भारत में सांप्रदायिकता का उदय और विकास

साम्प्रदायिकता को अक्सर लोग हिन्दू-मुस्लमान के बीच नफ़रत को समझते हैं, लेकिन सम्प्रद्यिकता धर्माधारित भेदभाव अथवा उससे उत्पन्न तनाव को सांप्रदायिकता के रूप में देखते हैं। आज इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में साम्प्रदायिकता का उदय किस कारण हुआ, उसके लिए कौनसी परिस्थितियां जिम्मेदार थीं? लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें। भारत में … Read more

तैमूर लंग का भारत पर आक्रमण: इतिहास, उद्देश्य कारण और प्रभाव

तैमूर के भारत पर आक्रमण को भारतीय इतिहास में एक प्रमुख घटना के रूप में याद किया जाता है, क्योंकि इसने क्षेत्र की राजनीति, समाज और संस्कृति पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। उसके आक्रमणों के कारण हुई तबाही और तबाही के कारण उनके सैन्य अभियानों और विजयों को अक्सर इतिहास के एक काले अध्याय के रूप … Read more

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण | क्या अशोक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार था

मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक था, जिसकी स्थापना 322 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी और 268 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया था। हालाँकि, पूरे इतिहास में कई अन्य महान साम्राज्यों की तरह, मौर्य साम्राज्य ने भी गिरावट का अनुभव किया जिसके कारण उसका पतन हुआ। मौर्य साम्राज्य के पतन में योगदान देने वाले कई प्रमुख कारक थे:
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण | क्या अशोक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार था

 

लगभग तीन शताब्दियों के उत्थान के त्पश्चात शक्तिशाली  मौर्य-सम्राज्य अशोक की मृत्यु के पश्चात विघटित होने लगा और विघटन की यह गति संगठन की अपेक्षा अधिक तेज थी। अंततोगत्वा 184 ईसा पूर्व के लगभग अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की उसके अपने ही सेनापति पुष्यमित्र द्वारा हत्या के साथ इस विशाल साम्राज्य का पतन हो गया।

सामान्य तौर पर अनेक विद्वान अशोक की अहिंसक नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण मानते हैं। परंतु मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी ठहरा सकते हैं—

मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण

सम्राट अशोक की  के पश्चात अयोग्य तथा निर्वल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी नितांत अयोग्य तथा निर्बल हुये। उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया था। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक नें स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गंधार प्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। कालिदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतंत्र राज्य हो गया था। परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अंतर्गत संगठित करता। विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था।

Read more

भारत में आर्यों का आगमन: ऋग्वेद में वर्णित विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर विवरण

भारत में आर्यों का आगमन एक जटिल विषय है जिस पर अभी भी विद्वानों और इतिहासकारों के बीच बहस होती है। आर्य प्रवासन सिद्धांत, जिसे आर्यन आक्रमण सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, 19वीं शताब्दी में पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रस्तावित किया गया था और सुझाव दिया गया था कि आर्यों नामक इंडो-यूरोपीय लोगों … Read more

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

भारतीय प्रागैतिहासिक काल लिखित अभिलेखों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रारंभिक मानव के समय को संदर्भित करता है। यह लिखित दस्तावेजों या शिलालेखों की अनुपस्थिति की विशेषता है, जिससे इस अवधि की हमारी समझ काफी हद तक पुरातात्विक साक्ष्यों, जीवाश्मिकी निष्कर्षों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर निर्भर करती है। भारतीय प्रागैतिहासिक काल ने बाद के ऐतिहासिक काल की नींव रखी, जिसमें प्रारंभिक मानव समाजों का उदय, कृषि और बसे हुए समुदायों का विकास, और प्रारंभिक सभ्यताओं का उदय, भारतीय उपमहाद्वीप के समृद्ध और विविध इतिहास के लिए मंच तैयार किया।

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

 

प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल अर्थ है

भारतीय प्रागैतिहासिक काल को तीन व्यापक चरणों में विभाजित किया गया है:

इतिहास का विभाजन प्रागितिहास ( Pre-History ), आद्य इतिहास ( Proto-History ), तथा इतिहास ( History ) तीन भागों में किया गया है—

प्रागितिहास- प्रागितिहास काल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री का अभाव है। जैसे पाषाण काल जिसमें लिखित सक्ष्य नहीं मिलते।

आद्य इतिहास– वह काल जिसमें लिपि के साक्ष्य तो हैं परन्तु वह अभी तक पढ़े नहीं जा सके। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि आज तक अपठ्नीय है।

इतिहास–  जिस काल से लिखित साक्ष्य मिलने प्रारंभ होते हैं उस काल को ऐतिहासिक (इतिहास ) काल कहते हैं

इस दृष्टि से पाषाण कालीन सभ्यता प्रागितिहास तथा सिंधु एवं वैदिक सभ्यता आद्य-इतिहास के अंतर्गत आती है। ईसा पूर्व छठी शती से ऐतिहासिक काल प्रारंभ होता है। किंतु कुछ विद्वान ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागितिहास की संज्ञा देते हैं।

 पाषाण काल का विभाजन 

भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1807 ईस्वी में प्रारंभ हुआ जबकि भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान ‘रॉबर्ट ब्रूस फुट’ ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया।

तत्पश्चात विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी०एल० कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्र से कई पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त किये। सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ईस्वी में डी० टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैंब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था।

इन अनुसंधानों से भारत की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढ़ी। विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास प्रतिनूतनकाल ( प्लाइस्टोसीन एज ) में हुआ। इस काल की अवधि आज से लगभग 500000 वर्ष पूर्व मानी जाती है।

Read more

अशोक का धम्म

अशोक का धम्म (धर्म) क्या है, अशोक के धम्म के सिद्धांत, विशेषताएं, मान्याएँ, आर्दश    MicrosoftInternetExplorer4   इस लेख के मुख्य  बिंदु  1 अशोक के धम्म के सिद्धांत 2 अशोक की धम्म विजय  3 अशोक के धम्म का स्वरुप  4 अशोक द्वारा धम्म के प्रचार के उपाय  5 धम्म महामात्र          सामान्य रूप से … Read more

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

विश्व के किसी भी देश अथवा उसकी सभ्यता और उसकी प्रगति को समझने के लिए उसकी उपलब्धियों एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम आधार उस देश में स्त्रियों की दशा का अध्ययन करना है। स्त्रीयों की दशा किसी देश की संस्कृति का मानदंड को प्रदर्शित करती है। समुदाय का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक आधार रखता है। प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में, हिंदू समाज में इसका अध्ययन निश्चयतः ही उसकी गरिमा को इंगित करता है।

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल

वैदिक काल में स्त्रियों की दशा
हिंदू सभ्यता में स्त्रियों को अत्यंत आदरपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता के धर्म में माता देवी को सर्वोच्च पद प्रदान किया जाना उसके समाज में उन्नत स्त्री दशा का सूचक माना जा सकता है। ऋग्वैदिक काल में समाज ने उसे आदरणीय स्थान दिया। उसके धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार पुरुषों के ही समान थे।
विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता था दंपत्ति घर के संयुक्त अधिकारी होते थे। यद्यपि कहीं-कहीं कन्या के नाम पर चिंता व्यक्त की गई है तथापि कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां पिता विदुषी एवं योग्य कन्याओं की प्राप्ति के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं। कन्या को पुत्र जैसा ही शैक्षणिक अधिकार एवं सुविधाएं प्रदान की गई थीं।
कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था तथा वे भी ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करती थी। ऋग्वेद में अनेक ऐसी स्त्रियों का वर्णन है जो विदुषी तथा दार्शनिक थी और जिन्होंने कई मंत्रों एवं ऋचाओं की रचना भी की थी। विश्वारा को ‘ब्रह्मवादिनी’ तथा ‘मंत्रदृष्ट्रि’ कहा गया है, जिसने ऋग्वेद के एक स्तोत्र की रचना की थी।
घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इंद्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं जो वैदिक मंत्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता हैं। ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी ‘जुहु’ की कन्या की कथा मिलती है। बृहस्पति अपनी पत्नी को छोड़कर तपस्या करने गए किंतु देवताओं ने उन्हें बताया कि पत्नी के बिना अकेले तप करना अनुचित है। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि स्त्री पुरुष की ही भांति तपस्या करने की भी अधिकारिणी थी।

Read more

फिरोज तुगलक का इतिहास: फ़िरोज़ तुग़लक़ प्रारम्भिक जीवन और उपलब्धियां, जनहित के कार्य

फिरोज तुगलक, जिसे सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी के दौरान भारत में तुगलक वंश का एक प्रमुख शासक था। वह 1351 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा और 1388 ईस्वी तक शासन किया। फिरोज तुगलक को उनके प्रशासनिक सुधारों और उनके उदार शासन के लिए जाना जाता था, जो उनके विषयों के कल्याण पर केंद्रित था। उन्हें कला, वास्तुकला और साहित्य का संरक्षक माना जाता था, और उन्हें अपने राज्य में कई स्मारकों, मस्जिदों और महलों के निर्माण का श्रेय दिया जाता था।

Firuz Tughluq

फिरोज तुगलक का इतिहास

फिरोज तुगलक ने सिंचाई के लिए नहरों और जलाशयों के निर्माण सहित आर्थिक और कृषि क्षेत्रों में सुधार के लिए कई उपायों को भी लागू किया। उन्हें न्याय और निष्पक्षता के सख्त पालन के लिए जाना जाता था, और उनके लोगों द्वारा उनके दयालु और न्यायपूर्ण शासन के लिए बहुत सम्मान किया जाता था।

हालाँकि, उनका शासन चुनौतियों के बिना नहीं था, जिसमें रईसों द्वारा विद्रोह और आर्थिक संकट शामिल थे। इन चुनौतियों के बावजूद, फिरोज तुगलक ने एक शासक के रूप में एक स्थायी विरासत छोड़ी, जिसने अपने लोगों के कल्याण पर ध्यान केंद्रित किया और अपने राज्य के सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।


नाम फिरोज तुगलक
पूरा नाम सुल्तान फिरोज शाह तुगलक
जन्म 1309 ईस्वी
जन्मस्थान भारत
पिता रज्जब
माता नैला भाटी
शासनकाल 1351-1388
वंश तुगलक वंश
प्रसिद्ध सिंचाई के लिए नहरों और जलाशयों के निर्मा के लिए
मृत्यु सितम्बर 1388 ई॰
मृत्यु का स्थान दिल्ली
मक़बरा हौज़खास परिसर दिल्ली

फिरोज तुगलक, जिसे सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के नाम से भी जाना जाता है, भारत में दिल्ली सल्तनत का मध्यकालीन शासक था। उनका जन्म 1309 ईस्वी में हुआ था, और उनके पिता गयासुद्दीन तुगलक के पुत्र रज्जब थे, जो तुगलक वंश के संस्थापक थे। फिरोज तुगलक के परिवार और प्रारंभिक जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है क्योंकि उस काल के ऐतिहासिक स्रोत सीमित हैं।


फ़ीरोज तुगलक का परिचय-  

20 मार्च 1351 ईस्वी में  मुहम्मद तुगलक की थट्टा ( सिंध ) में मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई फिरोज शाह तुगलक दिल्ली का सुल्तान बना। फिरोजशाह तुगलक का जन्म 1309 ईस्वी में हुआ था व उसकी मृत्यु 1328 ईस्वी में हुई। वह गयासुद्दीन तुगलक के छोटे भाई रजब का पुत्र था। उसकी माता भट्टी राजपूत कन्या थी जिसने अपने पिता ‘रणमल’ ( अबूहर के सरदार ) के राज्य को मुसलमानों के हाथों से नष्ट होने से बचाने के लिए ‘रजब’ से विवाह करने पर सहमति प्रदान कर दी थी। जब फिरोज बड़ा हुआ तो उसने शासन-प्रबंध व युद्ध कला में प्रशिक्षण प्राप्त किया परंतु वह किसी भी क्षेत्र में निपुण न बन सका।

फ़ीरोज तुगलक का सिंहासनारोहण- 

 जब 20 मार्च 1351 ईस्वी को मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गई, तो उस डेरे में पूर्ण अव्यवस्था व अशांति फैल गई जिसे सिंध के विद्रोहियों व मंगोल वेतनभोगी सैनिकों ने लूटा था व जिन्हें मुहम्मद तुगलक ने तगी के विरुद्ध संग्राम करने के लिए किराए पर रख लिया था।  इन परिस्थितियों के अधीन ही 23 मार्च 1351 ईस्वी को भट्टा के निकट एक डेरे में फिरोज का सिंहासनारोहण हुआ।


फ़ीरोज तुगलक का विरोध ( Opposition of Firoz)

फ़ीरोज को सिंहासनारोहण के समय ही एक अन्य कठिनाई का सामना करना पड़ा। स्वर्गीय सुल्तान के नायव ( deputy ), ख्वाजा-जहां ने दिल्ली में एक लड़के को सुल्तान मुहम्मद तुगलक का पुत्र व उत्तराधिकारी घोषित करके गद्दी पर बैठा दिया। यह परिस्थिति गंभीर हो गई और इसलिए फिरोज ने अमीरों, सरदारों तथा मुस्लिम विधि ज्ञाताओं (jurists) से परामर्श लिया। उन्होंने यह आपत्ति उठाई कि मुहम्मद तुगलक पुत्रहीन था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ख्वाजा-ए-जहां का अभ्यर्थी इसलिए अयोग्य है क्योंकि  वह नाबालिग है और गद्दी पर ऐसे समय नहीं बिठाया जा सकता जबकि परिस्थिति इतनी गंभीर है।
यह भी कहा गया कि इस्लाम के कानून में उत्तराधिकार का कोई पैतृक अधिकार नहीं है परिस्थितियां यह मांग करती हैं कि दिल्ली की गद्दी पर एक शक्तिशाली शासक होना चाहिए। जब ख्वाजा-ए-जहां ने अपनी स्थिति दुर्बल पाई तो उसने आत्मसमर्पण कर दिया। उसकी पुरानी सेवाओं को देखते हुए फिरोज ने उसको क्षमा कर दिया और उसे समाना में आश्रय लेने की अनुमति दे दी। परंतु मार्ग में शेर खाँ, समाना के सरदार (Commandant) के किसी साथी ने उसका वध कर दिया।

एक अन्य विवाद ( An Other Controversy )

जिन परिस्थितियों में फिरोजशाह तुगलक गद्दी पर बैठा था वे आने वाले समय का सूचक थीं। जियाउद्दीन बरनी का यह मानना है कि मुहम्मद तुगलक ने फिरोजशाह को सुल्तान के लिए नामजद ( Nomination) किया था तथा वही उसकी दृष्टि में इस पद के योग्य था सही प्रतीत नहीं होता।

सिंध में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के समय जो अमीर शाही खेमे में थे वे तय नहीं कर पाए थे कि गद्दी किसको मिलेगी। अंततः यह फैसला किया गया कि सेना दिल्ली की ओर प्रस्थान करे। जहां नया सुल्तान विधिवत नियुक्त होगा। इससे पता चलता है कि सुल्तान के कोई पुत्र नहीं था और ना ही उसने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।

कहते हैं कि इस परिस्थिति में उलेमा वर्ग के कुछ लोगों ने फिरोजशाह से धार्मिक रियायतों का वायदा ले लिया। इसके बाद अमीर तथा उलेमा वर्ग दोनों ने फिरोज तुगलक को सुल्तान बनाने का निर्णय स्वीकार कर लिया। सुल्तान ने सिंध से लेकर दिल्ली तक के मार्ग में आने वाली मस्जिद, दरगाह तथा खानकाह को दिल खोलकर धार्मिक अनुदान दिए।

Read more

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं: जीवनी, राजधानी परिवर्तन, दोआब में कर वृद्धि, सिक्कों का प्रचलन और साम्राज्य विस्तार, मृत्यु

मुहम्मद बिन तुगलक, जिसे आमतौर पर मुहम्मद तुगलक के नाम से जाना जाता है, तुगलक वंश से दिल्ली का सुल्तान था, जिसने 1325 से 1351 ईस्वी तक भारतीय उपमहाद्वीप में शासन किया था। वह अपनी महत्वाकांक्षी और विवादास्पद नीतियों के साथ-साथ अपने प्रशासनिक और सैन्य सुधारों के लिए जाना जाता है। मुहम्मद तुगलक अपने पिता, … Read more

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार कौन-कौन से है? | Hindu Dharma Ke Solah Sanskar

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार संस्कार क्या है? संस्कार शब्द सम् उपसर्ग ‘कृ’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता। हिंदू सनातन परंपरा में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह व्यक्तिक एवं सामाजिक विकास … Read more

 - 
Arabic
 - 
ar
Bengali
 - 
bn
English
 - 
en
French
 - 
fr
German
 - 
de
Hindi
 - 
hi
Indonesian
 - 
id
Portuguese
 - 
pt
Russian
 - 
ru
Spanish
 - 
es