टीपू सुल्तान जीवनी: जन्म, संघर्ष मृत्यु, आंग्ल-मैसूर युद्ध,असली फोटो और इतिहास हिंदी में

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टीपू सुलतान जिसे आमतौर पर कई नामों से जाना जाता है जैसे-फ़तेह अली टीपू, टाइगर ऑफ़ मैसूर, टीपू साहिब, टीपू सुल्तान। टीपू सुल्तान अपने पिता हैदर अली की मृत्यु के पश्चात् मैसूर की गद्दी पर बैठा और अपने पिता के समान ही अंग्रेजों से अपने जीवन के अंत तक युद्ध करता रहा। टीपू पर कई तरह के विचार सामने आते हैं। वर्तमान  में भारत में कुछ हिन्दुओं का मनना है कि उसने हिन्दू प्रजा पर बहुत अत्याचार किये तो कुछ लोग उसे राष्ट्रवादी के तौर पर पेश करते हैं। इस ब्लॉग में हम यही जानने का प्रयास करेंगें कि वास्तविकता क्या है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही टीपू सुल्तान का मूल्यांकन होना चाहिए न कि उसके मुसलमान शासक होने के कारण अच्छा या बुरा घोषित किया जाये। 

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टीपू सुल्तान जीवनी: जन्म, संघर्ष मृत्यु, आंग्ल-मैसूर युद्ध,असली फोटो और इतिहास हिंदी में
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टीपू सुल्तान जीवनी-टीपू सुल्तान का जीवन परिचय 

टीपू सुल्तान (Tippu Sultan), जिसे टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) भी कहा जाता है, जिसे टीपू साहिब या फतेह अली टीपू भी कहा जाता है,इसके अलाबा उसे मैसूर का टाइगर  भी कहा जाता है, उसका जन्म 20 नवंबर 1750 ईस्वी में , कर्नाटक के देवनहल्ली में  हुआ था। – तथा उसकी मृत्यु 4 मई, 1799, सेरिंगपट्टम [अब श्रीरंगपट्टन]) .उनके पिता, हैदर अली ने 1761 के आसपास खुद को मैसूर का मुस्लिम शासक बना लिया। कम उम्र से ही टीपू अपने पिता के साथ सैन्य अभियानों में शामिल हुआ , उसने पहले और दूसरे मैसूर युद्ध दोनों में अपने पिता के साथ युद्ध में भाग लिया।

टीपू को अपने पिता हैदर अली, जो मैसूर के मुस्लिम शासक थे, के नियोजन में फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा सैन्य रणनीति में प्रशिक्षण दिया गया था। 1767 में टीपू ने पश्चिमी भारत के कर्नाटक (कर्नाटक) क्षेत्र में मराठों के खिलाफ घुड़सवार सेना की कमान संभाली, और उन्होंने 1775 और 1779 के बीच कई मौकों पर मराठों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दूसरे मैसूर युद्ध के दौरान उन्होंने कर्नल जॉन ब्रैथवेट को तट पर हराया। कोलिडम (कोलरून) नदी (फरवरी 1782)।

टीपू दिसंबर 1782 में अपने पिता का उत्तराधिकारी बनाया और 1784 में अंग्रेजों के साथ शांति स्थापित की और मैसूर के सुल्तान की उपाधि धारण की। हालांकि, 1789 में, उन्होंने अपने सहयोगी, त्रावणकोर के राजा पर हमला करके ब्रिटिश आक्रमण को उकसाया। उन्होंने अंग्रेजों को दो साल से अधिक समय तक खाड़ी में रखा, लेकिन सेरिंगपट्टम (मार्च 1792) की संधि के द्वारा उन्हें अपने आधे प्रभुत्व को सौंपना पड़ा। वह बेचैन रहा और उसने अनजाने में क्रांतिकारी फ्रांस के साथ अपनी बातचीत को अंग्रेजों को जाने दिया। उस बहाने गवर्नर-जनरल, लॉर्ड मॉर्निंगटन (बाद में वेलेस्ली के मार्क्वेस) ने चौथा मैसूर युद्ध शुरू किया।

4 मई, 1799 को टीपू की राजधानी सेरिंगपट्टम (अब श्रीरंगपट्टन) पर ब्रिटिश नेतृत्व वाली सेनाओं ने धावा बोल दिया और टीपू की मौत हो गई, जिससे उसकी सेना टूट गई। टीपू एक सक्षम सेनापति और प्रशासक था, और मुस्लिम होने के बावजूद भी उसने अपनी हिंदू प्रजा के प्रति वफादारी बरकरार रखी। हालांकि, वह अपने दुश्मनों के प्रति क्रूर साबित हुआ और उसके पास अपने पिता के फैसले का अभाव था।

             1782 के आसपास अपने पिता की मृत्यु के बाद टीपू ने मैसूर के शासक के रूप में पदभार संभाला। 

टीपू सुल्तान की राजधानी 

श्रीरंगापट्नम टीपू सुल्तान की राजधानी थी जिसमें बहुत शानदार महलों  का निर्माण कराया गया था।उसकी राजधानी के इमारतों के खण्डहर देखकर उनकी भव्यता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। 

हैदर अली और टीपू सुल्तान के पूर्व हिन्दू शासक कौन थे?

मैसूर की सरदार विजयनगर राज्य के अधीनस्थ थे। 1565 ईस्वी में तालीकोटा अथवा तल्लीकोटा के युद्ध के पश्चात् विजयनगर वंश का ह्रास हो गया। 1612 ईस्वी में विजयनगर के राजा वैंकट द्वितीय ने एक राजा वडियार ( राजा शब्द उसके नाम का भाग था उपाधि नहीं ) को मैसूर के राजा की उपाधि प्रदान कर दी।

सत्रहवीं शताब्दी में वाडियार वंश ने अपने राज्य ( मैसूर ) का पर्याप्त विस्तार  लिया था।1732 में इम्मदी कृष्णराज (अल्पवयस्क राजकुमार ) गद्दी पर बैठा और यहीं से मैसूर का ह्रास शुरू हो गया। मैसूर की सत्ता मुख्य सेनापति देवराज तथा राजस्व तथा वित्त मंत्री नंजराज के हाथ में आ गयी। इसी मराठों के निरंतर आक्रमणों – 1735, 1754, 1757, तथा 1761 ने मैसूर को जमकर लूटा। देवराज इन आक्रमणों को रोकने में असमर्थ रहा। ऐसे में हैदरली नामक वीर सैनिक सामने आया और 1761 में मैसूर की गद्दी का वास्तविक शासक बन गया। 

आंग्ल-मैसूर युद्ध और हैदरअली का अंत 

 आंग्ल मैसूर युद्ध 1767-69 – 

अंग्रेजों ने हैदरअली के विरुद्ध निजाम, मराठों तथा कर्नाटक के नवाब के साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाया लेकिन हैदरअली ने एक कुशल कूटनीति से मराठों को धन देकर, निजाम को प्रदेश का प्रलोभन देकर अपनी और कर लिया और कर्नाटक आक्रमण कर दिया।डेढ़ वर्ष तक अनिर्णायक युद्ध चलता रहा मगर हैदर अली ने जैसे ही मद्रास पर घेरा डाला भयभीत अंग्रेजों ने सन्धि (4  अप्रैल 1769 ) कर ली। अंग्रेजों को हैदरअली की सहायता का बचन देना पड़ा। 

दूसरा आंग्ल- मैसूर युद्ध 1780- 84 

1769 की सन्धि अंग्रेजों की सिर्फ एक चाल थी जबकि अंग्रेज हैदरअली विरुद्ध मोर्चा बनाते रहे। 1771 में मराठों ने हैदरअली के राज्य पर आक्रमण किया ,मगर संधि के अनुसार अंग्रेजों ने हैदरअली  की सहायता नहीं की। 

दूसरी और पश्चिम में अमरीका का स्वतंत्रता संग्राम छिड़  चुका था। फ्रांसीसी जोकि अमेरिका की ओर से लड़ रहे थे अतः भारत में वारेन हेस्टिंग्स को हैदर अली और फ्रांसीसियों के संबंधों पर शक था। इसी बीच अंग्रेजों ने माही को जितने का प्रयास किया जिसे हैदरअली अपने अधिकार में समझता था, अतः हैदरअली ने अंग्रेजों का विरोध किया।

हैदरअली ने कूटनीति से मराठों और निजाम के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर कर्नाटक पर आक्रमण कर कर्नल बेली के अधीन अंग्रेजी सेना को हराकर अरकाट को जीत लिया।

अंग्रेजों ने बाजी पलटते हुए निजाम तथा मराठों को अपनी ओर कर लिया। पोर्टो नोवो के स्थान पर हैदरअली परास्त हुआ ( नवंबर 1731 ) . लेकिन अगले ही वर्ष हैदरअली ने कर्नल ब्रेथवेट के अधीन अंग्रेजों को बुरी तरह हराया। दुर्भाग्यवस 7 दिसंबर 1782 को हैदरअली की मृत्यु हो गयी।  अब युद्ध का भार टीपू सुल्तान के कन्धों पर आ गया और उसने एक वर्ष तक अनिर्णायक युद्ध जारी रखा।  अंत में मंगलोर की संधि 1784 से शांति स्थापित हो गयी। 

टीपू सुल्तान शासक के रूप में

अपने पिता की मृत्यु के बाद टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना और उसने अपने पिता की युद्ध नीति को जारी रखते हुए अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी।  

टीपू सुल्तान जीवनी: जन्म, संघर्ष मृत्यु, आंग्ल-मैसूर युद्ध,असली फोटो और इतिहास हिंदी में
स्रोत – The British Library Board ऑनलाइन

तृतीय आंग्ल- मैसूर युद्ध 1790-92 

मंगलोर की संधि अंग्रेजों के लिए सिर्फ युद्ध की तयारियों का मौका थी। यद्यपि 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में स्पष्ट था कि कम्पनी अब किसी देशी राज्य को जीतने का प्रयास नहीं करेगी मगर लार्ड कार्नवालिस ने 1790 में टीपू के विरुद्ध निजाम और मराठों के साथ मिलकर युद्ध करने का निर्णय किया। 

ऐसी स्थिति में टीपू सुल्तान को युद्ध अनिवार्य लगने लगा अतः उसने तुर्की के सुल्तान से सहायता का प्रयास किया।
टीपू सुल्तान ने 1784 और 1785 में कुस्तुन्तुनिया ( आधुनिक इंस्ताबुल ) को एक राजदूत भेजा। 1787 में एक दूतमण्डल फ्रांस भी भेजा गया।


त्रावणकोर के राजा से विवाद पर टीपू सुल्तान ने 1790 में त्रावणकोर के राजा पर टीपू के आक्रमण करने अपर अंग्रेजों ने त्रावणकोर का पक्ष लिया और लार्ड कार्नवालिस ने एक बड़ी सेना के साथ टीपू पर आक्रमण कर दिया। टीपू ने खुदको जब अंग्रेजों, मराठों और निजाम की सेनाओं से घिरा पाया तो उसने मार्च 1792 में श्रीरंगापट्टम की सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार उसके राज्य का लगभग आधा भाग अंग्रेजों और उनके साथियों के हिस्से आ गया। टीपू को 3 करोड़ रुपया युद्ध हर्जाने के रूप में देना पड़ा।

चौथा आंग्ल- मैसूर युद्ध 1799 तथा टीपू सुल्तान का अंत

1798 में लार्ड वैलेजली भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। वह एक  सम्राज्यवादी था और उसने टीपू को जड़ से खत्म करने का निर्णय लिया।  उसने सहायक संधि का सहारा लेकर टीपू पर यह आरोप लगाया कि वह मराठों और निजाम के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध षंडयंत्र कर रहा है। 4 मई 1799 को अंग्रेजों ने श्रीरंगापट्टम पर अधिकार कर लिया टीपू सुल्तान लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त  हुआ। समस्त प्रदेश अंग्रेजों ने अपने संरक्षण में ले लिया और बड्यार वंश का एक छोटा सा बालक मैसूर का का राजा बना दिया और मैसूर सहायक संधि के अंतर्गत अंग्रजों के संरक्षण में ले लिया गया। 

टीपू सुल्तान का मूल्यांकन 

  • टीपू एक निरंकुश शासक था जैसे अन्य शासक थे। 
  • उसने पाश्चात्य परम्पराओं को अपनी प्रजा पर लागू करने का प्रयत्न किया। 
  • टीपू ने यूरोपीय पद्धति पर अपनी सेना का गठन किया।
  • टीपू सुल्तान की माता का नाम फातिमा था।
  • टीपू सुल्तान को अरबी, फ़ारसी, कन्नड़ और उर्दू भाषा का पूर्ण ज्ञान था।
  • उसे घुड़सवारी, बंदूक तथा तलवारबाजी में महारत हासिल थी।
  • टीपू सुल्तान ने श्रीरंगापट्टम में जैकोबिन क्लब की स्थापना की। उसने श्रीरंगपट्टम में “स्वतंत्रता का वृक्ष” लगाया और स्वयं जैकोबिन क्लब की सदस्यता ली।  उसे “नागरिक टीपू” की संज्ञा  भी ली।
  • 1787 में टीपू सुल्तान ने “पादशाह ” की उपाधि ग्रहण की।
  • उसने अपने नाम के सिक्के चलाये और उन पर अरबी नामों का प्रयोग किया।
  • 1791 में मराठों के आक्रमण से क्षतिग्रस्त हुए श्रृंगेरी मंदिर की मरम्मत कराकर उसमें शारदा देवी की मूर्ति की स्थापना के लिए टीपू सुल्तान ने धन दिया। उसने कभी किसी हिन्दू मंदिर में पूजा का विरोध नहीं किया।
  • टीपू सैंकड़ों हिन्दू और मुस्लिम शासक जो अंग्रेजों के पिट्ठू बन गए के स्थान पर कभी न झुकने का निर्णय किया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ। 

    टीपू सुल्तान की तलवार का वजन 7 किलो 400 ग्राम था। जिस पर टाइगर खुदी हुई है। 2003 में विजय माल्या ने नीलामी से 21 करोड़ में यह तलवार खरीदी थी।

  •  हैदर अली पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने बेटे टीपू सुल्तान को पढ़ाया।
  •  15 साल की उम्र में, टीपू सुल्तान ने 1766 में अंग्रेजों के खिलाफ मैसूर की पहली लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।
  • टीपू सुल्तान को ‘tiger of mysore’ भी कहा जाता था। इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है। कहा जाता है कि एक बार टीपू सुल्तान एक फ्रांसीसी मित्र के साथ जंगल में शिकार कर रहा था। दोनों पर एक बाघ ने हमला किया था। नतीजतन, उसकी बंदूक जमीन पर गिर गई। बाघ से डरे बिना उसने बंदूक उठाई और बाघ को मार डाला। तभी से उन्हें “मैसूर के बाघ” के रूप में जाना जाता है।
  •  टीपू सुल्तान सुन्नी इस्लाम धर्म से संबंध रखता है।
  •  भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को दुनिया के पहले युद्ध रॉकेट का प्रर्वतक कहा। उन्होंने जिस रॉकेट का आविष्कार किया वह आज भी लंदन के एक संग्रहालय में रखा हुआ है।
  • टीपू सुल्तान को बागवानी का बहुत शौक था और इस तरह उन्होंने बैंगलोर में 40 एकड़ के लालबाग बॉटनिकल गार्डन की स्थापना की।
  •  टीपू सुल्तान को ब्रिटिश काल में सबसे शक्तिशाली शासक माना जाता था और उनकी मृत्यु ब्रिटेन में मनाई जाती थी। प्रसिद्ध ब्रिटिश उपन्यास ‘मूनस्टोन’ में जिस प्रकार की लूट का उल्लेख है वह टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद श्रीरंगपट्टनम में देखने को मिला।
  •  टीपू सुल्तान ने एक किताब ‘ख्वाबनामा’ लिखी जिसमें उन्होंने अपने सपनों के बारे में उल्लेख किया है

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