महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

यह सत्य है की की भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी  मुहम्मद-बिन-कासिम था।  जिसने 711 ईस्वी में भारत पर आक्रमण किया। उसके आक्रमण का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह भारत की पश्चिमी सीमा तक ही आया था। परंतु उसके आक्रमण के लगभग 300 वर्ष पश्चात एक और दुर्दांत आक्रमणकारी भारत में आया जिसने भारत पर लगभग 17 बार आक्रमण किए और भारत को बुरी तरह लूटा। उसने विभिन्न मंदिरों को लूटा और लोगों कीहत्याएं कीं। उस दुर्दांत आक्रमणकारी का नाम महमूद गजनबी था।

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

अरबों का आरंभ किया हुआ कार्य तुर्कों ने पूर्ण कर दिया। आठवीं और नवीं शताब्दियों में तुर्कों ने बगदाद के खलीफा की शक्ति हथिया ली। तुर्कों और अरबों में असमानता थी तुर्क, अरबों से अधिक क्रूर थे और उन्होंने बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार किया। वे योद्धा थे और उनमें अपार साहस था। उनका दृष्टिकोण पूर्णतः भौतिक था। वे महत्वकांक्षी भी थे। पूर्व में सैनिक साम्राज्य की स्थापना के लिए सब गुण उनमें विद्यमान थे। डॉ० लेनपूल ने तुर्कों के प्रसार को “10वीं और 11वीं शताब्दियों में मुसलमानों के साम्राज्य के लिए अद्वितीय आंदोलन का रूप दिया है।”

महमूद गजनवी

जन्म 2 नवम्बर 971 गजनी अफगानिस्तान,
शासनावधि 997 -1030,
पिता सुबुक्तगीन,
राज्याभिषेक 1002, गजनी अफगानिस्तान,
मृत्य 30 अप्रैल 1030 गजनी अफगानिस्तान।

गजनी वंश का संस्थापक

अलप्तगीन

अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था जिसका संबंध मुसलमानों की भारत विजय की कहानी से है। वह असाधारण योग्यता और साहस का स्वामी था वह बुखारा के समानी शासक अब्दुल मलिक का दास था। अपने परिश्रम से वह हजीब-उल-हज्जाब के पद पर नियुक्त हुआ। 956 ईसवी में उसे खुरासान का शासन भार सौंप दिया गया। 962 ईसवी में अब्दुल मलिक के देहांत के पश्चात उसके भाई और चाचा में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ।

अलप्तगीन ने उसके चाचा की सहायता की परंतु अब्दुल मलिक का भाई मंसूर सिंहासन पाने में सफल हुआ। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन ने अपने 800 व्यक्तिगत सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी नगर में निवास किया। उसने मंसूर के प्रयासों को उसे गजनी से बाहर निकालने के लिए असफल किया और इस शहर और उसके पड़ोसी भागों पर अधिकार स्थापित रखा।

महमूद गजनवी का पिता

सुबुक्तगीन

सुबुक्तगीन महमूद गजनबी का पिता था जिसने 977 ईसवी में अलप्तगीन की मृत्यु के पश्चात गजनी का सिंहासन को प्राप्त किया था। सुबुक्तगीन गजनी का शासक बन गया। सुबुक्तगीन प्रारंभ में एक दास था। नासिर-हाजी नामक व्यापारी से जो उसे तुर्किस्तान से बुखारा लाया था, अलप्तगीन ने उसे खरीदा। उसकी प्रतिभा को देखकर अलप्तगीन ने उसे एक के बाद एक दूसरे उच्च पदों पर नियुक्त किया। सुबुक्तगीन को अमीर-उल-उमरा की उपाधि उपाधि दी गई।
अलप्तगीन ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया। सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात उसने आक्रमणों का जीवन प्रारंभ किया, जिससे उसे पूर्वी संसार में प्रसिद्धि मिली।

सुबुक्तगीन द्वारा भारत पर आक्रमण

 सुबुक्तगीन एक महत्वाकांक्षी शासक था इसलिए उसने अपना सारा ध्यान धन और मूर्ति-पूजकों से परिपूर्ण भारत की विजय की ओर लगाया। उसकी शाही वंश के राजा जयपाल, जिसका राज्य सरहिंद से लमगान (जलालाबाद) और कश्मीर से मुल्तान तक था, से सबसे पहले भेंट हुई। शाही शासकों की राजधानियां क्रमशः  ओंड, लाहौर और भटिंडा थीं।
986-87 ईसवी में सुबुक्तगीन ने प्रथम बार भारत की सीमा में आक्रमण किया और उसने अनेक किलों अथवा नगरों को विजय किया “जिसमें इससे पहले विधर्मियों (हिन्दुओं) के अतिरिक्त और कोई न रहता था और जिन्हें मुसलमानों के घोड़ों और ऊंटों ने कभी भी पददलित नहीं किया था। जयपाल यह सहन न कर सका। वह अपनी सेना को एकत्रित कर लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहां सुबुक्तगीन और उसके बेटे (महमूद गजनवी) से उसका सामना हुआ। युद्ध कई दिन तक होता रहा। जयपाल की सभी योजनाएं बर्फ के तूफान के कारण असफल हुईं। उसने संधि के लिए प्रार्थना की।

Read more

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में वैदिक काल का अत्यधिक महत्व है। वैदिक काल अपनी वैदिक शिक्षा के साथ स्वास्थ्य के लिए भी प्रसिद्ध था। इस काल में यद्यपि शिक्षा का आधार संस्कृत था और केवल उच्च वर्ग को ही शिक्षा का अधिकार था। आज इस लेख में हम वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का अध्ययन करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

      

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

वैदिक कालीन शिक्षा

चाहे कितनी भी पिछड़ी मानव जाति हो उसके लिए भी पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाना आवश्यक होता है, जिसके वास्ते उसे किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रणाली अपनानी पड़ती है। वैदिक आर्य अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाते थे। जिस ज्ञान को वह परम-पवित्र मानते थे, वह वेद के मंत्र थे।

ऋग्वैदिक आर्यों के समय से पहले मोहनजोदड़ो के लोग एक तरह की चित्र लिपि इस्तेमाल करते थे, जिसके हजार के करीब अक्षर प्राप्त हो चुके हैं, पर अभी तक पढ़ने की कुंजी नहीं मिली है। लिखने का पूरी तरह से प्रचार हो जाने पर भी वेदों को गुरुमुख से सुनकर पढ़ने का रिवाज हमारे यहां अभी भी पसंद किया जाता था, फिर ऋग्वेद के काल में उसे लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया होगा, इसकी संभावना नहीं है।

आर्य बहुत पीछे तक वेद के लिपिबद्ध करने के खिलाफ रहे, क्योंकि तब उनकी गोपनियता नष्ट हो जाती  वैदिक बागा में ही वाङमय ही क्यों, बौद्ध और जैन पिटक भी  शताब्दियों तक कंठस्थ रखे गये। बौद्ध त्रिपिटक बुद्ध-निर्वाण के चार शताब्दी बाद और जैन-आगम आठ शताब्दी बाद लिपिबद्ध हुए। कान से सुनकर सीखे जाने के कारण वेद को श्रुति कहते हैं। इसलिए बड़े विद्वान को बहुश्रुत—-बहुत सुना हुआ—- कहा जाता।

हमारी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका संबंध किस पुरानी लिपि से है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है।  इतना मालूम है, कि हमारी सबसे पुरानी वर्णमाला ब्राह्मी है। जिसके निश्चित काल वाले नमूने अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, जो ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी में या बुद्ध निर्वाण से ढाई सौ वर्ष बाद के हैं।

पिपरहवा के ब्राह्मी अक्षर बुद्धकालीन है, यह विवादास्पद है। ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी से पहले की वर्णमाला के नमूने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की चित्र लिपियों में मिलते हैं। दोनों लिपियों का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। यद्यपि मोहनजोदड़ो की चित्रलिपि से उच्चारण वाली वर्णमाला का निकलना बिल्कुल संभव है, पर ब्राह्मी मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली, इसे सिद्ध करना अभी संभव नहीं है।

 उस समय किसी प्रकार की मौखिक शिक्षा पुरानी (अतएव पवित्र) कविताओं की जरूर होती थी। उसका संग्रह ऋग्वेद में होना चाहिए था। ऋग्वेद में होना चाहिए था। पर, वैसा नहीं देखा जाता। ऋग्वेद के प्राचीनतम ऋषि और उनकी कृतियां, हमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तक ले जाती हैं। उससे पुराने दो-चार ही ऐसे ऋषि मिलते हैं, जिनकी कृतियां पुरानी हो सकती हैं, पर, भाषा और संग्रह की गड़बड़ी ने उनकी प्राचीनता को बहुत कुछ गंवा दिया है।

अनुमान किया जाता है कि, ऋग्वेद के महान ऋषियों ने इंद्र, अग्नि, मित्र के ऊपर जो हजारों और ऋचाएं बनाई थीं, उनमें कुछ शब्द या भाव में भारद्वाज से पुरानी हो सकती हैं ; पर, इसे निश्चयपूर्वक नहीं बतलाया जा सकता। हमारे सबसे पुराने देवता द्यौ और पृथ्वी हैं, जिन्हें ऋग्वेद में पितरौ  (दोनों माता-पिता) कहा गया है। द्यौ पिता और पृथ्वी माता द्यौ-पितर का ख्याल बहुत पुराना है।

Read more

सांख्य दर्शन : सांख्य दर्शन क्या है, जानिए, सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष

प्राचीनभारतीय संस्कृति पूरे संसार में अपने ज्ञान और विज्ञान के लिएविश्वविख्यात थी। भारतीय संस्कृति संसार की सबसे गौरवमयी संस्कृतियों मेंएक है।  प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन की उतपत्ति और उसके रहस्यों कोजानने के लिए विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें हम दर्शन कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मुखतया छ: दर्शन प्रमुख हैं सांख्य दर्शन , … Read more

Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi

भगवान गौतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम के नाम से भी जाना जाता है, एक आध्यात्मिक नेता और दार्शनिक थे जो प्राचीन भारत में रहते थे। उनका जन्म 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लुंबिनी, वर्तमान नेपाल में एक शाही परिवार में एक राजकुमार के रूप में हुआ था। हालाँकि, उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने और मानव पीड़ा को समाप्त करने का मार्ग खोजने के लिए अपने राजसी जीवन को त्याग दिया। वर्षों के गहन ध्यान और आत्म-चिंतन के बाद, उन्होंने भारत के बोधगया में एक बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, जिसका अर्थ है “जागृत व्यक्ति।” उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की, एक प्रमुख विश्व धर्म जो जन्म और मृत्यु के चक्र से आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में चार महान सत्य और आठ गुना पथ सिखाता है। बुद्ध की शिक्षाओं का दुनिया भर के लाखों लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और वे सत्य और आंतरिक शांति के चाहने वालों को प्रेरित करती रहती हैं।

Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi
महात्मा बुद्ध

 

Lord Gautam Buddha Biography-महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक जीवन

 गौतम बुद्घ का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिदेई अथवा रूमिन्देह) नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहांत हो गया तथा उनका पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।

उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ। उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी। परंतु बचपन से ही वे अत्यधिक चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रायः एकांत स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण सुख दु:ख आदि समस्याओं के ऊपर गंभीरतापूर्वक विचार किया करते थे।

महात्मा बुद्ध का विवाह

 महात्मा बुद्ध को इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देख उनके पिता को गहरी चिंता हुई। उन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की भरपूर कोशिश की। विलासिता की सामग्रियां उन्हें प्रदान की गयी। इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत रूपवती कन्या के साथ कर दिया। इस कन्या का नाम उत्तर कालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है।

कालांतर में उनका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’पड़ा। तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवाये गए तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गई कि वे सांसारिक दु:खों के दर्शन न कर सकें।

बुद्ध द्वारा गृह त्याग

 परंतु सिद्धार्थ सांसारिक विषय भोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके। भ्रमण के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अंततः एक प्रसन्नचित संन्यासीको देखा। उनका हृदय मानवता को दु:ख में फंसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा।

Read more

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना | बंगाल में ब्रिटिश शक्ति का उदय,प्लासी, बक्सर का युद्ध – BATTLE OF PLASSY & BUXAR

बंगाल भारत का सबसे समृद्ध राज्य था जो अपने समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। औपनिवेशिक शासकों ने बंगाल के आर्थिक महत्व को समझा और बंगाल अपने व्यापार की जड़ें जमाई। बंगाल से शुरू हुआ हुआ ये व्यापार का खेल कब सत्ता के खेल में बदल गया भारतीय शासक समझने में विफल रहे। आज इस लेख में हम ‘बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना’ शीर्षक के अंतर्गत प्लासी और बक्सर युद्धों के साथ इलाहबाद की संधि के महत्व और उनकी पृस्ठभूमि को को भी समझेंगे। यह लेख पूर्णतया ऐतिहासिक विवरणों और प्रामाणिक पुस्तकों की सहायता से तैयार किया गया है। कृपया लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना | बंगाल में ब्रिटिश शक्ति का उदय,प्लासी, बक्सर का युद्ध

           

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना

अंग्रेजों की प्रारम्भिक स्थिति और नीतियों को देखकर कह सकते हैं कि बंगाल में अंग्रेजी शक्ति का उदय आकस्मिक और परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण हुआ था। तत्कालीन बंगाल के नवाब (सिराजुद्दौला) और उसकी कमजोरी के कारण बंगाल में अंग्रेजों को पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो गया, जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। भारत की गुलामी की दास्तां बंगाल से ही शुरू हुई। इस ब्लॉग के माध्यम से हम बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और बंगाल की गुलामी के विषय में जानेंगे।

बंगाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-

बंगाल में अंग्रेजों के आने से पूर्व की स्थिति को जानना आवश्यक है ताकि औपनिवेशिक शासकों की नीतियों को आसानी से समझा सके।

समकालीन बंगाल में आधुनिक पश्चिमी बंगाल प्रांत, संपूर्ण बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा सम्मिलित थे। बंगाल मुगलकालीन भारत का सबसे संपन्न राज्य था। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जहां शेष भारत में हर तरफ पतन, पराजय और दिवालिएपन के बादल मंडरा रहे थे अकेला बंगाल प्रांत ही ऐसा था जहाँ साधन संपन्नता और समृद्धि की झलक दिखाई पड़ती थी और मुगल शासन के लिए यही एकमात्र चांदी की खान रह गया था। सौभाग्य से बंगाल को योग्यतम शासक मिले.

1700 ई० में मुर्शिद कुली खां बंगाल का दीवान नियुक्त हुआ और मृत्युपर्यंत (1727 ईस्वी तक) बंगाल की बागडोर संभाले रहा। इसके बाद उसके दामाद शुजा ने 14 वर्ष तक बंगाल पर शासन किया। इसके पश्चात 1 वर्ष के अल्प समय के लिए शासन मुर्शिद कुली खां के निकम्मे बेटे के हाथ में आ गया लेकिन शीघ्र ही अलीवर्दी खाँ ने उसका तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली और 1756 तक बंगाल पर शासन किया। ये तीनों ही शासक बड़े समर्थ और सबल थे, इनके शासनकाल में बंगाल इतना अधिक समृद्ध हो गया था कि इसे बंगाल, स्वर्ग कहा जाने लगा।

कुशल प्रशासन के अतिरिक्त बंगाल को अन्य लाभ भी थे– एक ओर जहां शेष भारत सीमावर्ती युद्धों,मराठा आक्रमणों और जाट विद्रोह से ग्रस्त था और उत्तरी भारत नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से विनष्ट हो चुका था, वहीं बंगाल में कुल मिलाकर शांति बनी रही। यहां व्यापार, वाणिज्य, उद्योग धंधे और कृषि, सभी पर्याप्त रूप से समृद्ध थे।

कोलकाता की आबादी, 1706 में 15,000 थी, 1750 में बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई और ढाका तथा मुर्शिदाबाद घनी आबादी वाले नगर बन गए लेकिन समृद्धि की जगमगाहट के पीछे की दशा इतनी अधिक निराशाजनक और नाजुक थी कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह समृद्धि कच्ची-ईंटों की दीवार की भांति है जो तूफान के एक छोटे से झोंके से भरभराकर गिरकर समुद्र में विलीन हो जाएगी। बंगाल के अहंकारी नवाब शासक और अरसे से शोषित उनकी प्रजा अभी भी एक-दूसरे के माया जाल से बंधे रहने के लिए अभिशप्त थे।

  • 1690 में जॉन चारनॉक ने अंग्रेज बस्ती के रूप में कोलकाता की स्थापना की।
  • 1697 में फोर्ट विलियम नाम से एक किलेबन्द फैक्ट्री बनाई जिसने एक नए प्रांत का रुप ले लिया। और 1700 में इसे औपचारिक रूप से बंगाल में फोर्ट विलियम प्रांत (प्रेसीडेंसी) कहा गया।
  • सुतनौती, कलिकाता और गेाविन्दपुर को मिलाकर आधुनिक नगर कलकत्ता(कोलकता) का विकास हुआ।

बंगाल में अंग्रेजों का आगमन

बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों की स्थापना से पूर्व का इतिहास अनेक सुस्पष्ट चरणों में विभाजित है।
सन 1633 से 1663 ईसवी के मध्य बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों और फैक्ट्रियों की स्थापना मुगल शासन के अधीन केवल शांतिपूर्वक व्यापार करने के लक्ष्य को लेकर की गई थी। उस समय उनका कोई अन्य लक्ष्य नहीं था।
1633 से पूर्व अंग्रेजों का आगमन उस समय हुआ जब उड़ीसा के मुगल सूबेदार ने उन्हें हरिहरपुर (महानदी के मुहाने के समीप) और उत्तर में बालासोर में अपनी फैक्ट्रियाँ खोलने की अनुमति दी और अंग्रेजों ने उड़ीसा में 1641 में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। 
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी ने जड़ें जमाने से पूर्व भारत के सबसे समृद्ध राज्य बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651ई० में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाह जहान के दूसरे पुत्र शाहशुजा की अनुमति से बनाई। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन (Dr.Boughton) द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेजों को RS-3000 वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति दे दी। शीघ्र ही अंग्रेजों कासिम बाजार, पटना तथा अन्य स्थान पर कोठियां बना लीं।
1698 में सूबेदार अजीमुशान ने उन्हें सूतानती, कालीघाट तथा गोविंदपुर ( जहाँ आज कोलकाता बसा है) की जमींदारी दे दी जिसके बदले उन्हें केवल RS-1200 पुराने मालिकों को देने पड़े। 1717 में सम्राट फर्रूखसियर ने पुराने  सूबेदारों द्वारा दी गई व्यापारिक रियायतों की पुनः पुष्टि कर दी तथा उन्हें कोलकाता के आस-पास के अन्य क्षेत्रों को भी किराए पर लेने की अनुमति दे दी।
1741 में बिहार का नायब सूबेदार अलीबर्दी खाँ बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के नायब सरफराज खाँ से विद्रोह कर, उसे युद्ध में मार कर स्वयं इस समस्त प्रदेश का नवाब बन गया। अपनी स्थिति को और भी सुदृढ़ करने के लिए उसने सम्राट मुहम्मद शाह से बहुत से धन के बदले एक पुष्टि पत्र (confermation) प्राप्त कर लिया। परंतु उसी समय मराठा आक्रमणों ने विकट रूप धारण कर लिया तथा अलीवर्दी खां के शेष 15 वर्ष उनसे भिड़ने में व्यतीत हो गए।
मराठा आक्रमण से बचने के लिए अंग्रेजों ने नवाब की अनुमति से अपनी कोठी जिसे अब फोर्टविलियम की संज्ञा दे दी गई थी, के चारों ओर एक गहरी खाई (moat) बना ली। अलीवर्दी खां का ध्यान कर्नाटक की घटनाओं की ओर आकर्षित किया गया जहां विदेशी कंपनियों ने समस्त सत्ता हथिया ली थी। अंग्रेज बंगाल में जड़ न पकड़ लें, इस डर से उसे कहा गया कि वह अंग्रेजों को बंगाल से पूर्णरूपेण निष्कासित कर दे।
नवाब ने यूरोपियों को मधुमक्खियों की उपमा दी थी। कि यदि उन्हें छेड़ा जाए  तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काट कर मार डालेंगी। शीघ्र ही यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई।

पुरुषार्थ किसे कहते हैं: पुरुषार्थ का अर्थ, जीवन में महत्व और भारतीय संस्कृति

पुरुषार्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। प्राचीन ऋषि-मुनियों की दार्शनिक की अभिव्यक्ति, जिसमें जीवन के महत्व को समझाया गया। पुरुषार्थ को अंग्रेजी में एफर्ट यानि प्रयास कहते हैं। इस प्रकार पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है प्रयास करना। आज इस लेख में हम पुरुषार्थ किसे कहते हैं? पुरूषर्थ का अर्थ, महत्व और भारतीय … Read more

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

आज के वर्तमान युग में में प्रचार और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बहुत से संसाधन उपलब्ध हैं। लेकिन प्राचीन काल में प्रचार के संसाधन नगण्य थे। मौर्य वंश के तीसरे शासक सम्राट अशोक ने अपने धम्म के प्रचार और राजाज्ञाओं को जनता तक पहुँचाने के लिए पत्थर और शिलाओं पर अभिलेर्खों के माध्यम से जनता तक अपनी राज्ञाओं और निर्देशों को खुदवाया। आज इस लेख में हम सम्राट अशोक के अभिलेखों का अध्ययन करेंगे।

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

मौर्य सम्राट अशोक के विषय में सम्पूर्ण समूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। यह मान्यता है कि , अशोक को  अभिलेखों की प्रेरणा डेरियस (ईरान के शासक ) से मिली थी।  अशोक के 40 से भी अधिक अभिलेख भारत के बिभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

ब्राह्मी , खरोष्ठी और आरमेइक-ग्रीक लिपियों में लिखे गए हैं। अशोक के ये शिलालेख हमें अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रसार हेतु किये गए उन प्रयासों का पता चलता है जिनमें अशोक ने बौद्ध धर्म को भूमध्य सागर तक से लेकर मिस्र तक बुद्ध धर्म को पहुँचाया। अतः यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य कालीन राजनैतिक संबंध मिस्र और यूनान से जुड़े हुए थे।

  • इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म की बारीकियों पर कम सामन्य मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं।
  • पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मागधी में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग  लिखे गए थे।
  • पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं।
  • एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गयी है, जबकि एक अन्य शिलालेख में यूनानी और आरमेइक भाषा में द्वभाषीय आदेश दर्ज है।
  • इन शिलालेखों में सम्राट स्वयं को “प्रियदर्शी” ( प्रकृत में  “पियदस्सी”) और देवानाम्प्रिय ( अर्थात डिवॉन को प्रिय , प्राकृत में “देवनंपिय”) की उपाधि से सम्बोधित किया है।

Read more

 - 
Arabic
 - 
ar
Bengali
 - 
bn
English
 - 
en
French
 - 
fr
German
 - 
de
Hindi
 - 
hi
Indonesian
 - 
id
Portuguese
 - 
pt
Russian
 - 
ru
Spanish
 - 
es