|

भारत को आज़ादी कैसे मिली: एक ऐतिहासिक अवलोकन | स्वतंत्रता दिवस पर विशेष आलेख

Share this Post

इस साल भारत अपना 76वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है यानी भारत अपने आज़ादी के 76 वर्ष पूरे कर 77वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है और बहुत से लोग यह भी जानना चाहते हैं कि भारत को आज़ादी कैसे मिली? आज़ादी और गुलामी का इतिहास लगभग एक साथ चलता है। यद्यपि इस लेख में हम केवल आज़ादी का इतिहास पर संछिप्त चर्चा करेंगे। चलिए जानते हैं कि भारत को आज़ादी कैसे मिली: एक ऐतिहासिक अवलोकन। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

भारत को आज़ादी कैसे मिली: एक ऐतिहासिक अवलोकन | स्वतंत्रता दिवस पर विशेष आलेख

Table of Contents

आज़ादी का इतिहास

अनेक वर्षों से भारतीय राष्ट्रवाद के घटनाक्रम को उसके सामाजिक एवं ऐतिहासिक संदर्भ में पढ़ने का प्रयास किया जाता रहा है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दृश्य में परिवर्तन आते रहे और उससे संबंधित साहित्य इकट्ठा होता रहा उभरते हुए विभिन्न दृश्यों को प्रस्तुत करते हुए इतिहासकार विभिन्न प्रश्न उठाते रहे, जैसे भारत की राष्ट्रीय स्वाधीनता कैसे आई? क्या यह आज़ादी सिर्फ एक व्यक्ति, वर्ग या पार्टी की बदौलत आई अथवा इसमें विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों का योगदान रहा?

इन प्रश्नों के संदर्भ में जो साहित्य उपलब्ध है और जिसमें इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश की गई है उसमें वैज्ञानिक दृष्टि (scientific approach) का नितांत अभाव है। भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्रवृत्तियों को समझने के लिए उन आर्थिक, राजनैतिक, समाजिक, शैक्षिक सांस्कृतिक एवं वैचारिक धाराओं और आंदोलनों को समझना अत्यंत आवश्यक है।

भारत में राष्ट्रीयता के विकास की प्रक्रिया बड़ी जटिल रही है। अंग्रेजों के आने से पहले भारत की सामाजिक संरचना कई अर्थों में अद्वितीय थी और यहाँ की अर्थव्यवस्था यूरोपीय देशों के प्राक् पूँजीवादी समाजों से अलग थी।

ब्रिटेन ने अपने स्वयं के हितों को साधने के लिए भारतीय समाज के आर्थिक ढाँचे में आमूल परिवर्तन कर दिए, केंद्रीभूत राज्य-व्यवस्था की स्थापना की, आधुनिक शिक्षा-पद्धति, नई संचार व्यवस्था तथा अन्य नई संस्थाओं का निर्माण किया, जिसके फलस्वरूप नए सामाजिक वर्गों का उदय हुआ, भारतीय जनता में नई चेतना प्रस्फुटित हुई और राष्ट्रीय संघर्ष का आधार व्यापक से व्यापकतर होता गया।

भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन जैसे-जैसे एक चरण से दूसरे चरण की ओर बढ़ा इसके सामाजिक आधार के व्यापक होने के साथ-साथ नए अर्थतंत्र के फलस्वरूप पैदा हुए नए वर्गों में सामाजिक और राजनैतिक चेतना बढ़ती गई। जहाँ अनेक देशों में सामाजिक, आर्थिक और संरचनात्मक बदलाव आए वहाँ भारतीय जन-जीवन में भी तूफानी गति से परिर्वतन हुए। इस समय में भारतीय -जनता सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तनों के दौर से गुजरी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की घटनाओं की गति बहुत तेज़ थी। इस समय राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए भारतीय जनता का संघर्ष बहुत तेज़ हो गया।

द्वितीय महायुद्ध और ब्रिटिश सरकार द्वारा मनमाना रवैया

1939 में नई ब्रिटिश सरकार ने जब जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की तो ठीक उसी रवैये को अपनाने की कोशिश की जो प्रथम महायुद्ध के समय अपनाया गया था। युद्ध की घोषणा के कुछ ही समय बाद वाइसराय ने, भारतीय, जनता के प्रतिनिधियों से कोई सलाह किए बिना ही, भारत को युद्ध में शामिल घोषित कर दिया। ब्रिटिश संसद में ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया अमेटिंग ऐक्ट’ भी पास कर दिया गया, जिसके अंतर्गत वाइसराय को संविधान के क्रियाकलाप को रद्द करने की शक्ति प्रदान की गई।

1939 के ‘डिफेंस ऑफ इंडिया ऑर्डिनेंस’ द्वारा केंद्रीय सरकार को अध्यादेश के प्रख्यापन (promulgation) द्वारा शासन करने की शक्ति प्राप्त हो गई। केंद्रीय सरकार राजाज्ञा के द्वारा ऐसे कानूनों की घोषणा कर सकती थी जो ब्रिटिश भारत की रक्षा, जनजीवन की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, युद्ध के कुशल संचालन या समाज के लिए आवश्यक संसाधनों और सेवाओं की आपूर्ति बनाए रखने के लिए आवश्यक समझे जाएं, सभाओं तथा प्रचार के अन्य तरीकों पर पाबंदी लगा सकती थी, बिना किसी वारंट किसी को गिरफ्तार कर सकती थी और कायदे-कानून तोड़ने वाले को जुर्माना, मृत्युदंड या आजीवन कारावास तक की सजा भी दे सकती थी।

इस प्रकार निरंकुश शासन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए असाधारण रूप से कठोर कानून बनाए गए और भारतीय जनता को न चाहते हुए युद्ध में शामिल होना पड़ा। इस प्रकार वाइसराय द्वारा निरंकुश शक्तियाँ ग्रहण करने के कारण और भारत को मनमाने ढंग से युद्ध में शामिल करने के कारण भारतीय जनता में गहरा रोष उत्पन्न हो गया और उसने विरोध की नीति अपनाई।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार

बदलते घटनाक्रम से जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि स्थिति 1914 के समान नहीं थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने युद्ध को साम्राज्यवादी क़रार दिया और इसके साथ जुड़ने से इनकार कर दिया। अपने एक वक्तव्य में इसकी कार्यकारिणी ने घोषणा की, “परिषद् अपने को एक ऐसे युद्ध के साथ संबद्ध नहीं कर सकती अथवा उसे किसी तरह का सहयोग नहीं दे सकती जो कि साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा चलाया जा रहा हो और जिसका उद्देश्य भारत सहित सर्वत्र साम्राज्यवाद को मजबूत बनाना हो।

अतः कार्यकारिणी परिषद् ब्रिटिश सरकार को आमंत्रित करती है कि वह स्पष्ट शब्दों में यह घोषित करे कि जनतंत्र और साम्राज्यवाद तथा नई व्यवस्था के संदर्भ में उनके युद्ध विषयक उद्देश्य भारत पर किस तरह लागू होंगे और वर्तमान में उन्हें कैसे अमल में लाया जाएगा। क्या वे इनमें भारत को एक ऐसे स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देने की बात शामिल करते हैं जिसकी नीति उसकी जनता की इच्छा के अनुकूल चालित होगी?” (सितंबर 1939)।

इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार ने अपना यह वादा दोहरा दिया की भविष्य में भारत को डोमिनियन स्टेटस दे दिया जाएगा। वाइसराय के नकारात्मक उत्तर के कारण अक्टूबर 1939 में सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया।

1940 की गर्मियों में युद्ध का संकट गहरा होता गया, अतः कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के साथ युद्ध में सहयोग करने की इच्छा प्रकट की बशर्ते कि ब्रिटेन भारत के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता को मांग मान ले और ‘केंद्र में एक अस्थायी राष्ट्रीय सरकार’ की स्थापना करें। यह सरकार चाहे अस्थायी तौर पर भले ही हो किंतु केंद्रीय विधानमंडल के सभी निर्वाचित सदस्यों का उसे विश्वास प्राप्त हो।

लेकिन ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मुसलिम समुदाय के प्रतिनिधि, मुसलिम लीग और देशी राजे-रजवाड़े इस पर सहमत नहीं होंगे।

व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा

वार्तालाप द्वारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में बार-बार असफल होने के बाद कांग्रेस ने अंततः अक्टूबर 1940 में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा। ऐसे समय में जब कि कांग्रेस ने स्वयं युद्ध को ‘साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए’ लड़ा जा रहा बताया था और भारत को अपना स्वतंत्रता संघर्ष तेज़ करने का मौका मिला था, कांग्रेस द्वारा जन-आंदोलन या सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन को मना कर दिया जाना यह संकेत देता था कि कांग्रेसी नेतृत्व युद्ध में ब्रिटेन के लिए गंभीर रूप से बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहता था।

रेजिनाल्ड कूपलैंड ने स्वीकार किया है कि “इस आंदोलन से सरकार को कुछ खास कठिनाई पैदा नहीं हुई।”

अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में बदलाव

द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ के समय से अंतर्राष्ट्रीय दृश्य में आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से भारी परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों से भारतीय जनता भी अछूती नहीं रही। विश्व में अंतर्विरोध और वर्ग विरोध बहुत तीव्र हो गए, फलतः मानव समाज का संसार घने संघर्षो का रंगमंच बन गया। भारत में आज़ादी किस प्रकार आई इस तथ्य को समझने के लिए युद्ध के दौरान तथा युद्धोत्तर काल में होने वाले विश्व विकास और आर्थिक ढाँचे को समझना अत्यंत आवश्यक है।

जब लोकतांत्रिक सम्राज्यवादी देशों • ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका और फ्रांस ने फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध अपनी सुरक्षा की, तब विश्व के आर्थिक क्षेत्र के एक बड़े भाग पर उनका नियंत्रण एवं स्वामित्व था।

इस समय जब कि ब्रिटेन, फ्राँस और हॉलैंड के अपने साम्राज्य थे, संयुक्त राज्य अमरीका औपनिवेशिक शक्ति नहीं था, किंतु इसकी आर्थिक स्थिति दिन-पर-दिन बढ़ रही थी और यह विश्व पर स्थायी प्रभुत्व स्थापित कर लेना चाहता था।

इस प्रकार यह युद्ध जहाँ अपने आर्थिक क्षेत्रों को जबरन अपने पास बनाए रखने के लिए था, वहाँ उपनिवेशों को हिंसात्मक ढंग से छीन लेने के लिए भी था।

विशाल अमरीकी साम्राज्यवाद का उदय

युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमरीका को छोड़कर अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों का आर्थिक राजनैतिक और सैन्य पक्ष काफ़ी कमज़ोर हो गया। उनके साम्राज्य में संकट थे, तथा उनकी वित्तीय और आर्थिक स्थिति का गंभीर रूप से ह्रास हुआ था।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीकी साम्राज्यवाद का उदय आर्थिक, राजनैतिक तथा सैन्य क्षेत्रों में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप से हुआ। युद्ध समाप्त होने के बाद अमरीकी पूँजीवाद की उत्पादन शक्ति और पूंजी संचय में तीव्र वृद्धि हुई अतः इसे भी बड़े से बड़े आर्थिक क्षेत्र की जरूरत थी।

अमरीका ने केवल पुराने एशियाई देशों में ही नहीं अपितु उपनिवेशों, अर्धउपनिवेशों, तथा अल्पविकसित नए देशों के व्यापारिक और वित्तीय क्षेत्रों पर धावा बोल दिया और अन्य साम्राज्यवादियों को बाहर निकालने का प्रयास करने लगा। धीरे-धीरे उसने एकमात्र संपन्न और शक्तिशाली पूँजीवाद का विस्तार करते-करते विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के संरक्षक की भूमिका अपना ली।

ब्रिटेन और फ्रांस का सैन्य और आर्थिक ह्रास

युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस की आर्थिक और सैनिक स्थिति बहुत कम हो गई। अपनी अर्थव्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण, उसके पुनरुद्धार के लिए उन्हें अमरीका की ओर देखना पड़ा। आर्थिक रूप से जब ये साम्राज्यवादी देश मातहत हो गए तो उनकी राजनैतिक स्थिति भी निश्चित रूप से लड़खड़ा गई और भारत को भी साम्राज्यवादी शासन के चंगुल से एक सीमा तक मुक्ति मिली क्योंकि यद्यपि राजनैतिक सत्ता हस्तांतरित की गई थी, किंतु यह हस्तांतरण बुर्जुआ वर्ग के हाथों में था, जिससे यहाँ लगी विदेशी पूँजी सुरक्षित रह सके।

रूस एक प्रेरक शक्ति के रूप में

दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप, साम्राज्यवाद के प्रभाव में कमी आने लगी थी। जिस पूँजीवाद ने राष्ट्र को गुलाम बनाकर और उसकी जनता को अमानवीय यंत्रणा भुगतने के लिए मजबूर कर दिया था अब उसकी औपनिवेशिक प्रणाली दहने लगी।

रूसी व्यवस्था ऐसी स्थिति में उपनिवेशों और पराधीन देशों के स्वाधीनता आंदोलनों के सामने एक जबर्दस्त उदाहरण बनी प्रगतिशील भारतीयों ने रूसी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का स्वागत किया और इसे मानव के शोषण तथा उत्पीड़न से रहित उद्घोषक के रूप में एक प्रेरणा माना। भारत में वैचारिक, राजनैतिक और संगठनात्मक दृष्टियों से रूसी व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण कारक बनी। देश में जनव्यापी संगठित कार्रवाई प्रारंभ हुई। मेहनतकश भारतीय मज़दूर वर्ग के गठन में प्रगति हुई तथा बंबई और कलकत्ता में ट्रेड यूनियनें संगठित की गई। इससे पहले की ट्रेड यूनियनें केवल खैराती तौर पर काम कर रही थीं।

भारतीय राष्ट्रीय सं में ‘समाजवाद की स्थापना’ एवं ‘सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व’ जैसे लक्ष्य पहली बार उजागर हुए। औद्योगिक और खेतिहर दोनों तरह के मज़दूरों को संगठित करने पर जोर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट तथा मज़दूर आंदोलन के साथ भारतीय देशभक्तों के नियमित संबंध कायम होने लगे । कम्युनिस्टों ने पहली बार वर्गीय आधार पर मेहनतकशों को संगठित करना शुरू किया उनमें आत्म चेतना फैलाई और समाजवाद के लक्ष्य के प्रति प्रशिक्षण आरंभ किया।

युद्धकाल के दौरान आर्थिक विकास : भारतीय बुर्जुआज़ी के लिए अकृष्ट अवसर और भारतीय पूँजीपतियों की बदलती स्थिति

अपनी आर्थिक और राजनैतिक नीतियों के द्वारा ब्रिटेन ने भारत के स्वतंत्र और तीन उद्योगीकरण में बाधा उत्पन्न की। खास तौर से उसने भारी उद्योगों को विकसित नहीं होने दिया और इस प्रकार एक स्वतंत्र राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के निर्माण को रोका।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटेन तथा अन्य विकसित औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्थाएँ जब युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने में लगी हुई थीं, तब भारतीय उद्योगपतियों को भारतीय बाज़ारों पर कब्जा करने का तथा अपने उद्योगों को बढ़ाने का सुनहरा मौका मिला। मुद्रा-स्फीति बाजार की हालत के कारण, स्थापित उद्योगों में उत्पादन की गति तेज़ी से बढ़ी। इसके बावजूद ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि भारत एक सुदृढ़ औद्योगिक शक्ति के रूप में विकसित हो, क्योंकि बाद में वह स्वयं ब्रिटेन के लिए एक बड़ा प्रतिद्वंद्वी सिद्ध हो सकता था। अतः पूँजी आयात की अनुमति नहीं दी गई।

इसी कारण भारतीय उद्योगपति एक तो नए औद्योगिक उद्यम स्थापित नहीं कर पाए, दूसरे, माल का आयात बंद हो जाने के कारण उन्हें मौजूदा साधनों से जरूरत से ज्यादा काम लेना पड़ा। इसलिए प्रशासनिक ढंग से भारतीय उद्योग युद्धकाल में प्रगति नहीं कर पाए।

लेकिन युद्ध के समय बढ़ती हुई मुद्रा-स्फीति से आम जनता को बहुत कष्ट भोगने पड़े। उन्हें जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी यातनाएँ भोगनी पड़ीं और जीवन मूल्य बढ़ने के कारण जनता गरीब होती गई। फिर भी उद्योगपतियों, विक्रेताओं और व्यापारियों ने बहुत मुनाफा कमाया। इसी समय पूँजीपतियों ने देशभक्त से ओत-प्रोत होने का भी दावा किया और कहा कि वे सदा से राष्ट्रीय हितों के प्रतिनिधि है। उनके इस मंतव्य का कारण था ब्रिटिश शासकों के प्रति उनकी शिकायतें ।

भारतीय व्यापारी और पूँजीपति वर्ग की मुख्य शिकायत यह थी कि उनकी तुलना में यूरोपियों को सरकार द्वारा अधिक सुविधाएँ प्राप्त थीं जब कि भारतीयों पर कठोर अंकुश लगे। हुए धीरे-धीरे औद्योगिक वर्ग में जागरुकता उत्पन्न हुई और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक से ही उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। यह वर्ग इंडियन नेशनल कांग्रेस की ओर आकृष्ट हुआ और इसने विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी को समर्थन देना शुरू किया। इससे इसका वर्ग स्वार्थ पूरा होता था।

स्वदेशी आंदोलन से भारतीय उद्योग को खास बल मिला। गाँधीवादी विचारधारा में प्रतिपादित वर्ग समन्वय सिद्धांत की अवधारणा पूँजीपतियों को पसंद आई क्योंकि वर्ग संघर्ष के सिद्धांत से उनके अस्तित्व को ख़तरा था। अतः बिड़ला, साराभाई और बजाज जैसे पूँजीपतियों ने कांग्रेस का समर्थन किया और इसके कार्यक्रमों के लिए पैसा दिया।

दूसरे वर्गों के समान पूँजीपति वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए बॉम्बे मिल ओनर्स एसोसिएशन, इंडियन जूट मिल एसोसिएशन और इंडियन चेबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री महासंघ जैसे संगठन बनाए ।

युद्ध के दौरान जो पूंजी बढ़ी, बाद में उसे ब्रिटिश उद्यमों में खरीदने में खर्च किया गया और ब्रिटिश तथा भारतीय पूँजी के सम्मिलन की प्रवृत्ति विकसित हुई। ब्रिटिश पूँजीवाद, युद्ध के कारण कमज़ोर हो गया था, उसने अपनी पकड़ कड़ी रखने के लिए यह नई युक्ति निकाली अर्थात् भारत में अंग्रेजी और भारतीय उद्योग संयुक्त रूप से चलाए जाने लगे। युद्ध से पहले के संयुक्त उद्योगों में संयोजन नहीं था, किंतु अब भारतीय ब्रिटिश पूँजी के सम्मिलन का नया युग आरंभ हुआ।

इस प्रकार भारतीय पूँजीपतियों और व्यापारियों ने भी अपने वर्गीय हितों को न केवल ब्रिटिश शासनकाल में अपितु भविष्य में भी सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया। युद्ध में नई स्थिति और क्रिप्स मिशन

1941 के अंत में जर्मनी द्वारा सोवियत संघ पर तथा जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर आक्रमण के बाद ब्रिटेन, फ्रांस तथा अन्य देशों के बीच का युद्ध-गठबंधन संयुक्त राष्ट्र तक विस्तृत हुआ जिसके अंतर्गत सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमरीका और चीन शामिल थे। ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा प्रस्तावित अटलांटिक चार्टर ने युद्ध का यह उद्देश्य घोषित किया कि उन लोगों को, जो संप्रभुता के अधिकार तथा अपनी सरकार से जबरन वंचित रखे गए थे, संप्रभुता का अधिकार तथा सरकार प्रदान की जाएगी जिससे कांग्रेसी नेताओं के मन में आशा की ज्योति जगी।

जापानी सेना विजेता के रूप में एशिया के ओर बढ़ रही थी, अतः ब्रिटेन ने भारत को संतुष्ट रखना आवश्यक समझा क्योंकि भारतीय जनता के समर्थन के बिना भारत पर किसी भी प्रकार के जापानी आक्रमण का मुक़ाबला असंभव था, अतः ब्रिटिश ‘वार कैबिनेट’ ने एक राजनैतिक समझत पर भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए ‘क्रिप्स मिशन‘ भारत भेजा। किंतु यह प्रयास विफल रहा क्योंकि ब्रिटेन ने भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं की इस माँग को ठुकरा दिया कि एक सरकार की स्थापना की जाए जिसे पूरी शक्तियाँ प्राप्त हो। बातचीत टूट गई। एक कमी और भी थी, और वह यह कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलिम लोग एकजुट होकर अपनी राष्ट्रीय माँग ब्रिटिश सरकार के सामने रखने में असफल रहीं।

युद्ध की समाप्ति और बढ़ता हुआ आर्थिक तथा राजनीतिक असंतोष

1942 में प्रमुख कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार करने और कांग्रेस को गैर-कानूनी संगठन करार देकर सरकार ने कोई भी आंदोलन छेड़े जाने की संभावनाओं को समाप्त कर दिया। इसके कारण सारे देश में उपद्रव फूट पड़े जो नेतृत्व तथा संघर्ष-योजना के अभाव में दबा दिए गए। क्रांतिकारी भूमिगत दलों द्वारा संगठित संघर्षो को सरकार ने कुचल दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना और अधिक गहरी हुई तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता की माँग और अधिक आक्रामक तरीके से सरकार के सामने रखी गई। युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में गंभीर राजनैतिक और आर्थिक असंतोष था। जनता का द्ररिद्रीकरण उसके मन में विद्रोह की भावना भर रहा था। जनता में आर्थिक और राजनैतिक मुक्ति की प्रबल इच्छा थी और इसी असंतोष ने देश को जन-संघर्षो का रंगमंच बना दिया।

1945 के अंत में खाद्य स्थिति और भी बिगड़ गई। मद्रास, बंबई और हैदराबाद में तथा मध्य भारत में फसल बहुत खराब हुई। जमींदारों एवं सूदखोरों के द्वारा शोषणा किसान की बरदाश्त के बाहर हो गया, कारखानों में उत्पादन कम होने से मजदूरों की छंटनी शुरू हो गई, वेतन घटाया गया और बोनस ख़त्म कर देने की कोशिश की गई। दूसरी ओर कालाबाजारी और मुनाफाखोरी की प्रवृत्तियां उभरने लगीं, दैनिक आवश्यकताओं की चीड़ों के दाम बहुत बढ़ गए।

फलतः मज़दूरों, किसानों, निम्न मध्य आय वालों में असंतोष बढ़ गया, वर्ग संघर्ष तेज़ हो गया। ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध भारतीय जनता का विरोध तेजी से बढ़ा। इस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों में तरह-तरह के तीव्र आंदोलनों के कारण अंग्रेजों के लिए भारत में टिक पना दूभर हो गया।

कांग्रेस को समूचे देश में व्यापक जन समर्थन

द्वितीय महायुद्ध के दौरान समस्त विश्व की जनता ने देखा कि समाजवादी अर्थव्यवस्था में कितनी शक्ति है। स्वाधीन पूँजीवादी देशों में श्रमजीवी समाजवादी क्रांति और पराधीन देशों में जनता राष्ट्रीय मुक्ति की तरफ तेजी से कदम उठाने लगी।

जापान के आत्मसमर्पण के बाद हिंद एशिया, हिंद-चीन, बर्मा, मलाया और फिलीपिन में वहाँ की जनता ने अपनी स्वाधीनता के लिए सशस्त्र संग्राम आरंभ कर दिया। भारत में भी क्रांति की लहर युद्ध समाप्त होने के साथ-साथ देखी गई। इस लहर के लिए कुछ कारण थे हिंद-चीन और हिंद-एशिया के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को दबाने के लिए।

भारतीय सेना का भेजा जाना और आजाद हिंद फौज के अफसरों पर मुकदमा चलाया जाना ब्रिटिश शासकों के इस काम का विरोध कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और मुसलिम लीग तीनों ने किया। 25 अक्टूबर, 1945 को दक्षिण-पूर्व एशिया दिवस मनाया गया। उस दिन हिंदुस्तान के बड़े-बड़े शहरों में जनसभाएँ हुई, जुलूस निकाले गए और नारे बुलंद किए गए : ‘साम्राज्यवादियों, दक्षिणपूर्व एशिया से दूर हटो।’ बंबई और कलकत्ता के गोदी मज़दूरों ने उन जहाजों पर माल लादने से इनकार कर दिया जो फ़ौज के लिए लड़ाई का सामान और खाद्य वगैरह लेकर हिंद-एशिया जा रहे थे।

1945 में ही आज़ाद हिंद फौज के अफसरों पर मुकदम चलाया गया और उन्हें शीघ्र ही लंबी सजाएँ दी गई। अतः सभी भारतीयों ने एक स्वर से ब्रिटिश शासकों के इस काम का विरोध किया मजदूरों और दफ्तर-कर्मचारियों ने कलकत्ता में जुलूस निकाला। कई दिन तक बस और ट्रामें बंद रहीं। आम जनता ने फ़ौजी गाड़ियों में आग लगा दी। सुभाष के भाई शरतचंद्र बोस ने कांग्रेस की तरफ से अपील की कि छात्र और मज़दूर सरकार-विरोधी कार्यवाही बंद कर दें, साथ ही यह भी कहने से न चूके कि कांग्रेस कानून और अहिंसक उपायों से देश की स्वाधीनता ले आएगी।

कांग्रेस की इस अपील से आम जनता ने आंदोलन वापस ले लिया। कई दिनों तक पुलिस और फौज द्वारा गोली चलाए जाने से अनेक मौतें हुई। बंबई, दिल्ली और मदुरै में भी आम जनता और पुलिस के बीच संघर्ष हुआ।

नौसेना द्वारा विद्रोह एवं सेना में विद्रोह

1946 में जो सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं उनमें नौसेना का विद्रोह एवं सेना में अशांति मुख्य थीं। उनकी माँगें थीं कि हवाई सेना में अंग्रेज और भारतीयों के बीच भेदभाव दूर किया जाए तथा भारतीय हवाबाज़ों को अग्रेज़ हवाबाज़ों के समान अधिकार दिए जाएँ। सेना से अँटनी के बाद उनको काम देने का इंतज़ाम किया जाए। इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ अफ़सर भारतीय हवाबाज़ों के साथ दुर्व्यवहार करते थे, अतः 1500 से अधिक हवाई सेना के लोगों ने ये माँगें सरकार के सामने रखीं।

इसके तुरंत बाद नौसेना ने विद्रोह किया। दूसरे महायुद्ध से ठीक पहले रॉयल इंडियन नेवी (शाही भारतीय नौसेना) का गठन हुआ, जिसमें अधिकतर नौसेना के बड़े अफसर अंग्रेज़ ही थे | भारतीय सैनिकों को वे सुविधाएँ प्राप्त नहीं थी जो अंग्रेज़ों को प्राप्त थीं उन्हें घटिया खाना तो दिया ही जाता था, साथ ही ब्रिटिश अफसरों द्वारा अपमानित भी किया जाता था छँटाई का भत्ता बहुत कम मिलता था और अपनी वर्दी भी वापस देनी पड़ती थी। बार-बार अंग्रेज़ों से शिकायत करने पर भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया अपितु जवाब में कहा गया, ‘भिखमंगों को अपनी पसंद चुनने की छूट नहीं मिल सकती।’

अफसरों ने भी यह कहा कि जो कंकड़-पत्थर मिला चावल नहीं खा सकते, वे अपने हाथ से चावल साफ़ करें। फलस्वरूप शीघ्र ही नाविकों ने विद्रोह कर दिया। बैरकों की दीवारों पर ‘अँग्रेज़ों, भारत छोड़ो‘ के नारे दिखाई पड़ने लगे जिसके लिए दत्त को ज़िम्मेदार समझा गया। फलतः उन्हें गिरफ्तार किया गया। इसका जवाब नाविकों ने 18 फ़रवरी 1946 की हड़ताल से दिया।

19 फरवरी को हड़तालियों की संख्या 20,000 तक पहुँच गई। जहाजों पर कांग्रेस और मुसलिम लीग के झंडे एक साथ नज़र आने लगे और नौसेना की वर्दी में नाविकों ने जुलूस निकाला। विद्रोही जहाज़ियों ने एक केंद्रीय हड़ताल कमेटी बनाई और पूर्ण अनुशासन में रहे। इस विद्रोह का केंद्र बंबई था। बंबई की जनता ने दिल खोलकर इनका समर्थन किया, और जहाज़ों में खाना पहुँचाया। कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियनों ने बंबई में नाविकों के आह्वान का समर्थन च्या 22 फ़रवरी को 2,00,000 से अधिक मजदूरों ने हड़ताल की और जुलूस और सभाएँ की कामगार मैदान में श्रीपाद अमृत डांगे ने भाषण किया।

अँग्रेज अधिकारियों ने पुनः क्रूर दमन की नीति का सहारा लिया। जल्दी-जल्दी फौजें क्वई और कराची भेजी गई और 21 तारीख को एडमिरल गोडफ्रे ने रेडियो पर कहा कि “सरकार के पास जबर्दस्त ताकत है। वह उसका पूरा-पूरा इस्तेमाल करेगी” “भले ही समुद्री बेड़ा नेस्तनाबूद क्यों न हो जाए।” इसके जवाब में केंद्रीय जहाजी हड़ताल कमेटी ने शहर की जनता से शांति बनाए रखने की अपील की। लेकिन अंग्रेज अधिकारियों ने अंधाधुंध गोलियाँ चलाई। 21 से 23 फरवरी तक, सरकारी आँकड़ों के अनुसार 250 नर-नारी मारे गए।

अंत में 23 फरवरी को सरदार पटेल के दबाव से केंद्रीय हड़ताल समिति ने आत्मसमर्पण का निश्चय किया क्योंकि पटेल ने आश्वासन दिया था कि “कांग्रेस इस बात की भरसक कोशिश करेगी कि हड़तालियों से बदला न लिया जाए।” लेकिन दो दिन के भीतर हड़ताली नेता पकड़ लिए गए। हड़ताल कमेटी के अध्यक्ष ने अपनी आखिरी बयान में कहा था कि “हम भारत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं, ब्रिटेन के सामने नहीं।””

अतः जहाज़ियों की बग़ावत और बंबई की जनता के संघर्ष से यह बात साफ़ हो गई थी कि भारत में विस्फोटक शक्तियाँ पैदा हो गई हैं। साहस और दृढ़ निश्चय केवल जनता तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि आज़ादी की लड़ाई के लिए आंदोलन फ़ौजों तक में पहुँच गया। लेकिन कांग्रेस के बुर्जुआ नेतृत्व ने हिंसा की निंदा की। अंग्रेजों ने पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले कृत्य जन-आंदोलन के बीच की गहरी खाई को समझते हुए मौके का फायदा उठाया।

किसानों तथा मजदूरों के मोर्चे और आंदोलनों की बाढ़

क्रांति की लहर से किसान और मजदूर भी अछूते न थे। 1945 के अंत और 1946 के शुरू में उन्होंने अपने मोर्चे लगाने आरंभ किए। किसानों के संघर्षों में तेलंगाना, तिभागा और पुन्नाप्रा वालायर का संघर्ष ऐतिहासिक संघर्ष है।

तेलंगाना हैदराबाद के निज़ाम की रियासत का एक अंग था। यहां के तेलुगुभाष किसानों ने लगभग दूसरे महायुद्ध से ही आंदोलन शुरू कर दिया था क्योंकि उनसे कम दाम पर गल्ला वसूल किया जा रहा था। उसी समय में तेलंगाना के कम्युनिस्ट संगठनकर्ता कमरय्या की हत्या कर दी गई। उनके शव को लेकर किसानों ने विराट जुलूस निकाला। पुलिस ने इस जुलूस पर हमला किया। इसके जवाब में किसानों ने ढेलों की वर्षा के साथ जवाबी हमला किया। किसानों ने कई गाँवों पर क़ब्ज़ा कर लिया।

शुरू में यह आंदोलन अपने आप ही फूट पड़ा था लेकिन बाद में आंध्र महासभा और हैदराबाद के कम्युनिस्टों ने इसका नेतृत्व संभाला। किसानों को कुचलने की कोशिश की गई और निम ने सैनिक और रजाकार भेजे। ऐसी हालत में किसानों ने आत्मरक्षा के लिए लड़ाकू दस्ते और मुक्त गाँवों के शासन की व्यवस्था के लिए गाँव पंचायतें बनाई। 1946-47 में यह विद्रोह और भी ऊँचे स्तर कर हो गया।

पुन्नप्रा वालायर संघर्ष-पुन्नप्रा और वालायर त्रावनकोर रियासत के दो स्थान थे। यहाँ किसानों और मजदूरों ने सामंती उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध अक्टूबर में सशस्त्र संग्राम किया। यहाँ काश्तकारों और मजदूरों को पकड़कर पीटा जाता था, उनकी औरतों से बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उनके घर गिराए जाते थे। उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था, यहाँ तक कि उन्हें ज़मीन तक में गाड़ दिया जाता था। युद्ध के बाद भुखमरी और बेरोजगारी पैदा हो गई। आवश्यक सामान मिलना बंद हो गया। अतः मज़दूरों और काश्तकारों ने कम्युनिस्ट पार्टी और क्वायर वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में संगठित होकर हालातों को बदलना चाहा।

Also Readकार्ल मार्क्स, जीवन, शिक्षा,सिद्धांत, दास कैपिटल, कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और बहुत

1945 में जरूरी चीज़ों की आपूर्ति के लिए हड़ताल की गई। त्रावनकोर रियासत की सरकार ने वायदा किया कि उचित वितरण व्यवस्था की जाएगी लेकिन शीघ्र ही इस वायदे को ताक पर रख दिया गया। दमन की नीति अपनाई गई और हड़तालों पर रोक लगा दी गई, सेना और रिजर्व पुलिस तैनात कर दी गई।

Also Readआधुनिक भारत में किसान आंदोलन

इसी प्रकार बंगाल में 1946 में ‘तिभागा आंदोलन’ हुआ। यहाँ के बटाईदार किसानों ने ऐलान किया कि वे फसल के दो-तिहाई हिस्से को स्वयं रखेंगे और जोतदार ज़मींदारों को केवल एक-तिहाई हिस्सा देंगे। बँटवारे के इसी अनुपात के कारण इसका नामकरण तिभागा आंदोलन हुआ। अक्टूबर 1946 में कलकत्ता-नोआखाली आदि में सांप्रदायिक दंगों की आग लगी हुई थी। इसी समय गाँधी ने दल-बल के साथ नोआखाली की पदयात्रा की, जिसका उद्देश्य हिंदू-मुसलिम एकता स्थापित करना था।

इसी समय कम्युनिस्टों ने हिंदू-मुसलमानों और आदिवासी किसानों में अभूतपूर्व एकता कायम की। तिभागा आंदोलन किसान सभा के नेतृत्व में चलने वाला बंगाल का सबसे जंगी आंदोलन था। इसमें कम-से-कम 50 लाख किसानों ने भाग लिया। कहीं-कहीं यह मार्च 1947 तक चला और हर जगह किसानों पर गोली चलाई गई और बहुत से किसान मारे गए। इस तिभागा आंदोलन का स्थायी प्रभाव यह पड़ा कि इसने किसानों को जुझारू बना दिया और उनमें मातृ-भूमि के प्रति प्रेम तथा आत्म-बलिदान की भावना भर दी।

इसके अतिरिक्त पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहार और महाराष्ट्र में भी किसान आंदोलनों ने बहुत जोर पकड़ा। 1946 में ही टेहरी गढ़वाल में किसानों ने माँग की कि सामाजिक संगठनों की रजिस्ट्री कराने का क़ानून रद्द किया जाए, सामंतों द्वारा नाजायज़ वसूली बंद की जाए और आलू पर लगाया विशेष कर रद्द किया जाए।

कश्मीर में 1946 से मजदूरों, दस्तकारों, छोटे व्यापारियों और छात्रों ने नेशनल कॉन्फरेंस की रहनुमाई में नारा बुलंद किया, “महाराजा, कश्मीर छोड़ो।” किसानों ने भी इसका समर्थन किया। शेख को महाराजा की अदालत ने क़ैद की सजा दी जिससे यह आंदोलन और तेज हुआ।

1946-47 में मजदूर आंदोलनों का रूप भी बहुत उप हो गया। सारे देश में हड़तालें हुई। 1946 में रेलवे हड़ताल ने उम्र रूप धारण कर लिया सात ट्रेड यूनियन नेताओं को गिरफ्तार किया गया, जिसके जवाब में मज़दूरों ने हड़ताल की। मद्रास में 400 रेलवे मजदूरों को गिरफ्तार किया गया सभा में पुलिस की गोली से 9 आदमी मारे गए। संयुक्त प्रदेश, अहमदाबाद में दक्षिण भारतीय रेलवे हड़तालियों के समर्थन में हड़ताल की गई, सितंबर के मध्य तक 1000 से भी अधिक मजदूर गिरफ्तार किए गए।

इस प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद भारतीय जनता के विभिन्न वर्ग संग्राम के मैदान में उत्तर पड़े। इनमें मजदूर, किसान, छात्र, कारीगर, दस्तकार और छोटे-छोटे व्यापारी सभी अपने-अपने ढंग से ब्रिटिश शासकों, शोषकों और सामंतों के खिलाफ लड़ रहे थे। भारतीय स्थल सेना, नौसेना और हवाई सेना असंतुष्ट होकर हड़ताल कर रही थीं और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए जमीन तैयार थी।

लेकिन दुर्भाग्यवश आंदोलन का नेतृत्व सुधारवादी बुर्जुवा वर्ग के हाथ में था। उन्होंने क्रांति का रास्ता अपनाने की बजाय सौदेबाजी और समझौते का रास्ता अपनाया और साम्राज्यवादी ताकतों ने पूरा-पूरा फायदा उठाया।

कैबिनेट मिशन

18 फ़रवरी, 1946 को नौसेना की हड़ताल शुरू हुई और 19 फरवरी, 1946 को यानी डोक एक दिन बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने हाउस ऑफ कॉमंस में घोषणा की कि भारत की समस्या के हल के लिए, उनकी सरकार भारत में कैबिनेट मिशन भेज रही है।

इसके सदस्य थे भारत सचिव लॉर्ड पैथिक लारेंस, व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष सर स्टैफोर्ड क्रिप्स और फर्स्ट लार्ड ऑफ एडमिरल्टी, ए.वी. एलेक्ज़ेंडर एटली ने बयान में कहा कि इस मिशन का उद्देश्य “भारतीय जनमत के नेताओं के साथ मिलकर भारत में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति को जल्दी संभव बनाना होगा।” इसके जो तीन काम स्पष्ट किए गए वे थे: “

(1) ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ और देशी रियासतों के साथ प्रारंभिक वार्तालाप ताकि संविधान बनाने के बारे में अधिक-से-अधिक लोग सहमत हो सकें;

(2) संविधान निर्माण सभा स्थापित करना;

(3) ऐसी कार्यकारी परिषद् स्थापित करना जिसका समर्थन भारतीयों के मुख्य दल करते हों।”

इस बयान की दो मुख्य बातें थीं जिनकी तरफ़ लोगों का ध्यान खिचा। पहली बात यह थी कि भारत के लिए पहली बार ‘स्वाधीनता’ शब्द का प्रयोग किया गया था और दूसरी यह कि अल्पसंख्यकों के बारे में कहा गया था कि “हमें अल्पसंख्यक समाजों के अधिकारों का पूरा ध्यान है। होना यह चाहिए कि अल्पसंख्यक भयमुक्त होकर रह सकें।” और भारतीय संदर्भ में स्वाधीनता शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया, “भारत को खुद चुनना होगा कि उसका भावी संविधान क्या होगा और दुनिया में उसकी क्या स्थिति होगी।”

ब्रिटिश शासकों के इस बयान को भारत के प्रति उनकी नीति में आश्चर्यजनक परिवर्तन बताया गया। लेकिन ऐसा समझने वालों ने यह भुला दिया कि स्वाधीनता शब्द का प्रयोग करने पर भी एटली का बयान 1942 के क्रिप्स मिशन से बहुत मिलता था।

1942 में कहा गया था, “जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी भारत में स्वराज्य की प्राप्ति के लिए ब्रिटिश सरकार यह प्रस्तावित करती है कि नए भारतीय संघ की स्थापना के लिए क़दम उठाए जाने नाहिए। इस संघ की स्थिति पूर्ण अधिराज्य (डोमिनियन) की होगी।” लेकिन साथ ही एटली के प्रस्ताव पर टिप्पणी करते हुए ब्रिटिश संसद् में सर स्टेनली रोड ने कहा था, “स्वाधीन शब्द से डरने की क्या बात”?

इन्हीं वार्तालापों के बीच अप्रैल, 1946 में केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव हुए यह स्पष्ट हो गया कि देश का प्रवल जनमत उस समय कांग्रेस के साथ था लेकिन मुसलमानों का प्रबल बहुमत लीग के साथ था और चुनावों का यही परिणाम- भारत विभाजन का आधार बन गया।

मिशन ने विभिन्न दलों और संगठनों से पृथक-पृथक बातचीत करके दुनिया को दिखाने की कोशिश को कि राजनैतिक गुटों और खास तौर पर कांग्रेस और लीग में आपस में मतभेद हैं। इस आधार पर त्रिपक्षीय बातचीत के लिए शिमला सम्मेलन का आयोजन किया गया, जो कि बिना किसी फैसले पर पहुँचे समाप्त हो गया।

लीग और कांग्रेस के आपसी मतभेद और चुनावों के परिणाम के कारण अंग्रेज शासकों को एकतरफा फ़ैसला लेने का मौका मिल गया। उन्होंने दुनिया के सामने यह छिंढोरा पीटकर कि लोग और कांग्रेस में आपसी फूट है, अपना फ़ैसला भारत पर थोपा ।

16 मई, 1946 को मिशन ने वाइसराय और ब्रिटिश मंत्रिमंडल से सलाह करके निम्नलिखित योजना पेश की

  1. भावी संविधान के लिए सिफारिश

(क) ब्रिटिश सरकार और रियासतों को लेकर एक भारतीय संघ हो, जिसके हाथ में विदेशी मामले, रक्षा और यातायात हो तथा इनके लिए वित्त इकट्ठा करने की क्षमता हो।

(ख) संघ की एक कार्यकारिणी हो और ब्रिटिश भारत तथा रियासत के प्रतिनिधियों को लेकर एक विधान सभा हो। विधान मंडल में किसी महत्त्वपूर्ण सांप्रदायिक मामले पर फ़ैसले के लिए उपस्थित प्रतिनिधियों का बहुमत तथा दो प्रमुख समुदायों (कांग्रेस और लीग) का मतदान ज़रूरी है।

(ग) संघ को सौंपे गए विषयों को छोड़कर सभी विषय और अवशिष्ट अधिकार प्रांतों में निहित हो।

(घ) रियासतें संघ को सौंपे गए विषयों और क्षमताओं को छोड़कर बाकी सब विषय अपने हाथों में रखेंगी।

(ङ) प्रांतों को ऐसे गुट बनाने की आजादी हो, जिनकी अपनी कार्यकारिणी और विधानसभा हो ।

(च) संघ के और गुटों के संविधानों में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी प्रांत अपनी विधान सभा के बहुमत के वोट से दस-दस साल पर संविधान की धाराओं पर फिर से विचार की माँग कर सके।

  1. संविधान निर्माण सभा के लिए प्रस्ताव

(क) 389 सदस्यों की संविधान सभा: 292 सदस्य ब्रिटिश भारत के प्रांतों से, जिनका अप्रत्यक्ष चुनाव सांप्रदायिक आधार पर वर्तमान विधान सभाएँ करें, 93 सदस्य देशी रियासतों के हों और आम, मुसलिम सिक्ख सीटें अलग-अलग जनसंख्या के आधार पर निर्धारित हो।

(ख) प्रांतों का तीन हिस्सों में विभाजन (1) हिंदू बहुमत वाले क्षेत्र (ii) मुसलिम बहुमत वाले पश्चिमोत्तर क्षेत्र; (ii) मुसलिम बहुमत वाले पूर्वोत्तर क्षेत्र।

(ग) इन क्षेत्रों के लिए सलाहकार समिति होगी।

(घ) संविधान सभा संघ का संविधान तय करेगी।

  1. देसी रियासतों के सहयोग का आधार वार्तालाप द्वारा निर्धारित होगा।
  2. ब्रिटिश भारतीय संघ के लिए संविधान सभा और संयुक्त राज्यों के बीच एक वार्तालाप संघ होगा।
  3. ऐसी अंतरिम सरकार वाइसराय द्वारा कार्यकारिणी कौंसिल के पुनर्गठन के आधार पर बनाई जानी चाहिए।

16 मई, 1946 को लार्ड वेवल ने अंतरिम सरकार बनाने का प्रस्ताव इस आधार पर पेश किया कि 40 प्रतिशत सीटें हिंदुओं को दी जाएगी जिनको कांग्रेस मनोनीत करेगी, 40 प्रतिशत सीटें मुसलमानों को दी जाएँगी जिन्हें मुसलिम लीग नामजद करेगी।

बाक़ी 20 प्रतिशत सीटें सिक्खों, भारतीय ईसाइयों, अनुसूचित जातियों और पारसियों में बाँटी जाएँगी। यदि कोई दल अंतरिम सरकार में शामिल न होना चाहे, तो उसके बिना ही ऐसी सरकार बनेगी।

कैबिनेट मिशन के प्रति विभिन्न प्रकार की टिप्पणियाँ हुई। सामान्यतः अँग्रेजों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की। गाँधी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में लिखा, “कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों में वे बीज मौजूद हैं जो इस देश को ऐसा महान् बना देंगे, जिसमें दुख-कष्ट का नाम न होगा”।” लेकिन वामपंथी इस योजना के सख्त खिलाफ थे।

कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सैक्रेटरी श्री पी.सी. जोशी ने इस योजना की निंदा करते हुए कहा, “यह भारत को अपने सबसे बड़े औपनिवेशिक आधार के रूप में बनाए रखने की ब्रिटेन की शाही योजना है”

इस प्रकार बुर्जुवा नेतृत्व ने इस घटना को ‘शानदार वाक़या’ कहा। लेकिन इसी बीच 6 जुलाई को कांग्रेस महासमिति ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कैबिनेट मिशन की योजना को तो स्वीकार किया लेकिन अंतरिम सरकार की योजना को अस्वीकृत कर दिया। यह बात ब्रिटिश शासकों के गले न उतरी और उन्होंने स्पष्ट कहा कि या तो सारी योजना स्वीकार करो या फिर सारी योजना को ठुकराना होगा।

8 अगस्त, 1946 को कांग्रेस ने योजना को पूरी तरह स्वीकृति दी क्योंकि इसी बीच आर्थिक क्षेत्र में भी बड़ी पैंतरेबाजी हुई। टाटा और बिड़ला ने आई.सी.आई. के साथ गठजोड़ किया, जिनकी पुनः माँग थी— राजनैतिक क्षेत्र में सहयोग।

अतः कांग्रेस के मानने के बाद 24 अगस्त, 1946 को केंद्र में अंतरिम सरकार की स्थापना की घोषणा की गई जिसके निम्नलिखित सदस्य घोषित किए गए: पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मि. एम. आसफ अली, सी. राजपालाचारी, शरतचंद्र बोस, डॉ. जान मधाई, सरदार बलदेवसिंह, सर शफाअत अहमद, जगजीवनराम, सैयद अली जौहर और कावस जी होरमुसजी भाभा ।

लीग दोनों अंतरिम सरकार में शामिल तो थे लेकिन एक-दूसरे की जड़ें ही काटते रहे। वित्त विभाग कलाबाजी दिखाते हुए, अंतरिम सरकार में शामिल होने का फ़ैसला किया। कांग्रेस लियाकत अली के पास होने से कांग्रेस के लिए कार्य करना मुश्किल हो गया। उधर जब बजट पेश किया गया तो यह एक और बड़ा सिरदर्द बना क्रमशः यह कटुता बढ़ती हुई।

3-6 दिसंबर, 1946 को लंदन में एक सम्मेलन बुलाया गया जिसमें ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली और वाइसराय वेवल, कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू और मुसलिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिना ने हिस्सा लिया दिसंबर 1946 में संविधान-सभा की बैठक शुरू हुई जिसका मुसलिम लीग और राजाओं ने बायकाट किया।

माउंटबेटन योजना और भारत का विभाजन

को देखते कांग्रेस और लीग के नेताओं के बीच की दरार बढ़ती गई। तेजी से बिगड़ती राजनैतिक स्थिति हुए ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड वेवल को हटाकर माउंटबैटन को वाइसराय नियुक्त किया।

माउंटबैटन प्लान के रूप में एक नई योजना बनाई गई जिसके आधारभूत तथ्य इस प्रकार थे :

(1) हिंदुस्तान को दो हिसते, भारतीय संघ और पाकिस्तान में बाँट दिया जाएगा

(2) इन दोनों राज्यों की अंतिम सीमा का निर्धारण करने के पहले पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश और असम के सिलहट जिले में जनमत और विधानसभा में यह जानने के लिए वोट लिया जाएगा कि वे उक्त दोनों राज्यों में से किस मे शामिल होना चाहेंगे।

(3) हिंदुस्तान के विभाजन से पहले पंजाब और बंगाल के सीमांकन का प्रश्न हल करना होगा।

(4) इन कामों को पूरा करने के बाद हिदुस्तान की संविधान सभा को दो हिस्सों में बाँट दिया जाएगा- -भारत संघ की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा। इन दोनों राज्यों को डोमिनियन स्टेटस दिया जाएगा।

(5) देसी रिसायतों को यह तय करने का हक़ होगा कि वे किस डोमिनियन में शामिल होना चाहती है। यदि कोई रिसायत किसी भी डोमिनियन में शामिल होना चाहे तो उसके ब्रिटेन के साथ पहले जैसे संबंध बने रहेंगे।

इस प्रकार जहाँ एक ओर इस योजना से ब्रिटिश सरकार भारत को दो टुकड़ों में बाँट देना चाहती थी वहाँ दूसरी ओर देसी रियासतों को चुनने की आज़ादी देकर साम्राज्यवादी अड्डे भारत में बनाए रखना चाहती थी। इस योजना ने लोकतांत्रिक संविधान सभा प्रदान नहीं की क्योंकि यह वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुनी गई थी। इसने सांप्रदायिकता को उकसाया और भारत को सामंती तथा सांप्रदायिक आधार पर विभाजित किया।

जून 1947 में कुछ हिचक के बाद कांग्रेसी नेताओं ने इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि शायद कांग्रेस को कोई उम्मीद नहीं रही थी कि मुसलिम लीग के साथ कोई समझौता हो सकेगा। साथ ही देश के उम्र सांप्रदायिक तनावों के कारण पाशविक दंगे उम्र होते जा रहे थे कुछ ऐसे लोग भी थे जो शुरू से हिंदू-मुसलिम एकता के लिए प्रयत्न करते आ रहे थे। उन्होंने योजना स्वीकार किए जाने के प्रस्ताव का विरोध भी किया।

अबुल कलाम आजाद ने इस संदर्भ में लिखा, “इस बड़े दुखांत नाटक के दौरान कुछ हास्यास्पद बातें भी देखी जाती थीं। कांग्रेस में कुछ ऐसे लोग रहे हैं जो राष्ट्रवादी होने का दिखावा करते हैं लेकिन उनका दृष्टिकोण सोलहों आना सांप्रदायिक रहा है”। “

भारतीय स्वाधीनता विधेयक – 4 जुलाई, 1947

4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वाधीनता विधेयक पेश किया गया। 15 जुलाई को बिना किसी संशोधन के कॉर्मस सभा ने और 16 जुलाई को लॉर्ड सभा ने इसे पास कर दिया। 18 जुलाई को ब्रिटिश सम्राट के हस्ताक्षर हुए और घोषणा की गई कि 15 अगस्त 1947 से भारत के दो टुकड़े हो जाएँगे।

14 अगस्त को पाकिस्तान अधिराज्य और 15 अगस्त को भारतीय अधिराज्य की स्थापना होगी। 14 अगस्त की आधी रात को ज्यों ही रात के 12 बजे और 15 अगस्त शुरू हुआ पं. जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा,

“आधी रात की इस घड़ी में जब दुनिया सो रही है, भारत जागकर जीवन और स्वतंत्रता प्राप्त करेगा यह बहुत ही अच्छी बात है कि इस पवित्र क्षण में हम भारत और उसकी जनता की सेवा और उससे भी बढ़कर मानवता की सेवा की सौगंध लेते हैं”।

विभाजन का कीमत और प्रक्रिया

विभाजन से भारतीय जनता का राजनैतिक एकीकरण बरबाद हो गया। क्या जनता इसे वास्तव में दिल से स्वीकार कर पाई? अबुल कलाम आजाद लिखते हैं, “कांग्रेस और लीग ने बैटवाटा स्वीकार कर लिया जब हमने मुल्क के बँटवारे के ठीक पहले और बाद में नजर दौड़ाई तो देखा कि यह मंजूरी सिर्फ कांग्रेस महासमिति के प्रस्ताव और मुसलिम लीग के रजिस्टर पर थी। इसे हिंदुस्तान की जनता ने स्वीकार नहीं किया था। दरअसल उनके दिल और रूह इस ख्याल से ही बगावत करते थे”।

यह विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था। इससे तीखा सांप्रदायिक संघर्ष हुआ जिसे प्रतिक्रियावादी ताकतों ने भड़काया था। लाखों हिंदू और मुसलमान बड़े पैमाने पर अपने प्रांतीय वतन से उखड़ गए। अड़तालीस घंटों के बीच पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब के भयंकर सांप्रदायिक दंगों की ख़बर आई और फिर दिल्ली और कराची कोई भी इस आग से न बचा।

सेना के विभाजन से सांप्रदायिकता स्वयं इसमें घुस गई। इन घटनाओं का हिसाब देना तो कठिन है पर नेहरू के मित्र और उनकी जीवनी के लेखक भोंसले के अनुसार सिर्फ़ पंजाब में 6,00,000 लोग मारे गए। 1,40,00,000. शरणार्थी बना दिए गए। दोनों पक्षों द्वारा 1,00,000 युवतियों का अपहरण किया गया और उन्हें बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करके गृहिणी बनाया गया”।”

12 जनवरी, 1948 से गांधी ने अनशन शुरू किया। पटेल उन्हें उसी हाल में छोड़कर बंबई चले गए। जब उनसे रुकने को कहा गया तो उन्होंने कहा, “रुकने से क्या लाभ?” 30 जनवरी, 1948- को गाँधी की हत्या कर दी गई और उस बुर्जुआजी द्वारा अपनाए गए रास्ते के कारण मुक्ति आंदोलन का एक बड़ा नेता भी भारत ने खो दिया।

इस प्रकार भारतीय क्रांति का अर्थात् साम्राज्यवाद के विरुद्ध सब वर्गों के मोर्चों का एक अध्याय समाप्त हो गया। मज़दूरों, किसानों और मध्य वर्ग ने मिलकर साम्राज्यवादी जड़ों को ध्वस्त कर दिया।

Share this Post

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *