वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था | vaidic kaalin ashram vyvastha in hindi

वैदिक काल के सामाजिक जीवन में आश्रम व्यवस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के जीवन को चार भागों में बनता गया और प्रत्येक भाग के लिए 25-25 वर्ष निर्धारित किये। ‘वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था’ के माध्यम से मानव जीवन के कर्तव्यों का निर्धारण किया गया। लेकिन यह भी सत्य है की ये व्यवस्था समाज के उच्च वर्ग के लिए ही निर्धारित थी बहुसंख्यक ( शूद्र ) को इस व्यवस्था से बंचित रखा गया था इस ब्लोग्स के माध्यम से हम वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था के विषय में विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगें।

प्राचीन वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था

  • 1-ब्रह्मचर्य
  • 2-गृहस्थ
  • 3-वानप्रस्थ
  • 4-संन्यास 
 
आश्रम व्यवस्था हिंदू सामाजिक संगठन की दूसरी महत्वपूर्ण संस्था है जो वर्ण के साथ संबंधित है। आश्रम मनुष्य के प्रशिक्षण की (Nurture) समस्या से संबंद्ध है जो संसार की सामाजिक विचारधारा के संपूर्ण इतिहास में आद्वितीय है। हिंदू व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक प्रकार के प्रशिक्षण तथा आत्मानुशासन का है। इस प्रशिक्षण के दौरान उसे चार चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। ये प्रशिक्षण की चार अवस्थाएं हैं।
‘आश्रम’ शब्द की उत्पत्ति श्रम शब्द से है जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना। इस प्रकार आश्रम वे स्थान है जहां प्रयास किया जाए। मूलतः आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल का कार्य करते हैं जहां आगे की यात्रा के लिए तैयारी की जाती है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। प्रभु ने मोक्ष प्राप्ति की यात्रा में आश्रमों को विश्राम स्थल बताया है।

आश्रम व्यवस्था के मनो-नैतिक आधार पुरुषार्थ हैं, जो आश्रम के माध्यम से व्यक्ति को समाज से जोड़कर उसकी व्यवस्था एवं संचालन में सहायता करते हैं। एक ओर जहां मनुष्य आश्रमों के माध्यम से जीवन में पुरुषार्थ के उपयोग करने का मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो दूसरी और व्यवहार में वह समाज के प्रति इनके अनुसार जीवन-यापन करता हुआ अपने कर्तव्यों को पूरा करता है।

प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। महाभारत में वेदव्यास ने चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक पहुंचने के मार्ग में चार सोपान निरूपित किया है। भारतीय विचारकों ने  चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है।

वर्ण व्यवस्था का इतिहास और उसके उत्पत्ति संबन्धी सिद्धांत ?

धर्म शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित चतुराश्रम व्यवस्था के नियमों का पालन प्राचीन इतिहास के सभी कालों में समान रूप से किया गया हो ऐसी संभावना कम ही है। पूर्व मध्यकाल तक आते-आते हम इसमें कुछ परिवर्तन पाते हैं। इस काल के कुछ पुराण तथा विधि ग्रंथ यह विधान करते हैं कि कलयुग में दीघ्रकाल तक ब्रह्मचर्य पालन तथा वानप्रस्थ में प्रवेश से बचना चाहिए।

बाल विवाह के प्रचलन के कारण भी ब्रह्मचर्य का पालन कठिन हुआ होगा। शंकर तथा रामानुज दोनों ने इस बात का उल्लेख किया है कि साधनों के अभाव तथा निर्धनता के कारण अधिकांश व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं कर पाते थे।

चार आश्रम तथा उनके कर्तव्य हिंदू धर्म शास्त्र मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानते हैं तथा प्रत्येक आश्रम के निमित्त 25-25 वर्ष की अवधि निर्धारित करते हैं। चरों आश्रमों और उस आश्रम के लिए निर्धारित समय में किन-किन बातों या नियमों का पालन किया जाता था उसके बारे में वर्णन  इस प्रकार से है—

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सम्राट अशोक की जीवनी: प्राम्भिक जीवन 273-236 ईसा पूर्व, कलिंग युद्ध, बौद्ध धर्म, धम्म का प्रचार, प्रशासनिक व्यवस्था और मूल्यांकन

सम्राट अशोक, प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य के एक महानतम शासक थे। वह 268 ईसा पूर्व में सिंहासन पर चढ़े और उनका शासन लगभग 40 वर्षों तक चला। अशोक को भारत के महानतम राजाओं में से एक और विश्व इतिहास में एक उल्लेखनीय व्यक्ति माना जाता है। आज इस लेख में हम का अध्ययन करेंगे, … Read more

अलाउद्दीन खिलजी की प्रशासनिक वयवस्था /alauddin khilji ke prashasnik sudhar

अलाउद्दीन खिलजी का  प्रारम्भिक जीवन पिता – शाहबुद्दीन मसूद धर्म  – सुन्नी इस्लाम शासनावधि         1296-1316 राज्याभिषेक           1296 जन्म                     1266 मृत्यु                        1316 दिल्ली अमीर-ए-तुजुक         1290-1291 कड़ा का राज्यपाल  1291-1296 पत्नियां मलिका-ए-जहाँ   (जलालुद्दीन  की       बेटी )  महरू ( अलपखान की बहन) कमला देवी ( राजा कर्ण की विधवा … Read more

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

आज के वर्तमान युग में में प्रचार और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बहुत से संसाधन उपलब्ध हैं। लेकिन प्राचीन काल में प्रचार के संसाधन नगण्य थे। मौर्य वंश के तीसरे शासक सम्राट अशोक ने अपने धम्म के प्रचार और राजाज्ञाओं को जनता तक पहुँचाने के लिए पत्थर और शिलाओं पर अभिलेर्खों के माध्यम से जनता तक अपनी राज्ञाओं और निर्देशों को खुदवाया। आज इस लेख में हम सम्राट अशोक के अभिलेखों का अध्ययन करेंगे।

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

मौर्य सम्राट अशोक के विषय में सम्पूर्ण समूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। यह मान्यता है कि , अशोक को  अभिलेखों की प्रेरणा डेरियस (ईरान के शासक ) से मिली थी।  अशोक के 40 से भी अधिक अभिलेख भारत के बिभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

ब्राह्मी , खरोष्ठी और आरमेइक-ग्रीक लिपियों में लिखे गए हैं। अशोक के ये शिलालेख हमें अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रसार हेतु किये गए उन प्रयासों का पता चलता है जिनमें अशोक ने बौद्ध धर्म को भूमध्य सागर तक से लेकर मिस्र तक बुद्ध धर्म को पहुँचाया। अतः यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य कालीन राजनैतिक संबंध मिस्र और यूनान से जुड़े हुए थे।

  • इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म की बारीकियों पर कम सामन्य मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं।
  • पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मागधी में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग  लिखे गए थे।
  • पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं।
  • एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गयी है, जबकि एक अन्य शिलालेख में यूनानी और आरमेइक भाषा में द्वभाषीय आदेश दर्ज है।
  • इन शिलालेखों में सम्राट स्वयं को “प्रियदर्शी” ( प्रकृत में  “पियदस्सी”) और देवानाम्प्रिय ( अर्थात डिवॉन को प्रिय , प्राकृत में “देवनंपिय”) की उपाधि से सम्बोधित किया है।

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