ऋग्वैदिक कालीन, आर्यों, का खान-पान,भोजन

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भारत में आर्यों का आगमन एक युगांतकारी घटना थी, जिसमें एक शहरी सभ्यता के स्थान पर ग्रामीण सभ्यता स्थापित हुई। आर्यों ने भारत में अपने खान-पान भाषा और अन्य रिवाजों को प्रचलित किया। हम इस लेख में आर्यों द्वारा खाये जाने वाले खाद्य पदार्थो का अध्ययन करेंगे। ऐसे कई सवाल जो आज भी विवादों में हैं जैसे क्या आर्य गाय का मांस कहते थे? इसका ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर विश्लेक्षण करेंगे। 

ऋग्वैदिक कालीन, आर्यों, का खान-पान,भोजन

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ऋग्वैदिक कालीन खाद्य

1- मांस—- ऋग्वैदिक आर्य कृषि भी करते थे लेकिन उनका सबसे बड़ा धन गौ, अश्व,  अज-अवि था; इसलिए उनमें शायद ही कोई ऐसा हो, जो मांस न खाता था। बड़े-बड़े ऋषियों के लिए भी आतिथ्य करने के वास्ते मांस अत्यावश्यक चीज थी। पीछे के धर्म-सूत्रकारों ने तो कहा—-“नामांसो मधुपर्को भवति”( बिना मांस का मधुपर्क नहीं हो सकता)। अतिथि के सत्कार के लिए जो खाद्य तैयार किया जाता था उसे मधुपर्क कहते थे।

ऋग्वेद के बाद ब्राह्मण काल (800 ईसा पूर्व ) में भी मांस आर्यों का प्रमुख भोजन था, और इसके टोटके-टोने भी प्रचलित थे। वृहदारण्यक (6।4।18) में बतलाया गया है कि यदि कोई इच्छा करे, कि मेरा पुत्र पंडित, प्रसिद्ध, सभा-समाजवाला हो, और ऐसी वाणी बोले, जिसे लोग सुनना चाहें, तथा वह सारे वेदों को पढ़े, पूरी आयु प्राप्त होवे; तो माता को चाहिए कि घी-सहित सांड या बैल के मांस वाला ओदन पकाकर खाये।

“य इच्छेत् पुत्रोमे पंडितो विगीतः समितिंगभ सुश्रूषितां वाचं भाषिता जायते, सर्वान वेदां अनुव्रीवीत,  सर्वमायुरियादिति,मांसोदन पाचयित्वा सर्पिष्मन्तं अशननीयताम् ईश्वरी जनयितवा औक्षेण वाऽऽर्षमेण।”

 कोई संदेह की गुंजाइश ना रहे इसके लिए शंकराचार्य अपनी टीका में कहते हैं—-“मांस मिश्रमोदनम्। तन्मांसनियमार्थमाह—–औक्षेण वा मांसेन। उक्षा सेचनसमर्थ: पुंगवस्तदीयं मांसम्। ऋषभस्तोऽप्यधिकवया: तदीयमार्षभं मांसम।”  अर्थात मांस व्यस्क बैल या उससे अधिक आयु के बैल का होना चाहिए। गोमांस के प्रति आज चाहे जितनी जुगुप्सा हो पर प्राचीन काल में इसके प्रति यह भावना नहीं थी। बुद्ध-काल में भी यह बहुत प्रचलित भज्य था। मज्झिमनिकाय (3।5।4) में आता है——-

“जैसे चतुर गोघातक या गोघातक का शागिर्द गाय को मार कर गाय काटने के तेज छुरे से गाय के भीतरी मांस और बाहरी चमड़े को नुकसान पहुंचाए बिना गाय को काटे— जो तो वहां भीतर विलिम स्नायु, बंधन है, उसे तेज छुरे से छेदन करे, काटे. . .। छेदन कर काट कर. . ., बाहरी चमड़े को झाड़ फटकार कर, उसी चमड़े में उस गाय को ढाँक कर यह कहे— ‘यह गाय पहले की तरह ही इस चर्म से युक्त है’।”

गौ मांस काट कर गोघातक के चौररस्ते में बेचने के लिए राशि करके रखने का उल्लेख मिलता है। गौ काटने के लिए जो स्थान होता था उसे गोघातक सूना कहते थे। वहां पर हड्डियों की लालच से कुत्ते प्रतीक्षा करते रहते थे। मज्झिमनिकाय में (2।1।4) है—–

 “गृहपति, जैसे भूख से अति दुर्बल कुक्कुर गोघातक के सूना के पास खड़ा हो। चतुर गोघातक या गोघातक का अंतेवासी उसकी मांस-रहित लहू में सनी. . . हड्डी फेंक दे। तो क्या मानते हो, गृहपति! क्या यह कुक्कुर उस हड्डी. . . को खाकर भूख की दुर्बलता को हटा सकता है?”

गाय काटने के छुरे को गोभिकर्तन कहते थे (मज्झिमनिकाय 2।4।5)। ऋग्वेद (10। 79।6) में ऋषि ने कहा है “विपर्शश्चकर्त गामिवासि:” ( जैसे तलवार पोर-पोर गाय को काटे )। यह भी उसी बात की तरफ इशारा करता है। बहुत पीछे यदि सातवीं-आठवीं सदी के भवभूति अतिथि के लिए बछिया मारने की बात कहते हैं, तो वह अवश्य अपने समय के प्रतिकूल है, परंतु जहां तक प्राचीन काल का संबंध है यह बिल्कुल साधारण सी बात थी।

जैन आगम के “उपासगदसा” से भी इस बात की पुष्टि मिलती है। वहां एक सेठानी ने अपने पीहर से दो गाय के बच्चों (गोपोतक) का मांस मंगवाया था। वस्तुतः आर्यों के आने से ईसवी-सन के आरंभ तक यह भक्ष्य इतना प्रचलित था, कि उसके बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। लेकिन सबसे अधिक प्रिय मांस आर्यों का मोटा भेड़ा और बकरा था। भेड़ के लिए ऋग्वेद (10।27। 17) में कहा गया है “पीवानं मेषमपचन्त वीरा:” (मोटे मेष को वीरों ने पकाया)

 उस काल में घोड़े का मांस भी भक्ष्य था, और उसके पके सोंधे मांस को आर्यजन बहुत चाव से खाते थे। दीर्घतमा ऋषि कहते हैं (1।162। 12) जो घोड़े को अच्छी तरह पका देखते हैं और उसकी सुगंध को बखानते हैं और जो घोड़े के मांस भोजन का सेवन करते हैं।  (ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वं य ईमाहु: सुरभिं निर्हरेति। ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासाते)।

यह पहले ही  बतलाया जा चुका है कि ऋग्वेद का काम इतिहास या सामाजिक जीवन का चित्रण करना नहीं है। वहां देवताओं की प्रशंसा के प्रसंग में ही कहीं-कहीं दूसरी बातें आती हैं। उससे यह मालूम ही होता है कि प्रधान तौर से मांसभोजी आर्य गौ,  अश्व,  अजा, अविका मांस खाते थे। मछली खाते तो जरूर होंगे पर ऋचाओं में उसका उल्लेख नहीं है।

ऋग्वैदिक कालीन छिरपाक

क्षीरपाक—-कई तरह का गोरस भी उनका प्रधान भोजन था। घृत तो मुख्य था ही, पुरोडाश (4।24।5)  भी उनका और उनके देवताओं का प्रिय खाद्य था, जो शायद दूध और किसी अन्न  को मिलाकर बनाया जाता था। पीछे तो खीर का यह पर्याय हो गया, लेकिन ऋग्वेद में चावल का कहीं उल्लेख नहीं है, अधिकतर जौ का नाम आया है। हो सकता है जौ की दलिया को दूध में पकाया जाता हो जिसे वह पुरोडाश कहते थे।

विश्वामित्र (3। 28। 2 भी पुरोडाश के पकाने की बात कहते हैं। दूध या दही से एक तरह का भोजन आशिर तैयार किया जाता था, जिसका उल्लेख बहुत जगह पर हुआ है——(1।134।6,  3।53।14;   8।2।10,11;   9।75।5;   86. 21.   10।49।10;   67।6) आशिर कई तरह के होते थे, जैसे गवाशिर , दध्याशिर। गवाशिर (3।42।1,7) और दध्याशिर (5।51।7)  दोनों भोजन सोम और दूध-दही के योग से अथवा दूध-दही और दूसरी चीजों के मिश्रण से बनते थे। एक जगह (8।77।10) क्षीरपाक का उल्लेख है।

आजकल खीरपाक दूध में पके चावल का ही दूसरा नाम है। उस समय क्षीर के साथ पका हुआ दूसरा अन्न जौ हो सकता था। पशुपालन की प्रधानता रखने वाले आर्यों के भोजन में मांस और गोरस की प्रधानता थी। मांस में मसाले का उपयोग बहुत पीछे हुआ। लहसुन-प्याज का इस्तेमाल होता था, इसका भी कोई पता नहीं।

घी में तलने या बघाड़ने को छोड़कर और तरह का कोई मसाला उपयोग में नहीं आता था। नमक का पहाड़ सप्तसिंधु की भूमि में था इसलिए वह सुलभ था। हो सकता है, उसका इस्तेमाल किया जाता हो। आग में भूनकर मांस.को खाना यह कृषि युग से पहले भी प्रचलित था।  इस समय तो अब पकाने के लिए उखा ( हंडिया ) का उपयोग होने लगा था (1। 162। 13 ) इसलिए उबले मांस को भी खाया जाता था। “सुरभि पक्वं मांस” से भी इसी बात की पुष्टि होती है। 

ऋग्वैदिक कालीन अन्न

2– अन्न—-अन्न का अर्थ पुराने काल में भोजन होता था, लेकिन धान्य की प्रचुरता के कारण अब अन्य अनाज के अर्थ में प्रयुक्त होता है। तभी तो एक जगह (10।146।6) कहा गया है—-“बहवन्नाकृषिक्लां” ( किसान रहित बहुत अनाजवाली)। इससे किसान और अनाज का संबंध निश्चत है। “धाना, करंभ, अपूप” (8।80।2) धाना, करंभ (3।52।1,7 ) , करंभ 6।56।1,   5 ।   7 । 2) के उल्लेख भारद्वाज, विश्वामित्र और वामदेव जैसे प्राचीन ऋषियों ने अनेक बार किये हैं। धाना भुने हुए अनाज को कहते हैं। आज भी उसे दाना कहा जाता है। करंभ सत्तू का नाम था , और अपूप रोटी को कहते थे।

आजकल पूआ मालपूआ यद्यपि एक खास खास तरह के बहुत स्वादिष्ट धृतपक्व भोजन को कहते हैं,  लेकिन ऋग्वैदिक आर्यों का अपूप कण्डे पर या मिट्टी के तवे पर पकाई रोटी होगी। कृषि के आरंभिक युग में तंदूर की रोटी मध्य एशिया में अनेकों लोगों को मालूम थी, और तंदूर आज भी सप्तसिंधु की रोटियों के लिए प्रसिद्ध है। हो सकता है , आर्य लोग तंदूरी रोटियाँ पकाते  हों। इसके अतिरिक्त  सक्तु (10।71।2) का भी उल्लेख है जो करंभ का ही दूसरा नाम था।

सत्तू को छानकर इस्तेमाल करते थे, जैसा कि “सक्तुमिव तितउना’ से मालूम होता है। भोजन बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली चीजों में उलूखल (ओखल)  (1। 28।1) तितउ ( छलनी ),  एक प्रकार की हांडी चषाल (1।162। 6) और उखा का उल्लेख हुआ है। हो सकता है इससे अधिक भी पात्र रहे हों। कम से कम मोहनजोदड़ो में इस्तेमाल होने वाले पात्रों को तो आर्य अपने सामने देख रहे थे। 

आर्य कृषि भी करते थे, यह कृषि बल (किसान) (10।146। 6 ) से ही मालूम होता है। भूमि क्षेत्र और अरण्य में विभक्त थी (6।61।14) जिन क्षेत्रों में वह जौ की खेती करते थे, और अरण्य पशुओं के चराने के काम आते थे। जाड़े में वनों के पत्ते झड़ जाते थे—-“हिमेव पर्णा मुषिता वनानि” (10।68।10) आजकल इसे ऊंचे पहाड़ों  मैं ही देखा जा सकता है।

सप्तसिंधु के कम से कम मध्य और पूर्वी भाग में इतना जाड़ा नहीं होता था कि हिमकाल में वृक्षों पर पत्ते न रहे। उनके गिरने का समय जाड़ों के अंत में आता है। पत्तों और घासों की पशुपालों को बड़ी आवश्यकता थी, इसलिए ऋतु-अनुसार जो परिवर्तन आते थे, उनकी ओर उनका ध्यान जाता था।

उनकी खेती में जौ की प्रधानता थी। खेतों को वह बैलों से जोतते थे—–“गोभिर्यवं न चर्कृषत्” (1।23।14   जैसे बैलों से जौ  के खेतों को जोता जाये)। खेती के लिए नेहरों का इस्तेमाल करते थे। यह नहरें छोटी नालियां होंगी जिनको कुल्या (5।83।8) कहते थे। आजकल भी पहाड़ों में इन्हें कूल या या गुल कहते हैं।

हल (लांगल) का भी जिक्र (4।57।4) वामदेव ऋषि ने किया है और उन्होंने ही जोतीहुई हराई सीता(4।57।4)  और फाल (4।57।8)  का जिक्र किया है। लांगल में आजकल लोहे का फाल इस्तेमाल करते हैं। उस समय लोहा अज्ञात था, ताँबे का फाल भी लग सकता था, लेकिन ताँबा अभी महार्घ धातु थी। इसलिए फाल भी लकड़ी का रहा होगा हां अपेक्षाकृत कड़ी लकड़ी का। 

फल भी आर्य लोगों का भज्य था। वह जो कृषि और गोपालन से अपरिचित जातियों के लिए भी  जंगल में सुलभ था। आर्य “स्वादों: फलस्य जग्ध्वाय” (10।146।5, स्वादिष्ट स्वादु फल खाने) की बात कहते हैं। जंगली फल संयोग से भले स्वादु निकल आयें, नहीं तो अधिकतर वह स्वादिष्ट नहीं होते, यह हम जंगली सेब, नाशपाती, अंगूर या जंगली जामुन, शरीफे, आम आदि के को देखकर जानते हैं। फलों को स्वादिष्ट बनाने के लिए बगीचों के लगाने की जरूरत थी, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में ही नहीं बल्कि काफी पीछे तक नहीं मिलता।

आर्य लोग जंगलों में स्वतः उगे वृक्षों के ही स्वादु फलों पर संतोष करते होंगे। पक्व फल वृक्ष (3।54।4) का भी उल्लेख देखा जाता है। आर्यों के भोजन में भी फल भी शामिल थे। जिन्हें वह सुखाकर रख सकते थे, और दूसरे समय में भी इस्तेमाल करते रहे होंगे। पंजाब की भूमि में कौन से फल वृक्ष प्राकृतिक रूप से में मौजूद थे, इनकी गिनती करना मुश्किल है। आम रहा होगा, जामुन भी होगी, करौंदे, कुंदरू जैसे फल भी रहे होंगे, केला के होने में संदेह है क्योंकि उसे अधिक वर्षा की जरूरत है। कटहल-बड़हल अभी भी पंजाब में दुर्लभ फल हैं। जंगली बेर जरूर रही होगी।                             

ऋग्वैदिक कालीन पान

 गोरस-संबंधी पान अर्थात दूध, दही, छाछ उनके सबसे प्रिय और सुलभ थे, जैसा कि अब भी पंजाब में देखा जाता है।  सत्तू खाने में दही का इस्तेमाल जो पीछे देखा जाता है उस समय भी रहा होगा। बहुत अधिक गायों के रखने से छाछ या दही बहुत अधिक पैदा होता होगा। पनीर की शक्ल में सुखाकर रखने का रिवाज था, या नहीं , इसके बारे में नहीं कहा जा सकता। पिछले काल में पनीर की तरह की ही एक गीली-सी चीज अमिक्षा का उल्लेख मिलता है। आर्य मधु से (10।106।10)सुपरिचित थे बल्कि वह इस खाद्य से बहुत पहले से परिचित थे, क्योंकि आर्यों के दूर के संबंधी रूसियों के पूर्वज भी से जानते थे, यह दोनों भाषाओं में मधु और मेदु के एक-से नाम से मालूम होता है।

ऋग्वैदिक कालीन सोमरस

1-सोम— आर्यों का सबसे प्रिय पेय था। सोम का उल्लेख ऋग्वेद के सारे नवे मंडल और सैकड़ों दूसरी ऋचाओं में हुआ है। सोम कोई ऐसी पेय चीज नहीं थी, जो कि दुर्लभ होने के कारण बहुत कम लोग ही उसे पी सकते हों। उनके घड़े के घड़े (चमू) भरे रहते थे  (9।20।6)। सोम छनने में छना जाता था। छना हुआ (सुत) सोम उस समय के आर्यों का बहुत प्रिय पान था। सोम उनके लिए दिव्य वस्तु था। ऋषि मधुच्छन्दा कहते हैं (9।1।1 ) “स्वादिष्टया मदिष्टया पवस्व सोम धारया। इन्दाय पातवे सुतः।”इंद्र के पीने के लिए छाने हुए हे सोम, स्वादिष्ट और मादिष्ठ धारा से क्षरित होओ) ।

सोमपान स्वादिष्ट भी होता था। स्वादु ही नहीं, बल्कि अत्यंत स्वादु और मदिष्ट भी। कहते हैं (8।48।3)—-अपाम सोमं अमृता भवेम’ ( हमने सोम पिया और अमर हो गये)। सोम दुर्लभ अमृत संजीवनी का नाम नहीं था। सोम घड़ों के घड़े तैयार किए जाते थे—- “सोम: चमूषु: (9।20।6)। मदिर सोम (8।21।5 ) आर्यों का नित्य प्रति का पान था।

सोम-यज्ञ में विशेष तौर से पीने का विधि-विधान पीछे हुआ। हम देख चुके हैं कि पके घोड़े के मांस की तारीफ सोंधा-सोंधा कह कर आर्य लोग करते थे, यह मांस केवल अश्वमेध यज्ञ तक ही सीमित नहीं था। उसी तरह मदिर सोम का पान केवल सोम यज्ञ तक ही सीमित नहीं था। शाम के वक्त नृत्य और पानगोष्ठी के स्वच्छन्द और सुखी जीवन का एक अभिन्न अंग थी। उसकी समय घड़ों सोम की जरूरत होती थी। 

सोम को भांग बतलाने पर पुराणपंथी चौंक उठते हैं। प्राचीनों ने उसके बारे में बहुत सी गप्पे उड़ाई हैं। चंद्रमा का भी नाम सोम है इसलिए सोम को उनके साथ जोड़कर कहते हैं— सोमलता चंद्रमा की तरह एक-एक अंश बढ़ती पूर्णिमा को अपनी पूरी ऊंचाई पर पहुंचती है, उसके बाद घटते-घटते अमावस्या को अत्यंत खर्ब हो जाती है। कोई वनस्पति ऐसी देखने में नहीं आती। सूर्य के प्रकाश या हाथ के स्पर्श से छुई-मुई हो जाने वाली लाजवंती का हमें पता है। ऐसे भी बनस्पति मालूम है जो कीड़ों-मकोड़ों को अपने विशेष स्थान पर पकड़ कर भख जाते हैं। लेकिन कला-कला बढ़ने-घटने वाली वनस्पति का हमें पता नहीं है।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि साढ़े हजार वर्ष पहले जो वनस्पति इतने परिमाण में मौजूद थी, कि उसका घड़ों रस तैयार किया जा सके और अब वह बिल्कुल अच्छिन्न हो जाये। वस्तुतः सोम के साथ धीरे-धीरे जिन सैकड़ों दिव्य गुणों को जोड़ दिया गया, वह भांग में नहीं है। भांग कितनी ही जगहों में अधिक उपजने वाली बेहया बनस्पति है, जिसको लोग भाड़ झोंकने के काम लाते हैं; इसलिए दिव्या सोम ही भांग है; इसे वह कैसे मानने के लिए तैयार हो सकते थे? पर सोम है वस्तुतः भांग।

तिब्बत में आज भी उसे सोमराजा कहते हैं। पठान लोग भांग को “ओम” कहते हैं। जो सोम से होम होकर बना है। सोम में दूध और मधु मिलाकर सोमरस तैयार किया जाता था। दूधिया भांग अपने स्वाद के लिए हमारे यहां प्रसिद्ध है ही। अगर पता न हो तो सामने रख देने पर आदमी लोटा भर भांग पी सकता है। भांग की माजून उस समय नहीं बनती थी, जिसकी खोये वाली बर्फी अपने स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। एक बार खतरे को न जानकर इन पंक्तियों के लेखक ने  कई वर्फीयाँ खा डालीं, जिस का दंड हफ्तों भुगतना पड़ा। सोम को बहुत स्वादिष्ट बनाते थे, उसकी स्वादिष्ट धारा की बड़ी ख्याति थी। और मदिर होने से वह गम-गलत करने के लिए किसी भी नशीली चीज से कम नहीं था।

आर्य स्वास्थ्य प्रेमी थे। पशुपालन का जीवन परिश्रम का जीवन होता है। फिर भी आर्यो को सैनिक का जीवन भी बिताना पड़ता था, इसलिए दुर्बल आदमियों की उनके यहां कदर नहीं हो सकती थी। इंद्र उनके  इष्टदेवता पौरूष के आगर थे। उनके लिए कहा गया है (8।17।8)—-“तुबिग्रीव: बपोदर: सुबाहु:”( पुष्ट गर्दन चर्बीदार पेट और सुंदर भुजाओं वाला)।

चर्बी वाला पेट अर्थात तोंद को शायद इंद्र के प्रौढ़ होने के ख्याल से कहा गया है, नहीं तो आर्य-तरुणों का आदर्श तुदिल शरीर नहीं हो सकता। हां , मोटी गर्दन और बलिष्ठ भुजा के साथ विशाल छाती को वह पसंद करते थे, जैसा कि गुप्तकाल की मूर्तियों और अजंता के चित्रों में देखा जाता है। भारद्वाज के बुढ़ापे का चित्र ऐतरेय ब्राह्मण (3।5।49) में मिलता है, जहां वह दुबले लंबे और श्वेतकेश (कृश, दीर्घ,  पलित) बतलाए गए हैं। तरुणाई में वह पलितकेश नहीं स्वर्णकेश रहे होंगे, लंबे होंगे और मांसल, पर छरहरा बदन रहा होगा। 

आर्यों का खानपान बहुत पुष्टिकर और स्वास्थ्यकर था। सप्तसिंधु की गर्मियां उस समय भी असह्य रही होंगी, लेकिन अब 15 पीढ़ियों से रहते वह उनके लिए सह्य हो गई होगी। पंजाब (सप्तसिंधु) आज की तरह ही तब भी अधिक स्वास्थ्यकर रहा होगा। सत्तू-रोटी और मांस-गोरस का उस समय कोई अभाव न था।

कृषि और गोरक्ष्य ही उनकी जीविका के साधन थे, गौओं की लूट से भी कभी-कभी आमदनी हो जाती थी। पर अब सारी सप्तसिंधु भूमि उनकी अपनी थी, आर्य भिन्न लोग भी उनके अधीन थे; इसलिए वह तीन शताब्दियों पहले की तरह अपने लिए भी लूट की छूट नहीं कर सकते थे। उनके कर्म कर्मठ जीवन को कायम रखने के लिए उत्तर के पहाड़ों के शम्बर और उसकी जाति वाले शत्रु मौजूद थे। 

2-सुरा– सप्त सिंधु के सोमभक्त आर्य सुरा से कोई वास्ता नहीं रखते थे, यह तो नहीं कह सकते; पर उसे हीन दृष्टि से देखते थे,  यह मेघातिथि काण्व की निम्न ऋचा (8।2)से मालूम होता है—-

” जैसे शराब पिये बदमस्त हो हृदय में लड़ते, नंगे गो-स्तनों की तरह रहते हैं।।12।।”

  वशिष्ठ भी सुरा को नापसंद करते थे (7।86)—-

     ” हे वरुण अपने बस नहीं बल्कि सुरा, क्रोध, जुआ, अज्ञान से वह दोष होता है। जेठा कनिष्ठ को स्वप्न भी (उन्हें) पाप में ले जाता है।।6।।”

     पर सुरा के प्रेमी भी थे, तभी तो कहा गया (10।107।9)—– भोज (दाता) सुरा को पाते हैं ।


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