सल्तनत कालीन प्रशासन | Saltanat Kalin Prashasan

सल्तनत कालीन प्रशासन | Saltanat Kalin Prashasan

Share This Post With Friends

Last updated on April 25th, 2023 at 02:46 pm

भारत पर मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने के पश्चात् एक नए प्रकार की शासन व्यवस्था ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया।  भारतीय राजा जहां उदारवादी दृश्टिकोण रखते थे वहीँ ये अरब और अफगानिस्तान से सम्बंधित कट्टर इस्लाम को मानने वाले सुल्तान कहीं ज्यादा कट्टर और दैवीय अधिकारों में विश्वाश करते थे। इस्लाम वास्तव में  कबिलाई संस्कृति में पनपा धर्म था। 

इस धर्म को मानने वाले शासक खुद को खुदा का प्रतिनिधि मानते थे, इसलिए उन्होंने हिंदुस्तान पर एक नए तरह ककी शासन व्यवस्था स्थापित की।  इस लेख में हम गुलाम वंश से लेकर लोदी वंश ( सल्तनतकाल ) तक की प्रशासनिक व्यवस्था के विषय में जानेंगे। 

सल्तनत कालीन प्रशासन | Saltanat Kalin Prashasan

 

सल्तनत कालीन प्रशासन का स्वरुप 

सल्तनत कालीन शासन धर्म आधारित था जिसमें इस्लाम धर्म के अनुसार निर्णय लिए जाते थे अतः सल्तनत काल में शासन धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि धर्माधारित शासन था। इस्लाम धर्मं राज्य का धर्म था, इसके अतिरिक्त अन्य किसी धर्म को मान्यता नहीं थी। राज्य के समस्त साधन इस्लाम की सुरक्षा  प्रसार के लिए थे। उलेमा लोग राज्य के विषयों दखल रखते थे और यह देखते थे की सुल्तान कुरान  नियमानुसार शासन कर रहा है या नहीं।

सुल्तान का आदर्श लोगों को इस्लाम में परिणत करना  इस प्रकार दारुल-हरब ( काफिर देश ) को दारुल- इस्लाम ( इस्लामी देश ) में परिवर्तित करना था। जो लोग इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेते थे उन्हें राज्य की ओर  अतिरिक्त सुविधाएं प्रदान की जाती थीं।  इतना होते हुए भी  शासक भारत को इस्लामिक देश में परिणित न  सके और यह सब इस्लाम की कट्टरता के कारण हुआ। 


सल्तनत कालीन शासन में खलीफा की भूमिका 

 खलीफा सारे इस्लामिक संसार का मुखिया होता था, परन्तु इस्लाम के बढ़ते साम्राज्य के कारण प्रत्येक राज्य को खलीफा  सत्ता की सत्ता  अंतर्गत नहीं लाया  सकता था इसके आलावा खिलाफत की  में संघर्ष बना रहा। मंगोल सरदार हलाकू खां द्वारा  खलीफा की मृत्यु के बाद तक यह प्रणाली चलती रही।

दिल्ली  सल्तनतकालीन शासक खुदको खलीफा का प्रतिनिधि मानते थे और खलीफा का नाम अपने सिक्कों पर थे , खलीफा के नाम का खुतबा पढ़वाते थे।  परन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने खलीफा की सत्ता मानने से इंकार कर दिया।  इसी प्रकार कुतुबुद्दीन  शाह ने स्वयं खलीफा की उपाधि धारण  कर ली। इन दोनों के अलाबा सभी सुल्तानों ने खलीफा की प्रतीकात्मक सत्ता  मान्यता प्रदान की। 


सल्तनत काल में सुल्तान का स्थान 

दिल्ली सल्तनत में सुल्तान का प्रमुख स्थान था।  वह सत्ता का सर्वोच्च प्रधान व् निर्देशक था। वह न्याय  सर्वोच्च अधिकारी था।  सल्तनत काल  अमीरों  सरदारों  भूमिका  मत्वपूर्ण थी। उलेमा सरदार और अमीर  सुल्तान का चयन करते थे। परन्तु यह भी सत्य है कि सुल्तान बनने की प्रक्रिया युद्ध अथवा शक्ति से ही तय होती थी। इस्लामिक शासन में उत्तराधिकार  नियम  आभाव था , अतः अधिकांश समय सिहांसन के लिए सत्ता का संघर्ष हुआ। परन्तु इसका एक लाभ यह भी था की अधिकांश शासक अपनी कुशलता  सत्ता प्राप्त कर सके। जो योग्य  वही  सत्ता प्राप्त करता था। 

सुल्तान का अत्यधिक सम्मान था। वह दैवीय अधिकारों से परिपूर्ण ईश्वर ( अल्ल्हा ) का प्रतिनिधि था। इस्लाम का प्रसार करना उसका मुख्य  था।  उसे जिहाद ( पवित्र संग्राम ) करना पड़ता करना था। 


सल्तनत कालीन शासन में सरदार व अमीरों की भूमिका 

सल्तनत काल में सरदारों व अमीरों की  महत्वपूर्ण भूमिका थी। सुल्तान पर इनका बहुत प्रभाव होता था और कोई भी सुल्तान इन्हें नाराज नहीं करना चाहता था। ये सरदार  अमीर सदा  फायदे के लिए सुल्तानों को अपने प्रभाव में रखते थे। ये लोग  खुद को सुल्तान के समान समझते थे और शाही वंशों से अपना सम्बन्ध समझते थे। ये सरदार और अमीर लोग बहुत लोभी  स्वार्थी होते थे। 


सुल्तनत काल में वजीरों की भूमिका 

एक अरबी कहावत है कि “वीर मनुष्यों को शस्त्रों की आवश्यकता होती है और सबसे बुद्धिमान राजाओं को मंत्रियों की” यह कहावत दिल्ली  सल्तनत सल्तनत के विषय में एकदम सही  प्रतीत होती है। दास वंश के शासनकाल में चार वजीर थे– वजीर , आरिज-ए-मुमालिक, दीवान-ए-इंशा और दीवान-ए-रसालत। कभी-कभी नायब या नाइब-ए-मुमालिक भी नियुक्त होता था। बाद में सदर-उस-सुदूर व दीवान-ए-क़ज़ा के पद भी मंत्रियों के स्तर तक ला गए इस प्रकार  दिल्ली सल्तनत के अधीन छः वजीर थे। 


दिल्ली सल्तनत के अधीन विभिन्न पद 

वजीर (वज़ीर)

यह एक बहुत महत्वपूर्ण पद था सामान्य रूप से इसे मुक्यमंत्री कहा जाता था। वज़ीर सारे राज्य क्षेत्र का प्रधान था यद्यपि वज़ीर का संबंध मुख्य रूप से केंद्रीय वित्तीय विभाग से था। वह असैनिक सेवकों को नियुक्त करता था और उन पर नियंत्रण भी रखता था। भूमिकर वसूल करने के लिए ठेकेदारों का संगठन करता था। कुछ वज़ीर असीमित शक्तियों के स्वामी थे।  वज़ीरों के प्रभाव में सुल्तान दब गए की कई बार वज़ीरों ने समस्त शक्ति अपने हाथों  केंद्रित करली।


दीवान-ए-रिसालत ( Diwan-i-R isalat )

डॉ. हबीबुल्ला के अनुसार दीवान-ए-रिसालत विदेशी विषयों का प्रबंधक था। उसका काम कूटनीतिक पत्र-व्यवहार सचांलन। था वह विदेशों में अपने राजदूत भेजता था, वहां से आने वाले दूतों का स्वागत करता था। 


सदर-उस-सुदूर ( Sadar-us-Sudur )

प्रायः सदर-उस-सुदूर व दीवान-ए-कजा के पद एक ही व्यक्ति को मिलते थे। सदर-उस-सुदूर को इस्लाम के नियमों व निर्देशनों को लागू करना पड़ता था। उसे यह देखना आवश्यक था कि मुसलमान लोग अपने दैनिक जीवन में उनका पालन कर रहे हैं या नहीं। उसके पास बहुत सा धन होता था जिसे वह मुस्लिम पुरोहितों, विद्वानों व धर्मात्माओं पर खर्च करता था। दीवान-ए-कजा का अध्यक्ष काजी-ए-मुमालिक था जिसे काजी-ए-कुजात भी कहते थे।


दीवान-ए-इंशा ( Diwan-i-Insha)

शाही पत्र-व्यवहार लिखने वाले विभाग को दीवान-ए-इंशा कहा जाता था। इसे “गुप्त रहस्यों का कोष” ठीक ही कहा गया है। यह इस तथ्य के कारण है कि दबीर-ए-खास जो इस विभाग का अध्यक्ष था, राज्य का गोपनीय लिपिक भी था। दीवान-ए-खास के अधीन बहुत से सहायक दबीर होते थे जो अपनी शैली में सिद्धार्थ होने में ख्यात होते थे।

सुल्तान व अन्य राज्यों के शासकों व उसके अपने अधीन सहायकों के अधिकारियों के बीच सारी डाक इसी विभाग से होकर निकलती थी। सुल्तान का प्रत्येक आदेश पहले इसी विभाग में लिखा जाता था और बाद में उसके पास स्वीकृति के लिए जाता था। जिसे वहाँ रजिस्टर में लिख दिया जाता था और फिर खाना पूरा किया जाता था।


बारिद-ए-मुमालिक (Barid-i-Mumalik)

बारिद-ए-मुमालिक राज्य के समाचार स्रोत का अध्यक्ष था। उसका कार्य राज्य में घटने वाली सभी घटनाओं की सूचना एकत्रित करना था। प्रत्येक प्रशासकीय उपविभाजन के केंद्र पर एक स्थानीय बारिद रहता था और नियमित रूप से केंद्रीय कार्यालय में समाचार संबंधी पत्र-व्यवहार करना उसका कार्य था। केवल ईमानदार व्यक्ति ही इस पद पर रखे जाते थे।

यदि किसी नियुक्ति अधिकारी द्वारा किए गए बुरे कार्य का घोर अन्याय के कार्य की सूचना बारिद द्वारा नहीं दी जाती थी तो कभी-कभी इसके बदले में उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता था। ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जो बारिद के क्षेत्राधिकार से बाहर हो। उसका कार्य सार्वजनिक प्रबंध के प्रत्येक पहलू की केंद्रीय सरकार को गोपनीय सूचना भेजना था। वह अपने सूचनादाताओं ( खबरी ) को प्रत्येक स्थान पर रखता था और कोई चीज उससे नहीं बचती थी। बारिद को अच्छा वेतन मिलता था और उसे प्रलोभन से दूर रहना पड़ता था। 


वकील-ए-दार ( wakil-i-dar )

वकील-ए-दार अन्तःपुर ( शाही हरम ) का मुख्य सम्मानित पदाधिकारी होता था। वह रनवासों से सम्बंधित समस्त कार्यों पर नियंत्रण रखता था और वह सुल्तान के व्यक्तिगत कर्मचारियों के वेतन, भत्ते, अदि का निरीक्षण करता था। शाही भोजनालय, अस्तबल और सुल्तान के बच्चे तक उसी के नियंत्रण में रहते थे। रनवास के सम्बन्ध में सरे शाही आदेश उसी के द्वारा जारी किये जाते थे वह उन सब विषयों की सूचना देता था जिनके लिए शाही स्वीकृति आवश्यक थी। उसी के द्वारा सुल्तान तक पहुंचा जा सकता था।


नायब-उल-मुल्क ( Naib-ul-Mulk)

दिल्ली सल्तनत में एक अमीर  की नियुक्ति सामान्य रूप से की जाती थी जिसे नायब-उल-मुल्क कहते थे। यह पद सुल्तान के चरित्र व वयक्तित्व के साथ बदलता रहता था।  वह राजधानी में सुल्तान का प्रतिनिधि होता था और सारी दैनिक व विशेष कार्यवाही का संभालने वाला था। 


दीवान-ए-आरिज ( Diwan-i-Ariz )

यह युद्ध मंत्रालय का प्रधान था जिसे आरिज-ए-मुमालिक भी कहते थे। सेना कुशल  उत्तरदायित्व उसी पर था। वह सैनिकों  भर्ती और वेतन भत्तों का निर्धारण करता था। वर्ष में काम से काम एक बार सेना का निरीक्षण अवश्य करता था। दीवान-ए-आरिज को “धर्म के लिए लड़ने वालों जीविका का साधन” भी कहा जाता था 

इस प्रकार सल्तनत काल में प्रशासनिक कार्यों को संपन्न  करने  उपरोक्त अधिकारयों की नियुक्ति की जाती थी।  यद्यपि सर्वेसर्वा सुल्तान  था  निर्णय अंतिम माना जाता था। परन्तु कमजोर  समय ये अधिकारी अपनी मनमानी करते थी और कई बार तो अपनी स्वतंत्र सत्ता भी चलाते थे। सुल्तनतकालीन प्रशासनिक वयवस्था कुरान  अथवा सरियत के अनुसार गठित की  थी पर खलीफा के  आदेशों का प्रभाव रहता था। 


 हमारे अन्य महत्वपूर्ण लेख

1-भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-

2-ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का खान-पान ( भोजन)


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading