मगध भारत का सबसे प्राचीन साम्राज्यों के उत्पत्ति का गवाह रहा जहाँ हर्यक, नागवंश, नन्द वंश, मौर्य वंश, शुंग वंश और गुप्त वंश जैसे महान वंशों ने शासन किया। गुप्तों के पतन के पश्चात मगध का स्थान कन्नौज ने लिया और हर्षवर्धन ने उत्तर से लेकर बंगाल और दक्षिण तक आपने साम्राज्य का विस्तार किया। लेकिन हर्ष की मृत्यु [647 ईस्वी] के पश्चात् भारत में राजपूतों का उदय हुआ।
महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान का नाम सुनते ही हम राजपूत शासकों के बारे में सोचने लगते हैं। राजपूतों के विषय में प्रचलित है कि उन्होंने कभी पीठ नहीं दिखाई और भागते दुश्मन पर कभी पीछे से हमला नहीं किया और वे वीर योद्धा थे। जो सवाल हम इस लेख में उठाएंगे वह यह है कि आखिर क्षत्रियों के पतन के पश्चात् राजपूतों का उदय कैसे हुआ ? क्या वे विदेशी थे या क्षत्रियों की संतान थे अथवा कोई देव यज्ञ द्वारा उनकी उत्पत्ति हुई। ऐसे अनेक सिद्धांतों सिद्धांतों पर हम इस लेख में चर्चा करेंगे।

राजपूतों की उत्पत्ति
कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के गुप्तों द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई, और समस्त भारत में अनेक छोटे-छोटे शासक खड़े हो गए। उत्तर भारत के समस्त राज्य आपस में ही साम्राज्य विस्तार के लिए लड़ते रहते थे। भारत अब सिर्फ एक भौगोलिक इकाई के रूप में विराजमान था एक राष्ट्र के रूप में भारत समाप्त हो चुका था और हर राजपूत शासक के लिए उसका राज्य ही देश था।
इन आपसी संघर्षों के पश्चात् राजपूतों वंशों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और विशाल राज्यों की स्थापना की।
भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना तक का काल राजपूत काल के नाम से जाना जाता है।
इस संबंध में हम प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ के इस विचार को प्रस्तुत कर रहे हैं कि “वे (राजपूत) हर्ष वर्धन के पतन के पश्चात् समस्त उत्तरी भारत पर राजपूतों का अधिपत्य रहा और इसी कारण सातवीं शताब्दी के मध्य से 12वीं यानि 1192 ईस्वी तक के काल को राजपूत-काल के रूप में इतिहास में दर्ज है।”
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कौन थे राजपूत?
अब जो प्रश्न हमारे सामने है कि आखिर ये राजपूत कौन थे और इनका अचानक भारतीय राजतन्त्र पर छा जाना क्या कोई चमत्कार था अथवा क्रमिक विकास? इस संबंध में हम यहाँ कुछ इतिहासकारों के मतों का वर्णन कर रहे हैं…
डॉ. जी. एच. ओझा ने राजपूतों के उदय अथवा उत्पत्ति के संबंध में कहा है कि “राजपूत शब्द कोई नया शब्द नहीं है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में इसका कई बार प्रयोग किया गया है।
मौर्य काल के विद्वान चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र, गुप्तकालीन कवि कालिदास के नाटकों व हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ में राजपूत शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है।
हर्ष वर्धन के समय में भारत आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी, तत्कालीन शासकों को कहीं क्षत्रिय और कहीं राजपूत के रूप में वर्णित किया है।
यहाँ स्पष्ट कर दें कि ” डा. ओझा द्धारा दिए गए सुझाव को सर्वमान्य रूप से स्वीकृति नहीं मिली है।
ऐतिहासिक रूप से राजपूत शब्द का प्रयोग एक विशेष जाति के अर्थ में अरबों तथा तुर्कों के आगमन से पूर्व दिखाई नहीं देता है,
लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि शासक वर्ग यानी क्षत्रियों के लिए ‘राजपुत्र’ यानि राजा का पुत्र शब्द का प्रयोग अवश्य किया जाता था.
राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में जिन सिद्धांतों को स्वीकार किया जाता है अथवा वर्गीकृत किया जाता है वे मुख्य रूप से छ:भागों में वर्णित किये गए हैं।
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1 ऋग्वैदिक आर्यों से उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत
डा. ओझा तथा सी.वी. वैद्य राजपूतों को ऋग्वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों की संतान बताते हैं।
इसके संबंध में वे तर्क देते हैं की क्षत्रियों की भांति रजपूत भी अश्व और अस्त्रों की पूजा करते हैं। आगे वे कहते हैं कि ऋग्वैदिक आर्यों की भाँति वैदिक यज्ञ और बलि प्रथा राजपूतों में प्रचलित रही है।
राजपूत शारीरिक रूप से सुडौल, कसरती बदन, लम्बी नाक और लम्बे सिर से भी यह सिद्ध होता है कि वे आर्यों की ही संतान हैं।
2 अग्निकुण्ड संबंधी उत्पत्ति का सिद्धांत –
पृथ्वीराज तृतीय के दरबारी कवि चन्दबरदायी ने अपने ग्रंथ पृथ्वीराज रासो में राजपूतों की उत्पत्ति ऋषियों द्वारा किये गए अग्निकुण्ड से बताई है।
इस ग्रंथ के अनुसार राजस्थान में आबू पर्वत पर उस समय के ऋषियों विश्वामित्र, गौतम, अगस्त्य तथा अन्य ऋषि मिलकर एक यज्ञ करते हैं मगर राक्षसों द्वारा यज्ञ में मांस, पशुओं की हड्डियां डालकर विघ्न उत्पन्न कर अपवित्र करते रहते थे।
राक्षसों से निपटने के लिए वशिष्ठ ऋषि ने अग्निकुंड से तीन योद्धा उत्पन्न किये जिनमें परमार, चालुक्य और प्रतिहार प्रमुख थे। परन्तु स्थिति तब विकट हो गई जब ये तीनों भी राक्षसों को रोकने में असमर्थ रहे। ऐसी स्थिति में एक और शक्तिशाली जाति चाहमान अथवा चौहान की उत्पत्ति की गई। यही चारों जातियों ने राजपूत वंशों की स्थापना की गई।
इस सिद्धांत के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति वशिष्ठ ऋषि द्धारा अग्निकुण्ड (हवन कुण्ड) से की गई।
इस प्रकार अग्नि कुण्ड से चार राजपूत जातियों का उदय हुआ
(1) प्रतिहार अथवा गुर्जर प्रतिहार
(2) चौहान अथवा चाहमान
(3) चालुक्य
(4) सोलंकी /परमार
यहाँ यह भी स्पष्ट कर दें कि इस सिद्धांत को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है और इसे कपोल कल्पित कहा जाता है।
लेकिन ऐसा भी नहीं कि चंदरबरदाई के इस कथन और प्रसंग को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया जाये। इसके आधार पर विद्वानों ने तर्क दिए हैं।
विद्वानों का मानना है कि बौद्ध काल में जिन क्षत्रियों ने ब्राह्मण धर्म त्याग कर बौद्ध और कुछ ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तथा कुछ जंगली जातियों यथा आदिवासी भील, मीणा इसके अतिरिक्त भारत में आने वाली विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों शक, हूण, कुषाण, यूची पह्लव आदि की यज्ञ (अग्नि) द्धारा शुद्धि करके पुनः ब्रह्मण धर्म में वापसी करके क्षत्रिय वर्ण में शामिल किया गया हो और यह कथा इसी घटना की साहित्यिक प्रस्तुति हो।
3 सूर्यवंश की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत
इस सिद्धांत की उत्पत्ति का वर्णन कई ग्रंथों में मिलता हैं, जयानक कृत पृथ्वीराज विजय, नयनचन्द्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य, और बड़ेला अभिलेख मैं चौहान- सूर्यवंशी के ग्रंथों में इस सिद्धांत का वर्णन मिलता है।
4 राजपूतों की उत्पत्ति का चंद्रवंशी सिद्धांत
राजपूतो की उत्पत्ति का स्रोत आबू के अभिलेख में वर्णित है।
5 राजपूतों की उत्पत्ति का ब्राह्मणवादी सिद्धांत
इस सिद्धांत को सर्वप्रथम इतिहासकार डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने गुहिल राजपूतों का उदय नागर ब्राह्मणों से बताया है।
राजपूतों के ब्राह्मणवंशी होने के साक्ष्य के रूप में इस सिद्धांत के संबंध में डॉ. भण्डारकर ने बिजौलिया शिलालेख का उल्लेख किया हैं
इस शिलालेख में वासुदेव चौहान के उत्तराधिकारी सामंत को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण से उत्पन्न बताया गया है।
इसके संबंध में वे एक और उदाहरण देते हैं और बताते हैं कि राजशेखर जो एक ब्राह्मण था उसका विवाह अवंति की राजकुमारी के साथ होना ही चौहानों की ब्राह्मणों से से उत्पत्ति का ठोस प्रमाण है।
इसके अतिरिक्त डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने भी मेवाड़ के गुहिलोतों अथवा गहलोतों को नागर जातीय ब्राह्मण गुहेदत्त वंशीय बताया है।
मेवाड़ के शासक महाराणा कुंभा ने भी जयदेव कृत गीत गोविन्द की टीका में यह स्वीकार किया कि गुहिलोत, नागर ब्राह्मण गुहेदत्त की सन्तान हैं।
किन्तु कुछ अन्य इतिहासकार (मुख्य रूप से डॉ. दशरथ शर्मा) इस मत को पूर्णतया अस्वीकार करते हैं। इस संबंध में वे तर्क देते हैं कि कई बार राजपूत अपने पुरोहित का गोत्र अपना लेते हैं, इसी कारण यह भ्रान्ति उत्पन्न हुई है कि राजपूत बराह्मणों से उत्पन्न हैं। इस प्रकार डॉ. दशरथ शर्मा ब्राह्मण मत को सिरे से ख़ारिज कर दिया है।
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6 राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत
जेम्स टॉड जिन्होंने राजस्थान का इतिहास विस्तार से लिखा है कहते हैं कि, “राजपूत विदेशी जातियों शक अथवा सीथियन के वंशज हैं जिन्होंने भारतीय रीति-रिवाजों को अपना लिया।’
इसी तरह टॉड महोदय ने अग्निकुण्ड सिद्धांत को स्वीकार करते हुए इसी आधार पर राजपूतों को विदेशी जाति से संबंधित बताया है।
उनका मानना है कि यह कुछ जंगली और लड़ाकू विदेशी जातियाँ छठी शताब्दी के मध्य में आक्रमणकारी के रूप में भारत पहुंची और इन्हीं विदेशी जाति के आक्रांताओं को, जब वे विजेता बन बैठे तो उन्हें ब्राह्मण संस्कार यानि यज्ञ विधि से शुद्ध कर वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय वर्ण में प्रविष्ट कराया गया।
इस तरह टॉड ने राजपूतों को शक व सीथियन जैसी विदेशी जातियों से उत्पन्न कहा है इसके संबंध में तर्क दिया है
वे कहते हैं कि राजपूतों के सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाज शक, सीथियन और हूणों जैसी विदेशी जातियों से मिलते हैं, जैसे- अश्वपूजा, अश्वमेध यज्ञ, अस्त्रपूजा, अस्त्र-शिक्षा वीरता और युद्ध में निडर होकर लड़ना आदि अतः दोनों जातियाँ एक ही हैं।
इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने कहा है कि- राजपूत आठवीं या नवीं शताब्दी में अचानक प्रकट हुए और स्मिथ ने राजपूतों का उदय हूणों की संतान के रूप में करते है।
मगर हम गहराई से देखें तो विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि राजपूतों ने कभी खुदको विदेशी नहीं माना वे खुदको भारतीय मानते हैं।
राजपूतों ने स्वयं को चंद्रवंशी और सूर्यवंशी कहा है। शक या सीथियन के रीति-रिवाजों को राजपूतों से जोड़ना पूर्णतया अनुचित है, क्योंकि इस प्रकार के रीति -रिवाज शक-कुषाणों और अन्य विदेशियों के आने के पूर्व भी प्राचीन भारत में प्रचलित थे। सूर्य की पूजा ऋग्वैदिक काल से ही प्रचलित थी और अश्वमेध यज्ञ का प्रमाण हमें शुंगकाल में भी मिलता, जैसा कि महाकाव्यों के साक्ष्य से सिद्ध होता है।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर दें कि इस सिद्धांत को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है और इसे कपोल कल्पित कहा जाता है।
लेकिन ऐसा भी नहीं कि चंदरबरदाई के इस कथन और प्रसंग को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया जाये। इसके आधार पर विद्वानों ने तर्क दिए हैं।
विद्वानों का मानना है कि बौद्ध काल में जिन क्षत्रियों ने ब्राह्मण धर्म त्याग कर बौद्ध और कुछ ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तथा कुछ जंगली जातियों यथा आदिवासी भील, मीणा इसके अतिरिक्त भारत में आने वाली विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों शक, हूण, कुषाण, यूची पह्लव आदि की यज्ञ (अग्नि) द्धारा शुद्धि करके पुनः ब्रह्मण धर्म में वापसी करके क्षत्रिय वर्ण में शामिल किया गया हो और यह कथा इसी घटना की साहित्यिक प्रस्तुति हो।
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निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में उपरोक्त विवरण के अध्ययन से स्पष्ट है कि राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में काफी मतभेद है।
ऐसी स्थिति में अधिकांश विद्वान राजपूतों को भारतीय आर्यों का वंशज स्वीकार करते हैं, जिनमें विदेशी रक्त भी मिश्रित था। मगर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शक, सीथियन, कुषाण और पह्लव जैसी लड़ाकू जातियों ने भारतीय परम्पराओं और रिवाजों तथा धर्म को स्वीकार कर स्वयं को भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग बना लिया। उनकी वीरता और लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण वे राजपूतों में आसानी से स्थान पाने में भी सफल रहे।
अतः यह भी स्थापित है कि जो भी विदेशी समुदाय भारत में आये और स्थायी रूप से बस गये, उन्होंने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अपनाया तथा हिन्दू समाज ने उन्हें आत्मसात किया। डॉ. कानूनगो ने सही लिखा है, “अग्निकुंड का सिद्धांत इस प्रगतिशील युग में स्वीकार करना सिर्फ एक कल्पना मात्र है, और राजपूतों की सूर्य या चंद्रमा से उत्पत्ति एक मिथक हो सकती है। राजपूत जातियों की उत्पत्ति का कोई एक सर्वमान्य सिद्धांत नहीं हैं।”
लेकिन यह सच है कि इतिहास में उन्होंने वैदिककलीन विधि-विधानों और महाकाव्य युग के क्षत्रियों की परंपराओं को संरक्षित रखा है।”