हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार कौन-कौन से है? | Hindu Dharma Ke Solah Sanskar

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Last updated on April 17th, 2023 at 05:31 pm

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हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार

संस्कार क्या है?

संस्कार शब्द सम् उपसर्ग ‘कृ’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता। हिंदू सनातन परंपरा में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह व्यक्तिक एवं सामाजिक विकास के लिए उपयुक्त बन सके। शबर का विचार है कि संस्कार वह क्रिया है जिसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी उद्देश्य के योग्य बनती है।( संस्कारों नाम स भवति यस्मिञ्जाते  पदार्थों भवति योग्य:  कशिचदर्थस्य।–जैमिनीसूत्र की टीका,1.3. )

शुद्धता, पवित्रता, धार्मिकता एवं आस्तिकता संस्कार की प्रमुख विशेषताएं हैं। ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किंतु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है इनसे उसमें अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है।

संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का भी निवारण करते तथा उसकी प्रगति के मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं। मनु के अनुसार संस्कार शरीर को विशुद्ध करके उसे आत्मा का उपयुक्त स्थल बनाते हैं। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व की सर्वांगीण उन्नति के लिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विधान प्रस्तुत किया गया है।

 संस्कारों का उद्देश्य– 

हिंदू सनातन धर्म के समाज-शास्त्रियों ने संस्कारों का विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया मुख्यतः हम उन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं— 1- लोकप्रिय उद्देश्य तथा 2- सांस्कृतिक उद्देश्य।

संस्कारों के लोकप्रिय उद्देश्य इस प्रकार हैं–

अशुभ शक्तियों से छुटकारा- प्राचीन हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छा तथा बुरा दोनों प्रकार का फल देती है। अतः संस्कारों के माध्यम से अच्छे प्रभावों को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया जाता है, जिससे मनुष्य का स्वस्थ्य एवं निर्विघ्न विकास हो सके। इस उद्देश्य से प्रेत आत्माओं एवं आसुरी शक्तियों को अन्न, आहुति आदि के द्वारा शांत किया जाता था।

गर्भाधान बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियां दी जाती थी। कभी-कभी देवताओं की मंत्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि आसुरी शक्तियां निष्क्रिय हो जाएं। गर्भाधान के समय विष्णु, उपनयन के समय बृहस्पति, विवाह के समय प्रजापति आदि की स्तुतियां की जाती थी।

भौतिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति- प्राचीन मनीषियों द्वारा संस्कारों का विधान भौतिक समृद्धि जैसे–पशुधन , पुत्र दीर्घायु, शक्ति, बुद्धि ,संपत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया गया था। ऐसी मान्यता थी कि प्रार्थना के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवताओं तक पहुंचाता है तथा प्रत्युत्तर में देवता उसे भौतिक समृद्धि की वस्तुएं प्रदान करते हैं। संस्कारों का यह उद्देश्य आज भी हिंदुओं के मस्तिष्क में प्रबल रूप से विद्यमान है।

आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति– संस्कारों के माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दु:ख की भावनाओं को प्रकट करता था। पुत्र जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आनंद एवं उल्लास को व्यक्त किया जाता था। बालक को जीवन में मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशियां मनाते थे। इसी प्रकार मृत्यु के अवसर पर शोक व्यक्त किया जाता था। इस प्रकार संस्कार आत्माभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम बनते थे।

सांस्कृतिक उत्थान- हिंदू-विचारकों ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्य भी रखा। मनुस्मृति में कहा गया है कि संस्कार व्यक्ति की अशुद्धियों का नाश कर उसके शरीर को पवित्र बनाते हैं। ऐसी धारणा थी कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियां होती हैं जो जन्म के बाद संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं।

मनुस्मृति में कहा गया है कि अध्ययन, व्रत, होम, यज्ञ पुत्रोत्पत्ति से शरीर ब्राह्मीय ( ब्राह्ममय ) हो जाता है (स्वाध्यायेनव्रतैर्होमैस्तैविद्येनेज्ययासुतैः। महाज्ञैश्य ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। – मनुस्मृति )। यह भी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मना शुद्र होता है संस्कारों से द्विज कहा जाता है, विद्या से विप्रत्व प्राप्त करता है तथा तीनों के द्वारा श्रोत्रिय कहा जाता है।-“जन्मना जायते शुद्र: संस्काराद्द्विज उच्यते। विद्यया यातिविप्रत्वं श्रोत्रिय एव च।।”

संस्कार व्यक्ति को सामाजिक अधिकार एवं सुविधाएं भी प्रदान करते थे। उपनयन के माध्यम से वह विद्या अध्ययन का अधिकारी बनता तथा द्विज कहा जाता था। समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थाश्रम  में प्रविष्ट होने का अधिकार दे देता था। विवाह संस्कार से मनुष्य समस्त सामाजिक कर्तव्यों को संपन्न करने का अधिकारी बन जाता था। इस प्रकार वह समाज का पूर्ण सदस्य बन जाता था।

नैतिक उत्थान- संस्कारों के द्वारा मनुष्य के जीवन में नैतिक गुणों का उत्थान होता था गौतम ने 40 संस्कारों के साथ-साथ 8 गुणों का भी उल्लेख किया है तथा व्यवस्था दी है कि संस्कारों के साथ इन गुणों का आचरण करने वाला व्यक्ति ही ब्रह्म को प्राप्त करता है। यह है- दया, सहिष्णुता, ईर्ष्या ना करना, शुद्धता, शांति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग। प्रत्येक संस्कार के साथ कोई ना कोई नैतिक आचरण अवश्य जुड़ा रहता था।

व्यक्तित्व का विकास एवं निर्माण- संस्कोरा के माध्यम से व्यक्तित्व का विकास एवं निर्माण होता था। जीवन के प्रत्येक चरण में संस्कार मार्गदर्शन का काम करते थे। उनकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि वे जीवन के प्रारंभ से ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सकें।

आध्यात्मिक उन्नति- संस्कार व्यक्ति की भौतिक उन्नति के साथ ही साथ आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त करते थे। सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियाएं जुड़ी रहती थी। इन्हें संपन्न करके मनुष्य भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की भी कामना रखता था। उसे यह अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियाएं आध्यात्मिक सत्य को प्राप्त करने के लिए हैं।

 हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार षोडश संस्कार

 जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संस्कारों की षोडश संख्या ही कालान्तर में लोकप्रिय हुई-1-गर्भाधान 2-पुंसवन 3-सीमन्तोन्नयन 4-जातकर्म 5-नामकरण 6-निष्कृमण 7-अन्नप्राशन 8-चूड़ाकरण 9-कर्णभेद 10-दिद्यारम्भ 12-वेदारम्भ 13-केशान्त 14-समावर्त्तन 15-विवाह तथा 16अंत्येष्टि।

1- गर्भाधान

यह जीवन का प्रथम संस्कार था जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता था इस संसार का प्रचलन उत्तर वैदिक काल में हुआ। सूत्रों तथा स्मृति-ग्रंथों में इसके लिए उपयुक्त समय एवं वातावरण का उल्लेख मिलता है।

🔴 इसके लिए आवश्यक था कि स्त्री रितु काल में हो। रितु काल के बाद की चौथी से सोलहवीं रात्रियां गर्भाधान के लिए उपयुक्त बताई गई हैं।

🔴 अधिकांश ग्रह्मसूत्रों तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है।

🔴 आठवीं, पन्द्रहवी, अठारहवीं,एवं तीसवीं दिन रात्रियों में गर्भाधान वर्जित था।

🔴 गर्भाधान के लिए रात्रि गर्भाधान के लिए रात्रि का समय ही उपयुक्त था, दिन में यह कार्य वर्जित था। प्रश्नोपनिषद में कहा गया है कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागी, दुर्बल एवं अल्पायु संताने उत्पन्न होती हैं।

🔴 गर्भाधान के लिए रात्रि का अंतिम पहर भी अभीष्ट माना गया है।

🔴 सम रात्रियों  में गर्भाधान होने पर पुत्र एवं विषम में कन्या उत्पन्न होती है ऐसी मान्यता थी।”युगमासु पुत्राजायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु।

🔴 प्राचीन काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अन्तर्गत स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा उसके नपुंसक होने पर उसके भाई अथवा सगोत्र व्याक्ति से सन्तानोत्पत्ति के लिए गर्भाधान करवाती थी।

🔴 स्त्री के लिए भी अनिवार्य था कि वह ऋतुकाल के स्नान के बाद अपने पति के पास जाये। पाराशर के अनुसार ऐसा न करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म शूकरी के रूप में होता है।(पारासर स्मृति )

🔴गर्भाधान पुत्र-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम एवं महत्वपूर्ण संस्कार था।

2-पुंसवन-

गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र-प्राप्ति हेतु यह संस्कार किया जाता था। चन्द्रमा के पुष्प नक्षत्र में होने पर यह संस्कार सम्पन्न होता था, क्योंकि यह समय पुत्र-प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना गया है।

👉 रात्रि के समय वटवृक्ष की छाल का रस निचोड़कर स्त्री की नाक के दाहिनी छिद्र में डाला जाता था। इससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती थी।

3- सीमन्तोन्नयन

गर्भाधान के चौथे से आठवें मास तक यह संस्कार सम्पन्न होता था।

👉 इसमें स्त्री के केशों ( सीमान्त ) को ऊपर उठाया जाता था। गर्भवती नारी को प्रेतात्माओं के प्रकोप से बचाने हेतु प्रजापति देवताओं को आहुतियां दी जाती थीं। पति द्वारा स्त्री के केशों को ऊपर उठाया जाता था।

4- जातकर्म –

शिशु के जन्म के समय जातकर्म संस्कार होता था। 

👉 सविधि स्नान करके पिता द्वारा शिशु के कान में मंत्रोच्चारण किया जाता था। इसके उपरान्त शिशु को प्रथम बार माता का स्तनपान कराया जाता था।

5- नामकरण –

बच्चे के जन्म के दसवें अथवा वारहवे दिन “नामकरण” संस्कार हेता था।

6- निष्क्रमण-

बच्चे के जन्म के तीसरे अथवा चौथे  माह में यह संस्कार सम्पन्न होता था।

⚫ प्रथम बार बच्चे को घर से निकाला जाता था।

7- अन्नप्राशन-

यह संस्कार बच्चे के जन्म के छ्ठे माह में किया जाता था। प्रथम बार शिशु को पका हुआ अन्न खिलाया जाता था। दूध, घी, दही तथा पका हुआ चावल खिलाया जाता था। 

8- चूड़ाकरण ( चौल कर्म )-

इस संस्कार में प्रथम बार बालक के बाल काटे जाते थे। यह संस्कार जन्म के प्रथम अथवा तीसरे वर्ष किया जाता था।

9- कर्णवेध-

इस संस्कार में बालक का कान छेदकर उसमें बाली अथवा कुण्डल पहना दिया जाता था।

👉 कर्णवेध का विधान बच्चे को भाविष्य में स्वस्थ्य रखने के उद्देश्य से हुआ। 

🔴 सुश्रुत ने लिखा है कि कर्णवेध अण्डकोश वृद्धि (  Hydrocele ) तथा अन्त्रवृद्धि ( Hernia) के रोगों से छुटकारा दिलाता है।

10- विद्यारम्भ

जन्म के पाचवें वर्ष बालक को अक्षर ज्ञान कराया जाता था।

11- उपनयन-

उपनयन का अर्थ है समीप ले जाना।अतः बालक को शिक्षा के लिए गुरु के पास ले जाना। विभिन्न वर्णों के अनुसार 8 से 11 वर्ष की आयु तक यह संस्कार होता था।

👉 उपनय का उद्देश्य मुख्यतः शैक्षणिक था।

👉 उपनयन संस्कार ब्राहम्ण का बसन्त ऋतु में,  क्षत्रिय का ग्रीष्म ऋतु में तथा वैश्य का पतझड़ में किये जाने का विधान थी। स्पष्ट है कि शुद्र को शिक्षा से बंचित किया जा चुका था।

👉 तीनों वर्णों के लिए अलग जनेऊ थे-ब्राहम्ण कपास
का , क्षत्रिय ऊन का, वैश्य सन का जनेऊ धारण करता था।

12- वेदारम्भ-

वेदों का आरम्भ गयत्री मन्त्र के साथ प्रारम्भ हाेता था।

13- केशान्त अथवा गोदान-

गुरु के पास रहकर अध्ययन करते हुये विद्यार्थी की सोलह वर्ष की आयु में प्रथम बार दाढ़ी-मूँछ बनवाई जाती थी। 

14-समावर्तन-

गुरुकुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात विद्यार्थी जब अपने घर लौटता था तब समावर्तन संस्कार सम्पन्न होता था। 

15- विवाह-

इस संस्कार के द्वारा गृहस्थ जीवन का आरम्भ होता था।

स्मृति ग्रन्थों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच। प्रथम चार को प्रशस्त तथा अन्तिम चार को अप्रशस्त कहा गया है।

ब्राह्म- यह विवाह का सर्वोत्तम प्रकार था जिसमें पिता विधिपूर्वक बेटी का हाथ वर के हाथ में देता था।

दैव-  इसके अंतर्गत कन्या का पिता एक यज्ञ का आयोजन कर आता था जिसमें बहुत से पुरोहित को आमंत्रित किया जाता था। जो पुरोहित यज्ञ का अनुष्ठान विधि पूर्वक करा लेता था उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता था।

आर्ष-  इस विवाह में कन्या के पिता वर को कन्या प्रदान करने के बदले में 1 जोड़ी गाय और बैल प्राप्त करता था ताकि वह योगिक क्रियाएं संपन्न कर सके यह विवाह मुख्यतः पुरोहित परिवार में ही प्रचलित था।

प्रजापत्य-  इस विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुए यह आदेश देता था कि दोनों साथ साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह करें।पिता वर से इसके लिए एक प्रकार की वचनबद्धता प्राप्त कर लेता था।

 विवाह के उपर्युक्त विवाह के उपर्युक्त प्रकार “प्रशस्त” अर्थात अर्थशास्त्र संगत बताए गए हैं। अंत के चार प्रकारों को शास्त्रकार मान्यता नहीं देते इनका विवरण इस प्रकार है–

आसुर-  इसमें कन्या का पिता अथवा उसके संबंधित धन लेकर कन्या का विवाह करते थे यह एक प्रकार से कन्या की बिक्री थी।

गान्धर्व- यह प्रेम विवाह था जिसमें माता-पिता की इच्छा के बिना ही वर-कन्या एक दूसरे के गुणों पर अनुरक्त होकर अपना विवाह कर लेते थे। चूँकि इस विवाह का प्रचलन अधिकतर गांधर्व जाति के लोगों में था, अतः इसे गांधर्व विवाह कहा गया। इस विवाह का प्रचलन प्रत्येक युग में था। भारत की राजपूत जातियों में सर्वाधिक प्रचलित प्रकार था।

राक्षस-  इसमें बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर उसके साथ विवाह किया जाता था।

पैशाच-  यह विवाह का निकृष्टतम प्रकार है जिसकी सभी शास्त्रकार कटु आलोचना करते हैं। इसमें वर छल-छद्म के द्वारा कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेता था। मनु के अनुसार अचेत, सोते हुए, पागल अथवा मद मत्त कन्या के साथ जो व्यक्ति संभोग करता है तब यह पैशाभ विवाह होता है।

गौत्र का अर्थ-  गोत्र का मूल अर्थ गौशाला(Cowherd ) का जो बाद में वंश अथवा कुल का बोधक बन गया। किसी परिवार के गोत्र का नामकरण उसके आदि संस्थापक ऋषि के नाम पर होता है। “प्रवर” का शाब्दिक अर्थ आवाहन या प्रार्थना है। यज्ञ कराते समय पुरोहित अपने श्रेष्ठ ऋषि पूर्वजों के नाम का उच्चारण करता था।

कालांतर में वह शब्द व्यक्ति के ऋषि पूर्वजों के नाम से जुड़ जाता था। यह ऋषि गोत्र संस्थापक ऋषियों के ही पूर्वज होते थे। यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के अवसर पर उनके नाम का उच्चारण आवश्यक था।

आपस्तंब के अनुसार प्रत्येक गोत्र में प्रायः  तीन प्रवर ऋषि होते थे। “पिण्ड”  का शाब्दिक अर्थ शरीर है अतः सपिण्ड विवाह से तात्पर्य दो व्यक्तियों के विवाह से हैं जिनमें समान शरीर का रक्त विद्यमान हो। शास्त्रकारों ने पिता पक्ष में 7 तथा माता पक्ष में 5 पीढ़ियों तक के सपिण्ड विवाह को निषिद्ध माना है।

 अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह- 

अनुलोम विवाह- इस विवाह में उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने ठीक नीचे के वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता था। ब्राहम्णों को सभी वर्ण की कन्याओं से विवाह का अधिकार मिला था।

प्रतिलोम विवाह-  प्रतिलोम विवाह के अंतर्गत उच्च वर्ण की कन्या का विवाह निम्न वर्ण के व्यक्ति के साथ होता था। इस प्रकार के विवाह को निंदनीय माना गया है तथा समाज में इसका बहुत कम प्रचलन था। प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतान को निकृष्ट एवं अस्पृश्य बताया गया है। मनु ने ब्राह्मणी से उत्पन्न क्षत्रिय पुत्र को सूत, क्षत्रिया से उत्पन्न वैश्य पुत्र को मागध, ब्राह्मण से उत्पन्न वैश्य पुत्र को मागध कहा है। ऐसे पुत्रों को अति दूषित एवं घृणित बताया गया है।

 नियोग प्रथा- प्राचीन समाज में निचोग प्रथा का भी प्रचलन था। जिसके अंतर्गत पति विहीन स्त्रियां पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से पर पुरुष के साथ संबंध स्थापित करती थी। नियोग के लिए स्त्री का देवर या अन्य कोई सपिण्ड अथवा सगोत्र व्यक्ति अधिकारी होता था।

कभी-कभी पति के रुग्ण अथवा नपुंसक होने की दशा में भी इस प्रकार का संबंध स्थापित किया जाता था। इस प्रकार जो पुत्र उत्पन्न होता था उसे मृतक पिता का “क्षेत्रज पुत्र” कहा जाता था तथा वह अपने पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी था।

16- अन्तयेष्टि संस्कार- 

मानव जीवन का अंतिम संस्कार अंत्येष्टि है जो मृत्यु के समय संपादित किया जाता है इसका उद्देश्य मृत आत्मा को स्वर्ग लोक में सुख और शांति प्रदान करना है।

 

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