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ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रकृति तथा महत्त्व-सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव

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ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रकृति तथा महत्त्व-सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव

उपनिवेशवाद का अर्थ और परिभाषा

उपनिवेशवाद को एक शक्तिशाली देश द्वारा दूसरे कमजोर देश के लोगों और भौतिक क्षेत्र पर सैनिक और राजनीतिक या आर्थिक नियंत्रण हासिल करने के लिए उपयोग में लाई गई नीति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उपनिवेशवाद का मुख्य उद्देश्य आमतौर पर नियंत्रित क्षेत्र के भौतिक संसाधनों का उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु करना है।

उपनिवेशवाद की परिभाषा

उपनिवेशवाद” शब्द लैटिन शब्द “कोलियाना” से निकला है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “कृषि के लिए एक जगह”। मानक परिभाषा कमजोर आबादी या क्षेत्रों पर नियंत्रण बढ़ाने वाली एक शक्तिशाली इकाई की धारणा को शामिल करती है। पूरे इतिहास में, विभिन्न महाद्वीपों में विभिन्न सभ्यताओं ने उपनिवेशवाद को नियोजित किया है, लेकिन समकालीन उपयोग में, यह आमतौर पर 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 1970 के दशक की शुरुआत में विभिन्न क्षेत्रों में यूरोपीय आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व को संदर्भित करता है।

उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि दो शब्दों का अक्सर परस्पर उपयोग किया जाता है। उन्हें अलग करने वाली बारीकियों को समझने के लिए, कोई भी “उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के बीच अंतर” लेख को संदर्भित कर सकता है।

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ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरणों तथा भारत के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे पर इसके परिणामों का मिश्रित परिणाम रहा है। लेकिन कुछ सवाल – भारत में ब्रिटिश शासन पहले सभी शासकों से कैसे भिन्न था ? क्या ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज का केवल विनाश ही किया या फिर इसने भारत को बेहतर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आधारों पर खड़ा करने की दिशा में कोई प्रगतिशील भूमिका भी निभाई ? दूसरे शब्दों में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रकृति तथा महत्त्व क्या है? या उसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव किया थे?

कार्ल मार्क्स का दृष्टिकोण

ब्रिटेन द्वारा भारत का शासन सँभालने से पहले और इसके उपरांत इस उपनिवेशवाद के नाकारात्मक और सकारात्मक पक्षों को सामने रखने का कार्य महान समाजवादी चिंतक कार्ल मार्क्स ने किया।

मार्क्स ने 1853 में भारत पर उस समय एक लेखमाला लिखी जब ईस्ट इंडिया कंपनी का चार्टर अंतिम बार ब्रिटिश संसद के सामने पुनः अनुमोदन के लिए आया।(1) सबसे पहले मार्क्स ने भारत की सभी प्रकार की प्राक्-ब्रिटिश विजयों और कंपनी द्वारा भारत की विजय में अंतर स्पष्ट किया।

ब्रिटिश और अन्य विदेशी आक्रन्ताओं से तुलना

जैसाकि ऊपर वर्णन किया गया है, मार्क्स के अनुसार अरब, तुर्क, तातार, मुग़ल, जिन्होंने एक के बाद एक भारत पर विजय हासिल की, शीघ्र ही भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा बन गए। इतिहास के एक शाश्वत नियम की पुष्टि करते हुए बर्बर विजेता अपनी प्रजा की श्रेष्ठ सभ्यता द्वारा परास्त हो गए।

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इसके विपरीत ब्रिटिश शासन सर्वथा भिन्न था। यह एक ऐसे आधुनिक देश का शासन था जो अपने यहाँ सामंतवादी व्यवस्था समाप्त कर चुका था तथा भारत में प्रगतिशील व्यापारिक तथा औद्योगिक पूँजीवादी समाज तथा संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहा था।

पूँजीवादी राष्ट्र सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सामंतवादी समाज की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है क्योंकि यह अपेक्षाकृत उन्नत और परिष्कृत उत्पादन तकनीक पर आधारित होता है। (3)

पुराने विदेशी विजेताओं ने भारत के आर्थिक ढांचे अर्थात आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं किया और वे धीरे-धीरे इसी ढाँचे में रच-बस गए।

इसके विपरीत ब्रिटिश शासन ने अर्थव्यवस्था के पुराने आधारों का लगभग पूर्ण विनाश कर दिया और वह इंग्लैंड से नियंत्रित करने वाला एक विदेशी शासक बना रहा।

कृषि और किसान पर प्रभाव

विनाश की इस प्रक्रिया के मूल में प्रमुख कारण थे व्यापक स्तर पर प्रत्यक्ष लूट, प्राक्-ब्रिटिश राजाओं द्वारा संरक्षित किए जाने वाले सिंचाई तथा सार्वजनिक कार्यों की अवहेलना, जमींदारी और किसानों की निजी मिलकियत के रूप में निजी भू-स्वामित्व का आरंभ, ज़मीन को खरीदने और बेचने का अधिकार आरंभ करके कृषि भूमि का निजी संपत्ति में परिवर्तन, इंग्लैंड तथा यूरोप को निर्यात होने वाले उत्पादन पर प्रतिबंध और भारी शुल्क आदि इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति पूर्ण हो जाने पर औद्योगिक हित प्रमुख हो गए।

ग्रामीण उद्योगों पर प्रभाव

1813 के बाद इंग्लैंड के औद्योगिक उत्पादन के सैलाब ने भारतीय उद्योग को तहस-नहस कर दिया। भारत की ग्रामीण व्यवस्था कृषि और लघु उद्योग के सामंजस्य पर आधारित थी। करघा और चर्खा प्राचीन भारतीय समाज की धुरी थे।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने करघे और चरखे को तोड़कर एक ऐसी महानतम सामाजिक क्रांति कर डाली जो एशिया में पहले कभी भी नहीं देखी-सुनी गई थी। इस क्रांति ने भारत के न केवल पुराने औद्योगिक नगरों को नष्ट कर डाला और उन नगरों में रहने वाले लोगों को गाँवों में खदेड़ दिया बल्कि गाँवों के आर्थिक संतुलन को भी बिगाड़ दिया।

यहीं से खेती पर भीषण दबाव शुरू हुआ। इसके अलावा किसानों से बेरहमी से लगान वसूल किया गया और बदले में उनकी खेती के आवश्यक विस्तार के लिए कोई सुविधाएँ नहीं दी गई।

सकारात्मक पक्ष

परंतु मार्क्स ने ग्रामीण व्यवस्था के पतन और भारतीय समाज के पुराने आर्थिक आधार के विनाश पर आँसू नहीं बहाए पूँजीवादी सामाजिक क्रांति के परिणामस्वरूप होने वाले कष्टों के साथ-साथ मार्क्स ने ग्रामीण व्यवस्था के प्रतिक्रियावादी चरित्र को भी देखा और मानव जाति के विकास के लिए उस व्यवस्था के विनाश की अपरिहार्य आवश्यकता को भी महसूस किया। (4)

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जहाँ मार्क्स ने भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति को ‘सुअरपन‘ (swinish) की संज्ञा दी, वहाँ उसने भारत पर अंग्रेजों की विजय को इतिहास का अनभिप्रेत उपकरण (unconscious tool of history) भी माना ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का उद्देश्य दोहरा था पहला ध्वंसात्मक और दूसरा पुनर्निर्माणात्मक अर्थात् प्राचीन एशियाई समाज को नष्ट करना और पश्चिमी समाज के भौतिकवादी आधारों की नींव डालना।

मार्क्स ने उपनिवेशवाद द्वारा पुनर्जीवन देने वाले कई संकेतों का जिक्र किया, जैसे

(क) राजनीतिक एकता – मुग़ल बादशाहों के शासनकाल में स्थापित एकता से कहीं अधिक दृढ़ और व्यापक एकता जो निश्चय ही विद्युत टेलीग्राफ (electric telegraph) द्वारा अधिक मज़बूत होगी;

(ख) देशी सेना;

(ग) एशियाई समाज में पहली बार समाचारपत्रों की स्वतंत्रता की शुरूआत,

(घ) एशियाई समाज में ज़मीन पर निजी स्वामित्व की स्थापना;

(ङ) अँग्रेजों द्वारा, बेमन से छोटे पैमाने पर ही सही, भारतीयों का एक शिक्षित वर्ग तैयार करना जिसे शासन का संचालन करने की अपेक्षित जानकारी थी और जो यूरोपीय विज्ञान से परिचित था;

(च) भाप से चलने वाले जहाज़ों के जरिए यूरोप के साथ नियमित और शीघ्रगामी संचार साधनों का विकास। (5)

शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय

दूसरे शब्दों में, भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कुछ अप्रत्यक्ष लाभ भी हुए, जैसे विचारों का सामान्य विकास, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना, समाज में ऐसे शिक्षित वर्ग का उदय जिसे विचारों की स्वतंत्रता प्राकृतिक और अनिवार्य लगती थी, राष्ट्रीय भावना की जागृति आदि।(6) ब्रिटिश शासन ने देश में शांति और व्यवस्था स्थापित की।

सामाजिक कुप्रथाओं का अंत

भारत में अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त समाज सुधारक नेताओं की सहायता से सती प्रथा, बाल विवाह, शिशु हत्या तथा मानवीय बलि जैसी गतिविधियों को रोककर सामाजिक सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए।

रेलवे का विकास

रेलवे निर्माण तथा अन्य सार्वजनिक कार्यों-जिनका निर्माण सर्वथा साम्राज्यवादी हितों के दृष्टिकोण से किया गया था और जिनके लिए आम जनता को काफ़ी कष्ट उठाने पड़े के संभावित महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इसी तरह आर्थिक क्रांति ने, जिसका उद्देश्य केवल ब्रिटिश व्यापारियों तथा उद्योगपतियों के लिए लाभ कमाना था और जिससे भारतीय जनता का बुरी तरह शोषण किया गया, भारत के मध्ययुगीन अलगाव को तोड़ने और इसके आर्थिक जीवन को आधुनिक युग के नज़दीक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद को भारत में एक प्रगतिशील शक्ति का दर्जा दे दिया जाए जिसमें भारतीय जनता को आजाद कराने और उसे सामाजिक उन्नति के रास्ते पर लाने की क्षमता थी।

जब मार्क्स ने भारत में अंग्रेज़ों के पूँजीवादी शासन को पुनर्जीवन देने वाली भूमिका की चर्चा की तो उसने यह स्पष्ट किया कि वह साम्राज्यवाद की महज इस भूमिका का उल्लेख कर रहे है। कि इसने आधुनिक प्रगति के लिए भौतिक परिस्थितियाँ तैयार कर दी है।

नकारात्मक प्रभाव

लेकिन यह नई प्रगति भारतीय जनता केवल स्वतंत्र भारत में ही कर सकती है या फिर ब्रिटेन में मजदूर वर्ग की विजय से यह कार्य संपन्न हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक भारत में साम्राज्यवाद द्वारा लाई गई सभी भौतिक उपलब्धियाँ भारतीय जनता की स्थिति में न तो कोई लाभ पहुँचाएँगी और न ही उसमें कोई सुधार होगा।” (7)

पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था का उदय

भारत के ग्रामीण अर्थतंत्र पर आधारित आर्थिक अलगाव की समाप्ति और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था द्वारा आर्थिक इकाई के रूप में भारत का रूपांतर ब्रिटिश उपनिवेशवाद का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रगतिशील परिणाम था। परंतु जहाँ तक यह रूपांतर ब्रिटिश व्यापार, उद्योग तथा बैंकिंग की आवश्यकताओं द्वारा प्ररित होता रहा, उस सीमा तक यह भारतीय समाज के स्वतंत्र और अविच्छिन्न विकास में बाधक रहा।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत की सामंतवादी अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बदला, हालांकि यह परिवर्तन अधूरा और विकृत ही था। पुराने भूमि-संबंधों तथा हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास तथा उसकी जगह नए भूमि संबंधों और आधुनिक उद्योग के उदय ने भी इसमें कुछ हद तक सहायता की पुराने उद्योगों और भूमि व्यवस्था पर आधारित पुराने वर्गों के विनाश तथा नए भूमि संबंधों और नए उद्योगों पर आधारित देहाती और शहरी दोनों क्षेत्रों में नए वर्गों का उदय ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान हुआ।

नए वर्ग का उदय

देहाती क्षेत्रों में जो नए वर्ग पैदा हुए वे इस प्रकार थे–

(क) : जमीन के मालिक जमींदार जिनका एक हिस्सा शहरों में रहता था।

(ख) इन जमींदारों से लगान पर जमीन लेकर काश्त करनेवाले काश्तकार।

(ग) ज़मीन के मालिक धनी, मध्य और ग़रीब किसान।

(प) खेतिहर मजदूर और

(ङ) आधुनिक व्यापारी और आधुनिक सूदखोर शहरों में जहाँ हस्तशिल्पी वर्ग समाप्त होता गया वहाँ उसका स्थान नए वर्गों ने ले लिया, जैसे (क) औद्योगिक, व्यावसायिक और वित्तीय पूँजीपति (ख) कल-कारखानों, यातायात, खानों आदि में काम करने वाला आधुनिक मजदूर वर्ग: (ग) आधुनिक पूँजीवादी अर्थतंत्र से जुड़े छोटे व्यापारी और दुकानदार तथा कारीगर; और (घ) डॉक्टर, वकील, अध्यापक, पत्रकार, मैनेजर, क्लर्क आदि बुद्धिजीवी तथा वृत्तिजीवी लोगों का मध्यवर्ग।

निष्कर्ष

इस तरह ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रभाव केवल अर्थव्यवस्था पर ही नहीं पड़ा वरन् भारत के संपूर्ण ढाँचे पर पड़ा।’ जहाँ ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत के आर्थिक ढांचे को नष्ट कर दिया मगर दूसरी और बौद्धिक और सामाजिक परिवर्तनों को जन्म दिया। सामाजिक कुरीतियों को समाप्त किया और शिक्षा को आधुनिक आधार प्रदान किया।

सन्दर्भ

1 – मार्क्स एंड एंगेल्स – उपनिवेशवाद पर , पृष्ठ 19, 35, 77, 81
2- देसाई ए. आर. – भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि- पृष्ठ 83
3- मार्क्स एंड एंगेल्स – उपनिवेशवाद पर पृष्ठ 41
4- रजनी पाम दत्त – आज का भारत पृष्ठ 117
5- मार्क्स एंड एंगेल्स – उपनिवेशवाद पर पृष्ठ 81
6- Moore Barrington, Social Origins of Dictatorship and Democracy (Penguin, 1968), p. 347
7- मार्क्स और एंगेल्स, उपनिवेशवाद पर पृष्ठ 81
8- ए.आर. देसाई, ऑप. सिट., पृ. 34-35.

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