औपनिवेशिक शासन का भारतीय व्यापार पर प्रभाव- आयात और निर्यात के संबंध में

औपनिवेशिक शासन का भारतीय व्यापार पर प्रभाव- आयात और निर्यात के संबंध में

Share this Post

भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत में आगमन एक नई संस्कृति और सभ्यता के साथ साथ व्यापार और आर्थिक स्थिति पर भी युगांतकारी परिवर्तन के रूप में हुआ। अंग्रेजों ने जिस तरह एक साधारण व्यापारी के रूप में प्रवेश किया था, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी नीतियों और कार्यों से भारत की कृषि और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करना शुरू कर दिया। आज इस लेख के माध्यम से हम ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था का भारतीय व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ा? लेख को अंत तक अवश्य पढ़े।

औपनिवेशिक/उपनिवेशवाद किसे कहते हैं?

इस पाठ में आगे बढ़ने से पहले यह जरुरी है कि हम उपनिवेशवाद की सही परिभाषा और अर्थ जानने लें। सामान्य तौर पर जब कोई शक्तिशाली देश किसी अपेक्षाकृत कमजोर देश पर अधिकार कर लेता है और उसके संसाधनों का प्रयोग मनमाने तरीके से स्वयं के लाभ के लिए करने लगता है तब यही कमजोर देश उसका उपनिवेश बन जाता है। इसी प्रकार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत पर कब्ज़ा कर उसकी प्राकृतिक सम्पदा जैसे, वन, कृषि से लेकर सभी चीजों का प्रयोग अपने हितों के लिए किया। आइये इस लेख के माध्यम से जाने कि औपनिवेशिक शासन का भारतीय व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ा?

ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भारतीय व्यापार पर प्रभाव

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश के आर्थिक जीवन में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि व्यापार के दो पहलू होते हैं—आंतरिक और बाह्य

आंतरिक पहलू

किसी भी देश का आंतरिक विकास उसके उत्पादन और निर्यात को निश्चित करता है। यह उन राज्यों पर लागू होता हैं जो स्वतंत्र और अपने निजी मामलों को स्वयं निश्चित करते हैं। विदेशी राज्य देश की आंतरिक अर्थव्यवस्था तथा निर्यात को निश्चित करते हैं। यह उन राज्यों पर लागू होता है जो विदेशी सत्ता के अधीन होते है। भारत इस श्रेणी के अंतर्गत आता है।

औपनिवेशिक सरकार ने भारत के व्यापार को अपने हितों के लिए निश्चित कर दिया था। उपनिवेशवाद के प्राभाव के कारण भारत में एक वाणिज्यिक क्रांति आई जिसके परिणामस्वरूप संपूर्ण भारत विश्व बाज़ार से जुड़ गया, यानि भारत अब भूमंडलीकरण का हिस्सा बन गया। परंतु उसका स्थान ब्रिटिश राज्य के अधीन रहा।

19वीं शताब्दी के मध्य से भारत का विदेशी व्यापार, मूल्य और आकार दोनों ही दृष्टियों से, फल-फूल रहा था। 1835 में आयात 8 करोड़ पौंड था जो 1857 में बढ़कर 29 करोड़ पौंड हो गया। साथ ही इस काल में निर्यात 8 करोड़ पौंड से बढ़कर 27 करोड़ पौंड हो गया।

आगे आप जान सकते हैं कि इन सकारात्मक कारणों के परिणामस्वरूप यह प्रवृत्ति 1857-1893 में यह गति और भी तीव्र हो गई।

(1) यातायात व्यवस्था में सकारात्मक सुधार

(क) रेलों के कामों के पूरा होने से और अधिक सड़कों के निर्माण के फलस्वरूप पहली बार भारत के गाँवों में फैक्ट्रियों के द्वारा बनाया गया तैयार माल पहुँचने लगा जिसके लिए वे प्रारंभिक और कच्चा माल निर्यात करते थे। परंतु इसमें महत्वपूर्ण बात यह थी कि मिलों के द्वारा बनाए गए इस माल का भारत में नहीं बल्कि इंग्लैंड में निर्माण किया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश उद्योगों को प्रोत्साहन मिला, स्पष्ट है भारतीय उद्योगों को इसका कोई लाभ नहीं मिला।

(ख) 1869 में स्वेज नहर खोल दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप यूरोप भारत के चार-पाँच सौ मील क़रीब आ गया। इसके कारण भारत के विदेशी व्यापार में अधिक वृद्धि हुई जो 1868-69 में 70 करोड़ पौंड से बढ़कर 1913-14 में 200 करोड़ पौंड हो गई।

(ग) जहाजों की संख्या बढ़ जाने के कारण जहाजों के किरायों में कमी आ गई।

(2) भारत के लिए मुक्त व्यापार

(3) विदेशी मुद्रा का महत्व

(4) देश में शांति और सुव्यवस्था के स्थापित होने के कारण

परंतु इन सभी तत्वों के प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी थीं, जैसे देश में अकाल और 1870-79 में विदेश वाणिज्य संकट इसके अतिरिक्त 1871 में एक रुपए का मूल्य 2 शिलिंग था जो 1882 से घटकर 1 शिलिंग रह गया। परंतु इन सभी संकटों के होते हुए भी 1890 के बाद भारत के विदेशी व्यापार की मात्रा में वृद्धि हुई। निम्नलिखित तालिका स्पष्ट करती है कि 19वीं शताब्दी के दौरान भारत के व्यापार में किस प्रकार वृद्धि हुई:

19 वीं सदी के दौरान भारतीय व्यापार में वृद्धि

अवधिऔसत वार्षिक आयात (लाख रुपये में)औसत वार्षिक निर्यात (लाख रुपये में)
1834-5 से 1938-97.3211.32
1849-50 से 1853-415.8520.02
1859-60 से 1863-441.0641.17
1869-70 से 1873-541.3357.84
879-80 से 1883-8461.8180.41
1889-90 से 1893-488.70108.67
1890-1900 से 1903-04110.69136.59
1904-5143.92174.14

19वीं शताब्दी में भारत के आयात और निर्यात में परिवर्तन

19वीं शताब्दी में भारत के आयात और निर्यात की वस्तुओं में भी भारी परिवर्तन देखा गया। 1813 से पहले भारत उत्पादित माल का निर्यात करता था और कीमती धातु और भोग-विलास की वस्तुओं का आयात करता था। परंतु 1850 के बाद स्थिति इसके विपरीत हो गई, अब भारत कच्चे माल और भोजन-सामग्री का निर्यात और उसके बदले में तैयार माल का आयात करने लगा। यानि अब वह एक उपभोक्ता के रूप में परिवर्तित हो गया।

सूती, रेशमी और अन्य प्रकार की परंपरागत वस्तुओं के स्थान पर अब कृषि से उत्पन्न हुआ माल, जैसे कपास, पटसन, चाय, कॉफ़ी, अफ़ीम, तिलहन, गेहूँ और चावल आयात होने लगा। इनमें से 1881-82 की तुलना में 1904-5 में 17 से 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई। आयात के क्षेत्र में मुख्य रूप से सूती धागा, मशीनरी, धातु, चीनी, तेल मुख्य थे, 1881-82 से 1904-5 के अंतर्गत कुल सूती कपड़े का आयात 24 से 39 प्रतिशत था।

19वीं शताब्दी में भारत के विदेशी व्यापार ने एक नया मोड़ लिया। एक तरफ तो लोहे, इस्पात और मशीनरी का आयात होने लगा और दूसरी ओर सूती कपड़ा और पटसन के द्वारा निर्मित माल एक बार फिर से निर्यात होने लगा।

19वीं शताब्दी में भारत के विदेशी व्यापार की एक मुख्य विशेषता यह थी कि निर्यात आयात से कहीं अधिक था, केवल 1856 से सात वर्ष छोड़कर।

दूसरे, इस काल में भारत के व्यापार का बहुमुखी विकास हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत ब्रिटेन से आयात के दामों की बढ़ोतरी को अन्य राज्यों को निर्यात की बढ़ोतरी के दाम से अदा कर सकता था। प्रथम महायुद्ध के बाद इस बहुमुखी व्यापार की प्रणाली में बाधा उत्पन्न हो गई और अनेक कारणों के फलस्वरूप व्यापार की दोहरी प्रणाली समाप्त हो गई।

निर्यात अधिशेष के निरंतर लेखे के फलस्वरूप, जिसको व्यापार का अनुकूल संतुलन कहते है, देश पर एकाकी खजाने को तबदीली लागू कर दी।

(1) 1870 से 1939 तक लगातार निर्यात अधिक हुआ और आयात कम हुआ। साधारण तौर पर कुछ वर्षों के अंदर निर्यात और आयात में संतुलन हो जाना चाहिए था, परंतु भारत के संदर्भ में ऐसा नहीं हुआ।

भारत के निर्यात का इस प्रकार लगातार विकास, भारत की खुशहाली का प्रतीक नहीं था, परंतु यह ब्रिटिश राज्य की माँगों की पूर्ति के लिए किया गया था। इसका कारण यह था कि भारत ब्रिटेन के अधीन था और इसलिए भारत को उन सेवाओं पर खर्चों का बोझ सहन करना पड़ता था जो इंग्लैंड भारत को प्रदान करता था। अतः भारत के विदेशी व्यापार का प्रभाव भारत के औद्योगिक विकास में निर्धनता का कारण था। दादाभाई नौरौजी ने, जो कि स्वयं एक अर्थशास्त्री थे, इसको भारत का दोहन बताया है।

18वीं और 19वीं शताब्दी के यूरोपीय व्यापारिक क्षेत्र में अधिक निर्यात राष्ट्र के लिए हितकारी माना जाता था। यहाँ केवल औपनिवेशिक संदर्भ में ही निर्यात से अधिक आयात को राष्ट्र के ‘दोहन’ का कारण माना गया है। यह निश्चित करना कि क्या अधिक निर्यात देश के लिए हितकारी था, इस बात पर निर्भर है कि इस अधिक निर्यात का किस रूप से प्रयोग किया जाता है।

भारत अपने अधिक निर्यात के लिए जिन पाँच वस्तुओं का आयात करता था वे इस प्रकार थीं:

(i) सेवा और खजाने जो ब्रिटिश सरकार भारत को प्रदान करती थी;

(ii) अनेक प्रकार का उत्पादित माल भारत निजी रूप से आयात करता था;

(iii) अनेक प्रकार की मूल्यवान धातुएँ

(iv) अनेक प्रकार की अप्रत्यक्ष व्यापारिक सेवाएँ;

(v) अनेक प्रकार की वे सेवाएँ जो यूरोपीय भारत में रहकर भारत को प्रदान कर रहे थे और जिसे भारत के लिए मानवीय आयात कह सकते हैं।

गृह शुल्क भारत के विदेश व्यापार की एक मुख्य विशेषता यह थी कि यहाँ निर्यात अधिक और आयात कम होता था। यह विशेषता मुख्य रूप से भारत और इंग्लैंड के बीच हुए व्यापार के संदर्भ में ठीक है। इसमें दो प्रकार की वस्तुएँ सम्मिलित थीं। एक वह सूची थी जिसमें गृहशुल्क, राजनीतिक कार्यों के लिए कटौती, भारत में पंजीकृत विदेशी पूंजी पर ब्याज, विदेशी कंपनियों को दिया गया माल और यात्री भाड़ा, बैंकिंग कमीशनों पर भुगतान आदि चीजें शामिल थीं।

इन सबके बदले में भारत को सुरक्षा, सुव्यवस्था और शांति प्राप्त थी जो कि उसके लिए बहुत महंगी पड़ती थी। अग्रलिखित तालिका से इसकी जानकारी प्राप्त होती है….

भारत से ब्रिटेन तथा अन्य देशों को जाने वाला वार्षिक नज़राना (1921-22)

लाख रुपयों में लाख पौंड़ों में
राजनीतिक कामों के लिए कटौती 5000 3335000333
भारत में पंजीकृत विदेशी पूँजी पर ब्याज 6000 4006000400
विदेशी कंपनियों को दिया गया माल और यात्री भाड़ा 4163 2774163277
भारत में विदेशी व्यापारियों और व्यवसाय में लगे लोगों का मुनाफ़ा 1500 1001500100
विविध 5,325 3555325355
कुल योग 21,988 1,465219881465

ब्रिटिश ऋण द्वारा रेलवे और सिंचाई साधन कहीं अधिक स्पष्ट रूप से विकसित किए गए। इस प्रकार का ऋण भारतवर्ष को किसी भी परिस्थिति में 19वीं शताब्दी में नहीं प्राप्त हो सकता था।

लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इन सबके निर्माण और विकास से ब्रिटेन के उद्योगों को प्रोत्साहन मिला, न कि भारतीय उद्योगों को। इन सबसे प्रत्यक्ष रूप से भारत के व्यापार और कृषि को प्रोत्साहन मिल सकता था परंतु भारत में जिस प्रकार रेलों का निर्माण हुआ उससे यह लाभ नहीं हो सका।

इन सबके निर्माण से भारत की खाद्य उत्पादन करने वाली अर्थव्यवस्था को हानि पहुँची। उसकी सारी अर्थव्यवस्था को निर्यात वाणिज्य की ओर मोड़ दिया {व्यवसायीकरण} जो कि औपनिवेशिक नीति द्वारा अनुशासित था।

अंत में लाभरहित ऋण जो कि समय के साथ बढ़ता – रहा और जिस पर ब्याज भी बढ़ता रहा और कुल गृह शुल्क भारत की पूर्ण अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ – था। नीचे तालिका में 1913-14 से 1933-34 के दौरान बढ़ते हुए गृह शुल्क को दर्शाया गया है।

बढ़ता हुआ गृह शुल्क

वर्ष मूल्य (पौंडों में)
1913-14 20,311,673
1918-19 23,629,495
1924-25 31,888,776
1928-29 31,558,715
1929-30 31,556,715
1933-34 28,862,177

नील, पटसन, चाय, कच्ची कपास, बीज, खाद्य सामग्री, चमड़े के निर्यात में वृद्धि से भारत की अर्थव्यवस्था का विकास नहीं हुआ बल्कि यह भारत के ऊपर जो ऋण का बोझ था उसकी मज़बूरी को प्रस्तुत कर रहा था।

दूसरी सूची स्पष्ट तौर पर वस्तुओं की थी। बैंक सेवाओं, बीमा कंपनियों, जहाजरानी, विदेश उद्योगों पर लाभ (जैसे बागानों पर), पटसन का उत्पादन, खाद्यों, निजी अदायगी, आदि सेवाओं पर ब्रिटेन ने वास्तव में एकाधिकार स्थापित किया हुआ था।

अपनी राजनीतिक सत्ता के कारण उसने अन्य विदेशी प्रतिद्वंद्वियों को इस क्षेत्र से वंचित कर रखा था। अपने एकाधिकार द्वारा उन्होंने भारतीय उद्योग को भी इस क्षेत्र से निकाल दिया था। किसी भी भारतीय जहाज़ को समुद्र के किनारे या समुद्र के पार नहीं करने दिया जाता था। अगर स्वतंत्र प्रतिद्वंद्विता होती तो इन अस्पष्ट सेवाओं की तरह भारत स्वयं अपने उद्योग को स्थापित कर लेता।

19वीं शताब्दी के दौरान भारत काफ़ी मात्रा में उत्पादित माल प्राप्त करने लगा। ये अधिकत उपभोग सामग्रियाँ थीं और बाद में कुछ मशीने, यंत्र और मिलों में प्रयोग में लाई जाने वाली चीर थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले भारतवर्ष का मुख्य सामान सूती कपड़ा, धातु निर्मित सामग्री चीनी, तेल, ऊन, रेशमी कपड़ा, मशीनें और मिलों द्वारा निर्मित सामान था।

वाणिज्यीकरण का गांव में प्रवेश

मशीनों द्वारा निर्मित यह सामान अधिकतर गाँवों में प्रवेश करने लगा। पहली बार शहरी उद्योगों के लिए गाँवों का बाज़ार प्राप्त हुआ और गाँवों को अपने कच्चे माल के लिए कुछ लाभकारी वस्तुएँ मिलने लगीं। परंतु यह ग्रामीण बाजार प्रायः ब्रिटिश शहरी उद्योगों द्वारा अनुशासित था और इस प्रकार से स्थापित एकाधिकार के कारण भारत के संगठित उद्योग का विकास नहीं हो सका।

भारतवर्ष काफ़ी मात्रा में सोना और चाँदी भी आयात करता रहा, उसमें से चाँदी की मात्रा सोने से अधिक थी। वस्तुओं के निर्यात के बदले चाँदी भारतवर्ष में, में भारी मात्रा में आयात होती रही।

भारतवर्ष कृषि से उत्पादित माल निर्यात करता रहा और चूँकि यह धातु-व्यापार लगातार संकट में रहा, भारत को इस विनिमय से काफ़ी हानि पहुँची। स्वर्ण का आयात पारंपरिक उद्देश्य के कारण (जैसे कि आभूषणों को एकत्रित करने के लिए) किया जाता था। अधिकतर मात्रा में जो सोना आयात किया जाता था वह शहरी और ग्रामीण जनता में बँट जाता था। भारतवर्ष की अविकसित कृषि अर्थव्यवस्था, जो कि मौसम पर आधारित थी, स्वर्ण के आयात से और भी विचलित रही।

अंत में भारतवर्ष ने गोरे व्यापारी व्यावसायिकों और प्रशासनिक सेवाओं का आयात किया। यह एक सच्चाई है जो कि निजी लेखे से प्रदर्शित होती है। इससे उसका काफ़ी निर्यात अधिशेष समाप्त हो गया। भारत को इस श्वेत व्यावसायिक मजदूर वर्ग से जो लाभ हुआ वह था आधुनिक व्यापारी तथा औद्योगिक संगठन और कानून एवं शासन का एकाकी रूप। इस वर्ग के आयात से भारत के लोगों को उच्च प्रशासकीय सेवाओं में स्थान प्राप्त न हो सका।

भारतवर्ष के औपनिवेशिक विदेशी व्यापार की नीति से देश की अविकसित अर्थव्यवस्था का ठीक से गठन नहीं हुआ। आधुनिक औद्योगिक विकास और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आपसी संबंध बिलकुल भी नहीं था। चाय और पटसन के अधिक निर्यात से कलकत्ते में स्थित यूरोपीय मैनेजिंग एजेंसियों को लाभ हुआ परंतु चाय उत्पादनकर्ताओं और पटसन के श्रमिकों को उतना लाभ नहीं हुआ

पूँजी के निर्माण में कुछ बढ़ोतरी होने के बजाय ग्रामीण आय से बढ़ती हुई विदेशी चीजों का आयात हुआ, जैसे मानचेस्टर का कपड़ा, लिवरपूल का नमक और गाँवों के लिए ब्रिटेन की चीनी। इसके फलस्वरूप स्थानीय उद्योगों के विकास में बाधा पड़ी।

19वीं शताब्दी में इस सामाजिक अर्थव्यवस्था के टूटने से स्वदेशी पूँजी की बढ़ोतरी में विघ्न पड़ा। इससे यह काफ़ी कुछ स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ तक भारतीय औद्योगिक विकास इतना निम्न कोटि का क्यों था?

1900 और 1913 के बीच भारतीय वस्तुओं की माँग बढ़ी। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की दर बढ़ती रही। व्यापार में इस प्रकार की वृद्धि से भारत की अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से को लाभ पहुँचा। इस काल के कर की दर में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा भारत का अधिशेष माल निकाल देने के परिणामस्वरूप व्यापार की इस वृद्धि से समाज के जिस वर्ग को लाभ हुआ वह था साहूकार वर्ग यह वर्ग। यह वर्ग स्थानीय उत्पादकों को ऋण देता था और परिवहन का प्रबंध करता था। साथ ही आयात तथा निर्यात करने वाली उन फ़र्मों को लाभ हुआ जो इस कार्य में लगी हुई थीं।

परंतु इससे हमें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए कि उत्पादक को अपने परिश्रम का उचित दाम नहीं मिलता था। यह स्पष्ट है कि भारत के जिन हिस्सों में कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ था और जिनमें कृषि वस्तुओं को निर्यात के लिए उत्पादन किया जाता था उन हिस्सों में किसान को सस्ती दर पर ऋण मिल जाता था और उसके माल के लिए उसको जो कीमत दी गई वह संसार के बाज़ार में प्रचलित कीमतों की अपेक्षा कहीं अधिक थी। 1913 में केवल बंगाल के पटसन के बाज़ार को छोड़कर, अंतर्राष्ट्रीय फ़र्मों में कोई टकराव नहीं था।

परंतु निर्यात के इस प्रकार बढ़ने से

उद्योगों के विकास में बाधा उत्पन्न हुई। 1905 के स्वदेशी आंदोलन के परिणामस्वरूप आधुनिक उद्यमों का विकास हुआ जिसका भारत के विदेश व्यापार पर दो तरह से प्रभाव पड़ा। पहला, उत्पादित माल के निर्यात में दिन-ब-दिन कमी होती गई। दूसरे, मिलों के द्वारा निर्मित सूती धागे, सूती कपड़े के टुकड़ों और पटसन से बने हुए माल का अब भारत में निर्यात होने लगा।

भारत के विदेश व्यापार ने एक और नया मोड़ लिया। अब भारत का विदेश व्यापार उन राज्यों के साथ विकसित होने लगा जो साम्राज्य के अंतर्गत नहीं आते थे।

ब्रिटेन के उत्पादित माल को भारत की मंडी में अमरीका और अन्य महाद्वीपीय राज्यों के माल के साथ मुक़ाबला करना पड़ा। भारत का व्यापार जापान और सुदूर पूर्व वाले राज्यों के साथ अधिक चलने लगा, क्योंकि उनका माल भारत के लिए अधिक उपयुक्त था।

अब ब्रिटेन जो माल भारत को निर्यात करता था वह 1866-70 के 53 प्रतिशत से 1909-13 के बीच 26 प्रतिशत रह गया। 1900 में भारत का आयात 69 प्रतिशत था और 1914 में यह गिरकर 64 प्रतिशत रह गया जबकि इसी अवधि में जर्मनी ने जो आयात किया था वह 14 प्रतिशत से बढ़कर 69 प्रतिशत हो गया। पिछली तालिका से यह स्पष्ट होता है कि 1913-24 के देशन भारत के विदेश व्यापार ने क्या रुख लिया।

आयात तथा निर्यात और विदेश व्यापार का संतुलन, 1913-14

राज्य निर्यात आयात व्यापार का संतुलन
यूनाइटेड किंगडम और ब्रिटिश 117 58 -5911758-59
राज्य के अन्य भाग 1 36 +25136+25
संपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य 128 94 -3412894-34
यूरोप 30 85 -553085-55
अमरीका 5 22 +17522+17
जापान 5 23 +18523+18
अन्य विदेशी राज्य 15 25 +101525+10
कुल विदेशी राज्य 55 55 +1105555+110
कुल योग183249+66

Also Readभारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद: कृषि पर प्रभाव, शिक्षा पर प्रभाव, आर्थिक प्रभाव , सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक प्रभाव

उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि केवल यूनाइटेड किंगडम को छोड़कर दूसरे देशों के साथ भारत का निर्यात अधिशेष उसके आयात अधिशेष की कीमतों की पूर्ति करता था और यूनाइटेड किंगडम के साथ अपने ऋण चुकाने में सहायता करता था।

द्वितीय महायुद्ध तक भारत के विदेश व्यापार की रूपरेखा, 1914-39

प्रथम महायुद्ध के परिणामस्वरूप भारत के विदेश व्यापार को भारी आपात पहुँचा और बुद्ध के बाद यह व्यापार आधा रह गया। इस काल में उसका आयात, निर्यात की तुलना में काफी कम हो गया। इसका कारण यह था कि आयात उपलब्ध करना बहुत कठिन था।

आयात की कीमतें निर्यात की अपेक्षा बहुत शीघ्र अधिक हो गई क्योंकि निर्यात की क़ीमतें मित्र देशों के हितों के लिए नियंत्रित थीं। इस प्रकार व्यापार की शर्तें भारत के विरुद्ध रहीं। आयात की भारी कमी के कारण भारत के पास निर्यात अधिशेष बढ़ता चला गया।

सरकारी और गैरसरकारी दोनों लोगों का यह मत था कि यह भारत की उन्नति का लक्षण था।’ परंतु यह निर्यात अधिशेष भ्रामक था क्योंकि राष्ट्र मूल आवश्यकताओं की पूर्ति से भी वंचित था।

भारत के विदेश व्यापार की अवनति के अनेक कारण थे- (क) व्यापार के क्षेत्रों का संकुचित होना (1) शत्रु राज्यों के साथ व्यापार स्थगित होना,
(2) मित्र देशों के साथ व्यापार का वास्तविक रूप से सहमत होना क्योंकि परिवहन की कठिनाई थी, और
(3) तटस्थ राज्यों के साथ सीमित

व्यापार विधि (निषेध और रोक की नीति के फलस्वरूप) ताकि यह देश शत्रु देशों को माल न दे सके। (ख) वाणिज्य का कम क्षेत्र (1) यूरोपीय शत्रु देश और तटस्थ देश युद्ध की आवश्यक सामग्री के उत्पादन में लगे होने के कारण निर्यात करने में असमर्थ थे, (2) वाणिज्य पर आंतरिक और बाहरी प्रतिबंध, (3) वित्त और ऊँचे शुल्क की कठिनाई के कारण आयात और निर्यात पर कठोर नियंत्रण। इन सबसे हमारा विदेश व्यापार प्रभावित हुआ और अमरीका और जापान से आयात बढ़ने लगा, (4) हथियारों के निर्यात में बढ़ोतरी। (ग) जहाज की भार क्षमता में कमी (1) शत्रु देशों के जहाजों का वापस ले लिया जाना, (2) मित्र देशों के जहाजों का वापस ले लिया जाना।

भारत का अन्य देशों से निर्यात

वर्ष यूनाइटेड किंगडम अमरीका
1935-36 31.37 5.6
1937-38 29.9 7.6
1939-40 25.2 9.0

इससे यह स्पष्ट है कि यूनाइटेड किंगडम में भारत से आयात कम होता गया और अमरीका में भारत से आयात बढ़ता गया। यह सब उस समय हुआ जब ब्रिटेन संरक्षात्मक नीति को अपना रहा था जिसका ध्येय शुरू में भारत के नवोदित उद्योगों को सहायता देना था परंतु बाद में वह साम्राज्यवादी प्राथमिकता में बदल गई और ब्रिटिश उद्योगों को सहायता प्रदान करने लगी।

निष्कर्ष

इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि यद्यपि ब्रिटेन भारत के साथ व्यापार का एक मुख्य साझेदार रहा फिर भी उसकी आयात और निर्यात की स्थिति दिन-प्रतिदिन गिरती गई क्योंकि अब भारत बहुत-सी ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कर रहा था जिनका पहले ब्रिटेन से आयात कर रहा था। एक कारण यह भी है कि अब यह ब्रिटेन के साथ सफलतापूर्वक होड़ कर रहा था।

द्वितीय महायुद्ध के बाद भारत का आयात और निर्यात उन सब देशों के साथ कम होता गया जो स्टर्लिंग मुद्रा नीति को अपनाए हुए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रिटेन, जिसका कि भारत के आयात और निर्यात में महत्वपूर्ण स्थान था, अब गौण हो गया। इस प्रकार 1938-39 में यूनाइटेड किंगडम का भारत में आयात का हिस्सा केवल 31 प्रतिशत रह गया।

द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका भारत के व्यापार का एक मुख्य साझेदार हो गया। अमरीका भारत को अब उपयोगी सामान देने लगा और भारत से कच्चा माल मँगाने लगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि युद्ध के समय वहाँ की उत्पादन क्षमता में काफ़ी वृद्धि हुई।

Sources भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद – डॉo सत्या एम. राय पृष्ठ 80-87
Share this Post

Leave a Comment