HISTORY - History in Hindi

शीत युद्ध: कारण, स्वरुप, घटनाएं, और विश्व पर प्रभाव | The Cold War

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अमेरिकी इतिहास का प्रतिनिधित्व करने वाली सदियों की अवधि जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो इस देश के प्रमुख युद्धों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रमुख सैन्य संगठनों को बाहर करना आसान है  द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर गृहयुद्ध तक, कोरिया से प्रथम विश्व युद्ध तक, अमेरिका कई सैन्य गतिविधियों में शामिल रहा है, और … Read more

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हड़प्पा सभ्यता: सामाजिक और आर्थिक जीवन, महत्वपूर्ण स्थल और पतन के कारण

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प्राचीन दुनिया में जब लोगों को ठीक से रहना भी नहीं आता था, उस समय भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता अस्तित्व में थी। इस सभ्यता को हड़प्पा अथवा सिंधु सभ्यता के नाम से जाना जाता है। इस सभ्यता से प्राप्त अवशेषों के आधार के आधार पर हड्डपा सभ्यता का सामाजिक और आर्थिक जीवन के विषय में इस लेख में चर्चा की जाएगी। लेख को अंत तक तक अवश्य पढ़ें।
हड़प्पा सभ्यता: सामाजिक और आर्थिक जीवन, महत्वपूर्ण स्थल और पतन के कारण

हड़प्पा सभ्यता: सामाजिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता में परिवार सामाजिक जीवन का मुख्य आधार था। परिवार में सब लोग प्रेमपूर्वक रहते थे। परिवार का मुखिया माता को माना जाता था यानि हड़प्पा सभ्यता में समाज मातृसत्तात्मक था।मोहनजोदड़ो की खुदाई से सामजिक विभाजन के संकेत प्राप्त होते हैं।सम्भवतः समाज चार वर्णों में विभाजित था- विद्वान-वर्ग, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक। 

  • विद्वान वर्ग के अंतर्गत  सम्भवतः  पुजारी, वैद्य, ज्योतिषी तथा जादूगर सम्मिलित थे। 
  • समाज में पुरोहितों का सम्मानित स्थान था। 
  • हड़प्पा सभ्यता में मिले मकानों की विभिन्नता के आधार पर कुछ विद्वानों ने समाज जाति प्रथा के प्रचलित  अनुमार लगाया है। 
  • खुदाई में प्राप्त तलवार, पहरेदारों भवन तथा प्राचीरों अवशेष मिलने से वहां क्षत्रिय जैसे किसी योद्धा वर्ग के  अनुमान लगाया जाता है। 
  • तीसरे वर्ग में व्यापारियों तथा शिल्पियों जैसे पत्थर काटने वाले, खुदाई करने वाले, जुलाहे, स्वर्णकार, आदि को शामिल किया  है। 
  • अंतिम वर्ग में विभिन्न अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग जैसे- श्रमिक, कृषक, चर्मकार, मछुआरे, आदि। 
  •  कुछ विद्वान हड़प्पा सभ्यता में दास प्रथा के प्राचलन का भी अनुमान लगते हैं। 
  • परन्तु एस. आर. राव ने दास प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। 

हड़प्पा सभ्यता में नारी का स्थान

 हड़प्पा सभ्यता में नारी का बहुत ऊँचा स्थान था।वह सभी सामाजिक  धार्मिक कार्यों तथा उत्सवों में पुरुषों  समान ही भाग थी।अधिकांश महिलाऐं घरेलु कार्यों से जुडी थीं। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

सिंधु सभ्यता के लोगों का भोजन

  • सिंधु सभ्यता  शाकाहारी तथा माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन ग्रहण करते थे। 
  • गेहूँ, जौ, चावल, तिल, दाल आदि प्रमुख खाद्यान्न थे। 
  • शाक-सब्जियां, दूध तथा विभिन्न प्रकार फलों खरबूजा, तरबूज, नीबू, अनार, नारियल आदि का सेवन करते थे। 
  • मांसाहारी भोजन में सूअर, भेड़-बकरी, बत्तख, मुर्गी, मछलियां, घड़ियाल आदि खाया जाता था। 

सिन्धुवासियों के वस्त्र

  • सिन्धुवासी सूती तथा ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। 
  • स्त्रियां जूड़ा बांधती थीं तथा पुरुष लम्बे-लम्बे बाल तथा दाढ़ी-मुँछ रखते थे। 

 हड़प्पा सभ्यता  आभूषण

  • महिलाऐं तथा पुरुष दोनों ही आभूषणों का इस्तेमाल करते थे जैसे- अंगूठी, कर्णफूल, कंठहार आदि। 
  • हड़प्पा से सोने के मनकों वाला छः लड़ियों का एक सुन्दर हार मिला है। 
  • छोटे-छोटे सोने तथा सेलखड़ी  निर्मित मनकों वाले हार बड़ी संख्या में मिले। हैं 
  • मोहनजोदड़ो से मार्शल ने एक बड़े आकर का हार प्राप्त किया है जिसके बीच  गोमेद के मनके हैं। 
  • कांचली मिटटी, शंख तथा सेलखड़ी की बानी चूड़ियां मिली हैं। 
  • सोने, चांदी, तथा कांसे की चूड़ियां, मिटटी और तांबे की अंगूठियां भी मिली हैं। 
  • मोहनजोदड़ो की स्त्रियां काजल, पाउडर, तथा श्रृंगार प्रसाधन का प्रयोग  थीं। 
  • चन्हूदड़ो से लिपस्टिक  साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। 
  • शीशे, कंघी, का भी प्रयोग  था। 
  • तांबे  दर्पण, छूरे, कंघें, अंजन लगाने की शलाइयाँ, श्रृंगादान आदि  हैं। 
  • आभूषण बहुमूल्य पत्थरों, हाथी-दांत, हड्डी और शंख के बनते थे। 
  • खुदाई में घड़े, थालियां, कटोरे, तश्तरियां, गिलास, चम्मच आदि बर्तन  हैं  आलावा चारपाई, स्टूल, चटाई  प्रयोग  था। 
  •  ऋग्वेदिककालीन भाषा और काव्य 

सिन्धुवासियों के मनोरंजन के साधन

  • पासा इस सभ्यता के लोगों का प्रमुख खेल था। 
  • हड़प्पा से मिटटी, पत्थर तथा  मिटटी के बने सात पासे मिले हैं। 
  • सतरंज जैसे कुछ गोटियां भी मिली हैं जो मिटटी, शंख, संगमरमर, स्लेट, सेलखड़ी आदि से बनीं हैं। 
  • नृत्य भी प्रिय साधन था जैसा कि मोहनजोदड़ो से कांस्य निर्मित नृत्य मुद्रा में मिली मूर्ति  प्रतीत होता है। 
  • जंगली जानवरों  शिकार भी मनोरंजन  साधन था
  • मछली फंसना तथा चिड़ियों  शिकार करना नियमित व्यवसाय था। 
  • मिटटी की बानी खिलौना गाड़ियां मिली हैं जिनसे खेलते होंगे। 

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प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

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प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान  प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास

1- हड़प्पा की खोज किसने की 

उत्तर- दयाराम साहनी ने 

2- मोहनजोदड़ो को खोज किसने की 

उत्तर- राखालदास बनर्जी 

3-सिंधु सभ्यता किस प्रकार की सभ्यता थी 

उत्तर- नगरीय सभ्यता ( शहरी )

4-सिंधु घाटी सभ्यता का वह कौनसा स्थल है जहाँ से ईंटों से निर्मित कृत्रिम गोदी ( डॉकयार्ड )  मिला है 

उत्तर- लोथल 

5-हड़प्पा का बिना दुर्गवाला एकमात्र नगर 

उत्तर- चन्हूदड़ो 

6-मातृदेवी की पूजा किस सभ्यता से सम्बंधित है 

उत्तर- सिंधु सभ्यता से 

7-मिथिला राज्य से संबंधित तीन प्राचीन ऋषि 

उत्तर- कपिल मुनि , गार्गी और मैत्रेय 

8-वैदिक काल में लोहे का प्रयोग किस समय हुआ 

उत्तर- 1000 ईसा पूर्व के आसपास 

9- श्रमण कौन थे 

उत्तर- वैदिक काल के वे अध्यापक जो वेद और ब्राह्मण विरोधी शिक्षा देते थे वह ‘श्रमण’ कलाते थे 

10-हिन्दू धर्म के चार आश्रम कौन से हैं 

उत्तर- ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ – सन्यास 

11- सबसे प्राचीन वेद कौनसा है 

उत्तर- ऋग्वेद 

12- उपनिषद का क्या अर्थ है 

उत्तर- पास बैठना 

13- महाभारत का प्रथम नाम 

उत्तर- जय सहिंता 

14- पशुपति शिव की प्राचीनतम उपास्थि 

उत्तर- सिंधु सभ्यता में 

15- किस प्रकार के वर्तन ( मृदभांड) भारत में द्वित्य नगरीकरण के प्रारम्भ का प्रतीक है 

उत्तर- उत्तरी काले पॉलिश युक्त बर्तन

16-  दिलवाड़ा ( माउन्ट आबू राजस्थान ) के मंदिर किस धर्म से सम्बंधित हैं

उत्तर- जैन धर्म

17- सत्यमेव जयते किस ग्रन्थ से है लिया गया है 

उत्तर- मुंडकोपनिषद 

18- हड़प्पा के लोगो की सामाजिक व्यवस्था कैसी थी 

उत्तर- उचित समतावादी 

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सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata

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 सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata      सिंधु घाटी सभ्यता ( Indus Valley Civilization ) – बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक अधिकांश विद्वान यही मानते थे कि वैदिक सभ्यता भारत की सर्वप्राचीन सभ्यता है और भारत का इतिहास वैदिक काल से ही प्रारंभ माना जाता था। परंतु बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक में इस भ्रामक धारणा … Read more

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आधुनिक भारतीय इतिहास पर आधारित समान्य अध्ययन

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आधुनिक भारतीय इतिहास से संबंधित प्रश्न अक्सर आपको प्रतियोगी परीक्षाओं में देखने मिलते हैं। आपके लिए 100 सर्वश्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ प्रश्नोत्तर आपको यहाँ मिलेंगे।    आधुनिक भारतीय इतिहास: इतिहास सामान्य अध्ययन 1- भारत विभाजन या माउंटबेटन योजना को  तीन जून योजना नाम क्यों दिया जाता है? ANS-क्योंकि 3 जून 1947 को हाउस ऑफ कॉमंस में एटली … Read more

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महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

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यह सत्य है की की भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी  मुहम्मद-बिन-कासिम था।  जिसने 711 ईस्वी में भारत पर आक्रमण किया। उसके आक्रमण का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह भारत की पश्चिमी सीमा तक ही आया था। परंतु उसके आक्रमण के लगभग 300 वर्ष पश्चात एक और दुर्दांत आक्रमणकारी भारत में आया जिसने भारत पर लगभग 17 बार आक्रमण किए और भारत को बुरी तरह लूटा। उसने विभिन्न मंदिरों को लूटा और लोगों कीहत्याएं कीं। उस दुर्दांत आक्रमणकारी का नाम महमूद गजनबी था।

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

अरबों का आरंभ किया हुआ कार्य तुर्कों ने पूर्ण कर दिया। आठवीं और नवीं शताब्दियों में तुर्कों ने बगदाद के खलीफा की शक्ति हथिया ली। तुर्कों और अरबों में असमानता थी तुर्क, अरबों से अधिक क्रूर थे और उन्होंने बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार किया। वे योद्धा थे और उनमें अपार साहस था। उनका दृष्टिकोण पूर्णतः भौतिक था। वे महत्वकांक्षी भी थे। पूर्व में सैनिक साम्राज्य की स्थापना के लिए सब गुण उनमें विद्यमान थे। डॉ० लेनपूल ने तुर्कों के प्रसार को “10वीं और 11वीं शताब्दियों में मुसलमानों के साम्राज्य के लिए अद्वितीय आंदोलन का रूप दिया है।”

महमूद गजनवी

जन्म 2 नवम्बर 971 गजनी अफगानिस्तान,
शासनावधि 997 -1030,
पिता सुबुक्तगीन,
राज्याभिषेक 1002, गजनी अफगानिस्तान,
मृत्य 30 अप्रैल 1030 गजनी अफगानिस्तान।

गजनी वंश का संस्थापक

अलप्तगीन

अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था जिसका संबंध मुसलमानों की भारत विजय की कहानी से है। वह असाधारण योग्यता और साहस का स्वामी था वह बुखारा के समानी शासक अब्दुल मलिक का दास था। अपने परिश्रम से वह हजीब-उल-हज्जाब के पद पर नियुक्त हुआ। 956 ईसवी में उसे खुरासान का शासन भार सौंप दिया गया। 962 ईसवी में अब्दुल मलिक के देहांत के पश्चात उसके भाई और चाचा में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ।

अलप्तगीन ने उसके चाचा की सहायता की परंतु अब्दुल मलिक का भाई मंसूर सिंहासन पाने में सफल हुआ। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन ने अपने 800 व्यक्तिगत सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी नगर में निवास किया। उसने मंसूर के प्रयासों को उसे गजनी से बाहर निकालने के लिए असफल किया और इस शहर और उसके पड़ोसी भागों पर अधिकार स्थापित रखा।

महमूद गजनवी का पिता

सुबुक्तगीन

सुबुक्तगीन महमूद गजनबी का पिता था जिसने 977 ईसवी में अलप्तगीन की मृत्यु के पश्चात गजनी का सिंहासन को प्राप्त किया था। सुबुक्तगीन गजनी का शासक बन गया। सुबुक्तगीन प्रारंभ में एक दास था। नासिर-हाजी नामक व्यापारी से जो उसे तुर्किस्तान से बुखारा लाया था, अलप्तगीन ने उसे खरीदा। उसकी प्रतिभा को देखकर अलप्तगीन ने उसे एक के बाद एक दूसरे उच्च पदों पर नियुक्त किया। सुबुक्तगीन को अमीर-उल-उमरा की उपाधि उपाधि दी गई।
अलप्तगीन ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया। सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात उसने आक्रमणों का जीवन प्रारंभ किया, जिससे उसे पूर्वी संसार में प्रसिद्धि मिली।

सुबुक्तगीन द्वारा भारत पर आक्रमण

 सुबुक्तगीन एक महत्वाकांक्षी शासक था इसलिए उसने अपना सारा ध्यान धन और मूर्ति-पूजकों से परिपूर्ण भारत की विजय की ओर लगाया। उसकी शाही वंश के राजा जयपाल, जिसका राज्य सरहिंद से लमगान (जलालाबाद) और कश्मीर से मुल्तान तक था, से सबसे पहले भेंट हुई। शाही शासकों की राजधानियां क्रमशः  ओंड, लाहौर और भटिंडा थीं।
986-87 ईसवी में सुबुक्तगीन ने प्रथम बार भारत की सीमा में आक्रमण किया और उसने अनेक किलों अथवा नगरों को विजय किया “जिसमें इससे पहले विधर्मियों (हिन्दुओं) के अतिरिक्त और कोई न रहता था और जिन्हें मुसलमानों के घोड़ों और ऊंटों ने कभी भी पददलित नहीं किया था। जयपाल यह सहन न कर सका। वह अपनी सेना को एकत्रित कर लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहां सुबुक्तगीन और उसके बेटे (महमूद गजनवी) से उसका सामना हुआ। युद्ध कई दिन तक होता रहा। जयपाल की सभी योजनाएं बर्फ के तूफान के कारण असफल हुईं। उसने संधि के लिए प्रार्थना की।

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वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

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प्राचीन भारतीय इतिहास में वैदिक काल का अत्यधिक महत्व है। वैदिक काल अपनी वैदिक शिक्षा के साथ स्वास्थ्य के लिए भी प्रसिद्ध था। इस काल में यद्यपि शिक्षा का आधार संस्कृत था और केवल उच्च वर्ग को ही शिक्षा का अधिकार था। आज इस लेख में हम वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का अध्ययन करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

      

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

वैदिक कालीन शिक्षा

चाहे कितनी भी पिछड़ी मानव जाति हो उसके लिए भी पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाना आवश्यक होता है, जिसके वास्ते उसे किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रणाली अपनानी पड़ती है। वैदिक आर्य अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाते थे। जिस ज्ञान को वह परम-पवित्र मानते थे, वह वेद के मंत्र थे।

ऋग्वैदिक आर्यों के समय से पहले मोहनजोदड़ो के लोग एक तरह की चित्र लिपि इस्तेमाल करते थे, जिसके हजार के करीब अक्षर प्राप्त हो चुके हैं, पर अभी तक पढ़ने की कुंजी नहीं मिली है। लिखने का पूरी तरह से प्रचार हो जाने पर भी वेदों को गुरुमुख से सुनकर पढ़ने का रिवाज हमारे यहां अभी भी पसंद किया जाता था, फिर ऋग्वेद के काल में उसे लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया होगा, इसकी संभावना नहीं है।

आर्य बहुत पीछे तक वेद के लिपिबद्ध करने के खिलाफ रहे, क्योंकि तब उनकी गोपनियता नष्ट हो जाती  वैदिक बागा में ही वाङमय ही क्यों, बौद्ध और जैन पिटक भी  शताब्दियों तक कंठस्थ रखे गये। बौद्ध त्रिपिटक बुद्ध-निर्वाण के चार शताब्दी बाद और जैन-आगम आठ शताब्दी बाद लिपिबद्ध हुए। कान से सुनकर सीखे जाने के कारण वेद को श्रुति कहते हैं। इसलिए बड़े विद्वान को बहुश्रुत—-बहुत सुना हुआ—- कहा जाता।

हमारी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका संबंध किस पुरानी लिपि से है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है।  इतना मालूम है, कि हमारी सबसे पुरानी वर्णमाला ब्राह्मी है। जिसके निश्चित काल वाले नमूने अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, जो ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी में या बुद्ध निर्वाण से ढाई सौ वर्ष बाद के हैं।

पिपरहवा के ब्राह्मी अक्षर बुद्धकालीन है, यह विवादास्पद है। ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी से पहले की वर्णमाला के नमूने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की चित्र लिपियों में मिलते हैं। दोनों लिपियों का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। यद्यपि मोहनजोदड़ो की चित्रलिपि से उच्चारण वाली वर्णमाला का निकलना बिल्कुल संभव है, पर ब्राह्मी मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली, इसे सिद्ध करना अभी संभव नहीं है।

 उस समय किसी प्रकार की मौखिक शिक्षा पुरानी (अतएव पवित्र) कविताओं की जरूर होती थी। उसका संग्रह ऋग्वेद में होना चाहिए था। ऋग्वेद में होना चाहिए था। पर, वैसा नहीं देखा जाता। ऋग्वेद के प्राचीनतम ऋषि और उनकी कृतियां, हमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तक ले जाती हैं। उससे पुराने दो-चार ही ऐसे ऋषि मिलते हैं, जिनकी कृतियां पुरानी हो सकती हैं, पर, भाषा और संग्रह की गड़बड़ी ने उनकी प्राचीनता को बहुत कुछ गंवा दिया है।

अनुमान किया जाता है कि, ऋग्वेद के महान ऋषियों ने इंद्र, अग्नि, मित्र के ऊपर जो हजारों और ऋचाएं बनाई थीं, उनमें कुछ शब्द या भाव में भारद्वाज से पुरानी हो सकती हैं ; पर, इसे निश्चयपूर्वक नहीं बतलाया जा सकता। हमारे सबसे पुराने देवता द्यौ और पृथ्वी हैं, जिन्हें ऋग्वेद में पितरौ  (दोनों माता-पिता) कहा गया है। द्यौ पिता और पृथ्वी माता द्यौ-पितर का ख्याल बहुत पुराना है।

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सांख्य दर्शन : सांख्य दर्शन क्या है, जानिए, सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष

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प्राचीनभारतीय संस्कृति पूरे संसार में अपने ज्ञान और विज्ञान के लिएविश्वविख्यात थी। भारतीय संस्कृति संसार की सबसे गौरवमयी संस्कृतियों मेंएक है।  प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन की उतपत्ति और उसके रहस्यों कोजानने के लिए विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें हम दर्शन कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मुखतया छ: दर्शन प्रमुख हैं सांख्य दर्शन , … Read more

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भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी- जीवन इतिहास कहानी हिंदी में | Lord Gautam Buddha Biography in Hindi

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भगवान गौतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम के नाम से भी जाना जाता है, एक आध्यात्मिक नेता और दार्शनिक थे जो प्राचीन भारत में रहते थे। उनका जन्म 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लुंबिनी, वर्तमान नेपाल में एक शाही परिवार में एक राजकुमार के रूप में हुआ था। हालाँकि, उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने और मानव पीड़ा को समाप्त करने का मार्ग खोजने के लिए अपने राजसी जीवन को त्याग दिया।

वर्षों के गहन ध्यान और आत्म-चिंतन के बाद, उन्होंने भारत के बोधगया में एक बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, जिसका अर्थ है “जागृत व्यक्ति।” उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की, एक प्रमुख विश्व धर्म जो जन्म और मृत्यु के चक्र से आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में चार महान सत्य और आठ गुना पथ सिखाता है। बुद्ध की शिक्षाओं का दुनिया भर के लाखों लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और वे सत्य और आंतरिक शांति के चाहने वालों को प्रेरित करती रहती हैं।

Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi
महात्मा बुद्ध

Lord Gautam Buddha Biography in Hindi-महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक जीवन

 गौतम बुद्घ का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिदेई अथवा रूमिन्देह) नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहांत हो गया तथा उनका पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।

उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ। उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी। परंतु बचपन से ही वे अत्यधिक चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रायः एकांत स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण सुख दु:ख आदि समस्याओं के ऊपर गंभीरतापूर्वक विचार किया करते थे।

नामगौतम बुद्ध
बचपन का नामसिद्धार्थ
जन्मलगभग 563 ईसा पूर्व
जन्म स्थानलुम्बिनी, नेपाल
वंशशाक्य (क्षत्रिय)
पिताराजा शुद्धोधन
मातारानी महामाया
पत्नीयशोधरा
पुत्रराहुल
मौसीमहाप्रजापति गोतमी
गृहत्याग29 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने महल और विलासी जीवन को छोड़कर बोधि प्राप्ति के लिए निवृत्त हो गए
पहला उपदेशसारनाथ, वाराणसी में हिरण्यवती मृगदेन का उपदेश
धर्म के प्रोत्साहकसिद्धार्थ गौतम, जिन्हें बुद्ध के रूप में जाना जाता है, बौद्ध धर्म के मुख्य प्रतीक हैं
मृत्युलगभग 483 ईसा पूर्व
मृत्यु स्थानकुशीनगर, भारत

महात्मा बुद्ध का विवाह

 महात्मा बुद्ध को इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देख उनके पिता को गहरी चिंता हुई। उन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की भरपूर कोशिश की। विलासिता की सामग्रियां उन्हें प्रदान की गयी। इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत रूपवती कन्या के साथ कर दिया। इस कन्या का नाम उत्तर कालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है।

कालांतर में उनका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’पड़ा। तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवाये गए तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गई कि वे सांसारिक दु:खों के दर्शन न कर सकें।

बुद्ध द्वारा गृह त्याग

 परंतु सिद्धार्थ सांसारिक विषय भोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके। भ्रमण के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अंततः एक प्रसन्नचित संन्यासीको देखा। उनका हृदय मानवता को दु:ख में फंसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा।

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बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना | प्लासी, बक्सर का युद्ध

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बंगाल भारत का सबसे समृद्ध राज्य था जो अपने समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। औपनिवेशिक शासकों ने बंगाल के आर्थिक महत्व को समझा और बंगाल अपने व्यापार की जड़ें जमाई। बंगाल से शुरू हुआ हुआ ये व्यापार का खेल कब सत्ता के खेल में बदल गया भारतीय शासक समझने में विफल रहे। आज इस लेख में हम ‘बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना’ शीर्षक के अंतर्गत प्लासी और बक्सर युद्धों के साथ इलाहबाद की संधि के महत्व और उनकी पृस्ठभूमि को को भी समझेंगे। यह लेख पूर्णतया ऐतिहासिक विवरणों और प्रामाणिक पुस्तकों की सहायता से तैयार किया गया है। कृपया लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना | बंगाल में ब्रिटिश शक्ति का उदय,प्लासी, बक्सर का युद्ध

         

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना

अंग्रेजों की प्रारम्भिक स्थिति और नीतियों को देखकर कह सकते हैं कि बंगाल में अंग्रेजी शक्ति का उदय आकस्मिक और परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण हुआ था। तत्कालीन बंगाल के नवाब (सिराजुद्दौला) और उसकी कमजोरी के कारण बंगाल में अंग्रेजों को पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो गया, जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। भारत की गुलामी की दास्तां बंगाल से ही शुरू हुई। इस ब्लॉग के माध्यम से हम बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और बंगाल की गुलामी के विषय में जानेंगे।

बंगाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-

बंगाल में अंग्रेजों के आने से पूर्व की स्थिति को जानना आवश्यक है ताकि औपनिवेशिक शासकों की नीतियों को आसानी से समझा सके।

समकालीन बंगाल में आधुनिक पश्चिमी बंगाल प्रांत, संपूर्ण बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा सम्मिलित थे। बंगाल मुगलकालीन भारत का सबसे संपन्न राज्य था। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जहां शेष भारत में हर तरफ पतन, पराजय और दिवालिएपन के बादल मंडरा रहे थे अकेला बंगाल प्रांत ही ऐसा था जहाँ साधन संपन्नता और समृद्धि की झलक दिखाई पड़ती थी और मुगल शासन के लिए यही एकमात्र चांदी की खान रह गया था। सौभाग्य से बंगाल को योग्यतम शासक मिले.


1700 ई० में मुर्शिद कुली खां बंगाल का दीवान नियुक्त हुआ और मृत्युपर्यंत (1727 ईस्वी तक) बंगाल की बागडोर संभाले रहा। इसके बाद उसके दामाद शुजा ने 14 वर्ष तक बंगाल पर शासन किया। इसके पश्चात 1 वर्ष के अल्प समय के लिए शासन मुर्शिद कुली खां के निकम्मे बेटे के हाथ में आ गया लेकिन शीघ्र ही अलीवर्दी खाँ ने उसका तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली और 1756 तक बंगाल पर शासन किया। ये तीनों ही शासक बड़े समर्थ और सबल थे, इनके शासनकाल में बंगाल इतना अधिक समृद्ध हो गया था कि इसे बंगाल, स्वर्ग कहा जाने लगा।

कुशल प्रशासन के अतिरिक्त बंगाल को अन्य लाभ भी थे– एक ओर जहां शेष भारत सीमावर्ती युद्धों,मराठा आक्रमणों और जाट विद्रोह से ग्रस्त था और उत्तरी भारत नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से विनष्ट हो चुका था, वहीं बंगाल में कुल मिलाकर शांति बनी रही। यहां व्यापार, वाणिज्य, उद्योग धंधे और कृषि, सभी पर्याप्त रूप से समृद्ध थे।

कोलकाता की आबादी, 1706 में 15,000 थी, 1750 में बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई और ढाका तथा मुर्शिदाबाद घनी आबादी वाले नगर बन गए लेकिन समृद्धि की जगमगाहट के पीछे की दशा इतनी अधिक निराशाजनक और नाजुक थी कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह समृद्धि कच्ची-ईंटों की दीवार की भांति है जो तूफान के एक छोटे से झोंके से भरभराकर गिरकर समुद्र में विलीन हो जाएगी। बंगाल के अहंकारी नवाब शासक और अरसे से शोषित उनकी प्रजा अभी भी एक-दूसरे के माया जाल से बंधे रहने के लिए अभिशप्त थे।

  • 1690 में जॉन चारनॉक ने अंग्रेज बस्ती के रूप में कोलकाता की स्थापना की।
  • 1697 में फोर्ट विलियम नाम से एक किलेबन्द फैक्ट्री बनाई जिसने एक नए प्रांत का रुप ले लिया। और 1700 में इसे औपचारिक रूप से बंगाल में फोर्ट विलियम प्रांत (प्रेसीडेंसी) कहा गया।
  • सुतनौती, कलिकाता और गेाविन्दपुर को मिलाकर आधुनिक नगर कलकत्ता(कोलकता) का विकास हुआ।

बंगाल में अंग्रेजों का आगमन

बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों की स्थापना से पूर्व का इतिहास अनेक सुस्पष्ट चरणों में विभाजित है।
सन 1633 से 1663 ईसवी के मध्य बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों और फैक्ट्रियों की स्थापना मुगल शासन के अधीन केवल शांतिपूर्वक व्यापार करने के लक्ष्य को लेकर की गई थी। उस समय उनका कोई अन्य लक्ष्य नहीं था।
1633 से पूर्व अंग्रेजों का आगमन उस समय हुआ जब उड़ीसा के मुगल सूबेदार ने उन्हें हरिहरपुर (महानदी के मुहाने के समीप) और उत्तर में बालासोर में अपनी फैक्ट्रियाँ खोलने की अनुमति दी और अंग्रेजों ने उड़ीसा में 1641 में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। 
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी ने जड़ें जमाने से पूर्व भारत के सबसे समृद्ध राज्य बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651ई० में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाह जहान के दूसरे पुत्र शाहशुजा की अनुमति से बनाई। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन (Dr.Boughton) द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेजों को RS-3000 वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति दे दी। शीघ्र ही अंग्रेजों कासिम बाजार, पटना तथा अन्य स्थान पर कोठियां बना लीं।
1698 में सूबेदार अजीमुशान ने उन्हें सूतानती, कालीघाट तथा गोविंदपुर ( जहाँ आज कोलकाता बसा है) की जमींदारी दे दी जिसके बदले उन्हें केवल RS-1200 पुराने मालिकों को देने पड़े। 1717 में सम्राट फर्रूखसियर ने पुराने  सूबेदारों द्वारा दी गई व्यापारिक रियायतों की पुनः पुष्टि कर दी तथा उन्हें कोलकाता के आस-पास के अन्य क्षेत्रों को भी किराए पर लेने की अनुमति दे दी।

1741 में बिहार का नायब सूबेदार अलीबर्दी खाँ बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के नायब सरफराज खाँ से विद्रोह कर, उसे युद्ध में मार कर स्वयं इस समस्त प्रदेश का नवाब बन गया। अपनी स्थिति को और भी सुदृढ़ करने के लिए उसने सम्राट मुहम्मद शाह से बहुत से धन के बदले एक पुष्टि पत्र (confermation) प्राप्त कर लिया। परंतु उसी समय मराठा आक्रमणों ने विकट रूप धारण कर लिया तथा अलीवर्दी खां के शेष 15 वर्ष उनसे भिड़ने में व्यतीत हो गए।
मराठा आक्रमण से बचने के लिए अंग्रेजों ने नवाब की अनुमति से अपनी कोठी जिसे अब फोर्टविलियम की संज्ञा दे दी गई थी, के चारों ओर एक गहरी खाई (moat) बना ली। अलीवर्दी खां का ध्यान कर्नाटक की घटनाओं की ओर आकर्षित किया गया जहां विदेशी कंपनियों ने समस्त सत्ता हथिया ली थी। अंग्रेज बंगाल में जड़ न पकड़ लें, इस डर से उसे कहा गया कि वह अंग्रेजों को बंगाल से पूर्णरूपेण निष्कासित कर दे।
नवाब ने यूरोपियों को मधुमक्खियों की उपमा दी थी। कि यदि उन्हें छेड़ा जाए  तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काट कर मार डालेंगी। शीघ्र ही यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई।
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