भारत के बंटबारे को गाँधी और कांग्रेस ने क्यों स्वीकार किया – ऐतिहासिक अवलोकन
भारत 15 अगस्त 2023 को आज़ादी की 76वीं वर्षगांठ मनायेगा। यह वह पल होता है जब हम ब्रिटिश गुलामी से आज़ादी का जश्न मनाते हैं। लेकिन एक बात जो दुःखी करती है वह भारत का विभाजन। पाकिस्तान के निर्माण और भारत के विभाजन को लेकर तमाम विवादस्पद विचार प्रस्तुत किये जाते हैं और उनमें सबसे प्रमुख यह है कि कांग्रेस और महात्मा गाँधी ने विभाजन को क्यों स्वीकार किया। इस लेख में हम इन्हीं विवादस्पद प्रश्नों का अवलोकन करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

कांग्रेस और विभाजन
सबसे पहला प्रश्न यही है कि कांग्रेस ने भारत के विभाजन को क्यों और कैसे स्वीकार कर लिया? मुसलिम लीग किसी भी कीमत पर अपना हक लेने के लिए अड़ गई और ब्रिटिश सरकार को अपने ही बनाए जाल से न निकल पाने के कारण उनकी माँग (अलग पाकिस्तान) को स्वीकार करना पड़ गया, यह बात तो समझ में आती है।
लेकिन असल बात यह है कि भारत की अखंडता में विश्वास रखनेवाली कांग्रेस ने विभाजन की योजना को क्यों स्वीकार किया?, यह अब भी एक कठिन विवादस्पद प्रश्न है।
आखिर मज़बूरी क्या थी कि नेहरू और पटेल ने 3 जून योजना की वकालत की और कांग्रेस कार्यसमिति तथा (अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने उसके पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया? सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि गाँधीजी तक ने अपनी मूक स्वीकृति दे दी क्यों?
साम्यवादियों और गाँधीवादियों, दोनों का यह मानना है कि नेहरू और पटेल ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि सत्ता का इंतज़ार उनके लिए असहनीय हो रहा था। कहा जाता है कि इसीलिए उन्होंने गाँधीजी की सलाह की उपेक्षा कर दी, जिससे गाँधीजी इतने मर्माहत (दुःखी) हुए कि उनकी और जीने की इच्छा ही खत्म हो गई। लेकिन फिर भी उन्होंने सांप्रदायिक घृणा का अकेले ही मुकाबला किया, जिस प्रयास की प्रशंसा में माउंटबेटन ने उन्हें एक “वनमैन बाउंडरी फोर्स” कहा।
इस संदर्भ में यह भुला दिया जाता है कि 1947 में नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और गांधी के सामने विभाजन को स्वीकार करने के सिवाय कोई और रास्ता भी नहीं रह गया था। चूंकि कांग्रेस मुसलिम जनसमूह को राष्ट्रीय आंदोलन में अपने साथ लाने में कामयाब न हो सकी थी और मुसलिम सांप्रदायिकता के ज्वार को रोक पाने में अक्षम साबित हुई थी, इसलिए अब उसके पास विकल्प ही क्या था?
1946 के चुनाव और कांग्रेस की स्थिति
कांग्रेस की विफलता 1946 के चुनावों में एकदम साफ हो चुकी थी। इन चुनावों में मुस्लिम लीग को 90 प्रतिशत मुसलिम सीटें मिली थीं। यों तो कांग्रेस जिन्ना के खिलाफ अपनी लड़ाई 1946 में ही हार चुकी थी, लेकिन जब कलकत्ता और रावलपिंडी की सड़कों पर तथा नोआखाली और बिहार के गाँवों में सांप्रदायिक दंगे फूट पड़े, तो उसने अपनी पराजय स्वीकार भी कर ली।
जून 1947 तक कांग्रेस के नेता महसूस करने लगे थे कि सत्ता के तुरंत हस्तांतरण से ही यह सामप्रदायिक पागलपन रोका जा सकता है। अंतरिम सरकार की अपंगता ने भी पाकिस्तान को एक अपरिहार्य वास्तविकता बना दिया।
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में 14 जून 1947 को पटेल ने कहा कि वस्तुतः हम इस सच्चाई से भाग नहीं कर सकते कि पंजाब, बंगाल और अंतरिम सरकार में पाकिस्तान की स्थापना हो चुकी थी और उसने काम करना शुरू कर दिया है। अंतरिम सरकार के युद्धक्षेत्र में बदल जाने से नेहरू भी हैरान थे।
मंत्री लोग आपस में तू-तू मैं-मैं करते, और अलग-अलग बैठकों में निर्णय करते। इसलिए बैठकों से बचते रहते और लियाकत अली खाँ, जिनके पास वित्त विभाग था, दूसरे विभागों के काम में रुकावट डालते।
गवर्नर लीग का साथ दे रहे थे, प्रांतीय सरकारें निष्क्रिय थीं, बल्कि कहीं-कहीं दंगों में खुद भी शामिल थीं और लोग मारे जा रहे थे। नेहरू को लग रहा था कि अगर इन चीजों को अंतरिम सरकार रोक नहीं पा रही है, तो फिर उसमें हमारे बने रहने का औचित्य क्या है? सत्ता के हस्तांतरण से कम-से-कम इतना तो होगा कि एक ऐसी सरकार बनेगी जो सचमुच नियंत्रण कर सके।
दो डोमिनियन राज्यों को तात्कालिक सत्ता हस्तांतरण की योजना स्वीकार करने का एक और कारण था। इससे भारत के विखंडीकरण की आशंका नष्ट हो जाती, क्योंकि इस योजना में प्रांतों और रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने की बात नहीं थी। बाद में वस्तुतः हुआ भी यही अपनी तमाम अनिच्छा के बावजूद रियासतों को इस या उस देश में शामिल होना पड़ा। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी। रियासतें अगर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखती, तो भारत की एकता के लिए वे पाकिस्तान से भी बड़ा खतरा साबित होती।
इस तरह 1947 में कांग्रेस द्वारा विभाजन का स्वीकार करना, मुसलिम लीग की एक संप्रभु मुसलिम राज्य की दलील को कदम-दर-कदम स्वीकार करने की प्रक्रिया का ही आखिरी चरण था। 1942 में क्रिप्स मिशन के समय ही मुसलिम बहुल प्रांतों की स्वायत्तता मंजूर कर ली गई थी।
गाँधीजी एक कदम और आगे बढ़ गए तथा 1944 में जिन्ना से अपनी वार्ताओं के दौरान उन्होंने मुसलिम बहुल प्रांतों के आत्म निर्णय का अधिकार भी मान लिया। जून 1946 में कांग्रेस ने इस संभावना को भी स्वीकार कर लिया कि मुसलिम बहुल प्रांत (जिन्हें कैबिनेट मिशन योजना में ग्रुप ‘बी’ और ‘सी’ में रखा गया था) अपनी अलग संविधान सभा बना सकते हैं, हालांकि उसने अनिवार्य समूहीकरण (बुपिग) का विरोध किया और कहा कि उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत तथा असम को यह अधिकार होना चाहिए कि वे चाहें तो अपने ग्रुप में शामिल न हों लेकिन साल बीतते-बीतते नेहरू ने कह दिया कि समूहीकरण अनिवार्य रहेगा या ऐच्छिक, इस पर संघीय न्यायालय का निर्णय उन्हें मंजूर होगा।
फिर जब दिसंबर में ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने यह स्पष्टीकरण किया कि समूहीकरण अनिवार्य है, तो कांग्रेस ने इसका विरोध नहीं किया। आधिकारिक तौर पर विभाजन की बात कांग्रेस ने मार्च 1947 में मान भी ली,
जब कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि यदि देश का बँटवारा होता है, तो पंजाब (और इसी में निहित था कि बंगाल) का भी बँटवारा होना ही चाहिए। वस्तुतः लीग के सम्मुख जून 1947 में ही पूर्ण समर्पण किया जा चुका था, जब कांग्रेस ने यह इच्छा प्रकट की थी कि यदि तत्कालीन अंतरिम सरकार को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाए, तो वह डोमिनियन का दरजा स्वीकार कर लेगी। लेकिन अंततः उसने विभाजन और डोमिनियन का दरजा, दोनों स्वीकार कर लिए।
कांग्रेस के नेताओं का जनाधार खिसकना
कांग्रेस के नेता बातें तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे, लेकिन ट्रेजेडी यह थी कि धीरे-धीरे अपनी जमीन भी खोते जा रहे थे। कांग्रेस संविधान सभा को संप्रभुता पर जोर दे रही थी, लेकिन उसने चुपचाप अनिवार्य समूहीकरण स्वीकार कर लिया तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को पाकिस्तान का अंग मान लिया।
कांग्रेस के नेताओं ने विभाजन के लिए इसी कारण हामी भरी, क्योंकि वे सांप्रदायिक दंगों को रोक नहीं पा रहे थे, लेकिन हिंसा के आगे आत्मसमर्पण न करने की बात भी वे दोहराते जा रहे थे।
नेहरू के शब्द थे : “हम हत्या से हाथ मिलाने नहीं जा रहे हैं और न उसे देश की नीति तय करने की इजाजत ही देंगे।”
गाँधीजी ने वायसराय से बात करते हुए दृढ़ स्वर में कहा था, “अगर भारत खून से नहाना चाहता है, तो यही होगा।” वे अक्सर कहा करते थे कि हिंसा के आगे आत्मसमर्पण से अराजकता बेहतर है।”
झूठी आशाएँ
दरअसल, इन वक्तव्यों के द्वारा कांग्रेस के नेता इस वास्तविकता को झुठलाने की कोशिश कर रहे थे। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी, क्योंकि शायद ही किसी ने कल्पना की हो कि घटना प्रवाह इतना तेज हो जाएगा। न कोई यह मानने को तैयार था कि यह प्रक्रिया उलटी नहीं की जा सकती।
विभाजन की घोषणा के बाद भी दोनों देशों के लाखों लोग इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। यही कारण है कि जनसंख्या की अदला-बदली इतनी अफरातफरी में हुई। कांग्रेस (खासकर नेहरू) ख्वाब में खोई हुई थी और सांप्रदायिक विस्फोट की गति का आकलन करने में असमर्थ थी।
अलग होने के अधिकार की कांग्रेस ने भी इसी उम्मीद में मंजूरी दी थी कि “मुसलमान इस पर अमल नहीं करेंगे, बल्कि इसका इस्तेमाल वे अपने डर दूर करने में करेंगे” ( नेहरू)। कांग्रेस के नेता यह नहीं समझ पा रहे थे कि 1940 के दशक-मध्य में जो सांप्रदायिकता दिखाई पड़ रही थी, वह 1920 या 1930 के दशक की सांप्रदायिकता नहीं थी, जब अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को हवा दी जा रही थी यह एक निश्चयात्मक “मुसलिम राष्ट्र” था जो किसी भी तरह अपना अलग अस्तित्व बनाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
एक और झूठी आशा यह थी कि एक बार अंग्रेज़ चले गए, तो भारतीय अपने मतभेद सुलझा लेंगे। ऐसा सोचने वाले लोग सांप्रदायिकता को कम करके आँक रहे थे। मुसलिम साम्प्रदायिकता ने अब ब्रिटिश सत्ता की बैसाखी छोड़ दी थी और अपने पाँव पर खड़ी हो गई थी तथा अपने भूतपूर्व संरक्षकों की अवज्ञा भी करने लगी थी। कुछ लोगों को यह उम्मीद भी थी कि विभाजन अस्थायी है। वे मानते थे कि हिंदुओं और मुसलमानों की मौजूदा मानसिकता का कारण अभी अपरिहार्य है, लेकिन जब सांप्रदायिक उन्माद थमेगा और समझदारी लौटेगी, तो भारत पाकिस्तान एक हो जाएँगे।
गाँधीजी अकसर कहते थे कि यदि लोगों ने विभाजन को हृदय से स्वीकार नहीं किया, तो पाकिस्तान ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकता। नेहरू ने करिअप्पा से कहा, “हमें आलोकित पर्वत शिखरों तक पहुँचने के लिए अक्सर अँधेरी घाटियों से गुज़रना पड़ता है।
जो कुछ वस्तुतः घटित हुआ, उसके संदर्भ में देखें, तो सबसे अवास्तविक आशा यह थी कि विभाजन शांतिपूर्ण होगा। न तो दंगों की कल्पना की गई थी और न बड़ी संख्या में लोगों के स्थानांतरण की योजना बनाई गई थी। माना यह जाता था कि जब पाकिस्तान की माँग मंजूर कर ली जाएगी, तो फिर लड़ने को रह क्या जाएगा?
नेहरू को हमेशा की तरह भारतीय जनता की अच्छाई में विश्वास था, हालाँकि अगस्त 1946 से ही दंगों की बाढ़ आई हुई थी, फिर भी यह उम्मीद की जा रही थी कि एक बार विभाजन का ऑपरेशन हुआ कि सारा पागलपन हवा हो जाएगा।
लेकिन शरीर इतना बीमार हो चुका था और ऑपरेशन के औजार भी कीटाणुग्रस्त थे, अतः ऑपरेशन बेहद अनगढ़ तरीके से हुआ। विभाजन के पहले स्थिति जितनी भयंकर थी, विभाजन के बाद उससे ज्यादा भयंकर हो गई।
गाँधी की स्थिति
गाँधीजी की क्या स्थिति थी? उनकी अप्रसन्नता और असहाय स्थिति का अक्सर जिक्र किया गया है। उनकी निष्क्रियता की व्याख्या यह कह कर की गई है कि कांग्रेस की फ़ैसला लेनेवाली समितियों में उनकी कोई आवाज नहीं रह गई थी तथा वे अपने ही शिष्यों, नेहरू और पटेल की, इस आधार पर आलोचना करने में अक्षम थे कि वे सत्ता के लालच में पड़ कर झुक गए, क्योंकि वे वही लोग थे, जो अनेक वर्षों से निष्ठापूर्वक उनका अनुसरण करते आ रहे थे तथा उन्होंने काफी कुरबानी भी दी थी।
हमारी दृष्टि में गाँधीजी की असहाय स्थिति का कारण न तो जिन्ना का दुराग्रह था और न उनके अपने शिष्यों की तथाकथित सत्ता लोलुपता। वे, दरअसल, अपने ही लोगों के सांप्रदायिक हो जाने से असहाय थे।
अपनी 4 जून 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि लोग ऐसा ही चाहते थे। यह माँग मंजूर की गई, क्योंकि आप लोगों ने ऐसा चाहा। कांग्रेस ने यह माँग कभी नहीं की, लेकिन कांग्रेस में जनता की नब्ज समझने की क्षमता है, उसने महसूस किया कि खालसा और हिंदू, दोनों की ‘इच्छा यही है।
तो यह विभाजन के लिए सिखों और हिंदुओं की आतुरता थी, जिसने गाँधीजी को व्यर्थ, दिशाहीन और अक्षम बना दिया था, गाँधीजी जन नेता थे और जन नेता की उस वक्त अहमियत ही क्या रह जाती है, जब उसका जन ही उसका अनुसरण करने से इनकार कर दे?
क्या वे सांप्रदायिकता के खिलाफ आंदोलन सांप्रदायिक जनता के बल पर छेड़ते, तो उनकी बात सुनने वाला कौन था? कारण, उनके अपने लोगों में साम्प्रदायिकता घुस गई गई थी।
गांधीजी कांग्रेस के नेताओं की अवहेलना तो कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया था, जब उन्होंने देखा कि समय संघर्ष के लिए सही है। लेकिन तब वे बड़े मैमाने पर कुछ नहीं कर पाते। एन.के. बोस ने जब अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि वे एक अनुकूल स्थिति उत्पन्न करें। तो गाँधीजी ने ईमानदारी से असमर्थता बतलाई। उनका विशेष गुण, उनके अपने ही शब्दों में, यही था कि वे सहज प्रक्रिया से यह जान गए थे कि लोगों के दिल में क्या चल रहा है और कौन सी चीजें पहले मौजूद रहती हैं, इसका मतलब एक आकार दे देना था।
1947 में ‘अच्छाई की ताकतें थीं ही नहीं, जिनके आधार पर वे कोई कार्यक्रम ले पाते- आज मुझे इस प्रकार की स्वस्थ भावना के कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। अतएव उपयुक्त समय तक मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
लेकिन ‘एक दृष्टि हीन व्यक्ति अंधेरे में निहायत अकेले टटोलते हुए, प्रकाश की किसी किरण तक पहुंच गया, तब तक राजनीति इंतजार नहीं कर सकती थी।’ माउंटबेटन योजना उनका पीछा कर रही थी और गाँधीजी समझ रहे थे कि दंगों तथा अंतरिम सरकार की अक्षमता के कारण विभाजन अपरिहार्य हो गया है, अतः वे 14 जून 1947 की अ.भा. कांग्रेस समिति की बैठक में दृढ़ क़दमों से गए और कांग्रेसजनों को विभाजन को एक तात्कालिक अनिवार्यता के रूप में स्वीकार करने को कहा, लेकिन उन्हें यह भी सलाह दी कि वे इसे दिल से स्वीकार न करें और इसे निरस्त करने का दीर्घकालिक कार्यक्रम निर्धारित करें।
गाँधी जी ने स्वयं को भी विभाजन हृदय से स्वीकार नहीं किया और नेहरू की तरह भारतीय जनता में उनकी आस्था बनी रही। हाँ, उन्होंने अकेले चलने का निर्णय लिया, वे नोआखाली के गाँवों में पैदल यात्रा करते रहे, बिहार के मुसलमानों को आश्वस्त करते रहे और कोलकाता में दंगा रोकने के लिए न केवल लोगों को समझाते रहे, बल्कि उपवास की धमकी भी देते रहे। वैसे भी ‘जदि डाक शुने केऊ न आशे, तबे एकला चलो रे’ (यदि आपके बुलाने से कोई नहीं आता, तो अकेले चलो) अरसे से उनका प्रिय गीत था, उन्होंने ऐसा किया।
15 अगस्त 1947 की सुबह आजादी और विभाजन की दोहरी वास्तविकता के साथ इस उपमहादेश पर उतरी। हमेशा की तरह, गांधी और नेहरू दोनों ही भारतीय जनता की भावनाओं को प्रतिबिम्बित कर रहे थे, गांधीजी अपनी प्रार्थना के जरिये अँधेरे में हो रही हलचल, हत्याएं, अपहरणों और बलात्कारों का प्रतिकार कर रहे थे, तो नेहरू की ऑंखें क्षितिज पर उभर रहे प्रकाश पर टिकी थी, जहां स्वतंत्र भारत का उदय हो रहा था- आधी रात में बारह बजे बजते ही, जब दुनिया सोई होती है, भारत जगेगा और रोशनी तथा आज़ादी हासिल करेगा।
उन्होंने इन काव्यात्मक शब्दों में कहा कि “बर्षों पहले नियति के साथ एक समझौता किया था’ लोगों को याद दिलाया कि उनकी किर्तव्यमूढ़ता ही एकमात्र सत्य नहीं है, उससे भी बड़ा सत्य है वह गौरवपूर्ण संघर्ष जो जद्दोजहद से भरा था, जिसके दौरान बहुत से लोग शहीद हुए और अनगिनत लोगों ने कर्बनियां दी, उस दिन का सपना देखा, जब भारत आजाद होगा, वह दिन आ गया था।