

 अतः पितृसत्तात्मक वर्गप्रभुत्व के कारण भारतवर्ष में भी स्त्री और दास की वैसी ही स्थिति थी जैसी रोम में थी।

         ऊपर स्त्री और शूद्र  के विषय में कुछ सम्मिलित उल्लेखों पर विचार किया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर, अलग-अलग उल्लेखों से भी यही पता चलता है कि दोनों की अवस्था एक समान थी। धर्मशास्त्रों में स्त्री और शूद्र को आजीवन दास बतलाया गया है।  मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं है। जब तक कुमारी रहती है, पिता उसकी रक्षा करता है, युवावस्था में पति देखता है और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है; स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है।

              “पिता रक्षति कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने।

                रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति”।। मनु IX 3; 

                                            याज्ञवल्क्य स्मृति आधार  अध्याय, 85

यह बतलाया गया है कि पुरुष स्त्रियों को सदैव अपने अधीन रखें। 

        “अस्वतन्त्रता: स्त्रियः कार्या: पुरूषै:स्वैदिंवानिशम” । मनु IX.2

जो स्त्री के विषय में कहा गया है वह शूद्र के बारे में भी लागू है। मनु के अनुसार स्वामी के त्याग देने पर भी शूद्र कभी भी दासता से मुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि उसमें तो दासता  नैसर्गिक रूप से निहित है। 

                       “न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद्विमुच्यते।

                      निसर्गजं हि तत्तस्य कस्तस्मात्तद पोहति” । । मनु,VIII.414

स्त्री और शूद्र  दोनों को आजीवन दासता की अवस्था में रखने के कारण स्वाभाविक ही था कि प्राचीन भारतीय साहित्य में अनेक स्थलों पर उनकी सम्मिलित चर्चा की जाए। 

निष्कर्ष 

इस प्रकार प्राचीन धर्म ग्रंथों और साहित्य में शूद्र और स्त्री को निम्न दर्जे की स्थिति में दर्ज किया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि रूढ़िवादी समाज इस प्रकार के उल्लेखों को धर्मसम्मत बताकर सदियों तक इन दोनों के साथ अमानवीय व्यवहार करता रहा। उनके समस्त अधिकारों को कठोरता से कुचलता रहा और इसका सीधा परिणाम भारत की आर्थिक , सामजिक, शैक्षिक , और राजनितिक स्थिति पर पड़ा।

जब विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर हमले किये तब समाज का अधिकांश वर्ग मुख्यतः स्त्री और शूद्र जो बहुसंख्या में थे उन्हें देश की तरफ से लड़ने का कोई अधिकार नहीं था क्योकि वे समाज की मुख्य धरा से बंचित किये जा चुके थे।  इसका परिणाम यह हुआ कि विदेशी शासकों के सामने भारतीय राजा आसानी से पराजित हो गए और देश ने लम्बे समय की गुलामी देखी। वर्तमान में भी ऐसी मानशिकता के लोग समाज में मौजूद हैं जो इन दोनों को समाज में आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। अतः आवश्यक है कि ऐसे लोगों को अपनी मानशिकता को बदलने की जरुरत है।


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