बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.) मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूँ एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश पिता की ओर से तैमूर लंग और माता की ओर से मंगोल नेता चंगेज खाँ से संबंधित था। बादशाह अकबर भारत का महानतम मुगल बादशाह था, जिसने अपनी विजयों के द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश क्षेत्रों में मुगल सत्ता का विस्तार किया।
अकबर महान् (1556-1605 ई.)
मुगल बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसने अपने साम्राज्य की एकता बनाये रखने के लिए ‘सुलहकुल’ पर आधारित संप्रभुता के ऐसे सिद्धांत का विकास किया, जो राजनीतिक और धार्मिक सहिष्णुता की उदारवादी नीति पर आधरित थी। उसने शक्तिशाली राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाया और कई राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया।
हिंदू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरी मिटाने के लिए अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ नामक एक नये मत का प्रवर्त्तन किया और बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मों तथा जाति-वर्ग के लोगों के प्रति एक समान नीति अपनाई, जिससे न केवल अकबर को हिंदुओं और मुसलमानों दोनों वर्गों का सहयोग और सम्मान मिला, बल्कि मुगल साम्राज्य को स्थायित्व मिला और एक समन्वयवादी संस्कृति का भी विकास हुआ।
अकबर के शासनकाल में कला एवं संस्कृति का भी विकास हुआ। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में रुचि ली और अपने प्रासाद की भित्तियों को सुंदर चित्रों व नमूनों से अलंकृत करवाया। इस समय मुगल चित्रकारी के विकास के साथ-साथ ही यूरोपीय शैली का भी विकास हुआ। यद्यपि अकबर बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था, फिर भी उसने अनेक संस्कृत पांडुलिपियों व ग्रंथों का फारसी में तथा फारसी ग्रंथों का संस्कृत व हिंदी में अनुवाद भी करवाया।
अकबर का प्रारंभिक जीवन
जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के पिता का नाम हुमायूँ और माता का नाम हमीदाबानो बेगम था, जो प्रसिद्ध शिया धार्मिक विद्वान् और हिंदाल के शिक्षक शेख अली अकबर जामी की पुत्री थी। शेरशाह सूरी से पराजित होने के बाद हुमायूँ को भारत से पलायन करने के लिए विवश होना पड़ा था। इसी निर्वासन काल में ही हुमायूँ जब हिंदाल की माता दिलदार बेगम से मिलने ‘पतेर’ गया था, तो उसकी भेंट 14 वर्षीया हमीदाबानो नामक सुंदर युवती से हुई थी। उसकी सुंदरता से आकर्षित होकर हुमायूँ ने 29 अगस्त, 1541 ई. को हमीदा से उस समय विवाह किया था, जब वह सिंध में सेहवान के घेरे में उपस्थित था।
जोधपुर के राजपूत राजा मालदेव की सहायता प्राप्त करने के लिए हुमायूँ जोधपुर की ओर गया था, उस समय हमीदाबानो उसके साथ थी। इस समय हुमायूँ के सितारे गर्दिश में थे और हुमायूँ को जोधपुर से जान बचाकर भागना पड़ा। प्रसवकाल निकट होने के कारण हुमायूँ ने अगस्त, 1542 ई. में हमीदाबानो को अमरकोट के राणा वीरसाल (वीरपाल) के यहाँ छोड़ दिया था। यहीं अमरकोट में ही हमीदाबानो बेगम ने रविवार के दिन 15 अक्टूबर, 1542 ई. को एक पुत्र को जन्म दिया। अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था, इसलिए उनका नाम ‘बदरुद्दीन मुहम्मद अकबर’ रखा गया था। ‘बद्र’ का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था।
कहा जाता है कि काबुल की विजय के बाद उसके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्मतिथि और उसका नाम बदल दिये थे। कहा जाता है कि 1546 ई. में काबुल की विजय के बाद उसके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्मतिथि (23 नवंबर, 1942 ई. ) और उसका नाम (जलालुद्दीन अकबर) बदल दिये थे।
पुत्र के जन्म के अवसर पर हुमायूँ ने कस्तूरी के टुकड़े करके अपने सरदारों में बाँटते हुए कहा था: ‘अपने पुत्र के जन्मोत्सव पर आप लोगों को देने के लिए फिलहाल मेरे पास यही है, किंतु मेरा विश्वास है कि जिस प्रकार कस्तूरी की गंध इस खेमे में फैल गई है, एक दिन मेरे पुत्र की ख्याति संपूर्ण विश्व में फैलेगी।’ हुमायूँ की वह भविष्यवाणी सत्य ही प्रमाणित हुई।
हुमायूँ ने अमरकोट से कंदहार के लिए प्रस्थान किया, किंतु कंदहार में भी उसे शांति नहीं मिली। वहाँ अपने पुत्र अकबर को जीजी अनगा और माहम अनगा नामक दो धायों के संरक्षण में छोड़कर हुमायूँ को अपनी पत्नी हमीदाबानो के साथ 15 अक्टूबर, 1543 ई. को कंदहार से फारस भागना पड़ा। उस समय अकबर का पालन-पोषण हुमायूँ के भाई अस्करी की संरक्षकता में उसकी संतानहीन पत्नी सुल्तान बेगम ने किया। 1544-1545 ई. के शीतकाल में अस्करी ने अकबर को कामरान के यहाँ काबुल भेज दिया, जहाँ बाबर की बहन खानजादा बेगम ने उसका पालन-पोषण किया।
5 नवंबर, 1545 ई. को जब हुमायूँ ने काबुल पर अधिकार किया, उस समय अकबर का अपने माता-पिता से पुनर्मिलन हुआ और उसका खतना संस्कार हुआ। किंतु जब हुमायूँ बदख्शाँ जाकर अस्वस्थ हो गया, तो कामरान ने पुनः काबुल पर अधिकार कर लिया और अकबर को अपने संरक्षण में ले लिया।
बदख्शाँ से लौटकर हुमायूँ ने काबुल के दुर्ग का घेरा डाला, तो कामरान ने अकबर को किले की दीवार पर बैठा दिया, जहाँ हुमायूँ की तोपें गोला बरसा रही थीं। किंतु हुमायूँ के सैनिकों ने अकबर को पहचान लिया और तोपों की दिशा बदल दी, जिससे अकबर सुरक्षित बच गया। 1547 ई. में हुमायूँ ने काबुल पर अधिकार कर लिया। उसके बाद से अकबर अपने माता-पिता के साथ ही रहा।
हुमायूँ सुशिक्षित व्यक्ति था, इसलिए उसने अपने पुत्र की शिक्षा की ओर ध्यान दिया। नवंबर, 1547 ई. में जब अकबर लगभग पाँच वर्ष का था, उसकी शिक्षा का प्रबंध किया गया और उसके लिए शिक्षक नियुक्त किये गये। किंतु अकबर की रुचि पुस्तकीय ज्ञान में नहीं थी। यही कारण था कि एक के बाद अनेक शिक्षक नियुक्त किये गये, किंतु वे सभी अकबर को अक्षर-बोध कराने में असमर्थ रहे। बाल्यकाल से अकबर की विशेष रुचि कबूतरबाजी, अश्वारोहण और शस्त्र-संचालन में थी।
यद्यपि वह स्वयं पुस्तकें नहीं पढ़ता था, किंतु दूसरों से पुस्तकें पढ़वाकर सुनने में उसे आनंद आता था। उसने स्वेच्छा से प्रसिद्ध सूफी कवि हाफिज और जलालुद्दीन रूमी की रहस्मयवादी कविताओं को कंठस्थ कर लिया था। स्मिथ का मानना है कि, ‘उस बालसुलभ अध्ययन से ही अकबर के जीवन के उत्तरकालीन वर्षों में पल्लवित रूढ़िहीन धार्मिक उदारवाद की नींव पड़ी।’ समकालीन इतिहासकार अबुल फजल लिखता है: ‘उसके (अकबर) पावन हृदय और पुनीत आत्मा में शिक्षा के बाह्य रूप के प्रति कभी अभिरुचि उत्पन्न नहीं हुई।’
राजनीतिक शिक्षा
अकबर को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए हुमायूँ ने 1551 ई. में गजनी का सूबेदार नियुक्त किया और उसका विवाह हिंदाल की पुत्री रुकैया बेगम से कर दिया। इस समय अकबर की आयु मात्र 9 वर्ष थी। तत्पश्चात् युद्धों का अनुभव कराने की दृष्टि से अकबर को हुमायूँ ने अनेक युद्धों में उसे अपने साथ रखा। हुमायूँ द्वारा गार्दिज व बंगश के अफगानों और गक्खड़ प्रदेश पर विजय के समय अकबर उसके साथ था। 1554 ई. में हुमायूँ ने भारत की पुनर्विजय के लिए सिंधु नदी को पार किया, उस समय भी अकबर हुमायूँ के साथ ही रहा।
हुमायूँ ने 1555 ई. में अकबर को अपना उत्तराधिकारी तथा युवराज घोषित किया और मुनीम खाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया। 1555 ई. में सरहिंद के युद्ध में सिकंदरशाह सूर की निर्णायक पराजय के समय अकबर मुगल सेना का नाममात्र का सेनापति था, किंतु हुमायूँ ने अमीरों का विवाद शांत करने के लिए सरहिंद के युद्ध की विजय का श्रेय अकबर को दिया।
अकबर का राज्याभिषेक (14 फरवरी, 1556 ई.)
सरहिंद पर विजय प्राप्त करने के बाद और दिल्ली जाने से पूर्व हुमायूँ ने अकबर को लाहौर का सूबेदार बनाया और बैरम खाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया। जनवरी, 1556 ई. में जब अकबर और बैरम खाँ पश्चिम में पंजाब में अफगान शक्ति का दमन कर रहे थे, उसी दौरान 27 जनवरी, 1556 ई. को हुमायूँ की मृत्यु की सूचना मिली। साम्राज्य में विद्रोह की संभावना को देखते हुए हुमायूँ की मृत्यु की खबर को 17 दिनों तक गुप्त रखा गया।
इसके बाद बैरम खाँ ने 14 फरवरी, 1556 ई. को कालानोर (गुरुदासपुर) के बगीचे में अमीरों को एकत्रित कर एक चबूतरे पर अकबर का राज्याभिषेक करवाया, यद्यपि इसके तीन दिन पूर्व 11 फरवरी को दिल्ली में अकबर के उत्तराधिकार की घोषणा कर दी गई थी। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष, 4 महीने थी, इसलिए बैरम खाँ को ‘वकील-ए-सल्तनत’ (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया गया, जो बादशाह का संरक्षक (अतालीक) था।
अकबर की आरंभिक स्थिति और कठिनाइयाँ
14 फरवरी, 1556 ई. को राज्याभिषेक होने के बाद अकबर के समक्ष कई समस्याएँ थीं। देश अनेक छोटे-बड़े राज्यों का समूह था, जिसमें राजनैतिक एकता एवं संगठन का अभाव था। दूसरे शब्दों में, भारत एक ‘भौगोलिक अभिव्यक्ति’ मात्र था। अकबर के पास न तो कोई सुनिश्चित साम्राज्य था और न ही शक्तिशाली सेना। उसके पास सिंहासन तक नहीं था और उसका राज्याभिषेक एक चबूतरे पर किया गया था। हुमायूँ की सफलता केवल बाह्य रूप से थी।
मुगलों का प्रशासन स्थापित नहीं हुआ था और अफगान शक्ति का भी अभी पूर्ण विनाश नहीं हुआ था। मुगल सामंतों में भी असंतोष और पारस्परिक ईर्ष्या थी, जिससे किसी नीति का निर्धारण करना कठिन था। इस प्रकार राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात् अकबर के सामने अनेक समस्याएँ थी –
राजनीतिक समस्याएँ
जिस समय कालानोर में अकबर का राज्याभिषेक हुआ था, उस समय उसे किसी साम्राज्य का स्वामी नहीं कहा जा सकता था। यद्यपि हुमायूँ ने पंजाब, आगरा और दिल्ली पर अधिकार कर लिया गया था, किंतु अफगान अभी अपनी पराजय को भूले नहीं थे। मुहम्मद आदिलशाह के नेतृत्व में हेमू दिल्ली व आगरा पर अधिकार करने का यथासंभव प्रयत्न कर रहा था और सिकंदरशाह सूर पंजाब पर अधिकार करने के लिए सक्रिय था, जबकि कंधार पर फारस के शाह की नजर गड़ी हुई थी।
काबुल पर अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम ने अधिकार कर रखा था और वहाँ से अकबर को किसी प्रकार की सहायता मिलने की आशा नहीं थी। बदख्शाँ का शासक सुलेमान मिर्जा स्वयं को तैमूरी वंश का प्रमुख समझता था और वह भी अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ राज्य प्राप्त करने का महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित था। बंगाल अफगानों के आधिपत्य में था।
यद्यपि बाबर ने राजपूताना के राजपूतों की शक्ति पर गहरा आघात किया था, किंतु इस समय राजपूतों ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर अनेक दुर्गों पर अधिकार कर लिया था। इस समय तक मारवाड़ का शासक मानदेव शक्तिशाली हो चुका था और दिल्ली पर अधिकार करना चाहता था। अतः दिल्ली पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिए अकबर को हेमू के साथ-साथ राजपूतों को भी पराजित करना आवश्यक था।
मालवा और गुजरात के शासकों ने भी दिल्ली से अपना संबंध तोड़ लिया था और स्वतंत्र रूप से शासन कर रहे थे। गोंडवाना और उड़ीसा भी स्वतंत्र थे, जबकि कश्मीर में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य स्थापित था। सिंध और मुलतान भी स्वतंत्र हो चुके थे। दक्षिण के अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा, खानदेश तथा बरार आदि राज्यों के सुल्तानों में निरंतर संघर्ष चल रहा था, जबकि विजयनगर का हिंदू राज्य भी अपने पड़ोसी मुस्लिम राज्यों से संघर्ष में उलझा हुआ था। पुर्तगालियों ने अरब सागर तथा फारस की खाड़ी पर अधिकार कर लिया था। वे गोवा तथा दिव सहित अनेक बंदरगाहों पर कब्जा करके पश्चिमी समुद्रतट पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयास में लगे हुए थे।
आर्थिक समस्याएँ
सिंहासनारूढ़ के समय अकबर एक छोटी-सी सैनिक टुकड़ी का स्वामी था, जो बैरम खाँ के नेतृत्व में थी। इस समय अकबर को एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता थी, किंतु बाबर और हुमायूँ की अपव्ययता के कारण शाही खजाना खाली हो चुका था और राजनीतिक अनिश्चितता के कारण पंजाब, दिल्ली, काबुल और कंधार से राजस्व मिलने की संभावना भी नहीं थी। इसके अलावा, भीषण अकाल और दुर्भिक्ष के कारण जनता स्वयं भूखों मरने के लिए अभिशप्त थी। इस प्रकार शाही खजाना खाली होने से अकबर की आर्थिक स्थिति अत्यंत शोचनीय थी।
सगे-संबंधियों और अमीरों की महत्त्वाकांक्षाएँ
अकबर के अपने सगे-संबंधी और मुगल अमीर भी उसके लिए सिरदर्द थे। अकबर का सौतेला भाई हकीम मिर्जा, जो इस समय काबुल का शासक था; मुनीम खाँ, जो सुन्नी अमीरों में वरिष्ठ था और इस समय मिर्जा हकीम का संरक्षक था; अकबर का प्रमुख अमीर शाह अबुलमाली, जो हुमायूँ का अतिशय कृपापात्र था और जिसकी उद्दंडता से सभी मुगल अधिकारी असंतुष्ट थे; और तरदीबेग, जो इस समय दिल्ली का शासक था, जैसे अनेक संबंधी और अमीर अकबर के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे थे। अकबर के लिए इन सभी का दमन करना आवश्यक था।
संरक्षक की समस्या
सिंहासनारोहण के समय अकबर को कोई विशेष प्रशासकीय या सैनिक अनुभव नही था, किंतु यह उसका सौभाग्य था कि उसे बैरम खाँ जैसा योग्य और अनुभवी संरक्षक मिल गया था। बैरम खाँ ने यद्यपि अकबर की समस्याओं का समाधान करने में महत्त्वपूर्ण सहायता की, किंतु उसके कारण अनेक समस्याएँ भी उत्पन्न हुईं। बैरम खाँ फारस का निवासी और शिया संप्रदाय का अनुयायी था, जबकि हुमायूँ के अधिकांश अमीर तुर्क थे और सुन्नी मत के अनुयायी थे।
अतः मुगल अमीरों का बैरम खाँ से असंतुष्ट होना स्वाभाविक था। इसके अलावा, बैरम खाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया गया था, जबकि इस पद के लिए मुनीम खाँ, शाह अबुलमाली और तरदीबेग भी उम्मीदवार थे। बैरम खाँ के संरक्षक नियुक्त होने से शेष तीनों की आशाओं पर पानी फिर गया था, जिससे अकबर के अमीरों में पारस्परिक वैमनस्य उत्पन्न हो गया था।
संरक्षक होने के नाते बैरम खाँ अकबर का प्रधानमंत्री था और उसे ‘खानखाना’ की उपाधि मिली थी। तमाम विरोधों के बावजूद, बैरम खाँ ने अकबर की निष्ठापूर्वक सेवा की और प्रमुख अमीरों को संतुष्ट करने का प्रयास किया। उसने तरदीबेग को पंचहजारी मनसब देकर दिल्ली का सूबेदार नियुक्त करवाया, अबुलमाली को, जिसने अकबर के राज्यारोहण में आने से इनकार कर दिया था, सम्मानपूर्वक दरबार में बुलाया और अपमानजनक व्यवहार करने के बावजूद उसे मृत्युदंड नहीं दिया। जब बदख्शाँ के गवर्नर सुलेमान खाँ ने काबुल पर आक्रमण किया, तो बैरम खाँ ने मुनीम खाँ की सहायता के लिए सेना भेजी।
प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना करना
बाबर को भारतीय क्षेत्रों में उचित प्रशासनिक व्यवस्था को स्थापित करने का समय नहीं मिला था और हुमायूँ भी इस दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं कर सका था। यद्यपि शेरशाह सूरी ने भारत में उच्चकोटि की प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की थी, किंतु 1545 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् भारत के इस क्षेत्र में अराजकता फैल गई और प्रशासनिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। अतः अकबर के लिए एक सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना करना भी आवश्यक था।
अकबर द्वारा समस्याओं का समाधान
अकबर एक योग्य एवं धैर्यवान युवक था। उसने तमाम समस्याओं के बावजूद साहस और धैर्य से समस्याओं का सामना किया। यह अकबर का सौभाग्य था कि इस संकट के समय में उसे बैरम खाँ जैसा एक विश्वासपात्र, योग्य एवं अनुभवी संरक्षक मिल गया था, जिसने पूरी निष्ठा के साथ उसकी सहायता की और भारत में मुगल सत्ता की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
शाह अबुलमाली को बंदी बनाना
बैरम खाँ ने सर्वप्रथम अकबर के विरोधियों को समाप्त करने का निर्णय किया क्योंकि विरोधियों को समाप्त किये बिना शक्तिशाली शासन की स्थापना करना संभव नहीं था। इस क्रम में बैरम खाँ ने सबसे पहले शाह अबुलमाली को बंदी बनाने का निर्णय किया। शाह अबुलमाली अत्यंत महत्त्वाकांक्षी अमीर था और हुमायूँ का विश्वासपात्र था, किंतु अकबर की दुर्बल स्थिति के कारण वह अकबर की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगा था।
निजामुद्दीन के अनुसार, ‘उसकी घृष्टता बहुत बढ़ गई थी और वह अनुचित व्यवहार करने लगा था।’ बैरम खाँ ने शाही भोज के बहाने उसे बंदी बना लिया और लाहौर भेज दिया। इस घटना का अन्य महत्त्वाकांक्षी अमीरों पर भी प्रभाव पड़ा और उनकी महत्त्वाकांक्षाओं पर अंकुश लग गये।
पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556 ई.)
पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556 ई.) राजनीतिक दृष्टि से भारत के महत्त्वपूर्ण युद्धों में एक है, क्योंकि इस युद्ध की विजय के बाद ही भारत में वास्तविक अर्थों में मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई। इस युद्ध में अकबर के संरक्षक बैरम खाँ ने हेमूशाह (हेमचंद्र) को पराजित किया, जो इतिहास में ‘हेमू’ के नाम से प्रसिद्ध है।
हेमूशाह (हेमचंद्र) का परिचय : हेमचंद्र मेवात (रेवाड़ी) के धूसर वैश्य कुल से संबंधित नमक का एक साधारण व्यापारी था। उसका जन्म संभवतः 1500 ई. के आसपास अलवर के समीप ‘माछेरी’ नामक स्थान पर हुआ था। उसके पिता पूरनमल का शेरशाह सूरी से घनिष्ठ संबंध था। हेमू की व्यापारिक बुद्धि एवं असाधारण प्रशासनिक योग्यता से प्रभावित होकर तत्त्कालीन अफगान शासक इस्लामशाह ने उसे शाही रसद का ‘संग्रहकर्त्ता’ नियुक्त किया था। अबुल फजल लिखता है कि वह अपनी दक्षता के कारण इस्लामशाह के अधीन एक सरकारी फेरीवाला हो गया। आदिलशाह उसके सैनिक तथा प्रशासनिक गुणों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने हेमू को अपना प्रधानमंत्री (वकील ए आला) और सेनापति नियुक्त कर दिया।
आदिलशाह एक विलासी प्रवृत्ति का शासक था, इसलिए राज्य की वास्तविक शक्ति हेमू के हाथों में आ गई। इस विषय में अबुल फजल ने लिखा है: ‘वह अपनी विद्वत्ता, दक्षता और कार्यपटुता से मुबारिज खाँ (आदिलशाह) जैसे विलासप्रिय शासकीय कार्यों से विमुख राजा का प्रधानमंत्री बन गया।’
जिस समय उत्तरी भारत में चारों ओर अराजकता फैली हुई थी, हेमू ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली और आदिलशाह के प्रतिद्वंद्वियों को पराजित कर अपने स्वामी की रक्षा की। कहा जाता है कि उसने 22 युद्धों में विजय प्राप्त किया था, जिसके कारण कुछ इतिहासकारों ने हेमू को मध्य युग का ‘समुद्रगुप्त’ या ‘नेपोलियन’ भी कहा है।
23 जुलाई, 1555 ई. को आदिलशाह के बहनोई सिकंदरशाह सूरी पर हुमायूँ की जीत के बाद, मुगलों ने अंततः दिल्ली और आगरा को पुनः जीत लिया था। 26 जनवरी, 1556 को जब हुमायूँ की मृत्यु हुई उस समय हेमू बंगाल में था। हुमायूँ की मृत्यु के बाद आदिलशाह ने हेमू को भारत से मुगलों को निकालने का आदेश दिया।
हेमू ने एक शक्तिशाली सेना के साथ बड़ी तीव्रता से बंगाल से दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। हेमू ने एक हजार हाथी, पचास हजार घुड़सवार और इक्यावन हल्की तोपों के साथ दिल्ली की तरफ़ कूच किया। उसने ग्वालियर, बयाना, इटावा, संभल, कालपी और नारनौल से मुगलों को खदेड़ दिया। आगरा का मुगल सूबेदार सिकंदर खाँ उजबेक हेमू की विशाल सेना से भयभीत होकर दिल्ली भाग गया और इस प्रकार आगरा पर भी हेमू का अधिकार हो गया।
तुगलकाबाद का युद्ध (अक्टूबर, 1556 ई.)
हेमू की आगरा विजय के बाद दिल्ली के मुगल सूबेदार तरदीबेग खाँ ने जालंधर में डेरा डाले अकबर और बैरम खाँ से हेमू के विरूद्ध सहायता माँगी। बैरम खाँ ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पीरमुहम्मद शरवानी को दिल्ली भेजा। इस बीच, तरदीबेग खाँ ने भी आसपास के सभी मुगल अमीरों को सेना सहित दिल्ली बुलाया और हेमू का सामना करने का निश्चय किया।
आगरा-विजय के बाद हेमू दिल्ली की ओर बढ़ा और 6 अक्तूबर, 1556 ई. को दिल्ली के बाहर तुगलकाबाद में अपनी सेना के साथ डेरा डाल दिया। 7 अक्टूबर, 1556 ई. को तुगलकाबाद के युद्ध में हेमू ने तरदी बेग को पराजित कर दिया और लगभग 3,000 मुगलों को मार डाला। मुगल सूबेदार तरदीबेग दिल्ली को हेमू के कब्जे में छोड़कर बचे-खुचे सैनिकों के साथ सरहिंद भाग गया। उसके साथ सिकंदर खाँ और संभल के मुगल गवर्नर अलीकुली खाँ भी सरहिंद भाग गये।
इस प्रकार संभल, दिल्ली और आगरा के क्षेत्रों पर हेमू का अधिकार हो गया। दिल्ली में हेमू ने अपना राज्याभिषेक करवाया और हिंदुस्तान के एक महान् राजा की तरह ‘विक्रमादित्य’ (विक्रमाजीत) की उपाधि धारण की। किंतु सतीशचंद्र जैसे इतिहासकार यह नहीं मानते हैं कि हेमू ने खुद को एक ‘स्वतंत्र’ राजा घोषित किया था क्योंकि उस समय के किसी लेखक ने इसका उल्लेख नहीं किया है और अबुल फजल ‘अकबरनामा’ में लिखता है कि तुगलकाबाद में हेमू की जीत के बाद ‘संप्रभुता की महत्त्वाकांक्षा’ उसके भीतर हलचल कर रही थी।
तरदीबेग को मृत्युदंड : आगरा और दिल्ली पर हेमू के अधिकार और उसके राज्याभिषेक की सूचना अकबर और बैरम खाँ को उस समय मिली, जब वे जालंधर में थे। इस संकटपूर्ण और निराशाजनक स्थिति में हेमू से निपटने की रणनीति पर विचार करने के लिए अकबर व बैरम खाँ ने अपने प्रमुख अमीरों की एक सभा बुलाई।
अकबर के अधिकांश अमीरों ने हेमू की शक्तिशाली सेना से लड़ने के बजाय अकबर को काबुल वापस लौट जाने की सलाह दी। किंतु सरक्षक बैरम खाँ ने अमीरों के परामर्श का विरोध करते हुए साहस के साथ पुनः दिल्ली पर अधिकार करने की सलाह दी। अकबर ने भी बैरम खाँ के परामर्श को स्वीकार किया और खिज्र खाँ को सिकंदर सूर के विरूद्ध पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर सरहिंद की ओर बढ़ा।
सरहिंद में तरदीबेग और अन्य मुगल अधिकारी अकबर के शिविर में उपस्थित हुए। एक बार पुनः मुगल अमीर काबुल वापस जाने की माँग करने लगे। इसी समय बैरम खाँ ने संभवतः अकबर की अनुमति से तरदीबेग पर युद्ध से भागने और राजद्रोह का अभियोग लगाकर उसकी हत्या करवा दी। दरअसल बैरम खाँ और तरदीबेग दोनों में वैमनस्य था, इसलिए बैरम खाँ ने अपने प्रतिद्वंद्वी को उखाड़ फेंका।
इतिहासकार स्मिथ के अनुसार, ‘यदि तरदीबेग को कर्त्तव्य-उल्लंघन का दंड न दिया जाता तो अकबर को इसका मूल्य सिंहासन एवं जीवन देकर चुकाना पड़ता।’ बैरम खाँ द्वारा तरदीबेग को मृत्युदंड दिये जाने का अकबर के अमीरों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। अब उनके समक्ष अकबर की आज्ञा-पालन करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था। सरहिंद से अकबर की सेनाएँ पानीपत पहुँच गईं।
हेमू ने अपनी अग्रिम सेना को तोपखाने सहित पहले ही भेज दिया, किंतु अलीक़ुली शैबानी के नेतृत्व में अकबर की सेना ने हेमू की अग्रिम सेना को पराजित कर तोपखाने को छीन लिया।
पानीपत के द्वितीय युद्ध की घटनाएँ
बैरम खाँ और हेमू की सेनाओं के बीच 5 नवंबर, 1556 ई. को पानीपत का दूसरा युद्ध हुआ, जहाँ तीस साल पहले 1526 ई. में अकबर के दादा बाबर ने ‘पानीपत की पहली लड़ाई’ में इब्राहिम लोदी को हराया था। अकबर और उसके अभिभावक बैरम खाँ ने युद्ध में भाग नहीं लिया और युद्धक्षेत्र से आठ मील पीछे सुरक्षित स्थान पर थे। हेमू की शक्तिशाली सेना में तीस हजार प्रशिक्षित अफगान तथा राजपूत सैनिक और पंद्रह सौ हाथी थे, किंतु उसके पास तोपखाना नहीं था क्योंकि उसे मुगल सेना ने पहले ही छीन लिया था।
प्रारंभिक आक्रमण में हेमू को सफलता मिली और मुगलों की हार लगभग निश्चित हो चुकी थी, किंतु तभी एक तीर हेमू की आँख में लगा और वह हाथी के हौदे में ही मूर्च्छित हो गया। बदायूँनी ने उक्त घटना के विषय में लिखा है: ‘अचानक मृत्यु का तीर, जिसे कोई ढ़ाल नहीं रोक सकती थी, उसकी कटाक्षपूर्ण आँख में लगा…….. और वह मूर्छित हो गया।’ हेमू की मृत्यु की अफवाह से उसकी सेना में भगदड़ मच गई। जब उसका महावत उसे रणभूमि से ले जाने का प्रयत्न कर रहा था, एक तुर्क सैनिक शाहकुली खाँ ने हेमू को बंदी बना लिया।
हेमू को बंदी बनाकर अकबर और बैरम खाँ के समक्ष लाया गया। इतिहासकार अबुल फजल लिखता है कि, ‘बैरम खाँ ने अकबर से आग्रह किया कि वह हेमू का वध करके ‘गाजी’ की पदवी धारण करे। किंतु अकबर ने घायल हेमू की हत्या करने से इनकार कर दिया। तब बैरम खाँ ने स्वयं अपनी तलवार से हेमू का वध कर डाला। उसका सिर काबुल भेज दिया गया और घड़ दिल्ली में लटका दिया गया।’ अहमद यादगार लिखता है कि शहजादे ने उस पर प्रहार किया और उसके सिर को उसके अपवित्र शरीर से अलग कर दिया। मोहम्मद आरिफ कंदहारी, जो युद्ध-स्थल में उपस्थित था, लिखता है कि, ‘बैरम खाँ के आग्रह पर अकबर ने हेमू पर अपनी तलवार से एक आघात किया और फिर बैरम खाँ ने उसका काम तमाम कर दिया।’
आरिफ कंदहारी बैरम खाँ की सेवा में था और संभवतः अपने स्वामी को निर्दोष सिद्ध करने करने के लिए ऐसा लिखा है। बदायूँनी, जो अकबर का आलोचक था, लिखता है कि जब अकबर से हेमू का वध करने के लिए आग्रह किया गया, तो उसने कहा कि, ‘जब हेमू स्वयं मृतक के समान है तो मैं उस पर क्यों प्रहार करू? यदि उसमें प्राण और क्रियाशीलता होती तो मैं ऐसा करता।’
फरिश्ता सही लिखता है कि ‘अकबर ने बंदी हेमू के सिर को तलवार से स्पर्श किया और बैरम खाँ ने अपनी तलवार निकाल कर एक ही आघात से हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।’ इस प्रकार वीर हेमू का दुःखद अंत हो गया। पानीपत की विजय के बाद 6 नवंबर, 1556 ई. को अकबर और बैरम खाँ ने सेना के साथ दिल्ली में प्रवेश किया और पदवियाँ तथा पुरस्कार वितरित किये।
पानीपत के द्वितीय युद्ध के परिणाम अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थे। इस युद्ध के परिणामस्वरूप एक शक्तिशाली शत्रु का अंत हो गया। मुगलों को एक हजार पाँच सौ हाथियों के साथ अन्य युद्ध-सामग्री प्राप्त हुई। इस विजय से भारत में हिंदू राज्य की संभावनाएँ क्षीण हो गईं और दिल्ली, आगरा तथा निकटवर्ती भूभाग पर अधिकार हो जाने से अकबर के लिए भारत में मुगल शासन की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस विजय से हिंदुस्तान के बादशाह के रूप में अकबर की सत्ता स्थापित हुई और हेमू का अंत हो जाने से अब मुगलों का सामना करने वाला कोई शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी नहीं रह गया।
सिकंदर सूर का दमन (1557 ई.)
पंजाब में सिकंदर सूर का शासन था। बैरम खाँ ने उसका दमन करने के लिए अक्टूबर, 1556 ई. में सेना भेजी थी, जिसे सिकंदर ने पराजित कर दिया था। इससे सिकंदर सूर के हौसले बुलंद हो गये। बैरम खाँ ने एक बार फिर पीर मुहम्मद खाँ शेरवानी के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना सिकंदर सूर को पराजित करने के लिए भेजी। सिकंदर सूर ने भागकर मानकोट के दुर्ग में शरण ली। पीर मुहम्मद ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया।
सिकंदर सूर सहायता हेतु मुहम्मद आदिलशाह की प्रतीक्षा कर रहा था, किंतु 1557 ई. के आरंभ में ही वह मुंगेर में बंगाल के शासक जलालुद्दीन से लड़ता हुआ मारा गया। अंततः निराश होकर सिकंदर सूर ने अपने पुत्र अब्दुर्रहमान के माध्यम से आत्मसमर्पण कर दिया। अकबर ने उसे क्षमा कर दिया और बिहार में एक जागीर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। बाद में, 1559 ई. में बिहार में ही सिकंदर सूर की मृत्यु हो गई। इस प्रकार अकबर के सूर प्रतिद्वंद्वियों का अंत हो गया। सिंकंदर सूर के आत्मसमर्पण के बाद पंजाब पर अकबर का अधिकार हो गया।
काबुल का मुक्त होना
काबुल की समस्या अकबर के समक्ष मुँह खोले खड़ी थी क्योंकि सुलेमान मिर्जा ने काबुल को घेर रखा था। किंतु कई माह के घेरे के पश्चात् भी मिर्जा काबुल पर अधिकार नहीं कर सका, जिससे अकबर को समय मिल गया और उसने काबुल की रक्षा के लिए अपनी सेना भेज दी। दूसरी ओर से उजबेक भी काबुल की ओर बढ़ रहे थे, इसलिए मिर्जा को विवश होकर काबुल का घेरा उठाना पड़ा और इस प्रकार काबुल मुक्त हो गया।
आदिल सूर का पतन
चुनार का अफगान शासक आदिलशाह सूर भी दिल्ली पर अधिकार करने का सपना देख रहा था, किंतु 1557 ई. में आदिलशाह सूर मुंगेर में बंगाल के शासक जलालुद्दीन से लड़ता हुआ मारा गया। इसी प्रकार इब्राहिम सूर उड़ीसा भाग गया, जहाँ कुछ समय बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। अब सूर वंश का कोई ऐसा सदस्य नहीं था, जो मुगलों को चुनौती दे सकता।
बैरम खाँ का उत्थान-पतन
बैरम खाँ कराकुईल तुर्क था और उसका जन्म बदख्शाँ में हुआ था। उसके पूर्वज दीर्घकाल से ईरान में रहे थे। अतः उन्होंने ईरानी रीति-रिवाज और शिया मत को स्वीकार कर लिया था। उसने हुमायूँ की आपत्तियों में उसका साथ दिया। कन्नौज के युद्ध में वह शेर खाँ द्वारा बंदी बना लिया गया था, किंतु किसी तरह वहाँ से भाग निकला और हुमायूँ से जा मिला। वह हुमायूँ के साथ ईरान गया और वहाँ शाह से हुमायूँ की सहायता के लिए निवेदन किया।
ईरान-प्रवास के समय हुमायूँ की अत्यंत चतुरतापूर्वक रक्षा की। उसकी निष्ठा और स्वामिभक्त के कारण ही हुमायूँ ईरान से जीवित लौट सका था। हुमायूँ ने कंधार जीतने के बाद बैरम खाँ को किलेदार नियुक्त किया था क्योंकि वह शिया था और इससे ईरान के शाह को संतुष्ट किया जा सकता था।
हुमायूँ बैरम खाँ की सेवा, चारित्रिक गुणों, निष्ठा और उसके सैनिक तथा प्रशासनिक योग्यता से अत्यंत प्रभावित था और उसे ‘खानबाबा’ कहता था। उसने बैरम खाँ को अल्पवयस्क अकबर का शिक्षक और संरक्षक (अतालीक) नियुक्त किया था। कहा जाता है कि एक बार हुमायूँ ने बैरम खाँ से कहा था: ‘हमारे परिवार में आप जैसा कोई प्रज्ज्वलित दीप नहीं है।’
अतालीकी शासन
बैरम खाँ अत्यंत योग्य व अनुभवी व्यक्ति था। हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम खाँ ने पंजाब के कालानोर में अमीरों को एकत्रित कर अकबर का राज्याभिषेक करवाया और अमीरों की इस माँग का विरोध किया था कि अकबर को काबुल वापस लौट जाना चाहिए। जब तरदीबेग, सिकंदर खाँ और अलीकुली शैबानी भागकर सरहिंद आये, बैरम खाँ ने तरदीबेग को मृत्युदंड दिलवा कर मुगल सेना में अनुशासन स्थापित किया। 1556 ई. में पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को पराजित करने का मुख्य श्रेय बैरम खाँ को ही था।
1556 से 1560 ई. के वर्षों में मुगलों को जो सफलताएँ मिलीं, उनका श्रेय मुख्यतः बैरम खाँ को मिलना चाहिए। दिल्ली पर अधिकार करने के बाद विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए मुगल सेनाएँ भेजी गईं। अलीकुली खाँ को संभल, अब्दुल्ला खाँ को कालपी, फिदा खाँ को आगरा और पीरमुहम्मद को अलवर भेजा गया। पंजाब में सिकंदर सूर से निपटने के लिए बैरम खाँ स्वयं अकबर को लेकर पंजाब गया। अंततः सिकंदरशाह को आत्म-समर्पण करना पड़ा।
पीरमुहम्मद ने मेवात पर अधिकार कर लिया और बैरम खाँ ने उसे वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। अजमेर पर अधिकार करने के बाद मुहम्मद कासिम खाँ को वहाँ सूबेदार बनाया गया। इस प्रकार बैरम खाँ के संरक्षण काल में मुगल सत्ता काबुल से जौनपुर तक, उत्तरी पंजाब की पहाड़ियों से अजमेर तक स्थापित हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त, बैरम खाँ ने अकबर की चचेरी बहन सलीमा बेगम से विवाह कर मुगल वंश से पारिवारिक संबंध भी स्थापित कर लिया था। इस प्रकार अकबर के संरक्षक एवं सर्वोच्च प्रशासक के रूप में बैरम खाँ की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।
बैरम खाँ का पतन
किंतु बैरम खाँ का प्रभाव अधिक समय तक नहीं रह सका। अनेक कारणों से उसकी स्थिति खराब होती चली गई और अंततः 1560 ई. में उसका पतन हो गया। बैरम खाँ के पतन और पदच्युति के कई कारण थे-
एक, अकबर का संरक्षक बनने के बाद बैरम खाँ अत्यधिक शक्तिशाली हो गया था, जिससे उसके व्यवहार में अहंकार आ गया था और वह स्वयं को राज्य का वास्तविक शासक समझने लगा था। वह स्वाभाव से बहुत शंकालु था, जिसके कारण एक छोटी सी घटना को भी वह एक महान् षड्यंत्र के रूप में देखता था।
दूसरे, बैरम खाँ की बढ़ी हुई शक्ति से राज्य के अन्य अमीर व सूबेदार ईर्ष्या करते थे और उसके विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते थे। बैरम खाँ ने जिस प्रकार तरदीबेग की हत्या की थी, उससे अन्य अमीर उसके विरुद्ध हो गये थे, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा भी खतरे में दिखाई देने लगी थी।
तीसरे, बैरम खाँ ईरानी और शिया संप्रदाय का था और शिया लोगों के साथ पक्षपात करता था। इसके विपरीत अधिकांश मुगल अमीर तूरानी सुन्नी थे और उसकी पक्षपातपूर्ण नीतियों से असंतुष्ट थे। बैरम खाँ ने दोषारोपण कर पीरमुहम्मद को उसके पद से हटाकर उसके स्थान पर हाजी मोहम्मद इस्फहानी को नियुक्त किया और पक्षपातपूर्वक शिया शेख गदाई को ‘सद्रे सुदूर’ बनाया था।
चौथे, बैरम खाँ के पतन का प्रधान कारण अकबर की महत्त्वाकांक्षा एवं उसका स्वयं का असंतोष था। अकबर धीरे-धीरे वयस्क और अनुभवी हो रहा था और नाममात्र का शासक नहीं बना रहना चाहता था। इसके अलावा, अकबर बैरम खाँ के कई कार्यों से भी नाराज था। बैरम खाँ की स्वीकृति से ही अकबर के व्यक्तिगत व्यय के लिए धन मिलता था, जो प्रायः अपर्याप्त होता था। अब अकबर के हदय में वास्तविक शासक बनने की आकांक्षा बलवती हो रही थी और वह किसी के नियंत्रण में कार्य करने के लिए उद्यत नहीं था। अकबर की इस भावना को ‘अतका खेल’ ने और प्रज्ज्वलित कर दिया।
पाँचवें, बैरम खाँ के पतन में ’अतका खेल’ की मुख्य भूमिका थी, जिसने अकबर की वास्तविक बादशाह बनने की महत्त्वाकांक्षा को हवा देकर और प्रज्ज्वलित कर दिया। ‘अतका खेल’ एक ऐसे वर्ग का सामूहिक नाम था, जिसमें अकबर की धाय माँ माहम अनगा, जीजी अनगा, आदम खाँ, राजमाता हमीदाबानो बेगम, शमशुद्दीन खाँ, सहाबुद्दीन, मुल्ला पीर मुहम्मद आदि लोग सम्मिलित थे। यह वर्ग बैरम खाँ की सत्ता का विरोधी था और उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचता रहता था।
इस प्रकार कई कारणों से बैरम खाँ के विरुद्ध निरंतर विरोध की भावनाएँ बढ़ रही थीं। बैरम खाँ के विरोधियों ने यह भी अफवाह फैलाई कि बैरम खाँ कामरान के पुत्र अबुल कासिम को बादशाह बनाना चाहता है। इससे अकबर का बैरम खाँ पर संदेह और गहरा हो गया।
1560 ई. में अकबर शिकार के बहाने अबुल कासिम को लेकर आगरे से दिल्ली पहुँच गया, जहाँ उसकी माता हमीदाबानो बेगम अस्वस्थ थीं। उसने अब्दुल लतीफ कजवानी के द्वारा बैरम खाँ को एक पत्र भेजा और संरक्षक तथा प्रधानमंत्री के पद से पदच्युत् कर दिया। बैरम खाँ को विश्वास था कि यह उसके विरोधियों का षड्यंत्र है और यदि वह अकबर से मिलकर अपनी स्थिति को स्पष्ट करे तो उसका पद पुनः प्राप्त हो सकता है, किंतु अकबर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
फलतः अप्रैल, 1560 ई. में बैरम खाँ ने नागौर की ओर प्रस्थान किया और अपने पद का चिह्न व प्रतीक अकबर के पास भेज दिया। किंतु अकबर बैरम खाँ से सशंकित था, इसलिए उसने पीरमुहम्मद को एक सैनिक टुकड़ी के साथ इस उद्देश्य से भेजा कि वह बैरम खाँ पर नजर रखे और शीघ्र ही मक्का प्रस्थान कराये। जब बैरम खाँ को पता चला कि पीरमुहम्मद उसका पीछा कर रहा है, तो उसने विद्रोह कर दिया। अपनी परिवार तथा अपनी संपत्ति को सरहिंद के किले में छोड़कर बैरम खाँ पंजाब की ओर बढ़ा।
अकबर ने शाही सेना के साथ शम्सुद्दीन अतगा खाँ को बैरम खाँ के विरूद्ध भेजा, जिसने पंजाब में बैरम खाँ को पराजित कर दिया। बैरम खाँ ने भागकर शिवालिक की पहाड़ियों में शरण ली। किंतु उसे लगा कि मुगल सेना से सामना करना दुष्कर है, तो उसने आत्मसमर्पण कर दिया और बादशाह से क्षमा-याचना की।
अकबर ने बैरम खाँ को सम्मानपूर्वक दरबार में बुलाया और फरिश्ता के अनुसार उसके समक्ष तीन विकल्प रखा- एक, वह बादशाह के गुप्त मामलों का सलाहकार बन जाये; दूसरे कालपी एवं चंदेरी प्रांत की सूबेदारी ले ले और तीसरा यह कि मक्का की तीर्थयात्रा पर चला जाये। बैरम खाँ के मक्का जाने की इच्छा व्यक्त करने पर अकबर ने उसके मक्का जाने की व्यवस्था कर दी। किंतु रास्ते में गुजरात के ‘पाटन’ में मुबारक खाँ लोहानी नामक एक अफगान ने उसकी हत्या कर दी क्योंकि बैरम खाँ के आदेश पर उसके पिता की हत्या की गई थी।
इस प्रकार 31 जनवरी, 1561 ई. को बैरम खाँ की जीवन-लीला समाप्त हो गई। अकबर ने बैरम खाँ के परिवार की रक्षा की, उसकी विधवा सलीमा बेगम से निकाह कर लिया और उसके चारवर्षीय पुत्र अब्दुल रहीम (1556-1627) का पालन-पोषण किया। अकबर ने अब्दुल रहीम को शाही खानदान के अनुरुप ‘मिर्जा खाँ’ की उपाधि से सम्मानित किया, बाद में, 1584 ई. में अकबर ने अब्दुल रहीम को ‘खानखाना’ की उपाधि प्रदान की।
तथाकथित ‘परदा शासन’ (1560-1562 ई.)
बैरम खाँ के पतन के बाद अकबर 1560 से 1562 ई. तक कथित रूप से ‘अतका खेल’ के अप्रत्यक्ष प्रभाव में रहा, इसीलिए इस काल को ‘पर्दा शासन’ या ‘पेटीकोट शासन’ का काल बताया जाता है। विसेंट स्मिथ जैसे इतिहासकारों का मानना है कि ‘अकबर बैरम खाँ के शासन से मुक्त होकर विवेकहीन स्त्रियों के पैशाचिक दल के प्रभाव में आ गया, जिसमें अकबर की धाय माँ माहम अनगा, उसका पुत्र आधम खाँ, जीजी अनगा, शिहाबुद्दीन अहमद आदि लोगों का प्रभुत्त्व था। अकबर लगभग दो वर्षों (1560-1562 ई.) तक इस ‘अतका खेल’ के अधीन रहा।‘
किंतु डॉ. आर. पी. त्रिपाठी जैसे अनेक इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते। यद्यपि यह दल बैरम खाँ को हटाकर अपने को शक्तिशाली समझने लगा था और इस दल का विश्वास था कि सम्राट उनके प्रभाव में है और उन्हें सम्राट से बड़ी-बड़ी आशाएँ भी थीं। किंतु अकबर ने स्वयं को बैरम खाँ के प्रभाव से इसलिए नहीं मुक्त किया था कि वह दूसरे दल के प्रभाव में आ जाये। युवा सम्राट की अपनी ही योजनाएँ थीं, इसलिए इस दल में सम्मिलित अमीरों को बिखेरने के लिए उसने कई सेनाएँ भेजी और साम्राज्य के विस्तार तथा सुदृढ़ीकरण का कार्य आरंभ किया।
संभवतः माहम अनगा के प्रभाव में आकर ही अकबर ने आधम खाँ और पीरमुहम्मद को मालवा अभियान पर भेजा था, किंतु जब आधम खाँ मालवा विजय के समय बर्बर अत्याचार तथा उदंडता का प्रदर्शन किया, तो अकबर को स्वयं मालवा जाना पड़ा और आधम खाँ को हटाकर पीरमुहम्मद को मालवा का सूबेदार नियुक्त करना पड़ा था।
नवंबर, 1561 ई. में अकबर ने मुनीम खाँ के स्थान पर शम्सुद्दीन अतगा खाँ को वकील (प्रधानमंत्री) के पद पर नियुक्त किया, जिससे माहम अनगा और उसके समर्थक असंतुष्ट थे। अतगा खाँ की नियुक्ति से ‘अतका खेल’ का प्रभाव कम होने लगा, जिसके कारण आधम खाँ ने अपने सहयोगियों की सहायता से आगरा में प्रधानमंत्री अतगा खाँ की हत्या कर दी। ‘
आधम खाँ के दुष्कृत्यों से असंतुष्ट होकर अकबर ने उसे किले की दीवार के नीचे फेंकवा दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। यदि माहम अनगा शक्तिशाली होती, तो अपने पुत्र आधम खाँ के जीवन को बचा सकती थीं। आधम खाँ की मृत्यु के कुछ दिन बाद शोक-संतप्त माहम अनगा की भी जून, 1562 ई. में मृत्यु हो गई और इस प्रकार यदि ‘पर्दा शासन’ (पेटीकोट शासन) रहा भी हो, तो उसका अंत हो गया।
अकबर की विजयें
1560 ई. तक अकबर ने अपनी सभी प्रारंभिक समस्याओं का समाधान कर लिया और उसके पश्चात् मुगल साम्राज्य के विस्तार के लिए एक सुविचारित एवं सुसंगठित साम्राज्यवादी नीति अपनाई। उसने साम्राज्य-विस्तार के साथ-साथ उसके सुदृढीकरण का भी कार्य किया। वास्तव में अकबर एक महत्त्वाकांक्षी शासक था।
साम्राज्य-विस्तार के लिए उसने युद्ध और शक्तिपूर्ण कूटनीति, दोनों नीतियों का आश्रय लिया। अकबर का कहना था कि, ‘एक राजा को विजय के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए, अन्यथा पड़ोसी शासक उसके विरुद्ध शस्त्र उठाने की चेष्टा करते हैं।’ वह सेना को सदैव व्यस्त रखना आवश्यक समझता था क्योंकि उसका मानना था कि युद्ध में व्यस्त न होने से सेना प्रमादी हो जाती है।
मालवा की विजय (1561-64 ई.)
1561 ई. के आरंभ में अकबर ने सर्वप्रथम मालवा पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। मालवा का तत्त्कालीन शासक बाजबहादुर अत्यंत विलासी प्रवृत्ति का था। वह स्वयं श्रेष्ठ संगीतज्ञ था और नृत्य तथा संगीत में विशेष रुचि रखता था। बाजबहादुर पर उसकी अपनी परम सुंदरी पत्नी रूपमती का प्रभाव था, जो एक कुशल नृत्यांगना और गायिका थी। कला में अभिरुचि होने के कारण बाजबहादुर राज्य-संचालन में अधिक रुचि नहीं लेता था, जिससे मालवा की जनता बहुत दुखी थी। निजामुद्दीन ने लिखा है कि, ‘इस समय बादशाह को पता चला कि बाजबहादुर विलासिता में डूबा हुआ है और शासन की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहा है।’
अकबर ने आधम खाँ और पीरमुहम्मद खाँ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना मालवा-विजय के लिए भेजी। सेनापति आधम खाँ और पीरमुहम्मद की नियुक्ति संभवतः माहम अनगा के प्रभाव के कारण ही हुई थी क्योंकि दोनों ही अहंकारी और अनुपयुक्त थे।
मुगल सेना ने बाजबहादुर की राजधानी सारंगपुर पर आक्रमण किया। बाजबहादुर ने मुगलों का सामना किया, किंतु संक्षिप्त युद्ध में पराजित होकर दक्षिण में बुरहानपुर की ओर भाग गया। आधम खाँ ने मालवा पर अधिकार कर लिया और बाजबहादुर के हरम की स्त्रियों तथा उसके खजाने पर कब्जा कर लिया। रूपमती ने अपमानित होने की अपेक्षा संभवतः विषपान से मरना श्रेयस्कर समझा। आधम खाँ और पीरमुहम्मद ने मालवा में नृशंस अत्याचार किये। उन्होंने लूट का अधिकांश माल अपने पास रख लिया और थोड़ा-सा भाग अकबर को भेज दिया।
आधम खाँ के अत्याचारों और हरम की स्त्रियों पर कब्जा किये जाने की सूचना जब अकबर को मिली, तो वह स्वयं 27 अप्रैल, 1561 ई. को सेना के साथ मालवा की ओर चल पड़ा। अकबर के सारंगपुर पहुँचने पर आधम खाँ ने लूट का सामान अकबर को सौंप दिया। माहम अनगा (आधम खाँ की माँ और अकबर की धाय माँ) के बीच-बचाव करने के कारण अकबर ने आधम खाँ को क्षमा कर दिया और उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। कुछ समय मालवा में रुकने के पश्चात् अकबर आगरा लौट आया और उसने आधम खाँ के स्थान पर पीरमुहम्मद खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
अफगानों पर विजय (1561 ई.)
अकबर जिस समय मालवा जा रहा था, साम्राज्य के पूर्वी क्षेत्र में एक गंभीर विद्रोह हो गया। बैरम खाँ के पदच्युत् होने से बिहार के अफगानों को प्रोत्साहन मिला था। उन्होंने आदिलशाह के पुत्र शेर खाँ को अपना सुल्तान घोषित किया और एक शक्तिशाली सेना के साथ 1561 ई. में जौनपुर पर आक्रमण कर दिया। जौनपुर में मुगल सूबेदार खानजमाँ अलीकुली खाँ ने अपनी दुर्बल स्थिति के बावजूद शेर खाँ को परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया।
खानजमाँ का विद्रोह (1561 ई.)
शेर खाँ पर विजय प्राप्त करने से जौनपुर के सूबेदार खानजमाँ अलीकुली खाँ की महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ गईं। खानेजमाँ ने भी आधम खाँ की तरह लूट का पूरा माल आगरे नहीं भेजा और स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया। खानेजमाँ को दंडित करने के लिए अकबर तुरंत जौनपुर पहुँचा। अलीकुली खाँ ने कड़ा में अकबर से भेंट की और अनेक उपहारादि भेंट कर बादशाह से क्षमा माँग ली।
अकबर ने अलीकुली खाँ को पुनः जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया। यहीं से अकबर ने आसफ खाँ को चुनार की विजय करने के लिए भेजा, जो अफगानों के अधिकार में था। अफगानों ने चुनार आसफ खाँ को सौंप दिया और इस प्रकार 1561 ई. में ही चुनार पर मुगलों का अधिकार हो गया।
मालवा का विद्रोह (1562 ई.)
अकबर ने आधम खाँ को हटाकर पीरमुहम्मद खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया था। इससे उत्साहित होकर पीरमुहम्मद ने बुरहानपुर पर अधिकार करने का निश्चय किया। उसने बुरहानपुर के रास्ते में बीजागढ़, सुल्तानपुर और खानदेश को जीतते हुए बुरहानपुर पर भी अधिकार कर लिया।
किंतु जब पीरमुहम्मद लूट का माल लेकर लौट रहा था, तो बाजबहादुर ने दक्षिणी राज्यों की सहायता से उस पर आक्रमण कर दिया। पराजित पीरमुहम्मद भागते समय नर्मदा नदी में डूबकर मर गया और पराजित मुगल मालवा छोड़कर आगरा भाग गये । इस प्रकार बाजबहादुर ने मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया।
अकबर को जब यह सूचना मिली तो उसने कालपी के गवर्नर अब्दुल्ला खाँ उजबेग को मालवा पर अधिकार करने का आदेश दिया। अब्दुल्ला खाँ ने 1562 ई. में बाजबहादुर को पराजित करके मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया। बाजबहादुर ने भागकर पहले 1562 ई. में मारवाड़ के शासक उदयसिंह के यहाँ, फिर गुजरात के शासक के यहाँ शरण ली। अकबर ने अब्दुल्ला खाँ को मालवा का सूबेदार बना दिया। अंततः नौ वर्षों तक भटकने के बाद बाजबहादुर ने 1571 ई. में अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने भी उसे क्षमा करके अपना एक हजारी मनसबदार बना लिया।
मालवा के सूबेदार अब्दुल्ला खाँ उजबेग ने मांडु को राजधानी बनाकर मालवा में सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। किंतु महत्त्वाकांक्षी और लोभी अब्दुल्ला खाँ ने शीघ्र ही मालवा में विद्रोह कर दिया। बादशाह अकबर ने अब्दुल्ला खाँ को दंडित करने के लिए जुलाई, 1564 ई. में मालवा की ओर प्रस्थान किया। बादशाह के आने की सूचना से भयभीत होकर अब्दुल्ला खाँ मांडू से भाग निकला। अकबर की सेना ने मालवा पर अधिकार कर लिया। अब्दुल्ला खाँ पराजित होकर पहले गुजरात भागा और अंततः जौनपुर आ गया। अकबर ने बहादुर खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया और स्वयं आगरा लौट आया।
उजबेगों का विद्रोह (1560-1567 ई.)
अकबर के अमीरों और सरदारों में उजबेग महत्त्वपूर्ण थे। इनमें कई उजबेग नेता ऐसे थे जो अपनी स्वतंत्र प्रकृति के कारण अकबर द्वारा सत्ता के केंद्रीकरण के विरोधी थे। इनमें राजदरबार का मुनीम खाँ, जौनपुर का सूबेदार खानजमाँ, उसका भाई बहादुर खाँ और चाचा इब्राहिम खाँ, मालवा का पूर्व सूबेदार अब्दुल्ला खाँ तथा अवध का सूबेदार खान आलम मुख्य थे। इनका प्रमुख खानजमाँ अलीकुली खाँ था, जिसने हेमू के विरुद्ध विशेष वीरता का प्रदर्शन किया था। इन उजबेगों के कारण अकबर को 1560 से 1567 ई. तक संकट का सामना करना पड़ा। दरअसल, बैरम खाँ के पतन के बाद से ही जौनपुर, लखनऊ और बनारस उजबेग विद्रोहियों के केंद्र बन गये थे। किंतु अंत में अकबर ने बड़ी बुद्धिमत्ता से इन उजबेग सरदारों पर विजय प्राप्त की और 1567 ई. तक इनका दमन कर दिया।
अलीकुली खाँ ने 1565 ई. में अब्दुल्ला खाँ तथा अन्य उजबेग अमीरों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। अकबर ने विद्रोहियों से निपटने के लिए सेना भेजी, किंतु खानेजमाँ ने अपने भाई बहादुर और चाचा इब्राहिम की सहायता से शाही सेना को पराजित कर दिया। इसके बाद अकबर ने स्वयं उजबेग विद्रोहियों के दमन के लिए प्रस्थान किया और उन्हें पूरब की ओर खदेड़ दिया। किंतु आसफखाँ, जो बादशाह के साथ था, विद्रोहियों से जा मिला, जिससे समस्या जटिल हो गई।
इसी समय अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम ने काबुल से पंजाब पर आक्रमण कर दिया। फलतः अकबर को उजबेग अभियान स्थगित कर काबुल की ओर प्रस्थाना किया। दिसंबर, 1565 ई. में मुनीम खाँ के प्रयास से खानेजमाँ से एक समझौता हुआ जिसके अनुसार खानेजमाँ ने भविष्य में गंगा पार न करने का वचन दिया।
मिर्जा हकीम के आक्रमण से प्रोत्साहित होकर उजबेग विद्रोही खानजमाँ पुनः सक्रिय हो गया। उसने मिर्जा हकीम के नाम पर ‘खुतबा’ पढ़वाया, और पुनः विद्रोह कर दिया। अकबर ने मिर्जा हकीम को काबुल खदेड़ने के बाद उजबेगों के विरूद्ध पुनः अभियान किया और इलाहाबाद में विद्रोहियों को पराजित किया। इस युद्ध में अलीकुली खाँ (खानजमाँ) मारा गया और उसके भाई बहादुर को बंदी बनाकर मृत्युदंड दिया गया।
इस प्रकार अकबर ने विद्रोहियों का पूर्ण सफाया कर दिया। इतिहासकार आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार ‘वास्तव में पानीपत के युद्ध के बाद सल्तनत के सामने इतने कठिन दिन कभी नहीं आये थे। यदि बादशाह अकबर पराजित हो जाता तो भारत का दूसरा ही इतिहास होता। किंतु उसे तो दीर्घजीवी होकर मुगल साम्राज्य की जड़ें मजबूत करनी थी।’
आमेर की अधीनता (1562 ई.)
आमेर का राजा बिहारीमल अथवा भारमल कछवाहा राजपूत था। उसका भतीजा सुजा मेवात के सूबेदार मुहम्मद शर्फुद्दीन की सहायता से उसे आमेर से निष्कासित करना चाहता था। राजा बिहारीमल का मारवाड़ के राजा से भी अच्छे संबंध नहीं थे। ऐसी परिस्थिति में उसने अकबर से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया।
अकबर जनवरी, 1562 ई. में अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की प्रथम तीर्थयात्रा के लिए जा रहा था। सांगानेर में 20 जनवरी, 1562 ई. को आमेर के राजा भारमल (बिहारीमल) अपने परिवार के साथ बादशाह से मिला। आमेर के राजा ने स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और उससे अपनी बड़ी पुत्री का विवाह करने की इच्छा व्यक्त की।
अकबर ने भारमल अथवा बिहारीमल को सुरक्षा का आश्वासन दिया और अजमेर से लौटते समय सांभर में 6 जनवरी, 1562 ई. को उसकी पुत्री हरकाबाई (जोधाबाई) से विवाह कर लिया। इसी राजपूत राजकुमारी से अकबर का उत्तराधिकारी जहाँगीर पैदा हुआ था। अकबर ने भारमल को मुगल सेना में पाँच हजार का मनसब प्रदान किया और उसके पुत्र भगवानदास तथा पौत्र मानसिंह को भी उच्च पदों पर नियुक्त किया।
इस प्रकार आमेर पहला राजपूताना राज्य था, जिसने अकबर के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया था। बेनीप्रसाद के अनुसार ‘यह भारत की राजनीति में नवयुग का प्रतीक था; इसने देश को महान सम्राटों की श्रृंखला प्रदान की; इसने मुगल सम्राटों की चार पीढ़ियों को मध्यकाल के कुछ महानतम सेनानायक एवं कूटनीतिज्ञों की सेवाएँ प्रदान की।’
मेड़ता की विजय (1562 ई.)
अकबर के समय में मेड़ता का दुर्ग राय मालदेव के सेनापति जयमल राठौर के अधीन था। अकबर ने मिर्जा शर्फुद्दीन हुसैन को मेड़ता पर अधिकार करने के लिए भेजा। कुछ समय के घेरे के बाद जयमल राठौर ने दुर्ग मुगल सेना को सौंप दिया और चित्तौड़ भाग गया। किंतु जयमल के समर्पण से असंतुष्ट राजपूतों ने देवदास के नेतृत्त्व में मुगलों का प्रतिरोध किया। अंततः थोड़े-से प्रतिरोध के बाद 1562 ई. में मेड़ता के दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया।
गढ़-कटंगा की विजय (1564 ई.).
मध्य प्रदेश के उत्तरी जिलों से लेकर दक्षिण भारत की सीमा तक गोंडवाना क्षेत्र विस्तृत था, जिसमें सागर, दमोह, सिवनी, जबलपुर और भोपाल के कुछ भाग सम्मिलित थे। इस गोंडवाना प्रदेश में गढ़-कटंगा का राज्य था, जिसकी राजधानी चौरागढ़ थी। अकबर के समय में गढ़-कटंगा में महोबा की चंदेल राजकुमारी रानी दुर्गावती अपने अल्पवयस्क पुत्र वीर नारायण की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी।
अकबर ने 1564 ई. में गढ़-कटंगा के दुर्ग पर आक्रमण करने के लिए कड़ा के मुगल सूबेदार आसफ खाँ को भेजा। आसफ खाँ ने भाट (आधुनिक बघेलखंड) के राजा रामचंद्र को मुगल अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इसके बाद उसने शक्तिशाली सेना के साथ 1564 ई. में दुर्गावती पर आक्रमण किया। रानी दुर्गावती ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ नरही (जबलपुर) के युद्ध में मुगल सेना का वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया।
अंततः जीत की आशा न देखकर रानी ने खंजर से आत्महत्या कर ली। इसके बाद, आसफ खाँ ने चौरागढ़ के युद्ध में वीर नारायण को पराजित कर मुगल सत्ता स्थापित की। इस विजय में आसफ खाँ को बहुत सारी संपत्ति मिली, जिसमें से कुछ उसने बादशाह अकबर की सेवा में भेज दिया।
अकबर द्वारा रानी दुर्गावती पर आक्रमण किये जाने की अनेक इतिहासकारों ने भर्त्सना की है। स्मिथ के अनुसार ‘ऐसी उच्च चरित्रवाली शासिका के विरुद्ध अकबर का आक्रमण केवल अतिक्रमण था।’ वूल्जे हेग ने भी लिखा है कि यह आक्रमण विशुद्ध रूप से एक आक्रामक कार्य था, क्योंकि गोंड राज्य ने सम्राट के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया था।
किंतु वास्तविकता यह है कि भारत का सम्राट बनने के लिए प्रत्येक राज्य को अपने अधीन करना अकबर के लिए आवश्यक था चाहे वहाँ स्त्री का राज्य हो अथवा पुरुष का। यद्यपि यह अकबर की साम्राज्यवादी नीति का परिणाम था, फिर भी, 1567 ई. में अकबर ने कुछ किलों को छोड़कर गोंड राज्य चंद्रशाह को वापस कर दिया।
मेवाड़ (चित्तौड़) की विजय (1567 ई.)
अपनी गौरवपूर्ण परंपराओं के कारण मेवाड़ के सिसोदिया वंश का राजस्थान के इतिहास में विशिष्ट स्थान रहा है। राणा सांगा के वीरता की स्मृति अभी भी बनी हुई थी। अकबर उदारता या शक्ति के द्वारा राजस्थान में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए कृत-संकल्प था। दूसरी ओर तत्कालीन शासक राणा उदयसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ था।
आमेर, जोधपुर और बीकानेर ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किंतु राजस्थान पर अकबर का अधिकार उस समय तक पूरा नहीं माना जा सकता था, जब तक कि मेवाड़ उसकी अधीनता न स्वीकार कर ले।
अकबर को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए उचित बहाने भी थे। मेवाड के राणा ने अकबर के शत्रु जयमल, बाजबहादुर और विद्रोही मिर्जा शर्फुद्दीन को अपने यहाँ शरण दी थी। इसके अलावा, मेवाड़, दिल्ली एवं गुजरात के मार्ग में पड़ता था, इसलिए गुजरात की भावी विजय के लिए भी मेवाड़ की विजय करना आवश्यक था।
पूर्व के उजबेगों से निपटने के बाद अकबर ने सितंबर, 1567 ई. में मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया और 23 अक्टूबर, 1567 ई. को चित्तौड़ पहुँच कर किले का घेरा डाल दिया। राजपूतों से विचार-विमर्श कर चित्तौड़ के दुर्ग की रक्षा का भार जयमल को सौंपकर राणा उदयसिंह स्वयं मेवाड की दक्षिणवर्ती पहाड़ियों में राजपीपलो चला गया। टॉड का अनुकरण करते हुए अनेक इतिहासकार राणा उदयसिंह को कायर कहते हैं, जो उचित नहीं है। यदि उदयसिंह कायर होता तो वह अकबर की अधीनता स्वीकार करके चित्तौड़ में राज्य करता।
अकबर लगभग पाँच महीने तक चित्तौड़ के किले का घेरा डाले रहा, किंतु मुगलों को किसी प्रकार की सफलता नहीं मिल सकी। फरवरी, 1568 ई. में एक रात अकबर ने बंदूक से निशाना लगाकर बुर्ज पर खड़े जयमल को गंभीर रूप से घायल कर दिया, जो उस समय दुर्ग की दीवार की मरम्मत करा रहा था। मृत्यु शैय्या पर पड़े जयमल ने राजपूतों को अंतिम युद्ध का आदेश दिया। जयमल की मृत्यु हो जाने पर राजपूत स्त्रियों ने ‘जौहर’ कर लिया और फतहसिंह (फत्ता), उसकी माँ तथा पत्नी के नेतृत्व में राजपूत मुगलों पर टूट पड़े और अंत तक मातृभूमि की रक्षा करते हुए मारे गये।
इस युद्ध में मुगल सेना को भी भारी हानि उठानी पड़ी। इस प्रकार अकबर ने एक रक्तरंजित विजय प्राप्त की। अकबर ने किले में भी नरसंहार का आदेश दिया, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 30 हजार लोग कत्ल कर दिये गये। अकबर की यह पहली और आखिरी निर्दयता थी, जो उसके माथे पर कलंक है।
बाद में, उसने पश्चातापस्वरूप आगरा के किले के द्वार पर जयमल और फत्ता की हाथी पर आसीन मूर्तियाँ बनवाई। आसफ खाँ को मेवाड़ का सूबेदार नियुक्त करके अकबर शेख मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन के लिए अजमेर चला गया। मेवाड़ के सिसोदियों ने फिर कभी चितौड को अपनी राजधानी नहीं बनाई।
रणथम्भौर की विजय (1569 ई.)
चित्तौड़ के बाद राजस्थान का दूसरा प्रमुख दुर्ग रणथम्भौर था। रणथम्भौर का किलेदार सुर्जनराय बूंदी का हाड़ा राजपूत था, जो मेवाड़ के अधीन था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह पर दबाव डालने के लिए अकबर की सेना ने 1569 ई. में इस दुर्ग का घेरा डाल दिया और लगभग डेढ़ महीने तक दुर्ग को घेरे रखा।
अंत में, सुरजनराय ने राजा भगवानदास और मानसिंह की मध्यस्थता से दुर्ग अकबर को सौंप दिया और कुछ शर्तों के साथ अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। सुरजनराय ने अकबर के समक्ष विवाह-संबंध स्थापित न करने, सिजदा न करने और दरबार में सशस्त्र आने की शर्तें रखी थीं। अकबर ने सुरजनराय को सेना में मनसबदार नियुक्त किया और उसे क्रमशः गोंडवाना, बनारस, चुनार का सूबेदार नियुक्त किया।
चित्तौड़ तथा रणथम्भौर की विजय से अकबर की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और इसका अन्य क्षेत्रों पर भी प्रभाव पड़ा। बंगाल के अफगान शासक सुलेमान कर्रानी ने चित्तौड़ विजय का समाचार सुनकर अकबर को अपनी अधीनता का पैगाम भेजा। उसने अकबर के नाम का ‘खुतबा’ पढ़वाया और सिक्के जारी किये।
कालिंजर की विजय (1569 ई.)
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड (बाँदा जिले) में स्थित कालिंजर का अभेद्य दुर्ग रीवां के राजा रामचंद्र के अधीन था। 1569 ई. में अकबर ने चित्तौड़ विजय के लिए प्रस्थान किया और मजनू खाँ काकशाल को कालिंजर की विजय के लिए नियुक्त किया। मुगल सेना ने कालिंजर दुर्ग का घेरा डाल दिया। पहले तो रामचंद्र ने मुगलों का प्रतिरोध करने का निश्चय किया, किंतु जब उसे चित्तौड़ और रणथम्भौर के पतन की सूचना मिली, तो उसने आत्मसमर्पण कर दिया और दुर्ग मजनू खाँ को सौंप दिया।
बादशाह अकबर ने राजा रामचंद्र को कालिंजर के बदले में प्रयागराज के निकट एक जागीर दी और कालिंजर के व्यवस्था की जिम्मेदारी मजनू खाँ काकशाल को दे दिया। इस प्रकार कालिंजर के महत्त्वपूर्ण दुर्ग पर भी अकबर का अधिकार हो गया।
मारवाड़ के राजाओं पर आधिपत्य (1570 ई.)
1570 ई. में जब अकबर शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन के लिए जा रहा था, वह नागौर में ठहरा। वहाँ मारवाड़ के राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। मारवाड़ के राजाओं में तीन राजा विशेष महत्त्वपूर्ण थे- जोधपुर के राजा मालदेव का पुत्र चंद्रसेन, जो इस समय जोधपुर का राजा था; बीकानेर का राजा राय कल्याणमल तथा उसका पुत्र रायसिंह और जैसलमेर का राजा रावल हरराय। इन सभी राजाओं ने अकबर से भेंट की और न केवल उसकी अधीनता स्वीकार की, बल्कि विवाह-संबंध भी स्थापित किये।
इस प्रकार राजस्थान की विजय लगभग पूरी हो चुकी थी। केवल मेवाड़ का राणा उदयसिंह राजपूत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए युद्धरत था। अकबर पहला मुसलमान शासक था, जिसने राजस्थान में इतनी अधिक सफलता प्राप्त की। उसने अपने अधीनस्थ राजाओं और उनके सगे-संबंधियों को अपनी सेवा में लेकर मुगल मनसबदार बना लिया। संभवतः यही कारण है कि कर्नल टॉड अकबर को ही ‘मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक’ स्वीकार करते हैं।
मेवाड़ से पुनः संघर्ष
अकबर ने 1567 ई. में चित्तौड़ और मेवाड़ राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था, किंतु मुगल संपूर्ण मेवाड़ पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल नहीं हो सके थे। राणा उदयसिंह की 1572 ई. में मृत्यु हो गई, जो चित्तौड़ छोड़कर अरावली की पहाड़ियों में भाग गया था। उदयसिंह के बाद मेवाड़ के सामंतों ने गोगुंडा में उसके पुत्र राणा प्रतापसिंह का राज्याभिषेक किया।
कर्नल टॉड ने लिखा है कि यद्यपि राणा प्रताप को प्रख्यात वंश की कीर्ति एवं उपाधि अवश्य मिली थी, लेकिन उसके पास न तो कोई राज्य था और न ही शक्तिशाली सेना। फिर भी, राणा प्रताप ने अपने साम्राज्य पर पुनः अधिकार करने का दृढ़-संकल्प किया था। राणा प्रतापसिंह के अतिरिक्त राजपूताना के लगभग सभी राजपूत शासक अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। राणा प्रताप का भाई शक्तिसिंह भी अकबर के साथ था।
अकबर गुजरात अभियान के समय और बाद में भी अपने प्रतिनिधियों को भेजकर राणा को शांतिपूर्ण तरीके से मुगल अधीनता स्वीकार कराने के लिए प्रयास करता रहा, किंतु सफलता नहीं मिली। उसने जलाल खाँ को राणा प्रतापसिंह के पास भेजकर मुगल दरबार में उपस्थित होने का संदेश दिया, किंतु राणा ने स्वीकार नहीं किया।
इसके बाद अकबर ने मानसिंह, भगवानदास और राजा टोडरमल को राणा प्रताप के पास समझौते के लिए भेजा, किंतु वे राणा को मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिए राजी नहीं कर सके। कहा जाता है कि अकबर राणा को पाँचहजारी मनसब का पद देने के लिए तैयार था, किंतु राणा दसहजारी मनसबदार का पद चाहता था,, ताकि वह अन्य राजपूत राजाओं से स्वयं को बड़ा सिद्ध कर सके।
राणा प्रताप अकबर की शक्ति से परिचित था और यह जानता था कि मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार न करने पर उसे लंबा और कठोर संघर्ष करना होगा। राणा और उसके सहयोगी अपने वंश के गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मुगलों का सामना करने के लिए एकजुट होकर प्रयत्नशील हो गये। राणा प्रताप ने अकबर से असंतुष्ट राजाओं- जोधपुर के चंद्रसेन और सिरोही के राव सुल्तान के साथ संधियाँ की और गुजरात के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया।
हल्दीघाटी का युद्ध (1576 ई.)
जोधपुर में 1574 ई. में मुगलों के विरुद्ध विद्रोह हुआ। अकबर को लगा कि इसके पीछे राणा प्रताप का विरोध था। उसने अप्रैल, 1576 ई. में राजा मानसिंह के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना राणा प्रताप पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वास्तव में मेवाड़ पर अकबर के आक्रमण के तीन विशेष कारण थे- एक, राणा प्रताप पर विजय से राजपूताना के शेष राजपूत शासकों का मनोबल टूट जाता और वे अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेते। दूसरे, भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित करने के लिए संपूर्ण राजपूताना पर अधिकार करना आवश्यक था और तीसरे, यदि अकबर राजपूताना की विजय न करता, तो वह गुजरात और मालवा की ओर साम्राज्य का विस्तार नहीं कर सकता था।
राणा प्रताप की सेना में लगभग पाँच हजार सैनिक थे, जबकि मुगल सेना बहुत विशाल थी, जिसका नेतृत्व राजा मानसिंह कर रहा था। मानसिंह मंडलगढ़ के मार्ग से होता हुआ गोगुंडा गढ़ के निकट हल्दीघाटी के निकट पहुँच गया। राणा प्रताप भी मुगल सेना का सामना करने के लिए पहाड़ियों से उतर आया। 18 जून, 1576 ई. को राणा प्रताप और मानसिंह की सेनाओं के बीच हल्दीघाटी में भीषण युद्ध हुआ, जिसे ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ कहा जाता है।
इस युद्ध में राजा मानसिंह के अतिरिक्त आसफ खाँ, मेहतर खाँ, गाजी खाँ बदख्शी, जगन्नाथ कठवाहा तथा बारहा के सैयदों ने मुगल सेना का नेतृत्व किया, जबकि राजपूत पक्ष की ओर से हकीम खाँ सूर, राजाराम साह, रामदास, मानसिंह झाला एवं स्वयं राणा प्रताप ने वीरतापूर्वक युद्ध में भाग लिया। यद्यपि युद्ध के प्रारंभ में राणा प्रताप की सेना ने भीषण आक्रमण किया, जिससे मुगलों के पाँव उखाड़ गये, किंतु तभी इस अफवाह से कि अकबर स्वयं सैनिक सहायता लेकर आ रहा है, निराश मुगल सैनिकों का उत्साह दुगना हो गया।
राणा प्रताप जब घायल होकर शत्रुओं से घिर गया, तो सरदार झाला ने राणा प्रताप का मुकुट उतार कर स्वयं पहन लिया और इस प्रकार राणा प्रताप को युद्ध-क्षेत्र से निकल भागने में सहायता की। राणा की पराजय और पलायन के बाद मानसिंह ने गोगुंडा पर अधिकार कर लिया। राणा ने अरावली की पहाड़ियों में शरण ली। इसी युद्ध में राणा प्रताप के स्वामिभक्त घोड़े चेतक की मृत्यु हुई थी।
यद्यपि हल्दीघाटी में मुगल विजयी रहे, किंतु बादशाह अकबर मानसिंह और आसफ खाँ की सफलता से संतुष्ट नहीं था क्योंकि न तो राणा को बंदी बनाया जा सका और न ही संपूर्ण मेवाड़ पर अधिकार किया जा सका था।
अकबर स्वयं गोगुंडा आया और उसने राणा के विरुद्ध सेनाएँ भेजी, फिर भी उसे सफलता नहीं मिली। उसने मानसिंह को हटाकर शहबाजखाँ को मेवाड़ के अभियान का उत्तरदायित्व सौंपा। अब अकबर ने स्वयं राणा प्रताप के समर्थक जालौर, सिरोही और ईदर के राजाओं के दमन का निश्चय किया। उसने सर्वप्रथम जालौर पर अधिकार कर अक्टूबर, 1576 ई. में राणा प्रतापसिंह के विरूद्ध प्रस्थान किया।
गोगुंडा पहुँचकर अकबर ने अली कुली खाँ को ईदर के राय नारायणदास के विरूद्ध भेजा और कुतुबुद्दीन तथा राजा भगवानदास को राणा प्रताप के विरूद्ध नियुक्त किया। मुगल सेना ने ईदर पर अधिकार कर लिया और उसका राजा पहाड़ियों जाकर छिप गया। बाँसवाड़ा के रावल प्रतापसिंह तथा डूँगरपुर के रावल आसकरन ने भी अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके अलावा, बूँदी तथा सिरोही पर भी मुगलों का अधिकार हो गया। इस प्रकार लगभग संपूर्ण राजपूताना मुगलों के अधीन हो गया, केवल मेवाड़ ही विरोध करता रहा।
1577 ई. में अकबर ने मेवाड़ के विरूद्ध भगवानदास, मानसिंह तथा शहबाज खाँ को नियुक्त किया। मुगलों ने कुंभलगढ़, गोगुंडा तथा उदयपुर को जीत लिया। शहबाजखाँ ने अपनी पूरी शक्ति के साथ दो वर्ष तक राणा का विरुद्ध युद्ध जारी रखा और राणा को निरंतर घाटियों में इधर-उधर भटकना पड़ा।
1579 से 1585 ई. तक अकबर दोआब, बिहार, बंगाल, गुजरात के सैनिक विद्रोहों का दमन करने, काबुल तथा पश्चिमोत्तर की समस्याओं में व्यस्त रहा। इससे राणा प्रतापसिंह को समय मिल गया और उसने मेवाड़ राज्य के अधिकांश भागों को मुगलों से वापस छीन लिया। 19 जनवरी, 1597 ई. को राणा प्रताप की मृत्यु हो गई। राणा के उत्तराधिकारी अमरसिंह ने भी अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसके बाद अकबर ने 1599 ई. और 1603 ई. में शहजादा सलीम को मेवाड़ विजय के लिए नियुक्त किया, किंतु तब भी मुगलों को कोई सफलता नहीं मिली।
महाराणा प्रताप की वीरता, दृढ़ स्वतंत्रता, राष्ट्र भक्ति, त्याग-भावना का भारत के इतिहास में अप्रतिम स्थान है। यद्यपि हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप को पराजित होना पड़ा, किंतु इस युद्ध ने राणा प्रताप को भारत के इतिहास में अमर कर दिया।
कुछ इतिहासकार अकबर तथा राणा के संघर्ष को धार्मिक संघर्ष का रूप देने का प्रयास करते हैं, किंतु हल्दीघाटी का युद्ध कोई ‘धर्म-युद्ध’ न होकर विशुद्ध राजनीतिक युद्ध था क्योंकि इस युद्ध में राणा की सेना के वामपार्श्व का सेनापति हकीम खाँ सूर था और मुगल सेना के सेनापति जगन्नाथ और मानसिंह थे।
वास्तव में, यह युद्ध मुगल साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक स्वतंत्रता संग्राम था, जिसमें मेवाड़ के देशभक्तों ने अपना सर्वस्व निछावर करके एक शक्तिशाली सेना से युद्ध किया। इस गैर-बराबरी के युद्ध में महाराणा प्रताप का संघर्ष एक ऐसी वीरगाथा बन गई, जो अपने गौरव से सभी देश-काल के स्वातंत्र्य-प्रेमियों को प्रेरणा देती रहेगी।
गुजरात की विजय (1572-73 ई.)
गुजरात प्रदेश सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण था ही, धामिक दृष्टि से भी यह प्रदेश मुसलमानों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि मक्का की यात्रा के लिए हज यात्रियों को गुजरात से गुजरना पड़ता था। फलतः अकबर द्वारा गुजरात पर अधिकार करने का प्रयत्न करना स्वाभाविक था। गुजरात पर हुमायूँ का अधिकार भी रह चुका था, इसलिए भी अकबर उसे अपने अधीन करना चाहता था।
गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर खाँ तृतीय अत्यंत शक्तिहीन और नाममात्र का शासक था। उत्तरी गुजरात में अफगानों का प्रभुत्व बढ़ गया था और उनका बिहार के विद्रोहियों से संपर्क था। अकबर जानता था कि मुगल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अफगान शक्ति का विनाश आवश्यक है। यही नहीं, अकबर के विद्रोही मिर्जाओं ने दक्षिणी गुजरात में शरण ले रखी थी। ऐसी परिस्थिति में अकबर ने स्वयं गुजरात पर आक्रमण करने के लिए 4 जुलाई, 1572 ई. को आगरा से प्रस्थान किया।
इस समय गुजराती अमीरों में सत्ता-संघर्ष चल रहा था और एतमाद खाँ ने अकबर से हस्तक्षेप की प्रार्थना की। एक सामान्य युद्ध के बाद मुगल सेना ने नवंबर, 1572 ई. में अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया और मुजफ्फर खाँ तथा एतमाद खाँ ने आत्म-समर्पण कर दिया।
21 नवंबर, 1572 ई. को बादशाह अकबर का नाम ‘खुतबा’ में पढ़ा गया और उसके नाम के सिक्के भी अंकित करवाये गये। अकबर ने मिर्जा अजीज कोका को अहमदाबाद की देखभाल के लिए नियुक्त किया और खंभात जाकर विदेशी व्यापारियों से नजरें स्वीकार की।
खंभात पहुँचकर अकबर ने सूरत पर आक्रमण करने का निश्चय किया, जो मिर्जाओं का एक सुदृढ़ दुर्ग था। किंतु सूरत पहुँचने से पहले ही सरनाल नामक स्थान पर अकबर ने इब्राहिम मिर्जा को पराजित किया, किंतु इब्राहिम अंधेरे का लाभ उठाकर भाग गया। अपनी सेना की सफलता से प्रसन्न होकर अकबर ने अपने सैनिकों को पुरस्कृत किया और भगवानदास को एक निशान तथा नक्कारा प्रदान किया। यहाँ से बादशाह ने सूरत की ओर प्रस्थान किया, जहाँ विद्रोहियों ने पुर्तगालियों की सहायता से सूरत के दुर्ग की सुदृढ़ किलेबंदी कर रखी थी।
सूरत पहुँचकर अकबर ने किले का घेरा डाल दिया, जो लगभग डेढ़ महीने तक चलता रहा और अंत में 26 फरवरी, 1573 ई. को अकबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। यहीं पुर्तगालियों ने अकबर से भेंट की। सूरत से अकबर अहमदाबाद पहुँचा, जहाँ मिर्जा अजीज कोका को गुजरात की सूबेदारी प्रदान कर राजधानी फतेहपुर सीकरी आ गया।
अकबर के वापस लौटते ही 1573 ई. में दक्षिण गुजरात में मिर्जाओं ने विद्रोह कर दिया। गुजरात के सूबेदार मिर्जा अजीज कोका ने विद्रोह के दमन के लिए अकबर से सहायता माँगी। अकबर ने भगवानदास, शुजाअत खाँ, सैयद मुहम्मद बारहा एवं मालवा के सूबेदार मुजफ्फर खाँ को मिर्जा अजीज कोका की सहायता के लिए भेजा। 23 अगस्त, 1573 ई. को अकबर स्वयं गुजरात के विद्रोहियों का दमन करने के लिए चल पड़ा और और अप्रत्याशित रूप से ग्यारहवें दिन अहमदाबाद के निकट पहुँच गया।
अकबर ने साबरमती नदी पार कर 2 सिंतंबर, 1573 ई. को विद्रोहियों को पराजित कर दिया। विद्रोही हुसैन मिर्जा मारा गया और शाह मिर्जा भाग गया। अकबर पुनः मिर्जा अजीज कोका को गुजरात की सूबेदारी सौंपकर राजधानी लौट आया। कहा जाता है कि अकबर ने गुजरात विजय की स्मृति में ही 1575 ई. में फतेहपुर सीकारी का ‘बुलंद दरवाजा’ (विजय का द्वार) बनवाया था।
किंतु गुजरात में स्थायी शांति अभी स्थापित नहीं हो सकी क्योंकि 1578 ई. में गुजरात का अंतिम शासक मुजफ्फरशाह कैदखाने से भाग निकला और 1583 ई. में अचानक आक्रमण कर अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया। उसने ‘बादशाह’ की पदवी धारण की और मुगल अधिकारी कुतुबुद्दीन को मारकर भड़ौच को जीत लिया। इस विद्रोह की सूचना पाकर अकबर ने अब्दुर्ररहीम खानखाना को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया।
जनवरी, 1584 ई. में ‘सरखेज के युद्ध’ में मुगल सेना ने मुजफ्फरशाह तृतीय को पराजित कर बंदी बना लिया, किंतु उसने अपना गला काटकर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार संपूर्ण गुजरात अकबर के अधीन हो गया। अब्दुर्ररहीम की सफलता पर बादशाह ने उसे ‘खानखाना’ की उपाधि से सम्मानित किया। गुजरात की विजय से अकबर को जहाँ एक ओर आर्थिक लाभ हुआ, वहीं मिर्जाओं के विद्रोह भी समाप्त हो गये।
बिहार, बंगाल और उड़ीसा की विजयें (1574-80 ई.)
यद्यपि बिहार के शासक शेर खाँ (सुलेमान कर्रानी) ने 1568 ई. अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किंतु उस पर अकबर का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित नहीं हो सका था। 1572 ई. में शेर खाँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बायजीद सिंहासनारूढ़ हुआ, किंतु अमीरो ने उसकी हत्या कर दूसरे पुत्र दाऊद खाँ को राजा बना दिया। दाऊद एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने स्वतंत्र शासक के रूप में अपना नाम ‘खुतबा’ में पढ़वाया, सिक्कों पर अपना नाम अंकित करवाया और गुजरात में अकबर की व्यस्तता का लाभ उठाकर मुगल प्रदेशों पर आक्रमण किया।
अकबर के आदेश से खानखाना ने दाऊद खाँ पर आक्रमण किया। किंतु कुछ समय बाद बंगाल अभियान की जिम्मेदारी जौनपुर के सूबेदार मुनीम खाँ को दी गई। मुनीम खाँ ने दाऊद के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही करते हुए अफगानों को पटना में घेर लिया, किंतु मुगल शिविर में मतभेद के कारण उसकी प्रगति रुक गई। इस बीच अकबर गुजरात की विजय पूरी करके 1574 ई. में बिहार आ गया और दाऊद खाँ उड़़ीसा की ओर भाग गया। मुनीम खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके अकबर आगरे लौट आया।
तुकाराम का युद्ध (1675 ई.)
मुनीम खाँ ने दाऊद खाँ के विरुद्ध अभियान जारी रखा और उसकी राजधानी टाँडा पर अधिकार कर लिया। उसने उड़ीसा तक दाऊद खाँ का पीछा किया और 3 मार्च, 1675 ई. में ‘तुकाराम के युद्ध’ में दाऊद को निर्णायक रूप से पराजित किया। दाऊद ने मुनीम खाँ से संधि कर ली और अपने भतीजे शेख मुहम्मद को बंधक के रूप में मुनीम खाँ के पास छोड़ दिया। संधि के अनुसार दाऊद खाँ का उड़ीसा पर अधिकार बना रहा।
राजमहल का युद्ध (1576 ई.)
किंतु 1575 ई. में मुनीम खाँ की मृत्यु के बाद दाऊद खाँ के नेतृत्व में अफगानों ने टाँडा पर अधिकार कर लिया। अकबर ने खानेजहाँ हुसैनकुली खाँ और टोडरमल को दाऊद के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही करने का आदेश दिया। बिहार से मुजफ्फर खाँ भी खानेजहाँ की सहायता के लिए आ गया। 12 जुलाई, 1576 ई. को मुगल सेना के राजमहल के निकट युद्ध में दाऊद को पराजित कर दिया। मुगल सैनिकों ने दाऊद का सिर काटकर अकबर की सेवा में फतेहपुर सीकरी भेज दिया और शेष शरीर टाँडा में लटका दिया। इस प्रकार 1576 ई. तक बिहार, बंगाल और उड़ीसा पर मुगलों का अधिकार हो गया और बंगाल का राज्य समाप्त हो गया।
काकशाल विद्रोह 1580 ई.
खानेजहाँ की मृत्यु के बाद 1580 ई. में बिहार और बंगाल में पुनः विद्रोह आरंभ हो गया, जो ‘काकशाल विद्रोह’ के नाम से प्रसिद्ध है। अकबर ने राजा टोडरमल को विद्रोहियों से निपटने के लिए नियुक्त किया। मुजफफर खाँ की हत्या के बाद अकबर ने टोडरमल की सहायता के लिए अजीज कोका को भेजा। अंततः राजा टोडरमल और अजीज कोका के संयुक्त प्रयास से ‘काकशाल विद्रोह’ का दमन कर दिया गया और इस प्रकार बंगाल में पुनः शांति और व्यवस्था स्थापित हो गई।
उड़ीसा विजय (1590-92 ई.)
दाऊद खाँ के व्रिदोह के दमन के समय उड़ीसा के एक भाग पर मुगलों का अधिकार हो गया था। किंतु 1582 ई. में विद्रोह का लाभ उठाकर कतलू खाँ लोहानी (निसार ख़ाँ) ने उड़ीसा पर अधिकार कर लिया था। मुग़ल सेना ने 1590 ई. में राजा मानसिंह के नेतृत्व में उड़ीसा के शासक निसार ख़ाँ पर आक्रमण कर आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया, किंतु अंतिम रूप से उड़ीसा को 1592 ई. में ही मुगल साम्राज्य में सम्मिलित किया जा सका।
पश्चिमोत्तर की विजय
भारत के विशाल भू-भाग पर अधिकार करने के पश्चात् अकबर ने भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा की ओर ध्यान दिया। चूंकि भारत पर आक्रमण उत्तर-पश्चिम सीमा की ओर से ही होते थे, अतः अकबर के लिए इस क्षेत्र की सुरक्षा-व्यवस्था को सुदृढ़ करना आवश्यक था।
काबुल विजय (1581 ई.)
अकबर ने सबसे पहले 1581 ई. में काबुल पर अधिकार किया। इसका कारण पूर्वी क्षेत्र बंगाल और बिहार में मुगल अमीरों का विद्रोह था, जो अकबर की उदारवादी धार्मिक नीति का विरोध कर रहे थे। 1580 ई. में जौनपुर के काजी ने फतवा जारी करके अकबर के विरुद्ध विद्रोह को धार्मिक कर्त्तव्य घोषित कर दिया था। विद्रोहियों का उद्देश्य अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम को, जो काबुल का शासक था, बादशाह बनाना था। अकबर के कुछ प्रतिष्ठित अमीर भी हकीम मिर्जा के संपर्क में थे। अकबर समझ गया कि इस विद्रोह का मूल काबुल में था क्योंकि उसको सूचना मिली थी कि मिर्जा हकीम अकबर के सिंहासन पर नजर गड़ाये हुए है।
अकबर ने पूर्व में विद्रोहियों का दमन करने के लिए सेनाएँ भेजी और शहजादा मुराद को मिर्जा हकीम के विरूद्ध नियुक्त किया। शीघ्र ही अकबर स्वयं सेना लेकर उत्तर-पश्चिम की ओर चल पड़ा। मुगल अमीरों का समर्थन पाने की आशा से मिर्जा हकीम सिंधु नदी पारकर लाहौर की ओर बढ़ा, किंतु उसे मुगल अमीरों से कोई सहायता नहीं मिली। निराश मिर्जा हकीम अकबर के लाहौर पहुँचने से पहले ही काबुल लौट गया। अकबर ने मानसिंह को मिर्जा हकीम का पीछा करने का आदेश दिया और स्वयं 9 अगस्त, 1581 ई. को काबुल के किले में प्रवेश किया। मिर्जा हकीम ने क्षमा-याचना करके अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
अकबर ने हकीम की बहिन बख्तुन्निसा को काबुल का सूबेदार नियुक्त किया, किंतु अकबर के लौटते ही मिर्जा हकीम ने वास्तविक शासन अपने हाथ में ले लिया। अकबर ने काबुल पर आक्रमण करने के लिए पुनः सेना भेजी, किंतु इसी बीच 1585 ई. में हकीम की मृत्यु हो गई। फलतः अकबर ने काबुल को मुगल साम्राज्य में मिला लिया और राजा मानसिंह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। काबुल विजय के पश्चात् अकबर लाहौर में रुका और अगले बारह वर्षों तक वह लाहौर में बना रहा, जो साम्राज्य की व्यावहारिक राजधानी बन गई।
काश्मीर (1589 ई.)
मुगल साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा के लिए कश्मीर पर अधिकार करना आवश्यक था। 1580 ई. से ही कश्मीर में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष चल रहा था। सिंहासन के एक दावेदार यूसुफ खाँ ने मुगलों की सहायता से श्रीनगर में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। किंतु बाद में यूसुफ खाँ स्वतंत्र शासक जैसा व्यवहार करने लगा और अकबर के आदेश पर भी मुगल दरबार में उपस्थित नहीं हुआ।
अकबर ने 1585 ई. में राजा भगवानदास और शाहकुली खाँ को कश्मीर विजय के लिए भेजा। यूसुफ खाँ ने मुगलों का सामना किया, किंतु 1586 ई. में दोनों पक्षों के बीच संधि हो गई, जिसके अनुसार यूसुफ खाँ ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और केसर के खेतों तथा टकसाल को अकबर को सौंप दिया। इसके बदले युसुफ खाँ को कश्मीर का शासक मान लिया गया। किंतु अकबर भगवानदास द्वारा की गई इस संधि से संतुष्ट नहीं था, इसलिए जब मार्च, 1586 ई. में यूसुफ खाँ मुगल दरबार में आया, तो अकबर ने उसे बंदी बना लिया और बाद में, बिहार में एक जागीर दे दी।
यूसुफ खाँ के पुत्र याकूब खाँ ने मुगलों से निपटने की तैयारी की, किंतु राजधानी श्रीनगर में विद्रोह हो जाने के कारण उसे वापस जाना पड़ा। अकबर के आदेश से मुगल सेना ने कासिम खाँ के नेतृत्व में 6 अक्टूबर, 1586 को श्रीनगर में प्रवेश किया और वहाँ अकबर के नाम का ‘खुतबा’ पढ़ा। अंततः जुलाई, 1589 ई. में शाही सेना ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग बन गया।
सिंध (1591 ई.)
अकबर दक्षिणी सिंध पर भी अधिकार करना चाहता था, जहाँ मिर्जा जानी बेग शासन कर रहा था। यद्यपि जानी बेग ने अकबर की अधीनता स्वीकार करते हुए धन और पत्र भेजे थे, किंतु वह व्यक्तिगत रूप से लाहौर के दरबार में उपस्थित नहीं हुआ था। इससे रुष्ट होकर अकबर ने अब्दुल रहीम खान-ए-खाना को मुल्तान और सिंघ का सूबेदार नियुक्त किया और सिंध तथा बलूचियों की विजय करने की आज्ञा दी।
1590 ई. में खान-ए-खाना ने सिंध पर आक्रमण किया और 1591 ई. में थट्टा तथा सेहवान के दो प्रसिद्ध किलों पर अधिकार कर लिया। मिर्जा जानी बेग ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी पुत्री का विवाह खान-ए-खाना के पुत्र इरीज से कर दिया। अकबर ने जानी बेग को तीन हजार का मनसब देकर उसे सिंध का सूबेदार बना दिया। इस प्रकार दक्षिणी सिंध पर भी अकबर का आधिपत्य हो गया।
कंधार विजय (1595 ई.)
भारत की पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए कंधार का विशेष महत्त्व था। बाबर और हुमायूँ के समय में कंधार मुगलों के अधिकार में रहा था। बैरम ख़ाँ के संरक्षण काल (1556-1560 ई.) में ईरान के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया था। कंधार का ईरानी किलेदार मुजफ्फर हुसैन ईरान के शाह से नाराज था क्योंकि उसके विरुद्ध ईरानी दरबार में षड्यंत्र हो रहे थे। दूसरी ओर, वह उजबेगों के आक्रमण की आशंका से भी भयभीत रहता था। फलतः उसने 1595 ई. में स्वेच्छा से दुर्ग मुग़ल अमीर शाहबेग को सौंपकर स्वयं अकबर का मनसबदार बन गया।
बलूचिस्तान (1595 ई.)
अकबर के आदेश पर मुगल सेनापति मीर मासूम ने 1595 ई. में बलूचिस्तान पर आक्रमण किया और पन्नी अफगान को हराकर कंधार की सीमा तक बलूचिस्तान के सभी भू-क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
पश्चिमोत्तर सीमांत की विजय
अफगानिस्तान के उत्तर में अब्दुल्ला खाँ उजबेग ने बुखारा, ताशकंद और लगभग संपूर्ण तुर्किस्तान पर अधिकार कर लिया था। अकबर ने उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए स्वात और बंजोर में रहने वाली युसुफजाई जाति के विद्रोह को कुचलने के लिए जैन खाँ और बीरबल के नेतृत्व में सेना भेजी क्योंकि अब्दुल्ला खाँ उजबेग बहुत शक्तिशाली हो गया था। युसुफजाइयों के विरूद्ध युद्ध में अकबर का प्रिय बीरबल मारा गया।
इसके बाद अकबर ने राजा टोडरमल और मानसिंह को व्रिदोहियों को दंडित करने के लिए भेजा। दोनों सेनापतियों ने युसुफजाइयों को पराजित कर भारी रक्तपात किया और इस प्रकार कड़े संघर्ष के बाद मुगल सेना युसुफजाइयों के विद्रोह को कुचलने में सफल हो सकी। 1598 ई. में अब्दुल्ला खाँ की मृत्यु के बाद अकबर उत्तर-पश्चिम सीमा की चिंता से मुक्त हो गया और इस प्रकार मेवाड़ को छोड़कर संपूर्ण उत्तर भारत पर अकबर का अधिकार हो गया।
दक्षिण भारत की विजय
संपूर्ण उत्तर भारत पर अधिकार करने के बाद अकबर ने दक्षिण भारत की ओर विजय अभियान किया। वास्तव में, मालवा, गुजरात और उड़ीसा की विजय के बाद से ही मुगल साम्राज्य दक्षिणी राज्यों के संपर्क में आ गया था, किंतु राजनीतिक कारणों से उस समय अकबर ने दक्षिण में रुचि लेना मुनासिब नहीं समझा।
1565 ई. में तालीकोटा के युद्ध में दक्षिण के मुस्लिम राज्यों ने संयुक्त रूप से विजयनगर को पराजित किया था, किंतु विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण के राज्यों की संयुक्त योजना का भी अंत हो गया और उनके बीच पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष की भावना व्याप्त हो गई थी। इसके साथ ही, अरब सागर के तटीय क्षेत्रों में पुर्तगालियों की शक्ति बढ़ती जा रही थी और अकबर उनकी शक्ति को नियंत्रित करना चाहता था। इस कारण भी अकबर दक्षिण भारत पर अधिकार करना चाहता था।
बहमनी राज्य के ध्वंसावशेष पर बने राज्यों- खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुंडा को अपने अधीन करने के लिए अकबर ने 1591 ई. में अपने दूतमंडल दक्षिण की ओर भेजे और संदेश भेजा कि वे मुगल सत्ता स्वीकार कर लें। मुगल सीमा के सर्वाधिक निकट होने के कारण खानदेश के शासक अली खाँ ने अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। खानदेश को ‘दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार’ भी माना जाता है। शेष तीन राज्यों- अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुंडा ने अकबर के प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। यही नहीं, अहमदनगर के शासक बुरहान निजाम ने तो अकबर के दूतमंडल को बिना कोई वार्ता किये ही लौटा दिया।
अहमदनगर के विरूद्ध अभियान (1595-1600 ई.)
अकबर ने 1593 ई. में शहजादा मुराद और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना को सेना के साथ अहमदनगर पर आक्रमण करने के लिए दक्षिण भेजा। इस समय अहमदनगर की आंतरिक स्थिति अच्छी नहीं थी। 1594 ई. में बुरहान निजाम (बुरहानुलमुल्क) की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहिम सिंहासनारूढ़ हुआ, किंतु चार महीने बाद ही वह बीजापुर के विरूद्ध युद्ध में मारा गया। इब्राहिम की मृत्यु के बाद अहमदनगर में उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हो गया और अमीर षड्यंत्रों में लिप्त हो गये।
दक्खिनी अमीरों के एक दल ने उत्तराधिकार-युद्ध में मुगलों से सहायता माँगी। किंतु मुगलों के पहुँचने से पूर्व ही दक्खिनी अमीर दल का नेता मंजू खाँ चाँदबीबी को अहमदनगर के क़िले का दायित्व सौंपकर स्वयं बीजापुर चला गया।
चाँदबीबी ने इब्राहिम के अल्पायु पुत्र ‘बहादुरशाह’ को सुल्तान घोषित किया और स्वयं उसकी संरक्षिका बन गई। वास्तव में चाँदबीबी बीजापुर के शासक अली आदिलशाह प्रथम की विधवा थी और अहमदनगर के पूर्व सुल्तान बुरहानुलमुल्क की बहन तथा अल्पवयस्क सुल्तान की बुआ थी।
दिसंबर, 1595 ई. में मुगलों ने अहमदनगर के किले का घेरा डाल दिया। खानदेश का शासक अली खाँ मुगलों की सहायता कर रहा था। किंतु चाँदबीबी की सतर्कता और साहस के सामने मुगलों के सभी प्रयास निष्फल हो गये और लगभग चार महीने के घेरे के बाद 1596 ई. में शहजादे मुराद को चाँदबीबी से समझौता करना पड़ा। समझौते के अनुसार मुगलों ने बुरहानुलमुल्क के अल्पवयस्क पौत्र ‘बहादुर निजामशाह’ को अहमदनगर के सुल्तान के रूप में मान्यता दी और चाँदबीबी ने बरार मुगलों को सौंप दिया। इसी युद्ध के दौरान मुगल पहली बार मराठों के संपर्क में आये।
किंतु मुगल सेना के वापस होते ही अहमदनगर के अमीरों ने समझौते का उल्लंघन करते हुए बरार को मुगलों से छीनने का प्रयत्न किया। शहजादा मुराद और खान-ए-खाना आपसी मतभेद के कारण कोई संगठित कार्यवही नहीं कर पा रहे थे। फलतः अकबर ने अब्दुल रहीम खान-ए-खाना को वापस बुला लिया और 1597 ई. में शेख अबुल फजल को शहजादे मुराद की सहायता के लिए अहमदनगर भेजा। किंतु 1597 ई. में अत्यधिक शराब पीने के कारण मुराद की मृत्यु हो गई। अब अकबर ने शहजादा दानियाल और खान-ए-खाना को दक्षिण अभियान के लिए नियुक्त किया।
अहमदनगर के साथ एक युद्ध में खानदेश का सुल्तान अली खाँ मारा गया, जिसके कारण उसका पुत्र मीरन, जो खानदेश का नया सुल्तान बना, दक्षिणी राज्यों के गुट में सम्मिलित हो गया। 1599 ई. में अकबर ने स्वयं दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और मुगलों ने 1599 ई. में दौलताबाद को जीत लिया। इस प्रतिकूल स्थिति में चाँदबीबी ने पुनः संधि-वार्ता का प्रस्ताव रखा, किंतु अमीरों ने इसका विरोध किया और संभवतः चाँदबीबी की हत्या कर दी या रानी ने स्वयं आत्महत्या कर ली। इसके बाद 1600 ई. में मुगलों ने अहमदनगर के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर लिया और अल्पवयस्क ‘बहादुरशाह’ को बंदी बनाकर ग्वालियर भेज दिया।
अहमदनगर के पतन के कुछ ही समय बाद वहाँ के अमीरों ने ‘मुर्तजा अली’ नामक व्यक्ति को सिंहासन पर बिठाकर मुगलों के विरूद्ध पुनः संघर्ष छेड़ दिया। अहमदनगर को मलिक अंबर जैसे कुशल सेनापति की सेवाएँ मिलीं, जिसने मुर्तजा निजामशाह द्वितीय को अहमदनगर के शेष भाग का सुल्तान घोषित किया और इस प्रकार अहमदनगर पुनः शक्ति संचय करने लगा।
खानदेश
अहमदनगर में अभी युद्ध चल ही रहा था कि खानदेश के नये सुल्तान मीरन खाँ ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यद्यपि 1599 ई. में अकबर ने स्वयं खानदेश की राजधानी बुरहानपुर को जीत लिया था, किंतु उस समय मीरन खाँ ने अपने को असीरगढ़ के किले में सुरक्षित कर लिया था।
असीरगढ़ की विजय (जनवरी, 1601 ई.)
अकबर ने असीरगढ़ के किले को घेर लिया और उसके दरवाजे को ‘सोने की चाभी’ से खोला, अर्थात् अकबर ने ख़ानदेश के अधिकारियों को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया। यद्यपि 21 दिसंबर, 1600 ई. को मीरन ने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, किंतु अकबर का इस दुर्ग पर 6 जनवरी, 1601 ई. को अंतिम रूप से अधिकार हुआ। मीरन बहादुरशाह को बंदी बनाकर ग्वालियर के किले में भेज दिया गया और उसके निर्वाह के लिए 4,000 अशर्फियाँ वार्षिक निश्चित की गईं। खानदेश का नाम बदल कर ‘दाँदेश’ रखा गया।
असीरगढ़ की विजय अकबर की अंतिम विजय थी। दक्षिण में अकबर की सफलता से प्रभावित होकर बीजापुर तथा गोलकुंडा के शासकों ने अकबर को बधाई संदेश भेजे। बीजापुर के सुल्तान इबाहीम आदिलशाह ने अपनी पुत्री का विवाह शहजादा दानियाल से कर दिया।
अकबर ने दक्षिण की विजयों को संगठित कर खानदेश, अहमदनगर तथा बरार तीन सूबों का गठन किया और शाहजादा दानियाल को इन तीनों प्रांतों का सूबेदार नियुक्त किया। आगरा लौटकर बादशाह ने ‘दक्षिण के सम्राट’ की पदवी धारण की।
यद्यपि कहा जाता है कि अकबर ने फतेहपुर सीकारी का ‘बुलंद दरवाजा’ (विजय का द्वार) गुजरात विजय की स्मृति में 1575 ई. में बनवाया था, किंतु इस प्रवेशद्वार के पूर्वी तोरण पर फारसी में लेख अंकित है, जो 1601 ई. में अकबर की दक्षिण विजय से संबंधित है।
अकबर का साम्राज्य विस्तार
अकबर के साम्राज्य में समस्त उत्तरी भारत और दक्षिण में नर्मदा के दक्षिण के कुछ भाग सम्मिलित थे। उसके साम्राज्य का विस्तार कंधार एवं काबुल से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर अहमदनगर तक था, जिसमें काबुल, लाहौर, मुल्तान, दिल्ली, आगरा, अवध, अजमेर, गुजरात, मालवा, बिहार, बंगाल, खानदेश, बरार, अहमदनगर, कश्मीर और सिंध सम्मिलित थे। अकबर ने विजित प्रदेशों में शासन व्यवस्था स्थापित की और विजय के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सुधारों के द्वारा प्रशासन के सुदृढ़ीकरण का कार्य किया, जिससे उसकी विजयों को स्थायित्व मिला और महान् मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई।
अकबर की राजपूत नीति
अकबर ने राजस्थान में शासन कर रहे राजपूतों के प्रति जिस सुविचारित नीति का विकास किया, उसे ‘अकबर की राजपूत नीति’ कहा जाता है। अकबर एक दूरदर्शी शासक और उच्चकोटि का विवेकवान राजनीतिज्ञ था। राजगद्दी पर आसीन होते ही उसने यह समझ लिया था कि यदि भारत में मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करना है, तो राजपूतों और बहुसंख्यक हिंदू जनता को अपने पक्ष में करना होगा। ईश्वरीप्रसाद के अनुसार ‘बिना राजपूतों के भारतीय साम्राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता और उनके विवेकपूर्ण तथा सक्रिय सहयोग के अभाव में सामाजिक एवं राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती थी।
इसलिए अकबर ने राजपूतों के प्रति उदार नीति का पालन करते हुए उनसे सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किया, जिससे राजपूत उसके सहयोगी बन गये और उन्होंने अपना खून-पसीना बहाकर मुगल साम्राज्य का गौरव बढ़ाया, उसे सुदृढ़ किया और दूर-दूर तक उसका विस्तार किया।
अकबर के पूर्ववर्ती शासकों की राजपूतों के प्रति कोई सुनिश्चित नीति नहीं थी। भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के लिए बाबर को राणा सांगा और मेदिनीराय से संघर्ष करना पड़ा था और दोनों ही अवसरों पर उसने एक धर्मांध शासक की तरह ‘जेहाद’ की घोषणा की थी और विजय के बाद राजपूतों के सिरों की मीनारें बनवाई थी। साम्राज्य-स्थापना के लिए बाबर ने अपना ध्यान केवल विजयों पर ही केंद्रित किया था।
बाबर की मृत्यु (1530 ई.) के बाद हुमायूँ शासक बना। यदि हुमायूँ ने राजनीतिक सूझ-बूझ से काम लिया होता, तो वह राजपूतों के सहयोग से भारत पर मुगल शासन को स्थायी बना सकता था, किंतु उसने ऐसा नहीं किया। जिस समय दिसंबर, 1534 ई. में हुमायूँ गुजरात के शासक बहादुरशाह पर आक्रमण करने जा रहा था, उसे राजपूतों से मैत्री संबंध स्थापित करने का अवसर मिला था। मेवाड़ की रानी कर्णवती ने राखी भेजकर हुमायूँ से बहादुरशाह के विरुद्ध सहायता माँगी थी, जिसने उस समय मेवाड़ को घेर रखा था।
किंतु हुमायूँ ने एक हिंदू शासिका को सहायता देना उचित नहीं समझा। यह हुमायूँ की एक सैनिक और राजनीतिक भूल थी। यदि हुमायूँ ने बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की सहायता की होती, तो संभव है कि हुमायूँ को न शेरशाह से पराजित होना पड़ता और न ही भारत से पलायन करना पड़ता। हुमायूँ के बुरे दिनों में अमरकोट के राणा वीरसाल ने उसकी बड़ी सहायता की थी और उसी के संरक्षण में अकबर का जन्म हुआ था, किंतु हुमायूँ देवयोग से बने इन संबंधों का कोई राजनीतिक लाभ नहीं उठा सका।
किंतु अकबर दूसरी मिट्टी का बना था और एक नये साँचे में ढ़ला था। यही कारण है कि उसने राजपूतों के प्रति शांति और सहयोग पर आधारित एक सुनिश्चित नीति अपनाई और राजपूतों के सहयोग से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुआ। कर्नल टॉड के अनुसार, मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अकबर ही था।
वही पहला सफल विजेता था, जिसने राजपूतों की स्वतंत्रता नष्ट की थी। अकबर की इस नीति के परिणामस्वरूप एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ और मुगलों का भारत में केवल स्थायी शासन ही स्थापित नहीं हुआ, बल्कि मुगल सम्राटों को वीर एवं पराक्रमी राजाओं की सैनिक व कूटनीतिक सेवाएँ भी मिलीं। अकबर की राजपूत नीति अवसरवादिता, स्वार्थपरता या संकीर्ण उद्देश्यों से प्रेरित नहीं थी, बल्कि उसका उद्देश्य एक ऐसा साम्राज्य स्थापित करना था, जिसमें राजपूतों को भी समानता, सम्मान और स्वतंत्रता प्राप्त हो।
अकबर की उदार राजपूत नीति के कारण
स्थायी साम्राज्य
अकबर भारत में स्थायी मुगल शासन की स्थापना करना चाहता था। भारत की जनता में हिंदू बहुसंख्यक थे और हिंदुओं का नेतृत्व राजपूत कर रहे थे। अकबर जानता था कि निरंतर युद्ध करके साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करना संभव नहीं होगा। अतः राजपूतों से मित्रता करना उसकी राजनीतिक आवश्यकता थी।
भौगोलिक कारण
राजस्थान दिल्ली के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम का प्रदेश है। राजस्थान की भौगोलिक स्थिति सामरिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उत्तर भारत से मालवा और गुजरात का रास्ता राजपूताना से होकर ही जाता था। बिना राजस्थान पर प्रभुत्त्व स्थापित किये अकबर की सैनिक योजनाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ मिट्टी में मिल सकती थी।
राजस्थान में क्योंकि राजपूत शासन कर रहे थे, इसलिए मुगल गुजरात व मालवा से तभी संबंध रख सकते थे, जबकि राजपूताना के शासकों पर या तो उनका अधिकार हो अथवा उनसे मधुर संबंध हो। यही कारण है कि अकबर ने राजपूतों से मधुर संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया।
मुगल साम्राज्य का विदेशी स्वरूप
भारत में मुगलों को विदेशी समझा जाता था और भारतीयों का उनके प्रति दृष्टिकोण अच्छा नहीं था। अकबर मुगल साम्राज्य के विदेशी स्वरूप को समाप्त करके उसे स्वदेशी स्वरूप देना चाहता था और इसमें उसने राजपूतों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक समझा।
इसके अलावा, मुगल शासकों को भारत में युद्धों के लिए तुर्क सैनिकों पर निर्भर रहना पड़ता था। आर्थिक दृष्टि से भी विशाल तुर्क सेना रखना मुगल शासकों के लिए संभव नहीं था। अकबर का विचार था कि यदि राजपूतों से अच्छे संबंध रखे जायें तो उनकी वीरता का उपयोग किया जा सकता था।
शक्ति-संतुलन की आवश्यकता
अकबर अपनी राजपूत नीति से मुगल अमीरों और राजपूतों के बीच संतुलन स्थापित करना चाहता था। दरअसल, प्रारंभ से ही अकबर को तुरानी अमीरों और अफगानों के विद्रोह का सामना करना पड़ा था। अबुलमाली तथा मिर्जा हकीम के विद्रोह, बैरम खाँ व अधम खाँ के विद्रोह, मिर्जाओं के षड्यंत्र और पूरब में उजबेगों के विद्रोह से अकबर को स्पष्ट हो गया था कि इन महत्त्वाकांक्षी अमीरों पर निर्भर रहना आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। यही कारण है कि अकबर ने ऐसे विद्रोही और विश्वासघाती अमीरों की महत्त्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए राजपूतों के प्रति उदार नीति अपनाने का निर्णय किया।
अकबर की घार्मिक उदारता
अकबर की राजपूत नीति का आधार उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी क्योंकि इसके बिना उसकी राजपूत नीति सफल नहीं हो सकती थी। उसने धार्मिक करों-तीर्थयात्रा कर और ‘जजिया’ को हटाकर हिंदुओं, विशेषकर राजपूतों का विश्वास जीत लिया। उसने धर्म-परिवर्तन पर रोक लगाया और राज्य के इस्लामी स्वरूप को अस्वीकार कर दिया। इससे राजपूतों को समानता और सम्मान मिला।
अकबर की इस उदार धार्मिक नीति के कुछ व्यक्तिगत कारण भी थे। अकबर का जन्म एक राजपूत के किले में हुआ था, जिसके कारण वह व्यक्तिगत रूप से राजपूतों के प्रति कृतज्ञ था। अकबर को उदार मुस्लिम विद्वानों, विशेषकर अब्दुल लतीफ से उदारता और सहिष्णुता की शिक्षा भी मिली थी, जिसने उसकी नीतियों को प्रभावित किया था। इसके साथ-साथ अकबर पर उसकी राजपूत रानियों का भी कुछ प्रभाव पड़ा था।
राजपूतों का पराक्रम
राजपूत राजाओं ने सदैव विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध अपने शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन किया था। अकबर राजपूतों के साहस, वीरता और पराक्रम से अच्छी तरह परिचित था। अकबर जानता था कि राजपूत वचन के पक्के होते हैं और इतने स्वाभिमानी होते हैं कि युद्धभूमि से भागने के बजाय मर जाना श्रेयस्कर मानते हैं। राजपूतों के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर अकबर उनसे मधुर संबंध बनाना चाहता था ताकि उनके सहयोग और समर्थन से मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ता और स्थायित्व प्रदाऩ किया जा सके।
प्रशासनिक-आर्थिक आवश्यकता
सतीशचंद्र और इक्तदार आलम जैसे कुछ इतिहासकार अकबर की राजपूत नीति को देश के सशक्त राजाओं और जमींदारों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। यह वर्ग सारे उत्तर भारत में स्थानीय शक्ति था। इसमें प्रायः सभी राजपूत थे और स्थानीय राजनीतिक, सैनिक और राजस्व-संग्रह की शक्तियाँ उनके हाथों में थीं। भारत में तुर्की शासन की स्थापना के बाद से ही तुर्क शासकों और इस स्थानीय जमींदार वर्ग के बीच संघर्ष होता रहता था।
इक्तदार आलम के अनुसार अकबर ने इन स्थानीय जमींदारों से और विस्तृत रूप में राजपूत राजाओं से ‘समझौता’ किया। इससे राज्य में शांति स्थापित हुई, राजस्व-संग्रह नियमित तथा शांतिपूर्वक होने लगा और मुगल साम्राज्य की जड़ें मजबूत हुईं। इस प्रकार अकबर की राजपूतों से मित्रता उसकी प्रशासनिक और आर्थिक आवश्यकता भी थी।
राजपूत नीति के अंतर्गत अकबर के कार्य
1556 ई. में जिस समय अकबर राजगद्दी पर आसीन हुआ था, उस समय राजस्थान अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। अकबर के सामने उस समय केवल दो विकल्प थे। एक तो यह कि संपूर्ण राजस्थान पर शक्ति के बल पर अधिकार कर ले और राजपूतों का नामोनिशान मिटा दे। दूसरा विकल्प यह था कि जो राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, उसे वह अपना मित्र बना ले और युद्ध केवल उन राज्यों से करे जो उसकी अधीनता न स्वीकार करे।
अकबर ने दूसरे विकल्प को चुना। अकबर का यह निर्णय उचित था जिसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि राणा प्रताप को, जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी, अकबर कभी भी शक्ति के द्वारा झुका नहीं सका। यदि सभी राजपूत राज्यों पर अकबर शक्ति के बल पर अधिकार करने की चेष्टा करता, तो उसके परिणाम का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अकबर ने अपनी राजपूत-नीति के अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख कार्य किये-
राजपूतों से वैवाहिक संबंध
अकबर ने राजपूत राज्यों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर उनसे मधुर संबंध स्थापित किये। अकबर का राजपूतों से पहला संबंध उस समय स्थापित हुआ, जब वह 1562 ई. में शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन हेतु अजमेर जा रहा था। अजमेर के रास्ते में सांगानेर में आमेर के राजपूत शासक भारमल (बिहारीमल) कछवाहा ने अकबर के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की और जनवरी, 1562 ई. में अपनी पुत्री हरखाबाई (जोधाबाई) का विवाह अकबर से कर दिया, जिससे सलीम का जन्म हुआ, जो बाद में ‘जहाँगीर’ के नाम से बादशाह बना था।
इस विवाह-संबंध से मुगल-राजपूत संबंध के एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ क्योंकि इसके बाद नवंबर, 1569 ई. में जैसलमेर के महारावल हरिराजसिंह ने अपनी पुत्री नाथीबाई का, 15 नवंबर, 1570 ई. को बीकानेर के राठौर राय कल्याणसिंह ने अपनी भतीजी का, 1570 ई. में जोधपुर के मालदेव ने अपनी पुत्री रुक्मावती का, 1573 ई. में नगरकोट के राजा जयचंद ने अपनी पुत्री का, मार्च, 1577 ई. में डूंगरपुर के रावल ने अपनी पुत्री का और 1581 ई. में मोरता के राठौर केशवदास ने अपनी पुत्री का अकबर से विवाह किया।
इसी क्रम में, अकबर के पुत्र शहजादा सलीम (जहाँगीर) का 16 फरवरी, 1584 ई. को आमेर के कछवाहा राजा की पुत्री से और 1787 ई. में जोधपुर के राठौर मोटा राजा की पुत्री से विवाह हुए।
राजपूत राजाओं को अभयदान
अकबर इस तथ्य से परिचित था कि यदि वह किसी राजपूत राज्य पर शक्ति के बल पर अधिकार भी कर लेगा, तो वह वहाँ स्थायी रूप से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए जिन राजपूत राजाओं ने उसके विरुद्ध युद्ध भी लड़े, उन्हें भी अकबर ने क्षमा कर दिया। इसी प्रकार यदि कोई राजपूत शासक अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर लेता था, तो अकबर ने उससे मैत्रीपूर्ण स्थापित यथाचित सम्मान देता था।
धार्मिक स्वतंत्रता
अकबर ने जिन राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये थे, उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इसी प्रकार जो राजपूत उसके दरबार में रहते थे, उन्हें भी अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अकबर ने तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया और ‘जजिया’, जो हिंदुओं से लिया जाता था, को बंद कर दिया और यथासंभव हिंदुओं और मुसलमानों से समान व्यवहार करने का प्रयत्न किया।
राजपूतों का प्रशासन में सहयोग
अकबर ने राजपूतों को राज्य के विभिन्न उच्च पदों पर भी नियुक्त किया और उन्हें अनेक युद्धों के संचालन का दायित्व सौंपा, जो उसकी राजनीतिक सूझबूझ और राजपूतों के प्रति निष्ठा के परिचायक है। आमेर का राजा भारमल अकबर का इतना विश्वासपात्र था कि अकबर के राजधानी से बाहर जाने पर वही प्रशासनिक कार्यों को देखता था। इसी प्रकार उसने राजा मानसिंह को राणा प्रताप के विरुद्ध अभियान पर भेजा था। अकबर ने अनेक राजपूतों को प्रांतीय सूबेदार नियुक्त किया। इस प्रकार राजपूतों ने अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजपूत-शक्ति का उपयोग
अकबर अत्यंत कुशल कूटनीतिज्ञ शासक था। उसने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राजपूतों की शक्ति का प्रायः राजपूतों के विरुद्ध ही प्रयोग किया। उदाहरण के लिए, उसने राणा प्रताप के विरुद्ध राजा मानसिंह को युद्ध करने के लिए भेजा था। इसी प्रकार आमेर के राजपूतों ने मेवाड़ आदि पर अधिकार करने में मुगलों की सहायता की।
अकबर ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सामरिक महत्त्व के राजपूत दुर्गों पर अधिकार कर लिया और उनके राजाओं को अन्यत्र जागीरें प्रदान की। इस प्रकार राजपूत शासक नाराज भी नहीं हुए और अकबर के कार्य की सिद्धि भी हो गई।
विद्रोही राजपूतों के विरुद्ध अभियान
अकबर की शक्ति और राजपूत नीति के प्रभाव से राजस्थान के अधिकांश शासकों ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था, किंतु मेवाड़ एक ऐसा राज्य था, जिसने अकबर के शासनकाल के अंत तक उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। यद्यपि उदयसिंह के समय में अकबर को विजय मिली थी, किंतु उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रताप ने आजीवन अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया और अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया। शेष सभी राज्य अकबर के प्रभाव क्षेत्र में आ गये थे।
अकबर की राजपूत नीति का स्वरूप
अकबर की राजपूत नीति के उद्देश्य स्पष्ट थे। उसने राजपूत राजाओं को स्पष्ट कर दिया था कि वह न तो उनके राज्य पर अधिकार करना चाहता और न ही उनके सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप करना चाहता है। अकबर उद्देश्य मात्र इतना था कि राजपूत राजागण नवीन साम्राज्य का प्रभुत्त्व स्वीकार कर लें। इस प्रभुत्त्व को स्वीकार करने के चार अर्थ बताये गये हैं-एक, वे खिराज के रूप में केंद्रीय शासन को कुछ धन देते रहें।
दूसरे, अपने अधिकारों की रक्षा का भार केंद्रीय शासन को सौंप दें। तीसरे, आवश्यकतानुसार केंद्र को नियत सैनिक सहायता पहुँचाते रहें और चौथे, वे स्वयं को मुगल साम्राज्य का अविभाज्य अंग मानें, अलग इकाई न बनें। इसके बदले में बादशाह ने राजपूत राजाओं को साम्राज्य के ऊँचे से ऊँचे पदों पर नियुक्त किया और बिना किसी भेदभाव के सभी को सम्मान और समानता का अवसर प्रदान किया।
अकबर ने अपनी राजपूत नीति की सफलता के लिए शक्ति और शांति दोनों साधनों का आश्रय लिया। उसने मेड़ता और रणथम्भौर में शक्ति का प्रयोग किया, जबकि मारवाड़ (आमेर), बीकानेर और जैसलमेर ने स्वेच्छा से बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। मेवाड़ के सिसोदियों ने बादशाह के प्रस्ताव को अपमानजनक माना और दीर्घकाल तक संघर्ष किया। डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ ने मेवाड़ का साथ छोड़कर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
अकबर ने सभी राजपूत राजाओं को आंतरिक स्वायत्तता देने में समानता की नीति अपनाई, भले ही उसने युद्ध किया हो। चूंकि राजपूत शासक केवल शांति, समृद्धि और सुव्यवस्था चाहते थे और जब बादशाह ने उन्हें आंतरिक स्वायत्तता दे दी, तो उनके विरोध का कोई औचित्य नहीं रह गया था।
इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अकबर ने राजपूत राजाओं को विवाह-संबंध स्थापित करने या दरबार में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के लिए बाध्य किया हो। एक सार्वभौमिक शक्ति के रूप में अकबर ने राजपूताना के सामरिक महत्त्व के दुर्गों पर अधिकार किया और राजस्थान को अजमेर सूबे के रूप में गठित किया। उसने मनसबदार राजपूतों को ‘वतन जागीर’ के अतिरिक्त मनसब के अनुसार अलग से जागीर दिया और उत्तराधिकार के मामले में अकबर ने (बीकानेर) हस्तक्षेप किया। किंतु इसका उद्देश्य राजपूतों की स्वायत्तता को कम करना नहीं था। राजपूतों को ‘मनसबदार’ या केवल ‘जमींदार’ कहना न केवल राजपूतों का अपमान है, बल्कि यह अकबर की ईमानदारी पर भी आक्षेप है।
राजपूत नीति के परिणाम
अकबर की राजपूत नीति से न केवल भारतीय राजनीतिक स्थिति को प्रभावित किया, बल्कि उसके अनेक महत्त्वपूर्ण परिणाम भी हुए-
- राजपूत नीति के परिणामस्वरूप राजस्थान पर अकबर का आधिपत्य स्थापित हो गया, जिससे भारत की राजनीतिक एकता पूर्ण हुई, उत्तर भारत का विकास हुआ और दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- अकबर की राजपूत नीति के परिणामस्वरूप राजपूतों व मुगलों के संबंध सौहार्दपूर्ण हो गये, जिससे राजस्थान को निरंतर युद्धों से मुक्ति मिली और वहाँ शांति की स्थापना हुई। इससे राजस्थान का सामाजिक और आर्थिक विकास हुआ।
- राजपूत नीति के कारण अकबर को बिना किसी अतिरिक्त व्यय के सर्वश्रेष्ठ भारतीय सैनिकों की सेवाएँ प्राप्त हुईं। अभी तक राजपूतों ने दिल्ली की सत्ता का विरोध किया था, किंतु इस नीति के परिणामस्वरूप अधिकांश राजपूत राजे अकबर के स्वामिभक्त हो गये। इन राजपूतों ने अपनी योग्यता और वीरता के बल पर भारत के सुदूर क्षेत्रों में मुगल साम्राज्य का विस्तार किया और उसकी रक्षा की।
- राजपूत नीति के परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य में राजपूत मनसबदारों के एक अभिजात वर्ग का उदय हुआ, जिनका मुगल दरबार में और मुगल बादशाह पर पर्याप्त प्रभाव था और वे तूरानी या ईरानी अमीरों के समान ही साम्राज्य की शक्ति बन गये।
- अकबर की राजपूत नीति के कारण राजस्थान में शांति और सुव्यवस्था का युग आरंभ हुआ। इरफान हबीब के अनुसार राजस्थान उस समय मुगल साम्राज्य का एक समृद्धशाली राज्य था। अकबर जब भी राजधानी से बाहर जाता, अपनी अनुपस्थिति में भारमल को दिल्ली में प्रशासन का अध्यक्ष नियुक्त करता था। इस प्रकार राजपूत-मुगल सहयोग से मुगल साम्राज्य की महानता स्थापित हुई।
- अकबर की राजपूत नीति का भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजपूत नीति के कारण हिंदुओं और मुसलमानों में पारस्परिक संबंध स्थापित हुआ, जिससे सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया आरंभ हुई, कला और साहित्य के क्षेत्र में नवीन आदर्श एवं प्रतिमान स्थापित हुए और हिंदुस्तान में दीर्घकाल तक शांति स्थापित हुई।
अकबर की राजपूत नीति की समीक्षा
अनेक इतिहासकारों ने अकबर की राजपूत नीति की आलोचना की है। कहा गया है कि इस नीति के परिणामस्वरूप राजपूतों की प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो गई और उनकी एकता भंग हो गई। अब राजपूतों की तीन श्रेणियाँ हो गईं। पहली श्रेणी में मेवाड़ का राणा था, जो मुगलों से युद्ध करके राजपूत गौरव और शौर्य का प्रतीक बन गया। दूसरी श्रेणी में ऐसे राजपूत राजा थे, जिन्होंने मुगलों की अधीनता तो स्वीकार कर ली, किंतु मुगलों से विवाह-संबंध नहीं बनाये। तीसरी श्रेणी में ऐसे राजा-महाराजा थे, जिन्होंने मुगलों से विवाह-संबंध स्थापित किये थे, जैसे- आमेर के कछवाहे, बीकानेर और जैसलमेर के राजा।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुगल-राजपूत विवाहों से हिंदू समाज को कोई लाभ नहीं हुआ। राजपूत राजाओं की स्वतंत्रता धीरे-धीरे कम होती गई और वे अन्य अमीरों की भाँति मुगल सम्राटों की कृपा पर आश्रित हो गये, जिससे उनकी स्वतंत्र रहने की अदम्य आकांक्षा लुप्त हो गई। अधिक समय तक बाहर रहने के कारण राजपूतों के अपने राज्य के प्रशासन में शिथिलता आई और उनके आंतरिक मामलों में मुगल सम्राटों का हस्तक्षेप बढ़ता गया। राजपूत राजाओं ने अपने दलगत विवादों में मुगल सम्राट की सहायता लेने का प्रयत्न किया, जो राजपूतों के हितों के प्रतिकूल था।
यद्यपि इन आलोचनाओं को पूर्णतः आधारहीन नहीं कहा जा सकता है, किंतु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि महाराणा प्रताप और अकबर का संघर्ष ‘धार्मिक युद्ध’ नहीं था। यह सत्ता के लिए एक राजनीतिक संघर्ष मात्र था। राजपूत राजाओं द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार करना उनकी कायरता या स्वार्थपरता नहीं थी, बल्कि यह तर्क और यथार्थवाद की जीत थी। अकबर की राजपूत नीति की सफलता के संबंध में आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव लिखते हैं कि, ‘राजपूतों के सहयोग में मुगल शासन को केवल सुरक्षा और स्थायित्व ही नहीं मिला, बल्कि देश में अभूतपूर्व समृद्धि तथा सांस्कृतिक चेतना का भी उदय हुआ, जिससे हिंदू-मुस्लिम संस्कृति का समन्वय हुआ और यह मुगल शासन की अमूल्य देन है।’
अकबर की धार्मिक नीति
अकबर की धार्मिक नीति का मध्यकालीन भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है क्योंकि उसकी धार्मिक नीति उसकी प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य केंद्र थी। अकबर 1556 ई. में राजगद्दी पर आसीन हुआ था, किंतु शासन की वास्तविक शक्ति उस समय उसके संरक्षक बैरम खाँ के हाथों में थी। अतः इस काल में अकबर ने सामान्य सुन्नी मुसलमान की तरह धार्मिक जीवन व्यतीत किया, किंतु कालांतर अकबर ने धार्मिक दृष्टि से उदार और मानवतावादी नीति अपनाई और मुगल साम्राज्य को एक सुदृढ आधार प्रदान किया।
धार्मिक नीति के स्वरूप और उद्देश्य
अकबर की धार्मिक नीति के स्वरूप और प्रेरक उद्देश्य को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। विन्सेंट स्मिथ तथा के.ए. निजामी के मत में वह पैगंबर शासक का रुतबा (पद) प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा था। उन्होंने अकबर के इस कार्य की भर्त्सना की है। दूसरी ओर अतहरअली जैसे कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अकबर का उद्देश्य एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना था। आई.एच. कुरैशी के अनुसार अकबर परंपरावादी इस्लाम का उत्पीड़न कर रहा था, जबकि इक्तिदार आलम खाँ के अनुसार अकबर की धार्मिक नीति का उद्देश्य अभिजात प्रशासक वर्ग में, जिसका गठन विभिन्न जातियों, वर्गों तथा धर्मों के लोगों द्वारा हुआ था, संतुलन पैदा करना था।
वस्तुतः अकबर ने संप्रभुता के ऐसे सिद्धांत की स्थापना का प्रयास किया, जिसमें भारत की धार्मिक तथा जातिगत विषमताओं का पूरा ध्यान रखा गया था ताकि मुगल साम्राज्य को एक सुदृढ़ आधार मिल सके। उस युग में जबकि धर्म और जाति को अलग-अलग रखना प्रायः असंभव था, अकबर द्वारा प्रतिपादित संप्रभुता के सिद्धांत को केवल राजनीति या धार्मिक उद्देश्य से ही प्रेरित नहीं माना जा सकता।
उसमें धर्म और राजनीति दोनों के ही तत्त्व विद्यमान हैं, जिनको अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। किंतु अकबर धार्मिक, राजनीतिक आदर्शों से अनुप्रेरित संप्रभुता के सिद्धांत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के आदर्श से संबद्ध करने में सफल रहा, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म-पालन की स्वतंत्रता प्राप्त थी। इसके अलावा, अकबर के धार्मिक चिंतन एवं जिज्ञासा के कई अन्य कारण भी थे, जिन्होंने अकबर की धार्मिक निष्ठा को उदार बनाने में सहायता की।
आनुवंशिक प्रभाव: अकबर के पिता हुमायूँ व पितामह बाबर यद्यपि आस्थावान सुन्नी मुसलमान थे, किंतु उनमें सल्तनतकालीन सुल्तानों जैसी धर्मांधता या संकीर्णता नहीं थी। उनकी धार्मिक आस्था में व्यावहारिक पक्ष का भी प्रभाव था। बाबर ने समरकंद पाने के लिए फारस के शिया शासक से सहायता लेने में या शिया रीति-रिवाजों को अपनाने में कोई हानि नहीं समझी। यद्यपि भारत में उसने सैनिक आवश्यकता के लिए ‘जेहाद’ का उपयोग किया। इसी प्रकार अकबर को अपने पिता हुमायूँ से दार्शनिक उदारता और दानशीलता विरासत में मिली थी।
अकबर की माता हमीदाबानो शिया और उदार विचारों वाली महिला थी। हमीदाबानो के पिता शेख अकबर भी उदार विचारों के विद्वान् थे। अकबर का जन्म एक राजपूत राजा के महल में हुआ था, जिसने संकट के समय उसके माता-पिता की सहायता की थी। इस प्रकार अकबर को उदारता के गुण पैतृक रूप से प्राप्त हुए थे।
संरक्षक और शिक्षक का प्रभाव: अकबर का संरक्षक बैरम खाँ शिया था और शिया अब्दुल लतीफ तथा सुन्नी मुनीम खाँ से उसने शिक्षा ग्रहण की थी, जो उदार विचारधारा के थे। अब्दुल लतीफ ने ही अकबर को ‘सुलह-कुल’ का पाठ पढ़ाया था। इस प्रकार किशोरावस्था में ही उदार लोगों के प्रभाव में रहने के कारण अकबर के विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक था।
सूफीवाद का प्रभाव : 16वीं शताब्दी धार्मिक जागृति का काल था और बाह्य-आडंबरों के स्थान पर आध्यात्मिकता और सहिष्णुता का प्रचार हो रहा था। अतः अकबर पर भी तत्कालीन सूफी और भक्ति आंदोलनों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। अकबर किशोरावस्था से ही शेखों और संतों से प्रायः मिलता था और उनके प्रति श्रद्धा रखता था। वह सूफीवाद से विशेष प्रभावित था और प्रायः शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ की जियारत करता था।
सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति: अकबर में सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति थी और धर्म के ‘सत्य’ को जानने की जिज्ञासा उसमें बचपन से ही थी। बदायूँनी व अबुल फजल दोनों ने ही लिखा है कि अकबर अकसर सांसारिक एवं धार्मिक विषयों पर सोचता और मनन करता रहता था। आरंभ में एक सच्चे मुसलमान की भाँति उसकी इस्लाम में गहरी श्रद्धा थी और एक बार उसने राज्य के प्रमुख काजी अब्दुल नबी की जूतियाँ तक उठाई थी। किंतु ‘इबादतखाना’ में विभिन्न धर्मों के विद्वानों के बीच होनेवाले वाद-विवाद के कारण उसे ज्ञान हो गया कि सभी धर्मों का सार एक ही है और सभी धर्म सत्य हैं।
विभिन्न धार्मिक नेताओं का प्रभाव : अकबर अनेक धर्मों के नेताओं और विद्वानों के संपर्क में आया, जिन्होंने उसके धार्मिक विचारों को प्रभावित किया। इसके साथ ही अकबर में धार्मिक चिंतनशीलता का विकास होने लगा। अकबर जिन लोगों के विचारों से प्रभावित हुआ, उनमें प्रमुख सूफी संप्रदाय के शेख मुबारक, पारसी दस्तूर महवार, जैन भानुचंद्र, विजयसेन और हिंदू आचार्य पुरुषोत्तम एवं देवा थे।
राजनीतिक कारण : अकबर भारत में मुगल वंश के स्थायी शासन की स्थापना करना चाहता था। राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उसने राजपूतों के साथ मैत्री-संबंध स्थापित करने की ‘सुलहकुल की नीति’ अपनाई। उसने अनेक राजपूत राजकुमारियों से विवाह किया और अनेक राजपूतों को दरबार में उच्च पद प्रदान किया। मुगल साम्राज्य के स्थायित्व के लिए आवश्यक था कि अकबर धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाये और साम्राज्य में धार्मिक एकता स्थापित करे। बाल्यकाल से ही अकबर का संपर्क मुगल, तुर्क, अफगान और ईरानी अमीरों से हुआ था, जिससे उसके दृष्टिकोण में संकीर्णता नहीं थी।
अकबर की महत्त्वाकांक्षा : अकबर राजनीतिक दृष्टि से तो सर्वोच्च पद पर था ही, वह धार्मिक क्षेत्र में भी सर्वोच्च पद प्राप्त करना चाहता था ताकि राजनीति में धार्मिक नेताओं (उलमा) का हस्तक्षेप न हो और मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया जा सके। इस प्रकार जब अकबर को लगा कि कट्टरपंथी उलमा किसी धर्म-गुरु, धर्म-ग्रंथ या परंपरा का सहारा लेकर उसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में बाधक हैं, उसने हेनरी अष्टम की तरह धर्म का सर्वेसर्वा (इमाम-ए-आदिल) बनने का निश्चय कर लिया।
इबादतखाना का प्रभाव : यद्यपि ‘इबादतखाना’ का अर्थ ‘पूजाघर’ होता है, किंतु अकबर ने फतेहपुर सीकरी में 1575 ई. में जिस ‘इबादतखाना’ का निर्माण करवाया था, उसमें पूजा नहीं, बल्कि धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था। आरंभ में इसमें केवल इस्लाम धर्म के लोग ही विचार-विमर्श करते थे, किंतु उनमें पारस्परिक वैमनस्य व संकीर्णता देखकर अकबर ने 1578 ई. में ‘इबादतखाना’ को प्रत्येक धर्म के लिए खोल दिया।
इसके परिणाम बहुत अच्छे हुए क्योंकि इससे अकबर को प्रत्येक धर्म और उसके विद्वानों के विषय में जानने का अवसर मिला। इसी ‘इबादतखाना’ में उसे विभिन्न धर्मों की अच्छाइयों के विषय में भी जानकारी मिली। इससे अकबर को यह भी ज्ञात हुआ कि ‘सत्य’ केवल इस्लाम में ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों में भी है।
अकबर की धार्मिक विचारधारा का निर्धारण
अकबर की धार्मिक विचारधारा के निर्धारण के मुख्यतः तीन चरण हैं, जिनसे उसके उद्देश्य स्पष्ट हो जाते हैं-
- प्रथम चरण (1562-1574 ई.) में अकबर के धार्मिक विचारों में परिवर्तन आया और उसने कई उदार तथा मानवतावादी सुधार किये।
- द्वितीय चरण (1575-1579 ई.) में अकबर ने ‘इबादतखाना’ की स्थापना की और विभिन्न धर्मों के आचार्यों से वाद-विाद के माध्यम से इस्लाम तथा अन्य धर्मों को समझने का प्रयास किया। इसी चरण में अकबर ने मुख्य इमाम की हैरियत से ‘खुतबा’ पढने का साहस दिखाया और ‘मजहर’ (अचूक आज्ञा-पत्र) जारी किया।
- तृतीय चरण (1579-1605 ई.) में अकबर के धार्मिक विचारों का पूर्ण विकास हुआ। इस चरण में अकबर ने पूर्ण सहिष्णुता की नीति अपनाई और ‘तौहीद-ए-इलाही’ या ‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना की।
धार्मिक विचारधारा का प्रथम चरण (1562-1574 ई.)
अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में अकबर ने ऐसी कई उदारवादी नीतियाँ अपनाई, जिन्हें मुगल साम्राज्य को एक नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान करने की दिशा में पहला कदम माना जा सकता है। अकबर के मानवीय दृष्टिकोण की पहली अभिव्यक्ति 1562 ई. में हुई जब उसने युद्ध में मारे गये या बंदी बनाये गये व्यक्तियों के परिवारों को दास बनाये जाने की प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। अगस्त, 1563 ई. में अकबर ने साम्राज्य के विभिन्न तीर्थस्थानों में तीर्थयात्रियों से लिए जाने वाले कर की वसूली बंद कर दी। उसका कहना था कि जो लोग ईश्वर की उपासना के लिए जा रहे हों, उनसे धन वसूलना ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है। अबुल फजल के अनुसार तीर्थयात्रा कर से साम्राज्य को प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ की आय होती थी।
अकबर द्वारा ‘जजिया’ समाप्त करने की तिथि के विषय में कुछ भ्रम हैं। जजिया मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर-मुस्लिम प्रजा से लिया जाने वाला कर है। अबुल फजल ने इसकी समाप्ति की तिथि मार्च, 1564 ई. बताई है, जबकि बदायूँनी ने जजिया की समाप्ति का वर्ष 1579 ई. बताया है। अबुल फजल के अनुसार पहले के शासक ‘जजिया’ को अन्य धर्मों को शक्तिहीन बनाने और उसके प्रति अपनी घृणा प्रदर्शित करने का एक साधन समझते थे, किंतु अकबर धर्मों के मध्य भेदभाव नहीं करता था, इसलिए उसने इस कर को समाप्त कर दिया, जिससे हिंदू और मुसलमान, दोनों को समान रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और समानता मिल गई।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि अकबर ने राजपूतों को वश में करने और उजबेगों की शक्ति को प्रति संतुलित करने के लिए उदार धार्मिक नीति अपनाई थी। वह राजपूतों की शक्ति का उजबेगों के विरुद्ध व समानांतर शक्ति के रूप में उपयोग करना चाहता था। किंतु यह भी संभव है कि अकबर ने उदार और मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर इस नीति को अपनाया हो, ताकि मुगल साम्राज्य को नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान किया जा सके।
सच तो यह है कि शासन के आरंभिक वर्षों में अकबर राज्य के परंपरावादी इस्लाम प्रधान स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहता था। 1568 ई. में चितौड़ की विजय के बाद जारी किये जानेवाले ‘फतहनामा’ में चितौड़ की विजय को काफिरों के प्रति जेहाद कहा गया है। 1569 ई. में इस्फ़हान के मिर्जा मुकीम और कश्मीर के मीर याकूब को उलमा की सम्मति से शिया-सुन्नी आधार पर मौत की सजा दी गई थी। अकबर ने बाद में स्वयं इस सत्य को स्वीकार किया है कि पहले मैं अपने धर्म को न मानने वाले का धार्मिक उत्पीड़न करता था और इसी को इस्लाम समझता था।
धार्मिक विचारधारा का द्वितीय चरण (1575-1579 ई.)
अकबर के धार्मिक सिद्धांतों के विकास का दूसरा चरण 1575 ई. में ‘इबादतखाना’ की स्थापना से प्रारंभ होता है, जो धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद के उद्देश्य से बनवाया गया था। पिछले दशक में मुगल साम्राज्य के प्रभुत्व की स्थापना में आश्चर्यजनक सफलता मिलने के कारण अकबर यह विश्वास करने लगा था कि उसे दैवी अनुकंपा विशेष रूप से प्राप्त है, जिसके कारण धार्मिक विषयों के प्रति उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा जाग्रत होने लगी थी। बदायूँनी लिखता है कि अब वह ‘ईश्वर के वचन’ तथा ‘पैगंबर की शिक्षाओं’ पर अधिकांश समय मनन करता था और दर्शन, आध्यात्म और फिकह में उसे अत्यधिक रुचि हो गई थी।
1575 ई. में अकबर ने ‘इबादतखाना’ का निर्माण कराया, जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार को इस्लाम धर्म के विद्वानों और उलेमाओं के बीच कुरान, हदीस और इस्लाम के आधारभूत सिद्धांतों से संबंधित गंभीर विषयों पर बहस होती थी और इस वाद-विवाद में अकबर भी भाग लेता था। किंतु शीघ्र ही अकबर को इन विद्वानों की असहिष्णुता एवं अज्ञानता का ज्ञान हो गया और इस्लाम धर्म के विभिन्न संप्रदायों के पारस्परिक मतभेद के कारण इस्लाम के प्रति उसकी श्रद्धा कम होने लगी।
प्रारंभ में ‘इबादतखाना’ केवल सुन्नी मत के इर्द-गिर्द तथा उसके अनुयायियों तक ही सीमित था, किंतु बाद में शिया मत के अनुयायी मुल्लाओं को भी वाद-विवाद में शामिल होने का मौका मिलने लगा। 1578 ई. में इबादतखाने का द्वार सभी धर्मों के लिए खोल दिया गया। अब इबादतखाने में हिंदूओं, पारसियों, ईसाइयों, यहूदियों, जैनियों, यहाँ तक कि भारतीय भौतिकतावादी दार्शनिकों को भी बुलाया जाने लगा, जिससे वाद-विवाद का आधार विस्तृत हो गया। वाद-विवाद में अबुल फजल की प्रमुख भूमिका थी। परंपरावादी सुन्नी उलमा के विपक्ष में विभिन्न वर्गों को सक्रिय करने का कार्य उसी का था। वह बहुत से विषयों पर उलमा की संकीर्णता तथा अज्ञान का भांडा फोड़ता था।
इबादतखाने में होने वाले वाद-विवाद ने अकबर के धार्मिक विचारों के विकास में गहरी भूमिका निभाई। उलमा वर्ग में हदीस की व्याख्या को लेकर ही मतभेद नहीं था, वरन कुरान की आयतों की व्याख्या के संबंध में भी उनके विचारों में समानता नहीं थी। इससे अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे धर्मानुयायियों के प्रति उलमा के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से अकबर को बड़ी विरक्ति हुई और संभवतः इस्लाम के प्रति उसकी श्रद्धा कम होने लगी। इस संबंध में वूल्जले हेग ने लिखा है, ‘विभिन्न संप्रदायों के पारस्परिक संघर्ष और धार्मिक कट्टरता की असहनीय हिंसा ने अकबर को शनैः-शनैः इस्लाम से अलग कर दिया।’
इस वाद-विवाद का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि अकबर को विश्वास हो गया कि ज्ञानी पुरुष सभी धर्मों में पाये जाते हैं तथा यह भी कि सत्य किसी एक धर्म की, विशेषकर इस्लाम की बपौती नहीं है, जिसका अबुल फजल के शब्दों में ‘प्रादुर्भाव हुए विशेष समय नहीं हुआ और 1000 वर्ष भी पूरे नहीं किये थे।
इबादतखाने में होने वाले वाद-विवाद से न केवल अकबर का भ्रम निवारण हुआ, अपितु राज्य के नीति संचालन में उलमा वर्ग के प्रभाव के बारे में भी वह सचेत हो गया। इस काल में राज्य में मख्दूम उल मुल्क, अब्दुल्ला सुल्तानपुरी तथा शेख अब्दुल नबी का प्रभाव विशेष रूप से था। शेख अब्दुल नबी की अकबर ने 1561-1562 ई. में सद्र-उस-सुदूर के पद पर नियुक्ति की थी। इस पद पर होने के कारण सभी धार्मिक अनुदानों के विषय में उसका निर्णय सर्वोपरि था और इस कारण उसकी शक्ति व प्रतिष्ठा अत्यंत बढ़ी-चढ़ी थी।
1575-1576 ई. में एक हुकुम जारी किया गया, जिसके अनुसार जब तक मदद-ए-माश, वक्फ तथा अदरार (धार्मिक तथा खैराती उद्देश्यों के लिए दिया जाने वाला भू-अनुदान) फरमानों की सद्र-उस-सुदूर के हस्ताक्षरों द्वारा शिनाख्त नहीं होगी, उन्हें राजस्व अधिकारियों (करोड़ी) द्वारा स्वीकार नहीं किया जायेगा।
अकबर द्वारा धीरे-धीरे अपने हाथों में सत्ता को केंद्रित करने एवं हिंदू व अन्य गैर-मुस्लिम धर्मावलंबियों का समर्थन प्राप्त करके मुगल राज्य को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के प्रयासों के कारण राजनीति में उलमा की शक्ति में कटौती होना स्वाभाविक ही था। अब्दुल नबी द्वारा एक ब्राह्मण को पैगंबर का तिरस्कार करने के अपराध में मृत्युदंड दिये जाने की घटना ने पादशाह तथा धर्मशास्त्रियों के बीच के तनावों को और भी तीव्र बना दिया।
यद्यपि अकबर ने स्पष्ट रूप से वध की मनाही नहीं की थी, फिर भी, इस घटना से लगता है कि सदर-उस-सुदूर की कार्यवाही को उसने उलमा द्वारा अपनी सत्ता के प्रति स्पष्ट चुनौती समझा। इसी समय (1579-80 ई) पूरब में बिहार-बंगाल के प्रमुख मुस्लिम अधिकारियों ने अकबर की उदारवादी धार्मिक नीति के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा दिया। इस प्रकार कई कारणों से अकबर ने उलमा के प्रभाव को समाप्त करने के लिए आध्यात्मिक तथा भौतिक शक्तियों को इस्लाम द्वारा अनुमोदित दायरे के अंतर्गत स्वयं में केंद्रित करने का निश्चय किया।
इबादतखाने में बहस के दौरान अकबर को ज्ञात हुआ कि प्रथम चार खलीफा जुम्मे की नमाज के समय स्वयं ‘खुतबा’ पढ़ते थे और तैमूर के बारे में भी ऐसा ही पाया गया, जिसको मुगल अपना पूर्वज मानने में गर्व महसूस करते थे। इन पूर्व उदाहरणों से प्रेरित होकर अकबर ने मुहम्मद साहब के जन्मदिन 26 जून, 1579 ई. को फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद में प्रमुख इमाम के रूप में स्वयं अपने नाम का ‘खुतबा’ पढ़ा और ‘खलीफा उज-जमन’ की पदवी धारण की। खुतबे के अंत में अकबर ने ‘अल्ला हो अकबर’ (अल्लाह सबसे महान) का उच्चारण किया और इस तथ्य पर भी बल दिया कि उसने अर्थात् पादशाह ने अपनी सत्ता ईश्वर से प्राप्त की है।
अकबर द्वारा ‘खुतबा’ पढ़ने की कार्यवाही का अत्यधिक महत्त्व है क्योंकि इसके द्वारा अकबर ने उलमा को अपनी शक्ति के अधीन करने का दृढ़ संकल्प प्रकट कर दिया।
अकबर ने धार्मिक एवं भौतिक सत्ता को अपने हाथों में केंद्रित करने का विधिवत कार्य अगस्त-सितंबर, 1579 ई. में ‘मजहर’ नामक एक दस्तावेज द्वारा किया। अकबर को ‘महजर’ जारी करने की प्रेरणा शेख मुबारक खाँ तथा उसके पुत्र फैजी व अबुल फजल से मिली थी क्योंकि उलमा ने इन पर महदवी व शिया होने का आरोप लगाकर इनका उत्पीड़न किया था।
‘महजर’ से अकबर को यह अधिकार मिल गया कि उलमा में किसी विषय पर मतभेद होने की दशा में वह साम्राज्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किसी एक विचार को, जिसे वह सर्वोत्तम समझें, मान्यता दे सकता था और रिआया (प्रजा) की भलाई के लिए कोई भी फरमान जारी कर सकता था, बशर्ते वह कुरान के कानूनों के अनुसार हो।
पादशाह को ‘सुल्ताने आदिल’ (न्यायप्रिय शासक) की उपाधि देकर इन सभी कार्यवाहियों को वैधता प्रदान की गई। बदायूँनी के अनुसार प्रमुख उलमा को महजर पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया। इसमें केवल शेख मुबारक ही अपवाद था, जिसने सहर्ष इस दस्तावेज (महजर) पर हस्ताक्षर किया था।
‘महजर’ की व्याख्या के संबंध में आधुनिक विद्वानों में व्यापक मतभेद है। विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने पश्चिमी यूरोप में पोप की स्थिति से प्रेरित होकर ‘महजर’ जारी किया था। एफ.डब्ल्यू बक्र के अनुसार महजर जारी करने का उद्देश्य यह था कि अकबर ईरान के राजनीतिक एवं धार्मिक प्रभाव और खलीफाओं के प्रति निष्ठा-प्रदर्शन से मुक्ति चाहता था ताकि इस्लाम-प्रधान देशों में उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो सके।
आई.एच. कुरैशी के अनुसार ‘महजर’ एक सुस्पष्ट अधिकार-पत्र व कुटिल दस्तावेज था, जिसने अकबर को परंपरागत इस्लाम से विरोध करने और धर्म-द्रोहियों के पक्ष में मध्यस्थता करने का अवसर प्रदान किया। दूसरी ओर एस.एम. इकराम के अनुसार, ‘महजर’ भारतीय मुस्लिम कानून के विकास के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण आयाम था। ए.एल. श्रीवास्तव के शब्दों में, ‘इसने मुस्लिम कानून को स्थानापन्न करने का मार्ग प्रशस्त किया। सैयद ए.ए. रिज़वी का मत सर्वाधिक उचित प्रतीत होता है कि ‘महजर’ का उद्देश्य उन सभी विषयों को, जो अकबर की हिंदू-मुस्लिम प्रजा से संबंधित थे, पादशाह के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाना था।’
महजर में अकबर को ‘अमीर उल मोमिनीन’ (इस्लाम में विश्वास रखने वालों का नायक) कहा गया है, जिससे स्पष्ट है कि आरंभिक खलीफाओं की भाँति अकबर भी सर्वोच्च आध्यात्मिक और भौतिक सत्ता प्राप्त करना चाहता था। अकबर ‘मजहर’ के माध्यम से जो भी निर्णय करता, उसे कुरान संगत होने की भी बाध्यता थी। वैसे भी, अकबर केवल धार्मिक नेताओं में मतभेद होने की स्थिति में ही निर्णय कर सकता था।
इस स्थिति में भी उसके पास केवल इस्लामी कानून की व्याख्या करने का ही अधिकार था, कानून बनाने का नहीं। कुल मिलाकर इस ‘मजहर’ से उलेमा अपने इस्लामिक विधि के व्याख्याकार होने के अधिकार से वंचित हो गये और यह अधिकार बादशाह को मिल गया। इस प्रकार अकबर ‘इमाम-ए-आदिल’ (न्यायी सम्राट) बन गया और उसकी स्थिति कुरान के व्याख्याकारों से श्रेष्ठ हो गई।
धार्मिक विचारधारा का तीसरा चरण (1579 -1605 ई.)
1579 ई. में अकबर ने इस्लाम द्वारा अनुमोदित दायरे के अंतर्गत आध्यात्मिक व लौकिक शक्ति अपने हाथों में केंद्रित कर ली थी। इस कार्य से कट्टरपंथी सुन्नी उलमा की शक्तियाँ प्रतिबंधित हुईं, किंतु विभिन्न प्रकार की जातियों और धार्मिक वर्गों की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुरूप मुगल साम्राज्य को सैद्धांतिक आधार दिये जाने की समस्या अभी भी बाकी थी।
अकबर इस समस्या के प्रति सदैव जागरूक था और 1579 ई. के बाद के काल में उसने मुगल साम्राज्य के लिए उदार सैद्धांतिक आधार तैयार करने का कार्य संपन्न किया। इस कार्य में अबुल फजल ने प्रमुख भूमिका निभाई क्योकि वह अकबर की मुगल साम्राज्य की सैद्धांतिक आधार संबंधी अवधारणा से भली-भाँति परिचित था।
अबुल फजल ने सूफियों के ‘प्रकाशमयता के सिद्धांत’ के आधार पर यह विचार प्रतिपादित किया कि संप्रभुता ईश्वर से विकीर्ण होने वाला विशिष्ट प्रकाश है। ‘आइने अकबरी’ के प्राक्कथन में उसने लिखा है, ‘संप्रभुता का उद्भव उस अतुलनीय न्याय वितरक से है… तथा यह सूर्य की एक किरण है जो संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करने में सक्षम है। यह संपूर्ण गुणों का आधार है। समसामयिक भाषा में उसे ‘फ-ए-ईदी’ (देवीय ज्योतिपुंज) कहा जाता है, जबकि प्राचीन भाषा में इसे ‘कियान खूरा’ (अलौकिक प्रकाश मंडल) कहा गया है। यह ईश्वर द्वारा ‘पवित्र मुख’ (पादशाह) को प्रदान किया जाता है।
संप्रभुता की अवधारणा और सुलह-ए-कुल का विचार
अबुल फजल का मानना है कि संप्रभुता का प्रकाश शासक की कई पुश्तों में संचारित हुई और उसकी अकबर में चरम परिणति हुई। अकबर की संप्रभुता को पवित्र एवं पूर्ण प्रदर्शित करने के लिए अबुल फजल ने एक अन्य सूफी सिद्धांत ‘अल इंसान अल कामिल’ (पूर्ण पुरुष) का सहारा लिया, जिसका प्रणेता इब्न अल अरबी (1240 ई.) था। इब्न अल अरबी के राजनीतिक दर्शन का अनुसरण करते हुए और इसे मुस्लिमों के लिए उच्चतर श्रेष्ठता तथा सुख के लिए रहस्यवादी (सूफी) विचारधारा से मिलाते हुए अबुल फजल ने ‘सबके लिए सुख’ की वकालत की थी।
अबुल फ़ज़ल वैराग्य तथा संन्यास को दया मानवता से नीचे रखता है, और बल देता है कि ‘वैराग्य या संन्यास केवल उसका लाभ करता है जो इसका अभ्यास करता है, किंतु सेवा के माध्यम से व्यक्ति बड़ी संख्या में लोगों का उद्धार कर पाता है। अबुल फ़ज़ल के अनुसार शासक के लिए ‘सुलह-ए कुल’ का तात्पर्य सभी धर्मों तथा अन्य भिन्नताओं के प्रति सहिष्णुता की नीति से था। अबुल फ़ज़ल की विचारधारा सामंजस्य तथा निरपेक्ष शांति (सुलह-ए कुल) पर आधारित थी। उसने खुले रूप से घोषणा की थी कि, ‘इस आलम के मालिक (अकबर) ‘सुलह-ए-कुल’ पर आधारित नियमों से शासन करते हैं।’
अबुल फजल का विचार था कि, ‘राज्याधिकार ईश्वर से निकलता हुआ प्रकाश है, सूर्य से निकली हुई एक किरण है, जो दुनिया को प्रकाशमान करती है। उसका मानना था कि ‘राज्याधिकार से उच्चतर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। उसके लिए पादशाह स्थायित्व तथा अधिकार का स्वामी है।
इस प्रकार नसीरुद्दीन तूसी की तरह अबुल फजल भी सच्चे और स्वार्थमुक्त शासकों का पक्ष लिया और ‘इंसान-ए-कामिल’ के दर्शन की वकालत की और उसके लिए अकबर के व्यक्तित्व में पूर्ण पुरुष व प्रशासक के सभी गुण सन्निहित थे, जिसके कारण वह सामान्य मुस्लिम शासकों की अपेक्षा एक विशिष्ट व्यक्तित्व का धनी था। अबुल फ़ज़ल का ‘इंसान-ए-कामिल’ का विचार सीधे तौर पर इब्न अल अरबी से लिया गया है। यद्यपि, जहाँ इब्न अल-अरबी के लिए ‘इंसान-ए-कामिल’ पैग़म्बर मुहम्मद थे, अबुल फ़ज़ल के लिए वह अकबर था।
अबुल फजल लिखता है कि, न केवल अपने उदार स्वभाव के कारण, बल्कि उस पर दैवीय प्रकाश की अनुकंपा के कारण भी अकबर एक परमश्रेष्ठ इंसान था। अबुल फजल, निजाम-उल मुल्क तूसी तथा गुज़ाली की तरह ही न्याय को सर्वप्रमुख गुण मानता है। नसीरुद्दीन तूसी की ‘अखलाक-ए-नासिरी’ ‘सार्वभौमिक न्याय’ के सिद्धांत पर भी बल देती है।
अबुल फ़ज़ल भी कहता है: ‘राजत्व ईश्वर का उपहार है… और इस उच्च प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के बाद भी यदि वह सर्वकालिक निरपेक्ष शांति (सुलह-ए-कुल) की स्थापना न करे और मानवता के सभी समूहों तथा सभी धर्म-पंथों को समान कृपा-दृष्टि और उदारता से न देखे.. तो वह इस उच्चतर प्रतिष्ठा के योग्य न होगा।’ अबुल फजल के अनुसार अकबर में संप्रभुता के प्रकाश की परिपक्वता के कारण विश्व के इतिहास में एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ है। इस प्रकार अकबर ‘युग पुरुष’ (साहिब-ए-जमाना) है, जो सभी प्रकार के वैमनस्यों की समाप्ति करने में समर्थ है।
चूंकि अकबर में संप्रभुता की परिणति हुई थी, इसलिए अबुल फजल ने उसको बहुत से गुणों का धारक माना। एक सामान्य शासक के समान अकबर ने भी बहुत से ऐसे तथ्यों को महत्त्व दिया, जैसे- ‘विपुल खजाना, विशाल सेना, चतुर सेवक, आज्ञाकारी प्रजा, विद्वान, बड़ी संख्या में कुशल कारीगर और आनंद के साधनों की भरमार’, किंतु जैसा कि अबुल फजल का कथन है कि, ‘अकबर में ऐश्वर्य के उपयुक्त साधनों पर अधिकार रखने की क्षमता एक सामान्य शासक की अपेक्षा कहीं अधिक थी। इन उपकरणों को वह लोगों के उत्पीड़न के अंत तथा कल्याण का साधन समझता था।
अबुल फजल के अनुसार पूर्ण पुरुष होने के नाते अकबर अखिल समाज का शून्य रूप था। इसलिए उसने पादशाह की शरीर संरचना को अरस्तु द्वारा उल्लिखित चार तत्त्वों-आग, पानी, वायु और भूमि से समन्वित माना। योद्धाओं की प्रवृत्ति अग्नि के समान होती है, शिल्पकारों तथा व्यापारियों का संबंध हवा से दिखाया गया है जो जीवन-वृक्ष के पोषक है। विद्वानों की तुलना पानी से की गई है, जो दुनिया की ज्ञान से सिंचाई करते हैं।
अंत में किसान तथा मजदूर भूमि की तरह हैं, जो जीवन रूपी अन्न को उत्पन्न करते हैं। अबुल फजल के विचार में किसी भी पादशाह के लिए इन चारों तत्त्वों को यथास्थान रखने का कार्य करना अनिवार्य है। इसी आधार पर अबुल फजल ने शाही कर्मचारियों का भी वर्गीकरण किया है। साम्राज्य के उमरा (नूयनीन-ए-दौलत) युद्ध में शासकों की सेवा करते हैं तथा अपने शत्रुओं का अग्नि की भाँति भक्षण करते हैं।
दूसरा वर्ग अनुचरों (औलिया-ए-नसरत) का है, जिनमें मुख्यतः राजस्व अधिकारी थे। इस वर्ग की तुलना हवा से की गई है, जो किसी समय ठंडी और आनंददायक होती है और किसी समय गर्म व खरोचने वाली होती है। तीसरा वर्ग वार्तालाप के साथियों (असहाब-ए-सोहबत) का था, जो पादशाह के बुद्धिमान सलाहकार थे। इस वर्ग में विधिवेत्ता, धार्मिक अधिकारी व ज्योतिष शास्त्री, कवि तथा दार्शनिक भी शामिल थे। उनकी तुलना पानी से की गई है क्योंकि वे अपने ज्ञान-जल में गुस्से को डुबा देते हैं।
इस प्रकार अबुल फजल का दृष्टिकोण था कि पादशाह के अनुचर और उसकी प्रजा उसके स्वयं के व्यक्तित्व का विस्तार थी, उसमें आग, पानी, वायु, भूमि-इन चारों तत्त्वों का समावेश था, जबकि उसके अधीनस्थ वर्ग इनमें से किसी एक विशिष्ट गुण के परिचायक थे।
तौहीद-ए-इलाही (दीन-ए-इलाही)
काबुल अभियान से लौटने के बाद मार्च, 1582 ई. में अकबर ने ‘तौहीद-ए-इलाही’ उर्फ ‘‘दीन-ए-इलाही’ की योजना प्रस्तुत की, जिसमें प्रायः सभी धर्मों के सत्य विचारों और उपदेशों का समन्वय था। वस्तुतः अकबर के धार्मिक विचारों के निरूपण में सूफी मत व सर्वेश्वरवाद का गहरा प्रभाव था। सूफी सर्वेश्वरवाद से संबंधित दो क्लासिकी ग्रंथ, मौलाना जलालुद्दीन रूमी का मसनवी तथा हाफिज का दीवान, अकबर की मनपसंद पुस्तकों में से थे। सूफी मत के प्रति अकबर की आस्था का पता इस बात से चलता है कि उसने चिश्ती को प्रश्रय दिया था।
1562-1579 ई. के बीच में उसने अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की कई बार जियारत की थी। उसकी शेख सलीम चिश्ती के प्रति भी गहरी आस्था थी, जिसके नाम पर उसने अपने पुत्र (भावी जहाँगीर) का नाम ‘सलीम’ रखा था। उसने बाद में फतेहपुर सीकरी में एक दरगाह का भी निर्माण करवाया था।
अकबर के सूफी धर्म के प्रति झुकाव ने ही विश्व के प्रति एक विशद व उदार दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित किया। अकबर का यह विचार 1575 ई. के बाद से इबादतखाने में होने वाले वाद-विवाद के कारण और भी परिपक्व होता गया। वाद-विवाद के दौरान एक ओर कट्टरपंथी सुन्नी उलमा की धर्मांधता सामने आई और उनमें विविध विषयों के बारे में गहरा मतभेद होने के कारण विभ्रम की स्थिति भी स्पष्ट हुई, दूसरी ओर इन वाद-विवादों ने उसका यह विश्वास पक्का कर दिया कि विद्वान पुरुष सभी धर्मों में पाये जाते हैं और यह भी कि ‘सत्य’ केवल इस्लाम धर्म की थाती नहीं है।
इसी सहिष्णु दृष्टिकोण का एक प्रतिरूप अकबर की आध्यात्मिक एवं भौतिक अर्थों में अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व के प्रति जागरूकता भी थी। इसके लिए अनेक कई कारण भी उत्तरदायी थे।
भारत में एक सशक्त मुगल साम्राज्य की स्थापना में अकबर की आश्चर्यजनक सफलता के बाद अकबर की धार्मिक व आध्यात्मिक विषयों में रुचि बढ़ी और धीरे-धीरे वह स्वयं को दैवी शक्ति के ग्राही के रूप में देखने लगा। अबुल फजल के ‘साहिबे जुमाना’ (युग-पुरुष) की परिकल्पना में अकबर के व्यक्तिगत विचारों तथा अबुल फजल के ज्ञान का समावेश हुआ है, जो यह विभिन्न धर्मों के बीच शांति व सद्भावना स्थापित करने के लिए था।
इन सभी तत्त्वों ने अकबर की निजी विचार-पद्धति ‘तौहीदे इलाही’ (देवी एकेश्वरवाद) के निरूपण में योग दिया। अकबर के विचारों का मुख्य आधार यह था कि सभी धार्मिक विषयों में अनुकरण (तकलीद) की अपेक्षा तर्क (अक्ल) का अधिक महत्त्व है। उसका विश्वास था कि आस्था तथा आचरण में अंतर के कारण ही सभी धर्मों में भ्रामक विभिन्नताएँ हैं। इसीलिए उसने हिंदुओं की मूर्ति पूजा तथा मुस्लिमों के उपासना के तरीकों की आलोचना की थी।
अकबर का विचार एक ऐसी उपासना पद्धति का निर्धारण करना था, जो कट्टरपंथी इस्लाम और हिंदू धर्म की पद्धतियों से भिन्न हो। सूफियों के समान ही उसका विश्वास था कि ईश्वर की उपासना विभिन्न लोगों द्वारा अपनी ज्ञान-क्षमता के अनुरूप की जाती है। ईश्वर की कोई आकृति नहीं है और अत्यधिक मानसिक चिंतन के द्वारा ही उसको ईश्वर का बोध हो सकता है। उपासना में शारीरिक क्रिया केवल अज्ञानियों द्वारा ही अनुकरणीय है।
वस्तुतः उपासना मन से ही की जानी चाहिए। इसीलिए अकबर ने यह विचार प्रकट किया था कि, ‘ईश्वर की उपासना का सबसे सच्चा मार्ग एक ऐसे जागरूक हृदय का अधिकारी होना है, जो प्रकाश से प्रेम करता है।’ अकबर द्वारा प्रकाश को महत्ता दिये जाने का कारण सर्वेश्वरवाद विषयक यह विश्वास था कि सभी परिवर्तनों के मूल में वास्तविकता व अटल सत्य एक ही है और प्रकाश उस अपरिवर्तनीय वास्तविकता की शुद्धतम व आकारहीन अभिव्यक्ति है।
यही कारण है कि अकबर ने प्रकाश के स्रोत सूर्य को अत्यधिक महत्त्व दिया है। अकबर के विचारों पर प्राचीन ईरानी परंपरा के नौरोज़ उत्सव का भी प्रभाव था, जिसमें सूर्य और रोशनी की उपासना सम्मिलित थी।
अकबर का विश्वास था कि ईश्वर और पार्थिव जीवों के बीच गहरा संबंध है और यह कि शासक के रूप में उसका ईश्वर से प्रत्यक्ष संबंध है। अकबर का विश्वास था कि पादशाह के दर्शन करना ईश्वर की उपासना करने के समान है, जबकि पादशाह के लिए न्याय करना और सांसारिक विषयों का संचालन ही वास्तविक उपासना है।
इस प्रकार ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) सर्वेश्वरवाद पर आधारित एक सूफी विचार-पद्धति थी, जिसका विकास स्वतंत्र रूप से हुआ था अर्थात यह कट्टरपंथी इस्लाम तथा हिंदू धर्म-दोनों के ही प्रभाव से मुक्त थी। इस विचार-पद्धति में आध्यात्मिक नेतृत्व अकबर के हाथों में सन्निहित था और उसको अपने शिष्य को दीक्षित करने का अधिकार था।
शिष्यों की दीक्षा के लिए इतवार का दिन नियत किया गया था क्योंकि उस दिन, अबुल फजल के शब्दों में ‘सूर्य अपने प्रखर तेज में होता था।’ दीक्षार्थी अपनी पगड़ी अपने हाथों में लेकर पादशाह के सम्मुख जाता था और अपना शीश उसके चरणों में रख देता था। पादशाह अपने हाथों से पगड़ी उठाकर उसके सिर पर रखता था और दीक्षा का प्रतीक चिह्न (शस्त-ओ-शबह) देता था, जिस पर ईश्वर का नाम ‘अल्लाहु अकबर’ (अल्लाह महान है) ख़ुदा रहता था। ‘शिस्त’ प्रदान करना दीक्षा का प्रतीक था।
दीक्षा के समय शिष्य को उपदेश के तौर पर कुछ शब्द कहे जाते थे; जैसे- शिष्य को समुदायगत झगड़ों से बचना चाहिए और किसी बात को आँखें मूंदकर स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि सभी धर्मों के संबंध में सार्वजनिक सहिष्णुता के पथ का अनुसरण करना चाहिए। उसे अपने हाथों से किसी जीवित प्राणी का वध नहीं करना चाहिए और किसी की खाल उधेड़ना नहीं चाहिए।
यद्यपि युद्ध व शिकार में इसका अपवाद हो सकता था। शिष्य को सभी प्रकाशदायी तत्त्वों (सूर्य व चंद्रमा आदि) का, जिनमें प्रत्येक की क्षमता के अनुरूप ईश्वर के प्रकाश की अभिव्यक्ति है, आदर करना चाहिए और हर समय व हर ऋतु में ईश्वर की शक्ति को पहचानना चाहिए।
इसके अलावा भी ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) के अनुयायी को कुछ आचार एवं व्यवहार संबंधी नियमों का पालन करना पड़ता था, जैसे-
- ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) के सदस्य पारस्परिक अभिवादन के लिए ‘अल्लाह-हो-अकबर‘ और उसके जवाब में ‘जल्ले-जल्लाल हूँ‘ का प्रयोग करते थे;
- उसे यथासंभव मांसाहार का त्याग करना होता था। यदि यह त्याग संभव न हो, तो कम से कम उस माह में उसके लिए माँस खाना निषिद्ध था, जिसमें उसका जन्म हुआ हो।
- ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) के अनुयायी को अपने जन्मदिन पर प्रीतिभोज देना और दान देना आवश्यक था। उसे मृत्यु के बाद दिये जाने वाले भोज को अपने जीवन काल में ही देना पड़ता था।
- ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) के सदस्य के लिए वृद्धा या अल्पवयस्क कन्याओं के साथ विवाह करना या सहवास करना वर्जित था।
- ‘तौहीदे इलाही’ के अनुयायी सूर्य तथा अग्नि की उपासना करते थे और उनके लिए कसाइयों, मछुवारों, चिड़ीमारों के बर्तनों का प्रयोग निषिद्ध था।
- ‘तौहीदे इलाही’ (दीन-ए-इलाही) के सदस्यों से अपेक्षा की जाती थी कि वे क्रोध को त्याग करेंगे, क्षमा को अपनायेंगे, मृदु वचनों का प्रयोग करेंगे और सद्व्यवहार करते हुए ईश्वर-प्राप्ति का प्रयत्न करेंगे। वे कर्म के प्रभाव पर विचार करेंगे, भक्ति ज्ञान में वृद्धि करेंगे और शरीर को स्वच्छ और निरोग रखेंगे।
भक्ति के चार चरण (चहारगाना-ए-इख्लास)
‘दीन-ए-इलाही’(तौहीद-ए-इलाही) संप्रदाय में नवदीक्षित अनुयायी को भक्ति के चार चरणों (चहारगाना-ए-इख्लास) को पूरा करना पड़ता था। ये चार चरण जमीन, संपत्ति, सम्मान तथा धर्म थे, जिन्हें उसे अपने गुरु अर्थात् पादशाह की सेवा में त्याग करना पड़ता था। इन चरणों के आधार पर ‘दीन-ए-इलाही’ के सदस्य चार श्रेणियों में विभाजित थे।
यदि कोई सदस्य अपनी चारों वस्तुओं का त्याग करता था तो उसकी श्रेणी ‘प्रथम’ मानी जाती थी, तीन का त्याग करने वाला ‘द्वितीय’, दो और एक का त्याग करने वाले क्रमशः ‘तृतीय’ और ‘चतुर्थ’ श्रेणी के माने जाते थे। इसमें धर्म के त्याग का अर्थ संकीर्णता का त्याग था। ये चारों श्रेणियाँ सूफियों के सोपानों के समान थी। ‘
बादशाह स्वयं शिष्यों का चयन करता था। अबुल फजल, जो ‘तौहीद-ए-इलाही’ का पुरोहित था और दीक्षार्थी को सम्राट के समक्ष प्रस्तुत करता था, लिखता है कि सम्राट शिष्य बनाने में प्रायः उदासीन रहता था और अति आग्रह पर ही प्रार्थना स्वीकार करता था।
वास्तव में अकबर को इस बात का आभास था कि कुछ ही लोग पादशाह के लिए अपने परंपरागत धर्म (अर्थात् इस्लाम या हिंदू धर्म) का उत्सर्ग करने और उसका आध्यात्मिक नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे। इसलिए उसने अपने संप्रदाय में अधिकाधिक लोगों को शामिल किये जाने के लिए विवश नहीं किया और ‘तौहीद-ए-इलाही’ की सदस्यता केवल उन लोगों के लिए सीमित कर दी, जो पादशाह के विश्वस्त थे।
तौहीद-ए-इलाही की स्थापना का उद्देश्य
‘तौहीद-ए-इलाही’ की स्थापना के पीछे अकबर के उद्देश्य को लेकर इतिहासकारों में मतभेद रहा है। बदायूँनी अकबर को ‘काफिर’ बताता है और ‘दीन-ए-इलाही’ को धर्म मानता है। उसका यह भी कहना है कि इस नवीन धर्म को स्थापित कर अकबर ने मुसलमानों और इस्लाम का अपमान किया है। उसका आरोप है कि अकबर ने पैगम्बर होने का दावा किया था।
बदायूँनी के पूर्वाग्रहपूर्ण वक्तव्य के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मत है कि अकबर नवीन धर्म चलाना चाहता था। वूल्जले हेग, लेनपूल और मैलेसन भी इसे धर्म मानते हैं। स्मिथ का कहना है कि ‘‘दीन-ए-इलाही’ अकबर की मूर्खता का प्रतीक था, बुद्धिमत्ता का नहीं।’’ हेग ने भी लिखा है कि, ‘दीन-ए-इलाही’ वास्तव में लज्जाजनक रूप से असफल रही और उसे हिंदू, मुसलमान तथा ईसाई, किसी ने भी पसंद नहीं किया।’
किंतु अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि ’दीन-इलाही’ धर्म नहीं था और न ही अकबर पैगम्बर होने का दावा करता था। यदि अकबर का उद्देश्य धर्म स्थापित करना होता तो इसके अनुयायियों की संख्या मात्र 19 ही नहीं रहती। बदायूँनी स्वयं स्वीकार करता है कि यदि वह शक्ति का प्रयोग करता, तो मनचाहे अनुयायी बना सकता था। दरअसल, अकबर ‘दीने इलाही’ के माध्यम से प्रबुद्ध एवं उदारवादी भारतीयों को भातृत्त्व के सूत्र में बाँधना चाहता था।
धार्मिक दृष्टि से ‘दीन-ए-इलाही’ सूफियों के समान उदार मानवतावादी दृष्टिकोण को स्थापित करता था। दूसरी ओर यह एक सामाजिक व्यवस्था थी, जिसमें एक समान दृष्टिकोण वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सहयोग कर सकते थे। आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव लिखते हैं कि ‘‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना में अकबर का महान राजनीतिक उद्देश्य यह था कि इसके द्वारा वह हिंदू और मुसलमान धर्मों को मिलाकर मुगल साम्राज्य में राजनीतिक एकता कायम कर सके। ‘दीन-ए-इलाही’ के प्रवर्तक के रूप में उसने जो किया, वह उसकी सार्वजनिक सहिष्णुता की नीति का परिणाम था और यही उसके राष्ट्रीय आदर्शवाद का प्रमाण भी है।’’
वास्तव में अकबर का उद्देश्य नये धर्म की स्थापना करना नहीं था, बल्कि विभिन्न वर्गों में विद्यमान वैमनस्य को समाप्त करके साम्राज्य को सुदृढ़ बनाना था। ‘दीन-ए-इलाही’ में धर्म-ग्रंथ या पुरोहित वर्ग नहीं था। इसमें कोई पूजागृह या कर्मकांड या पूजा-पद्धति भी नहीं थी। अकबर राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी न्यूनतम राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहता था, जिसमें सभी धर्म के अनुयायी अपने धर्मों का स्वतंत्रता से पालन करते हुए. सौहार्द और सद्भावना बनाये रखें। इस प्रकार ‘दीने इलाही’ बादशाह अकबर के राष्ट्रीय आदर्शवाद का ज्वलंत उदारहण है।
अकबर ने ‘तौहीद-ए-इलाही’ के प्रचार के लिए कोई प्रयास नहीं किया और केवल अपने विश्वस्त लोगों को ही इसमें दीक्षित किया।। यही कारण है कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इसके अनुयायी थे। ‘दबेस्तान-ए-मजहब’ के अनुसार अकबर के बाद केवल 19 लोग ही इस मत में दीक्षित हुए थे और उसकी मृत्यु के बाद यह समाप्त हो गया।
यद्यपि सम्राट अकबर का यह एक नवीन प्रशंसनीय प्रयोग असफल हो गया, किंतु इतना स्पष्ट है कि अकबर की धार्मिक नीति उदार, सहिष्णु तथा प्रजावत्सल थी, जिससे अकबर को अपनी संपूर्ण प्रजा का समर्थन मिला और इतिहास में अकबर प्रसिद्ध हो गया।
इलाही संवत् तथा अकबर की मुद्राएँ
अकबर की नई विचार-पद्धति की परिपक्वता का परिचायक उसके द्वारा 1583 ई. में जारी इलाही संवत् का एक नया कैलेंडर है, जो सौर वर्ष पर आधारित था। अकबर ने इस इलाही संवत् को अपने सिंहासनारोहण के बाद पहले नौरोज अर्थात् 11 मार्च, 1556 ई. से प्रचलित किया था। इसकी पुष्टि अकबर की मुद्राओं से भी होती है।
1583 ई. से पहले अकबर की मुद्राओं पर कलमा तथा खलीफाओं के नाम और विशिष्टताओं का विवरण होता था। किंतु इलाही संवत् के प्रवर्त्तन के बाद अकबर की मुद्राओं पर आयत का अंश ‘अल्लाहु अकबर जल्ल जलालुहु’ (ईश्वर महान है, उसका प्रताप बढ़ा रहे) उत्कीर्ण किया जाने लगा। 1583 ई. के बाद की मुद्राओं की एक विशेषता यह भी है कि उनमें सूर्य व चंद्रमा की महिमा का बखान करने वाले पद्य अंकित हैं, जैसे ‘अकबर शाह की मुद्रा पर अंकित सूर्य स्वर्ण की महिमा है, जब कि पृथ्वी और आकाश चमकते हुए सूर्य से प्रकाशित हैं।’
इस प्रकार अकबर के धार्मिक विचार तथा संस्थाएँ उन समस्याओं के समाधान के रूप में सामने आईं जिनका अकबर को मुगल साम्राज्य की स्थापना व सुदृढ़ आधार प्राप्त करने के दौरान सामना करना पड़ा था। एक ओर उसे साम्राज्य के लिए स्थानीय रूप से सशक्त राजपूत आदि अभिजात वर्ग के लोगों का समर्थन हासिल करना था, दूसरी ओर उसे अपनी स्थिति को चगताई कबीलाई तत्त्वों तथा कट्टरपंथी मुल्लाओं से बचाना था।
ऐसी दशा में एक नई विचार-पद्धति की आवश्यकता थी जिसके द्वारा राज्य में धार्मिक तथा जातिगत क्षेत्रों में पक्षपात रहित नीतियों का प्रतिपादन हो, साथ ही पादशाह के प्रति सामान्य जन के मन में आस्था का भाव उत्पन्न हो। अबुल फजल द्वारा अकबर के विचारों के परिप्रेक्ष्य में जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया, उनसे उसके उद्देश्य व दृष्टिकोण भली-भाँति निरूपित होते थे। इनके द्वारा एक ओर ‘सुलह-ए-कुल’ या सार्वलौकिक शांति मुगल साम्राज्य की सर्वप्रमुख नीति बनी रही, तो दूसरी ओर आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी अकबर की विशिष्ट स्थिति की भी पुष्टि हुई।
नवीन प्रशासनिक प्रणाली के मूल में यही सिद्धांत थे। इनका कार्यान्वयन मनसबदारी व्यवस्था के रूप में हुआ, जिनमें विभिन्न धर्म, जाति व कुलों के लोग पादशाह के प्रति स्वामिभक्ति के सूत्र में बंधकर एक थे। दूसरी ओर पादशाह भी उनके प्रति भेदभावरहित तथा सामंजस्यपूर्ण नीति अपनाने के लिए कटिबद्ध था।
उनके धर्म व जातीयता का उसकी दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं था। अंततः अकबर की व्यक्तिगत धार्मिक विचार-पद्धति (अर्थात तौहीदे इलाही) मुगल साम्राज्य के उदार सिद्धांतो में अर्थात सार्वलौकिक सहिष्णुता (सुलह-ए-कुल) में समाविष्ट हो गई। दूसरे शब्दों में, अकबर की रिआया में से हर एक भले ही वह अकबर को अपना आध्यात्मिक गुरु मानता हो या न मानता हो, अन्य जातियों व संप्रदायों के प्रति शांति व सामंजस्य के सिद्धांत को मानने के लिए बाध्य था।
अकबर का व्यक्तित्व एवं मूल्यांकन
लगभग 50 वर्षों तक शासन करने के पश्चात् अकबर की 25 अक्टूबर, 1605 ई. को मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही एक महान् युग का भी अवसान हो गया। इस अर्द्ध-शताब्दी का अकबर के महान व्यक्तित्व, उसकी कर्मठता, उसकी मानवीय संवेदनशीलता तथा राजनीतिक उच्च आदर्शों के कारण भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। अकबर ‘युग-पुरुष’ और ‘युग-निर्माता’ था।
अकबर की गणना विश्व के महान् साम्राज्य निर्माताओं तथा प्रशासकों में की जाती है। वह एक आदर्श मानव, लोक-कल्याणकारी प्रशासक, महान् विजेता और साम्राज्य-निर्माता था। वह कला एवं साहित्य का संरक्षक और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसका दृष्टिकोण व्यापक और उसका व्यक्तित्व बहुआयामी था। उसकी उपलब्धियों के कारण उसे ‘महान्’ कहा गया है।
व्यक्ति के रूप में अकबर की आकृति सुंदर और आकर्षक थी। उसका शरीर सुगठित और शक्तिशाली था। कहा जाता है कि उसने एक दिन और एक रात में अजमेर से आगरा तक 250 मील की यात्रा घोड़े पर की थी। वह इतना शक्तिशाली था कि सिंह की गर्दन तलवार के एक वार से ही काट सकता था। वह अत्यंत परिश्रमी था और युद्धों में अत्यंत सतर्क होकर तीव्रगति से कार्य करता था। उसमें मानवीय गुणों की प्रधानता थी।
उसका अंतःकरण शुद्ध था और उसके बर्ताव में सज्जनता और सद्भावना रहती थी। सामान्य जनता से उसका व्यवहार अत्यंत मधुर और विश्वास उत्पन्न करने वाला होता था। उसमें प्रमाद नाममात्र का नहीं था और प्रशासन के कार्यों में सदैव तत्पर रहता था। झरोखा दर्शन के पश्चात् ही वह राज्य के कार्य में व्यस्त होता था। उसे विद्वानों के सत्संग में विशेष रुचि थी और यद्यपि उसे शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी, किंतु उसकी स्मरण-शक्ति बहुत तीव्र थी और वह ग्रंथों को पढ़वाकर सुनता था। उसकी बौद्धिक क्षमता अद्भुत थी और गूढ़ तथा जटिल समस्याओं को समझने की उसमें असाधारण क्षमता थी।
सैनिक के रूप में
अकबर आखेट, घुड़सवारी और शस्त्र-विद्या में निपुण था। वह महान् सेनानी था और उसमें असाधारण शौर्य तथा साहस था। असीम संकटों का भी उसने धैर्यपूर्वक सामना किया। गुजरात विजय, अफगान विद्रोहियों के दमन में तथा मिर्जा हकीम के संकट के समय उसने एक सुयोग्य सेनापति के गुणों का प्रदर्शन किया था। उसकी राजपूत नीति से स्पष्ट है कि वह अनावश्यक रक्तपात से बचना चाहता था। उसमें अपूर्व सैनिक संगठन की क्षमता थी और उसे अपने सैनिकों का विश्वास प्राप्त था।
उजबेगों को बार-बार क्षमा करने से ज्ञात होता है कि युद्ध में भी वह सद्भावना और क्षमा की भावनाओं से प्रेरित रहता था। अपनी सैनिक क्षमता से ही अकबर मुगल साम्राज्य की पुनःस्थापना करने में सफल हुआ था। उसने अनेक अभियानों का स्वयं संचालन किया था और सभी अभियानों में सफलता प्राप्त की थी। उसने मुगल सेना को सुसंगठित किया और उसकी कुशलता में वृद्धि की।
प्रशासक के रूप में
प्रशासन के क्षेत्र में अकबर ने मौलिक आदशों की स्थापना की। उसका राजत्त्व सिद्धांत प्रजा के कल्याण पर आधारित था। उसने प्रजा तथा शासक के बीच भेदभाव समाप्त कर दिया। उसने राजत्त्व के इस्लामिक सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इससे उसके तथा उसकी हिंदू प्रजा के मध्य अंतर उत्पन्न होता था। उसने साम्राज्य को एक ऐसे नवीन आधार पर गठित किया, जिसमें सभी वर्गों को समानता प्राप्त थी।
उसने एक राष्ट्रीय साम्राज्य की नींव डाली जिसने लगभग दो शताब्दी तक भारत में राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया। उसने समस्त साम्राज्य में एक प्रशासनिक एकता, भू-राजस्व प्रशासन, समान कर प्रणाली, शासकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियों के द्वारा ऐसा सुसंगठित प्रशासन-तंत्र स्थापित किया जैसा मध्यकाल में पहले कभी नहीं हुआ था। हेग ने लिखा है कि ‘भारत के मुस्लिम शासकों में अकबर को इसका श्रेय है कि उसने अपनी समस्त प्रजा का शासक बनने का निर्णय किया था।’
एक प्रशासक के रूप में राज्य को लोक-कल्याणकारी स्वरूप देना और उसमें पितृ-भावना का समावेश करना उसका महान् कार्य था। लेनपूल के अनुसार, ‘अकबर भारत के शासकों में सर्वोत्तम था। वह साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और व्यवस्थापक था। उसका समय मुगल काल का स्वर्णयुग हैं।’
धार्मिक उदारता
अकबर के व्यक्तित्व का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण धार्मिक उदारता था। उसके अंतःस्थल में इस्लाम के प्रति अडिग आस्था थी और वह इस्लाम के नियमों का पूरी आस्था से पालन करता था। किंतु उसमें धार्मिक संकीर्णता नहीं थी। वह एक सच्चा अन्वेषक था और सत्य के प्रति उसकी जिज्ञासा एक सूफी या साधक की जिज्ञासा थी। बदायूँनी अकबर की धार्मिक उदारता, सभी धर्मों के प्रति सम्मान, उसके सर्वेश्वरवाद तथा मनुष्य भाव के प्रति कल्याण की भावना को नहीं समझ सका।
उसने संकीर्ण आलिम के दृष्टिकोण के अनुसार अकबर को ‘काफिर’ घोषित किया जिसने इस्लाम को त्याग दिया था और इस्लाम की शान में आपत्तिजनक कार्य किये थे। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भी इसी प्रकार विवरण दिया है कि अकबर ने इस्लाम त्याग दिया था।
इनके विवरणों के आधार पर कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने, जिनमें स्मिथ तथा हेग प्रमुख है, लिखा है कि अकबर ने इस्लाम को त्यागकर नवीन कर्म ‘दीन-ए-इलाही’ स्थापित किया था, किंतु यह सब सत्य नहीं है। अकबर एक उदारवादी मुस्लिम था जिस पर सूफी विचारधारा का गहरा प्रभाव था और ‘दीन-ए-इलाही’ एक ऐसा कार्यक्रम था जो उसकी प्रजा में सौहार्द उत्पन्न करने तथा साम्राज्य की सुदृढ़ता के लिए उसने प्रस्तावित किया था। वह मृत्युपर्यंत एक आस्थावान मुस्लिम रहा था।
अकबर की महानता
अकबर ने एक विस्तृत सुसंगठित साम्राज्य की स्थापना की थी, उसकी महानता का यह कारण नहीं था। उसके पहले चंद्रगुप्त मौर्य और अलाउद्दीन खिलजी भी महान् विजेता हो चुके थे। शासक की महानता का आधार उसका लोक-कल्याण, समस्त प्रजा के पालन की आकांक्षा, नैतिक गुणों की प्रधानता होता है। अशोक महान् विजेता नहीं था, लेकिन प्रजा के कल्याण की अदम्य भावना और प्राणिमात्र के प्रति सेवा की भावना के कारण उसे महान् कहा गया है।
अकबर में ये गुण विद्यमान थे। उसने हिंदुओं को अपनी प्रजा समझा और अपनी मुसलमान प्रजा के समान उनकी सुख-समृद्धि के लिए कार्य किया। उसने सबसे पहले राष्ट्र की अवधारणा, भले ही वह अस्पष्ट रही हो, प्रस्तुत की और मानवीय सौहार्द के लिए कार्य किया। उसने साहित्य, कला के क्षेत्र में भी समन्वय का कार्य किया। युद्धों में भी उसने उदारता तथा सहृदयता का परिचय दिया और वह उच्च मानवीय आदर्शों से कभी विचलित नहीं हुआ। विंसेंट स्मिथ भी स्वीकार करता है कि वह महानता का अधिकारी है, ‘यह अधिकार उसे अपनी अलौकिक प्राकृतिक प्रतिभा, मौलिक विचारों तथा गौरवपूर्ण कार्यों के आधार पर प्राप्त है।’
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-
भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ : मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल
सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन
कुषाण राजवंश का इतिहास और कनिष्क महान
भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण