भारत में पाषाणकाल के विभिन्न चरणों में सबसे महत्वपूर्ण नवपाषाण काल है। इस काल में आदिमानव ने जंगली अवस्था छोड़कर सामाजिक और सामुदायिक जीवन का प्रारम्भ किया और वर्तमान मानव के विकास का मार्ग प्रसस्थ किया। यह वह समय था जब भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल होने लगी और जनसँख्या का विस्तरर होने लगा। इस लेख में हम नवपाषाण काल के प्रमुख स्थलों और ने विशेषताओं के विषय में जानेंगे।
नवपाषाण काल का अर्थ | Meaning of Neolithic Age
नवपाषाण काल को अंग्रेजी में Neolithic Age कहते हैं जिसका अर्थ है-नवपाषाण काल, जिसे Neolithic Age के नाम से भी जाना जाता है, यह मानव विकास का वह काल था जब मानव ने स्थायी रूप से बसना और कृषि करना प्रारम्भ किया।
आपको बता दें कि ग्रीक भाषा में में लिथोस का अर्थ “पत्थर” “पाषाण” होता है, इसलिए नवपाषाण काल पाषाण युग का “नवीन” “नया” या “बाद का” काल है, जो पाषाण युग के पुरापाषाण काल और (“पुराना” या “प्रारंभिक” काल) और मध्यपाषाण काल (“मध्य” काल) के विपरीत है। अतः मानव जीवन का वह काल जब वह अपनी जंगली अवस्था से निकलकर मानव वस्तियों में रहने लगा, कृषि करने लगा। उसने पशुपालन करना प्रारम्भ कर दिया, भोजन में माँस के अतरिक्त अन्य फल शब्जियां खाने लगा। लेकिन उसने पत्थर का प्रयोग पूरी तरह से नहीं छोड़ा था अतः इस नवीन काल को नवपाषाण काल की संज्ञा दी गई।
नवपाषाणकाल अथवा नियोलोलिथिक शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करने वाले सर जॉन लुबाक थे जिन्होंने 1865 में अपनी पुस्तक प्रीहिस्टोरिका में इस शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग उस काल के लिए किया जिस युग में पत्थर के औजार अधिक सुडौल और पॉलीस युक्त थे।
कुछ समय बाद डी गार्डेन चाइल्ड ने नवपाषाण और ताम्रपाषण संस्कृति को पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन वाली अर्थव्यवस्था बताया माइल्स वर्किट ने इस बात पर बल दिया कि इन विशेषताओं को नवपाषाण काल की माना जाना चाहिए-
1 – कृषि उत्पादन 2 – पशुपालन
3 – पत्थर के पॉलिस युक्त औजार और 4 – बर्तन (मृद्भाण्ड) बनाना।
समय के साथ नवपाषाण काल को लेकर नए विचारों और सिद्धांतों का चल आया है। इन नवीन सिद्धांतों के अनुसार नवपाषाण काल को धातु चरण संस्कृति के प्रचलन का सूचक माना जाना चाहिए जब मानव ने पक्षिपालन , अन्न उत्पादन , पशुपालन स्थायी आवास , शुरू किया मगर पत्थर का प्रयोग जारी रहा और यह एक महत्वपूर्ण विशेषता थी।
यह वह काल था जब वनस्पति – कृषिकरण एवं पशुपालन और स्थायी निवास ने ग्राम समुदायों के साथ कृषि प्रौद्योगिकी का प्रारम्भ हुआ। प्रकृति का दोहन और नियंत्रण इसी काल में प्रारम्भ हुआ।
नवपाषाण काल का प्रारम्भ
अगर नवपाषाण काल के प्रारम्भ की बात करें तो यह विश्व में लगभग 9 हज़ार ईसा पूर्व प्रारम्भ होता है। भारत में नवपाषाणकाल काल का प्रारम्भ 7 हज़ार ईसा पूर्व से माना जाता है।
भारत में नवपाषाण काल के प्राम्भिक चरण
कृषि पर आधारित नवपाषाण कालीन संस्कृति के प्रारम्भिक साक्ष्य हमें भारत – पाक क्षेत्र के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में मुख्य रूप से क़्वेटा घाटी में लोरलाई और जोब नदियों की घाटियों में मिलते हैं।
अन्य स्थानों में मुख्य रूप से किले गुल मोहम्मद, गुमला, राना घुंडई, अंजीरा, मुंडीगाक और मेहरगढ़ हैं- ये स्थल कच्छ के मैदान में स्थिति हैं जहाँ से 7000 ईसा पूर्व से 5000 ईसा पूर्व तक के साक्ष्य मिलते हैं।
इससे एक बात स्पष्ट है की नवपाषाण कालीन मानव 7000 ईसा पूर्व के आस – पास मेहरगढ़ में बसना शुरू हो गए थे।
नवपाषाण काल की विशेषताएं
स्थाई निवास एयर सामुदायिक जीवन का प्रारम्भ
नवपाषाण काल में मानव ने घुमन्तु जीवन छोड़कर स्थायी रूप से जीवन बिताना शुरू किया और झोपड़ियों में रहने लगा। वस्तियों में रहने के साथ ही सामुदायिक जीवन का प्रारम्भ हुआ और मानव ने एक दूसरे के साथ श्रम विभाजन प्रारम्भ किया।
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आग का सदुपयोग
इस काल के मानव ने आग का सदुपयोग प्रारम्भ किया उसने जंगलों को साफ़ करने में आग की मदद ली और कृषि क्षेत्र का विस्तार किया। अग्नि के प्रयोग से उसने घर में रौशनी शुरू कर दी।
कृषि का प्रारम्भ
नवपाषाण काल की प्रमुख विशेषताओं में कृषि का प्रारम्भ सबसे प्रमुख है। उसने आखेटक का जीवन छोड़कर अन्न उद्पादक का जीवन शुरू किया अब वह भोजन का सिर्फ उपभोक्ता नहीं था बल्कि उद्पादक ही था। गेहूं , जौ , मसूर , सरसों , और अन्य फसलों को उगाना प्रारम्भ किया। उसके भोजन में अब मांस के स्थान पर रोटी और दाल भी थी।
पशुपालन
नवपाषाण काल में पशुपालन प्रारम्भ हो गया और अब मांस तथा दूध-दही आसानी से प्राप्त होने लगा। पशुओं के प्रयोग से उसने हल का खेती के लिए प्रयोग किया। भेड़-बकरी से उसने ऊन प्राप्त की और ठण्ड से बचने के लिए ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करने लगा। कुत्ता मनुष्य का प्रथम पालतू पशु था। बोझा धोने के लिए बैलों का प्रयोग इसी काल में प्रारम्भ हुआ।
मिटटी के वर्तन
चाक की सहायता से इस काल के मानव ने मिटटी के सुन्दर सुडौल बर्तन बनाना शुरू किया। कलात्मक और सादा डॉन तरह के बर्तन बनाये गए।
बैलगाड़ी और चाक का प्रयोग
नवपाषाण काल में बैलगाड़ी और चाक के प्रयोग ने मानव जीवन में क्रांति ला दी। बैलगाड़ी के मदद से ाव मानव लम्बी दूसरी की यात्राएं करने लगा। बैलगाड़ी से उनसे अपनी फसल को ढोना शुरू किया। चाक के प्रयोग से बर्तन बनाये गए।
वस्त्र
इस काल से पूर्व के मानव शरीर को ढकने के लिए पशुओं की खाल, पत्तों एवं पेड़ों की छाल का प्रयोग करता था मगर नवपाषाण काल के मानव ने ऊनी और सूती वस्त्रों को रगं कर पहनना शुरू कर दिया।
औजार और हथियार
इस काल के मानव कुल्हाड़ियों का प्रयोग हथियार के रूप में करते थे। इस काल में बस्तियों के उत्तर-पश्चिमी भाग में घुमावदार किनारों वाली आयताकार कुल्हाड़ियों का प्रयोग बहुतायात किया जाता था। इसके साथ ही दक्षिणी भाग में अंडाकार किनारों और नुकीले हत्थे वाली कुल्हाड़ियों का प्रयोग किया जाता था, जबकि उत्तर-पूर्वी भाग में आयताकार हत्थे और कंधे वाली कुदाल वाली पॉलिश पत्थर की कुल्हाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।
नवपाषाण काल में पॉलिश किए गए पत्थरों से बने औजारों के अतिरिक्त माइक्रोलिथिक ब्लेड का भी प्रयोग होता था। वे मिटटी खोदने के लिए पत्थर की कुदाल और खुदाई करने वाली छड़ियों इस्तेमाल होता था। इसके अतिरिक्त हड्डियों से बने औजारों और हथियारों का भी इस्तेमाल होता था; इस प्रकार के औजार और हथियार बुर्जहोम (कश्मीर) और चिरांद (बिहार) में पाए गए हैं।
धातु का प्रयोग
नवपाषाण काल के अंतिम चरण में मानव ने धातु के प्रयोग की कला सीख ली। तांबा प्रथम धातु है जिसका प्रयोग मानव ने किया।
मनोरंजन के साधन
इस काल का मानव नृत्य और नाट्य कलाओं के माध्यम से मनोरंजन करता था। आखेट इस काल में भी कुछ हद तक जारी रहा जो मनोरंजन का एक प्रमुख साधन था।
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अंत्येष्टि संस्कार
इस काल में अंत्येष्टि संस्कार के कई रूप दिखाई देते हैं-
सिस्ट समाधि- ब्रह्मगिरि के उत्खनन में मिली एक समाधि जिसमें एक आयताकार खाई को चारों ओर से पत्थरों से संदूक के जैसा बनाया गया है जिसमें मृतक के शव को रखा जाता था और उसके साथ हथियार , औजार , आभूषण रखे जाते थे।
पिट सर्कल- इस प्रकार की समाधि में ग्रेनाइट के पत्थरों से 8 से 12 फिट के वृत्त जिसकी गहराई 6 से 8 फिट होती थी। और सम्भवतः शव को पहले लकड़ी की अर्थी पर रखा जाता था। शव के गल जाने पर अस्थियां समाधि में रख दी जाती थीं। शव के साथ आभूषण और मृद्भाण्ड रखे पाए गये हैं।
कैर्नसर्कल– इस प्रकार की समाधि में अस्थि पात्र एवं भस्मपात्र रखे जाने का प्रचलन था।
प्रमुख नवपाषाण कालीन स्थल
नवपाषाण स्थल का नाम | जगह | समय अवधि | विशेषताएँ |
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मेहरगढ़ | बलूचिस्तान, पाकिस्तान | 7,000 ई.पू. | कपास और गेहूँ का उत्पादन करते थे और मिट्टी-ईंट के घरों में रहते थे। |
बुर्जहोम | कश्मीर | 2,700 ई.पू. | लोग झील के किनारे गड्ढों में रहते थे। पालतू कुत्तों को भी उनके मालिकों के साथ कब्र में दफनाया जाता था। पॉलिश किए गए पत्थर और हड्डियों के औजार इस्तेमाल होते थे। |
गुफकराल | कश्मीर | 2,000 ई.पू. | कृषि और पशुपालन दोनों का अभ्यास किया। पॉलिश किए गए पत्थर और हड्डियों से बने औजारों का इस्तेमाल किया। |
चिरांद | बिहार | 2,000 ई.पू. | हड्डियों से बने औजार और हथियार का प्रयोग किया जाता था। |
पिकलिहल, ब्रह्मगिरी, मास्की, हल्लूर, टक्कलकोटा, टी. नरसीपुर, कोडेकल, संगनकल्लू | कर्नाटक | 2,000-1,000 ई.पू. | पिकलिहल के लोग मवेशी चराने वाले थे। वे भेड़, बकरी और मवेशी पालते थे। राख के ढेर पाए गए हैं। |
पैयम्पल्ली | तमिलनाडु | 2,000-1,000 ई.पू. |
बाहर | आंध्र प्रदेश | 2,000-1,000 ई.पू. |
नवपाषाण का की भौगोलिक स्थिति
विद्वानों ने प्राप्त स्थलों के आधार पर नव पाषाण संस्कृतियों को मोटे रूप में 6 भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया ।
1. उत्तर पश्चिम क्षेत्र
वर्तमान अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में पुराविदों ने ऐसी गुफायें खोजी हैं जहां लोगों द्वारा 7 हजार ई० पू० में भेड़ एवं बकरियां पाली जाती थीं। यहीं से गेंहूँ एवं जौ की खेती की शुरूआत के प्रारम्भिक साक्ष्य मिले हैं।
मेहरगढ़ – यह क्वेटा से लगभग 150 किमी० दूर स्थित है। इस स्थल पर उत्खनन से पता चलता है कि इस क्षेत्र का पूर्व मृद्भाण्ड नवपाषाण काल से समृद्ध हड़प्पाकाल तक एकलम्बा सांस्कृतिक इतिहास रहा है। मेहरगढ़ से ताँबा गलाने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। यहां नवपाषाण काल के दो स्तर प्राप्त हुये हैं। हड़प्पा कालीन अवशेष ऊपरी स्तरों से प्राप्त हुआ है। यहां के नवपाषाण कालीन संस्कृति के प्रारम्भिक चरण में मृद्भाण्ड अनुपस्थित थे। मेहरगढ़ से गेहूं की तीन एवं जौ की दो किस्मों की खेती किये जाने के संकेत मिले हैं।
इसे ‘बलूचिस्तान की रोटी की टोकरी’ कहा जाता है।
यहां कच्ची ईटों के आयताकार मकानों में लोग रहते थे। सम्भवतः आवासीय परिसर में भण्डारण के लिए अलग से व्यवस्था की जाती थी। प्राप्त औजारों में प्रस्तर-कुठार, घर्षण-पाषाण आदि प्रमुख हैं। मेहरगढ़ के द्वितीय काल से गेहूं, जौ, अंगूर एवं कपास की खेके के प्रमाण मिले हैं। पुराविदों का अनुमान है कि हड़प्पा निवासियों ने गेहूं, जौ एवं कपास की खेती को तकनीक रेजरगढ़ के पूर्वजों से ग्रहण की होगी। मेहरगढ़ से प्राप्त इस साक्ष्य के कारण इस सिद्धान्त को संशोधित करना पड़ेगा कि कृषि और पशुओं को पालने का कार्य भारतीय उपमहाद्वीप की ओर पश्चिम एशिया से फैला।
2. उत्तरी क्षेत्र
इस क्षेत्र में कश्मीर प्रान्त में स्थित दो महत्वपूर्ण स्थल बुर्जाहोम एवं गुफकराल का उल्लेख किया जाता है। कश्मीर घाटी में ग्राम बस्तियों का लगभग ढाई हजार ई० पू० आविर्भाव हुआ।
बुर्जाहोम- इसका साहित्यिक अर्थ जन्मस्थान है। यह श्रीनगर से उत्तर-पश्चिम की ओर 16 कि. मी. दूर है। इस स्थल की खोज 1935 ई० में डी० टेरा तथा पीटरसन ने की। बी० के० था पर ने इस संस्कृति के मध्य-पाषाणिक खाद्य संग्राहक एवं नव-पाषाणिक खाद्य उत्पादक अर्थ-व्यवस्था अर्थात् दो स्तरों का अध्ययन किया है। प्रथम में शिकारी, संग्रहकर्ताओं के स्क्रेपर, हारपून, क्षेद्रक, सुइयां, कुल्हाड़ियां आदि प्राप्त हुई है। यहां नव-पाषाण कालीन लोग एक झील के किनारे गर्तावासों (गड्ढे वाले घर ) में रहते थे। वे शिकार तथा मछली पर जीते थे। दूसरी अवस्था में मिट्टी की ईटोंके बड़े घरों में रहने का पता चला है। खेती का भी अनुमान किया गया है।
एक कब्र से मालिक के साथ कुत्ते को दफनाये जाने का प्रमाण मिला है।
यहां से प्राप्त तांबे के वाणाग्र धातु के इस्तेमाल को इंगित करते हैं। पुराविदों की मान्यता है कि बुर्जाहोम से प्राप्त सामग्री का स्वात घाटी के सरायखोला एवं घालीगई के साथ सादृश्य रहा है।
गुफकराल – इसका शाब्दिक अर्थ कुम्हार की गुफा है। यह श्रीनगर से 41 किमी० दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यहां से प्रारम्भिक निवास के तीन चरणों का पता चला है। प्रारम्भिक चरण में हमें मृद्भाण्ड रहित गर्तावास देखने को मिलते हैं। परन्तु, बाद के दो चरणों में अनगढ़ किस्म के धूसर मृद्भाण्डों का इस्तेमाल किया जाने लगा और न चरणों में बड़ी संख्या में हड्डियों के औजार मिलते है।
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3.मध्यवर्ती क्षेत्र
मध्यवर्ती नवपाषाणिक संस्कृति की जानकारी गंगाघाटी एवं विंध्यपर्वत के पठारी क्षेत्र में स्थित स्थलों से होती है। कोलडिहवा, महगरा (महगड़ा) एवं चौपानी माण्डो इस भाग के महत्वपूर्ण स्थल हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराविदों ने इनका उत्खनन करवाया था।
कोलडिहवा- बेलन नदी पर इलाहाबाद के दक्षिण में कोलडिहवा स्थित है। यहां तीन सांस्कृतिक अनुक्रम नवपाषाण, ताम्रपाषाण और लौहयुग देखे गये हैं। यहां के उत्खनन से 6000 ई० पू० के आस-पास धान उगाने का प्रमाण मिला है। इसे चावल की खेती का भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व में सबसे पुराना साक्ष्य माना जाता है।
महगरा– गंगा नदी के दक्षिण में विन्ध्य क्षेत्र के निकट महगरा (इलाहाबाद के पास) के उत्खनन से गोलाकार झोपड़ियों के प्रमाण मिले हैं। पशुओं में गाय, बैल, हिरण एवं मछली की हड्डियां प्राप्त हुई हैं। मिट्टी की गुरियां भी निली हैं। यहाँ से धान के अलावा जौ की खेती के साक्ष्य मिले हैं यहाँ से एक पशु-बाड़ा भी प्राप्त हुआ है।
चौपानी माण्ड- इलाहाबाद के पास स्थित इस स्थल से पुरापाषाण काल से नवपाषाण काल तक के तीन चरणों का पता चला है। यहां मध्यपाषाण कालीन स्तर से मधुमक्खी के छत्ते जैसी झोपड़ियां, साझा चूल्हे, ज्यामितीय आकार के सूक्ष्म पाषाण एवं हस्त निर्मित मृद्भाण्ड मिले हैं। विद्वानों की मान्यता है कि चौपानी माण्डो के मृद्भाण्ड संसार के प्राचीनतम साक्ष्यों में से हैं।
4. पूर्वी क्षेत्र-
मध्यपूर्व में विरांव, चेचर, सेनुआर, तारादिव एवं उड़ीसा में कुचाई तथा उत्तर पूर्वी भाग में दावोजली घाटी मुख्य स्थल हैं।
चिरांद- बिहार के सारण जिले में चिरांद ग्राम नामक एक छोटी बस्ती के निकट नव-पाषाणिक अवशेष प्राप्त हुये हैं। बुर्जाहोम को छोड़कर अन्य किसी पुरातात्विक स्थल से तनी अधिक मात्रा में नवपाषाण कालीन उपकरण नहीं मिले, जितने विरांद से। 1962-63 वी० के० सिन्हा द्वारा इस स्थल का उत्खनन करवाया गया। उत्खनन से पांच प्रकार की संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। यहां बड़ी संख्या में हिरण की सींगों से निर्मित उपकरण पाये गये हैं। यहां के मानत्र घास-फूस के घरों में रहते थे। चावल की खेती के भी प्रमाण मिले हैं।
दावोजली हाडिंग- उत्तर-पूर्व में असम के चित ग्राम क्षेत्र से यह स्थल प्राप्त हुआ है। यहां से कृषि एवं पशुपालन का पता चलता है। गुवाहाटी के पास सारुतारू में की गई खुदाइयों से संबंधित आदिम कुल्हाड़ियों (सेल्ट) और गोलाकार मूठवाले कुठारों के साथ अनगढ़-रज्जु या करंड अंकित मृदभांड मिले हैं।
कुचाई- उड़ीसा के मयूरभंज जिले में स्थित कुचाई में मध्यपाषाणिक स्तर तथा नवपाषाणिक स्तर
5. उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
इसमें मुख्यतः राजस्थान के क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है।
बागौर- बनास की सहायक कोठारी नदी के किनारे भीलवाड़ा से 25 किमी० दूरी पर यह स्थल स्थित है। यहां मध्यपाषाणिक, ताम्रयुगीन तथा लौह उपकरण प्राप्त हुये हैं। यहां डा० वीरेन्द्र मिश्र एवं एल० एस लेशनि के निर्देशन में 1967 से 1969 के बीच उत्खनन करवाया गया। यहां से कृषि एवं पशुपालन दोनों के साक्ष्य मिले हैं। राजस्थान का वागौर एवं मध्य प्रदेश का आदम गढ़ प्राचीनतम पशुपालन अर्थ-व्यवस्था के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
बालाथल-उदयपुर से 42 किमी० दक्षिण पूर्व वल्लभनगर तहसील में यह स्थल स्थित है। 1993 में इस स्थल का उत्खनन प्रो० वी० एन मिश्र के निर्देशन में करवाया गया। यहां से प्राप्त मृद्भाण्डों की सादृश्यता हड़प्पा स्थल से प्राप्त मृद्भाण्डों से की जाती है। प्राप्त ताम्र औजारों पर भी हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव दिखाई पड़ता है। नवपाषाण काल से यह हड़प्पा सभ्यता का प्रतिनिधि केन्द्र था। इस स्थल पर लगभग 22 स्तर देखे गये हैं।
मिट्टी के सांड़ की उपलब्धि हड़प्पा से प्राप्त वृषभ मुद्राओं का स्मरण कराती है। विद्वानों की मान्यता है कि यहां के लोगों ने ताम्र संस्कृति से लौह सभ्यता तक इस स्थल को आबाद रखा। उत्खनन में प्राप्त ताम्र मुद्राओं पर हाथी एवं चन्द्रमा की आकृतियां अंकित है।
गणेश्वर – सीकड़ जिले में नीम का थाना के निकट काटली नदी के किनारे यह स्थल स्थित है। यहां से बड़ी संख्या में ताम्र औजार प्राप्त हुये हैं। सम्भवतः, मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा को तांबा इसी क्षेत्र से जाता था। यहां से लगभग 4 हजार ताम्र उपकरण प्राप्त हुये हैं।
6. दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में उन्नत आखेट-अर्थव्यवस्था चरण से खाद्य उत्पादक अर्थव्यस्या चरण में संक्रमण की समस्या अभी तक स्पष्ट रूप से हल नहीं की जा सकी है। नव पाषाण कालीन बस्तिय। पहाड़ी और शुष्क दक्खन पठार पर पाई गई हैं। ये बस्तियां खास तौर से कुछ क्षेत्रों में फली-भूली जहां सामान्य वर्षा प्रति वर्ष 25 सेमी० से कम होती है। दक्षिण भारत की नवपाषाण संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले उत्खनित स्थल हैं कर्नाटक में मस्की, ब्रागिरि, हल्लूर, कोडक्कल, पिपलीहल, संगनकल्लू, टी नरसीपुर, और टैक्कलककोट, तमिलनाडु में पैयमपल्ली और आंध्र प्रदेश में उतनूर, कोडेकल, नागार्जुनीकोंडा और पलावोय। दक्षिण के नवपाषाण काल का समय 2600 से 800 ईसापूर्व माना गया है।
पुरातत्वविदों ने दक्षिण भारत की नवपाषाण संस्कृति को तीन चरणों में वगीकृत किया है। सबसे प्रारम्भिक चरण के साक्ष्य संगनकल्लू और नागार्जुनकोण्डा में मिलते हैं। नागार्जुन कोण्डा में प्राप्त आवासों के धुंधले चिन्ह, लेपित बाहरी सतहों वाले, अपरिष्कृत हस्त निर्मित पीले, रक्ताम, भूरे मृद्भाण्ड, चकमक के फलक और घर्षित पत्थर के औजारों से प्रदर्शित होता है कि लोगों को खेती का केवल अल्पविकसित ज्ञान था। सम्भवतः, वे जानवर नहीं पालते थे। इस चरण का तिथि निर्धारण 2500 ई०पू० अथवा इससे पहले किया जा सकता है।
चरण II में, चरण I के लक्षण तो जारी रहे ही; मृद्भाण्ड मुख्यतः लाल रंगकी बनावट के थे, तथापि मणिकारी कला और पशुपालन नये लक्षण है। अब सूक्ष्म पत्थर स्फटिक क्रिस्टलों के बनने लगे थे।
चरण III में (लगभग 1900 ई०पू०) धूसर भाण्ड प्रमुख हैं। चरण II के लाल भाण्ड और लघु फलक उद्योग इस चरण में भी जारी रहे। विभिन्न प्रकार के नवपाषाण औजार भी इस चरण में पाये जाते हैं। ये इस बात का संकेत देते हैं कि खेती का कार्य अधिक किया जा रहा था और भोजन संग्रह तथा आखेट की अब गौड़ भूमिका रह गई थी। बाद के दोनों चरणों की विशेषता नागार्जुनकोण्डा में आवास गर्तों से लक्षित होती है, जिनकी छतों को संभालने के लिये लकड़ी के लट्ठों का इस्तेमाल किया गया था। अन्य स्थलों पर नरकुल और मिट्टी के मकानों के अवशेष भी मिले हैं।
दक्षिण भारत के नव पाषाण कालीन किसानों द्वारा उगाई गई सबसे पहली फसलों में मिलेट (रागी) की फसल थी। यह गरीबों के भोजन एवं मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती थी। इसके अतिरिक्त गेंहूँ, कुल्थी, मूंग और खजूर भी उगाई जाती थी। प्रचुर मात्रा में मवेशी और अन्य प्रकार की खाद्य वस्तुओं से संकेत मिलता है कि नव पाषाण कालीन लोगों की स्थानबद्ध कृषि तथा पशु चारण व्यवस्था थी। कार्बन डेटिंग के आधार पर दक्षिण भारत की नव पाषाण संस्कृति का तिथि निर्धारण 9000 ई० पू० से 2600 ई० पू० के बीच किया गया है।
उतनूर, कोडेक्कल, और कुपगल जैसे नवपाषाण स्थलों के पास राख के अनेक टीले मिले हैं, इनमें से कुछ बस्तियों से दूर जंगलों में भी मिले हैं। सुझाया गया है कि ये राख के टीले नव पाषाण कालीन मवेशी बाड़ों के स्थल थे। समय-समय पर इकट्ठा हो गया गोबर या तो किसी संस्कार के रूप में अथवा दुर्घटना बस जलता रहा। अपेक्षाकृत अधिक दूरस्थ स्थानों पर पाये गये राख के ढेर इस बात का संकेत देते है कि लोग कुछ खास मौसमों में जंगलों के पशुचारण स्थलों पर चले जाया करते थे।
निष्कर्ष
अन्त में कहा जा सकता है कि नव पाषाण कालीन अर्थ व्यवस्था की मुख्य विशेषतायें कृषि पशुपालन तथा धातु विज्ञान की प्रगति है। आखेट एवं संग्रहण की कृषि तकनीक की ओर अग्रसर होना एक क्रांतिकारी कदम था। इस युग में हर स्तर पर परिष्कार आया जिससे व्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था का आविर्भाव हुआ।