261 ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा कलिंग पर आक्रमण कर कलिंग को मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। परन्तु सम्राट अशोक की मृत्यु के तत्पश्चात उसके कमजोर उत्तराधिकारियों के कारण शिथिल हुयी मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था का लाभ उठाकर कलिंग स्वतंत्र हो गया।
कलिंग का चेदि राजवंश
प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में कलिंग भारत के एक अत्यंत शक्तिशाली राज्य के रूप में विख्यात था। चेदि भारत की एक अति प्राचीन काल से प्रसिद्ध जाति थी और इस समय यहाँ चेदि वंश के ‘महामेघवाहन’ कुल का शासन था। चेदि महाजनपद को हम बुद्ध काल में भी विद्यमान पाते हैं। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में चेदि महाजनपद जिसमें आधुनिक बुन्देलखंड तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश सम्मिलित थे। चेटीय जातक में चेदियों की राजधानी ” सोत्थिवती’ बताई गयी है। महाभारत में इसे शुक्तिमती ( शक्तिमती ) कहकर पुकारा गया है। सम्भवतः इसी चेदि वंश की एक शाखा कलिंग में जाकर बस गयी और एक स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की। कलिंग के स्वतंत्र चेदि राजवंश की व्यक्ति स्थापना की सम्भतः वह ‘महामेघवाहन’ नामक व्यक्ति था।
महाराज खारवेल
महामेघवान जो सम्भवतः इस वंश संस्थापक माना जाता है अतः इस वंश को महामेघवान वंश के नाम से जाना जाता है। खरवेल इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक हुआ। खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास का एक महानतम सम्राट हुआ।
वर्तमान कलिंग प्रदेश
कलिंग प्रदेश वर्तमान में उड़ीसा प्रदेश है।
हाथीगुम्फा शिलालेख किस शासक से संबंधित है
वर्तमान उड़ीसा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर ( पुरी जिला ) से तीन मील की दुरी पर स्थित उदयगिरि पहाड़ी की “हाथीगुम्फा” से खारवेल का एक बिना तिथि का अभिलेख प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख से खारवेल का बचपन, शिक्षा, राज्याभिषेक तथा राजा बनने के पश्चात् का तेरह वर्षों का इतिहास है। यह क्रमबद्ध रूप में वर्षवार अंकित है। खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल के विषय में एकमात्र अभिलेखीय स्रोत और उसी के आधार पर हम उसके शासनकाल तथा उसकी उपलब्धियों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।
हाथीगुम्फा अभिलेख प्राकृत भाषा में है।
हाथीगुम्फा अभिलेख फोटो स्रोत – विकिपीडिया |
खारवेल का प्रारम्भिक जीवन
हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार खारवेल इस वंश का तीसरा शासक था. खारवेल एक प्रमुख शासक थे, जो कलिंग के प्राचीन साम्राज्य से थे, जो वर्तमान भारत के ओडिशा में स्थित था। खारवेल का प्रारंभिक जीवन काफी हद तक रहस्य में डूबा हुआ है, और उनकी पृष्ठभूमि और प्रारंभिक वर्षों के बारे में अलग-अलग मत हैं। हालाँकि, ऐतिहासिक शिलालेखों और उपलब्ध जानकारी के आधार पर, यहाँ खारवेल के प्रारंभिक जीवन के बारे में जाना जाता है:
जन्म और परिवार: खारवेल का जन्म कलिंग के शाही परिवार में हुआ था, और वह राजा कुदेपसिरी और रानी रत्नप्रिया के पुत्र थे। कुछ स्रोतों से यह भी पता चलता है कि वह राजा महामेघवान के पोते थे।
शिक्षा और प्रशिक्षण: खारवेल ने राजकुमार के अनुरूप एक व्यापक शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्हें शासन, युद्ध और प्रशासन सहित विभिन्न क्षेत्रों में तैयार किया गया था। वह युद्ध, तीरंदाजी और घुड़सवारी की कला में निपुण थे, जो बाद में उनके सैन्य अभियानों के दौरान फायदेमंद साबित हुआ।
सिंहासन पर आरोहण: खारवेल अपने पिता, राजा कुदेपसिरी के निधन के बाद, अपेक्षाकृत कम उम्र में कलिंग के सिंहासन पर चढ़े। जिस उम्र में वह राजा बना वह स्पष्ट नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि यह दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास था।
प्रारंभिक उपलब्धियां: हाथीगुम्फा शिलालेख के अनुसार, उदयगिरि में पाया गया एक प्रसिद्ध शिलालेख, खारवेल ने अपने शासनकाल के आरंभ में सैन्य विजय और बुनियादी ढांचे के विकास के एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरुआत की। उन्हें सफल सैन्य अभियान चलाने, कलिंग के क्षेत्र का विस्तार करने और प्राचीन भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में अपना राज्य स्थापित करने के लिए जाना जाता है।
धार्मिक झुकाव: खारवेल जैन धर्म के संरक्षक के रूप में जाने जाते थे, और उन्होंने जैन धर्म का पालन किया। उन्हें अपने शासनकाल के दौरान जैन धर्म के प्रसार और प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान देने का श्रेय दिया जाता है। उनके कई शिलालेखों में जैन धार्मिक गतिविधियों के उनके संरक्षण और जैन संस्थानों के लिए उनके समर्थन का उल्लेख है।
विरासत: खारवेल को प्राचीन कलिंग के महानतम शासकों में से एक के रूप में याद किया जाता है। उनके शासनकाल को कलिंग के इतिहास में एक स्वर्णिम काल माना जाता है, जो सैन्य सफलताओं, क्षेत्रीय विस्तार और कला, संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए जाना जाता है। उनके शिलालेख अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत माने जाते हैं।
खारवेल के पिता का नाम
मंचपुरी गुफा के एक लेख में वक्रदेव नामक महामेघवान शासक का उल्लेख मिलता है। डी० सी० सर्कार तथा ए० के० मजूमदार जैसे विद्वान इसे ही कलिंग के चेदि वंश का दूसरा शासक तथा खारवेल का पिता बताते हैं। परन्तु यह एक अनुमान है वह राजा कुदेपसिरी और रानी रत्नप्रिया के पुत्र थे।
खारवेल का बचपन
हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार खारवेल को जन्म से 15 वर्ष की आयु तक अन्य राजकुमारो के साथ क्रीड़ा तथा शिक्षा प्राप्त हुयी। वह गौरे रंग का स्वस्थ नौजवान था। वह सभी विद्याओं में पारंगगत था। पंद्रह वर्ष की अवस्था में वह युवराज बना। नौ वर्ष तक वह युवराज के रूप में शासन कार्यों में भाग लेता रहा और पारंगत हो गया। 24 वर्ष की आयु में उसका राज्याभिषेक हुआ।
खारवेल का विवाह
खारवेल का विवाह ललक हत्थिसिंह नामक एक राजा की कन्या के साथ हुआ जो उसकी प्रधान महिषी बन गयी।
शासक के रूप में खारवेल की उपलब्धियां
शासक बनने के पश्चात् प्रथम वर्ष में उसने राजधानी कलिंग नगर में निर्माण कार्य कराये।
- तूफान से ध्वस्त तोरणों और प्राचीरों की मरम्मत कराई।
- शीतल जल से युक्त तालाबों का निर्माण कराया।
- एक शक्तिशाली सेना एकत्र करके उसने शातवाहन नरेश शातकर्णि के राज्य पर धावा बोला मगर शातकर्णि ने इसे कामयाब नहीं होने दिया।
- राज्यारोहण के तीसरे वर्ष खारवेल ने अपनी राजधानी में संगीत, वाद्य, नृत्य, नाटक आदि के अभिनय द्वारा भारी उत्सव मनाया।
- राज्याभिषेक के चौथे वर्ष खारवेल ने बरार के भोजकों तथा पूर्वी खानदेश और अहमदनगर के रठीको के विरुद्ध सैनिक अभियान किया।ये सब शासक परास्त हुए और उन्हें कर देने के लिए बाध्य किया गया।
- अपने शासन के पांचवें वर्ष वह तनसुली से एक नहर के जल को अपनी राजधानी ले गया। इस नहर का निर्माण 300 वर्ष पूर्व नन्द राजा द्वारा किया गया था।
- छठे वर्ष खारवेल ने अपनी प्रजा को सुखी रखने के लिए एक लाख मुद्रा व्यय की।
- अपने अभिषेक के आठवें वर्ष खारवेल ने उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया। खारवेल की सेना ने गोरथगिरि ( बराबर की पहाड़ियों ) को पार करके मार्ग में आने वाले दुर्गों को ध्वस्त किया। यह आक्रमण इतना भयंकर था कि यवनराज दिमिति की सेना भयभीत और आतंकित हो गयी और यवनराज भाग खड़ा हुआ। इस यवन शासक की पहचान सुनिश्चित नहीं है। स्टेंकोनो नामक विद्वान ने इसका तारतम्य डेमेट्रियस प्रथम अथवा द्वितीय के साथ किया है।
- नौवें वर्ष में खारवेल ने अपनी उत्तर भारत की विजय के उपलक्ष में प्राची नगर के दोनों किनारों पर ‘महाविजय प्रासाद’ बनवाये। उसने ब्राह्मणों को दानादि दिया तथा आगे भी विजय के लिए सैनिक तैयारियां शुरू कर दीं।
- दसवें वर्ष उसने पुनः भारतवर्ष यानि गंगा-घाटी पर आक्रमण किया, परन्तु कोई बड़ी सफलता नहीं मिली।
- ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण भारत की और अभियान करने पर ध्यान दिया। खारवेल की सेना ने पिथुण्ड नगर ( मद्रास के निकट ) को ध्वस्त किया तथा और आगे दक्षिण की ओर जाकर तमिल संघ का नाश किया। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि दक्षिण के राजाओं ने खारवेल का मुक़ाबला करने के लिए दक्षिण के राजाओं ने संघ बनाया था। सुदूर दक्षिण को विजय करते हुए खारवेल पाण्ड्य राज्य तक जा पहुंचा।
बारहवें वर्ष में खारवेल ने दो और अभियान किये– एक उत्तर भारत में और दूसरा दक्षिण भारत में।सर्वप्रथम उसने उत्तर भारत का अभियान किया तथा बृह्स्पतिमित्र नामक शासक को परास्त किया। इस अभियान में खारवेल को अपार धन सम्पदा हाथ लगी साथ ही जिन-प्रतिमा ( जैन मूर्ति ), जिसे तीन शताब्दी पूर्व नन्द शासक द्वारा मगध ले जाया गया था, को लेकर अपनी राजधानी वापस लौटा।
इसी वर्ष उसने दक्षिण में पाण्ड्य राज्य पर जल और थल दोनों ओर से आक्रमण किया तथा पाण्ड्य राज्य को परास्त को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया। यह खारवेल का अंतिम सैन्य अभियान था। तेरहवें वर्ष खारवेल ने कुमारीपहाडी पर जैन भिक्षुओं के लिए निवास स्थान बनवाये ।
खारवेल की धार्मिक नीति
खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था। उसने जैन मुनियों को संरक्षण प्रदान किया और उनके निर्वाह के लिए भरपूर दान दिया तथा रहने के लिए सुविधायुक्त निवास बनवाये। जैन धर्म का अनुयायी होने पर भी वह एक धर्म सहिष्णु शासक था और उसने हिन्दू मंदिरों का भी जीर्णोद्धारकराया।
खारवेल के निर्माण कार्य
खारवेल एक योद्धा शासक होने के आलावा एक महान निर्माता भी था। अपने राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष भुवनेश्वर के पास उदयगिरि तथा खण्डगिरि की पहाड़ियों को कटवा कर जैन मुनियों के निवास के लिए गुहा-विहार बनवाये।उदयगिरि में 19 तथा खण्डगिरि में 16 गुहा-विहारों का निर्माण करवाया। उदयगिरि में रानीगुम्फा तथा खण्डगिरि में अनन्तगुफा की गुफाओं में उत्कीर्ण रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। इसके अलाबा ‘महाविजय प्रसाद’ भी एक भव्य भवन बनवाया गया।
खारवेल का मूल्याँकन
खारवेल एक महान शासक और निर्माता था। वह एक महान विजेता और लोकोपकारी शासक था। वह एक धर्मसहिष्णु शासक था और सभी धर्मों का सम्मान करता था। वह स्वयं विद्वान था और विद्वानों को आश्रय प्रदान करता था। हाथीगुम्फा अभिलेख में उसे ‘राजर्षि’ कहा गया है। खारवेल ने कलिंग राज्य के गौरव को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। खारवेल ने कुल 13 वर्ष तक शासन किया और उसकी मृत्यु के साथ ही उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।