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असहयोग आंदोलन के क्या कारण थे: प्रमुख घटनाएं, आंदोलन के कार्यक्रम, चौरी चौरा की घटना, महात्मा गाँधी की भूमिका

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भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में असहयोग आंदोलन का बहुत महत्व है क्योंकि 1857 के ग़दर के पश्चात ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी गई थी। यद्यपि असहयोग आंदोलन का उद्देश्य अहिंसक तरीकों से अंग्रेजों से स्वराज्य प्राप्त करना था। यद्यपि यह आंदोलन अपने लक्ष्य में असफल रहा लेकिन इसने भारतियों में राष्ट्रवाद को जगाने का कार्य किया। इस लेख में हम असहयोग आंदोलन के कारण, घटनांए, परिणाम आदि की तथ्यपरक जानकरी प्राप्त करेंगे लेख को अंत तक अवश्य पढ़े.

असहयोग आंदोलन के क्या कारण थे: प्रमुख घटनाएं, आंदोलन के कार्यक्रम, चौरी चौरा की घटना, महात्मा गाँधी की भूमिका

असहयोग आंदोलन

बीसवी सदी के दूसरे दशक का अंतिम वर्ष यानी 1920 भारतीय जनता के लिए निराशा और क्षोभ का वर्ष था। जनता उम्मीद लगाए बैठी थी कि प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार उनके लिए कुछ करेगी, लेकिन रौलट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जनता समझ गई कि अँग्रेजी हुकूमत सिवा दमन के उसे और कुछ न देगी।

मांटाग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों (1919) का मकसद भी दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि जनता को राहत देना। इससे भी असंतोष और उभरा। मुसलमानों को महसूस होने लगा कि अँग्रेजी हुकूमत ने उन्हें भी धोखा दिया है। प्रथम विश्वयुद्ध में मुसलमानों का सहयोग लेने के लिए अंग्रेजों ने तुर्की के प्रति उदार रवैया अपनाने का वादा किया था, पर बाद में वे मुकर गए।

भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना धर्मगुरु मानते थे। उन्हें लगा कि अब तुर्की के धर्मस्थलों पर खलीफा का नियंत्रण नहीं रह जाएगा। भारतीय मुसलमान इससे बहुत क्षुब्ध हुए।

गाँधीजी और उन जैसे तमाम लोग, जो यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि जलियाँवाला बाग़ कांड और पंजाब में उपद्रवों की निष्पक्ष जाँच होगी और ब्रिटिश सरकार तथा जनता इसकी एक स्वर से निंदा करेगी, अब निराश हो चले थे।

‘हंटर कमेटी’ द्वारा इन घटनाओं की जांच जिस तरह की जा रही थी, उससे ये लोग काफी शुब्ध थे। उधर ब्रिटिश संसद विशेषकर ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ में जनरल डायर के कारनामों को उचित करार दिया गया था और ‘मार्निंग पोस्ट’ ने डायर के लिए 30 हज़ार पौंड का कोष इकट्ठा किया था। ये सारी कारगुज़ारियाँ अंग्रेजी हुकुमत का पर्दाफाश करने के लिए काफी थीं।

अप्रैल 1920 तक ब्रिटिश सरकार के पास अपने गलत कदमों को सही ठहराने के सारे तर्क चुक गए थे। खिलाफत नेताओं से साफ़-साफ़ कह दिया गया था कि वे अब और अधिक उम्मीद न रखें। तुर्की के साथ 1920 में हुई संधि इस बात का सबूत थी कि तुर्की के विभाजन का फैसला अंतिम है।

गांधीजी को इससे भी गहरा दुःख पहुंचा। वह खिलाफत नेताओं के दोस्त थे। नवंबर 1919 में खिलाफत सम्मेलन में उन्हें विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था। गाँधीजी को भी अहसास हुआ कि अंग्रेज़ों ने धोखा दिया है।

1920 में गांधीजी ने खिलाफत कमेटी को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अहिसक असहयोग आंदोलन छेड़ने की सलाह दी। 9 जून 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया और गांधीजी को इस आंदोलन की अगुआई करने का अधिकार सौंपा।

इसी बीच कांग्रेस को भी महसूस होने लगा था कि संवैधानिक तौर तरीकों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। पंजाब उपद्रवों की जाँच करने वाली कमेटी की रिपोर्ट से भी कांग्रेस की निराशा ही हाथ लगी।

कांग्रेस ने खुद इन घटनाओं की जाँच कराई और सच का पता लगाया। इस तरह ब्रिटिश हुकूमत के रवैये से क्षुब्ध कांग्रेस भी असहयोग आंदोलन का रास्ता अख्तियार करने को तैयार थी। मई 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई और सितंबर में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन आयोजित करने का फ़ैसला किया गया। उद्देश्य था- आगे की रणनीति तय करना ।

देश की जनता भी अंग्रेजी हुकूमत से खार खाए बैठी थी। इससे पहले के चार दशकों क राष्ट्रीय आंदोलन ने जनता के एक बहुत बड़े तबके को राजनीतिक रूप से सक्रिय बनाया था। अंग्रेजी हुकुमत की धोखेबाजी और दमन से जनता कसमसा उठी थी। उसे लग रहा था कि अब चुप रहना कायरता होगी।

इसके अलावा आर्थिक कठिनाइयों ने भी जनता को संघर्ष के लिए उकसाया। प्रथम विश्वयुद्ध के कारण महँगाई बहुत बढ़ गई थी। नगरों और कस्बों में रहने वाले मजदर, दस्तकार, मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग सभी परेशान थे। खाद्यान्नों की कमी तो बी ही, कीमतें भी आसमान छू रही थीं। मुद्रास्फीति लगातार बढ़ती जा रही थी।

विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद भी यह क्रम समाप्त नहीं हुआ। गाँवों में किसान और खेतिहर मजदूर सूखा, महामारी और प्लेग से जूझ रहे थे। इन महामारियों की चपेट में आकर हजारों लोग मर गए। इस तरह शहरों गाँवों और कस्बों में, सभी जगह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोग कसमसा रहे थे। विरोध की इस ऊर्जा को सही दिशा देने भर की ज़रूरत थी।

पहली अगस्त 1920 को आंदोलन छिड़ गया। गाँधीजी ने 22 जून को ही वाइसराय को एक नोटिस दिया था, जिसमें लिखा था, “कुशासन करने वाले शासक को सहयोग देने से इनकार करने का अधिकार हर आदमी को है।” पहली अगस्त को ही प्रातः तिलक का निधन हो गया। तिलक के निधन पर शोक और आंदोलन की शुरुआत दोनों चीजें एक साथ मिल गई। पूरे देश में हड़ताल मनाई गई, प्रदर्शन हुए, सभाएं आयोजित की गई और कुछ लोगों ने उपवास रखा।

असहयोग आंदोलन को कांग्रेस की मंजूरी

सितंबर में कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। कई वरिष्ठ नेताओं के विरोध के बावजूद असहयोग आंदोलन को कांग्रेस ने मंजूरी दे दी, इसे अपना आंदोलन मान लिया। विरोधियों में प्रमुख सी. आर. दास। उनका विरोध विधान परिषदों (लेजिस्लेटिव एसेंबली) के बहिष्कार को लेकर था। कुछ ही दिन बाद इनके चुनाव होने वाले थे। लेकिन बहिष्कार के विचार से असहमति रखनेवालों ने भी कांग्रेस के अनुशासन का पालन किया और चुनावों में भाग नहीं लिया। ज्यादातर मतदाताओं ने भी इसका बहिष्कार किया।

भारत का स्वतंत्रता संघर्ष दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। इस समय तक कांग्रेस में अंदरूनी विरोध लगभग खत्म हो चुका था। विधान परिषदों के चुनाव हो चुके थे, इसलिए इसके बहिष्कार का विवादास्पद मुद्दा भी खत्म हो गया था।

असहयोग आंदोलन के क्रायक्रम

सी.आर. दास ने ही इस सम्मेलन में असहयोग आंदोलन से संबद्ध प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव काफी लंबा-चौड़ा था। असहयोग आंदोलन कार्यक्रम के तहत तमाम चीजें आती थीं, जैसे उपाधियों और प्रशस्तिपत्रों को लौटाना, सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार।

इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि बाद में जनता को सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने और कानून की अवज्ञा- जिसमें कर अदायगी न करना भी शामिल हो के लिए भी कहा जा सकता था।

राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना और स्थानीय विवादों के निबटारे के लिए पंचायतों के गठन का भी प्रस्ताव था। हाथ से कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देने तथा हिंदू-मुसलिम एकता को बढा देने पर विशेष जोर देने की बात कही गई थी।

छुआछूत को मिटाने और हर हाल में अहिंसा का पालन करने का सख्त निर्देश था। गाँधीजी ने आश्वासन दिया कि यदि इन कार्यक्रमों पर पूरी तरह अमल हुआ, तो एक वर्ष के भीतर ही आज़ादी मिल जाएगी।

इस तरह नागपुर कांग्रेस सम्मेलन ने जनांदोलन के संविधान- इतर तरीके अपनाने की घोषणा कर दी। उग्र क्रांतिकारी से संबंधित के तमाम गुटों ने (ज्यादातर बंगाल के इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया।

नए कार्यक्रमों पर अमल करने के लिए कांग्रेस के संगठनात्मक ढाँचे में भी कई परिवर्तन किए गए, उद्देश्य भी बदल गया। पहले उद्देश्य था संवैधानिक और वैधानिक तरीकों से स्वशासन (सेल्फ गवर्नमेंट) की प्राप्ति, अब उद्देश्य था अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की प्राप्ति गांधीजी द्वारा तैयार कांग्रेस के नए संविधान ने भी कांग्रेस के चरित्र को काफी हद तक बदला।

अब कांग्रेस के रोज़मर्रा के काम को देखने के लिए 15 सदस्यीय कार्यकारिणी गठित की गई। तिलक ने 1916 में ही इसका प्रस्ताव रखा था, पर नरमपंथी कांग्रेसियों के विरोध के कारण इसे मंजूरी नहीं मिली।

गाँधीजी जानते थे कि किसी आंदोलन को लंबे समय तक चलाने के लिए कोई ऐसी कमेटी होनी चाहिए, जो साल भर सारा कामकाज देखती रहे। स्थानीय स्तर पर कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के लिए प्रदेश कांग्रेस समितियों का गठन किया गया। इनका गठन भाषाई आधार पर किया गया, जिससे इनमें स्थानीय लोगों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी हो।

इसके बाद कांग्रेस ने गाँवों-कस्बों तक पहुँचने का लक्ष्य बनाया। गाँवों और कस्बों में भी कांग्रेस समितियाँ गठित की गई। सदस्यता फीस चार आना साल कर दी गई जिससे गरीब लोग भी सदस्य बन सकें। इस तरह कांग्रेस संगठन का दायरा भी बढ़ा और उसका विबंदीकरण भी हुआ। कांग्रेस ने यह भी तय किया कि जहाँ तक संभव हो, हिंदी को ही बतौर संपर्क भाषा इस्तेमाल किया जाए।

कांग्रेस द्वारा इसको अपनाने के फलस्वरूप असहयोग आंदोलन में नई ऊर्जा भरी जनवरी 1921 से पूरे देश में आंदोलन की लोकप्रियता बढ़ने लगी। गाँधीजी ने खिलाफत नेता अली भाइयों के साथ पूरे देश का दौरा किया, सैकड़ों सभाओं में भाषण दिए और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात की, उनसे बातचीत की।

पहले महीने में ही हजारों छात्रों ने (एक आँकड़े के अनुसार 90,000) सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों में भरती हो गए। उस समय देश में 800 राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज थे। शिक्षा का बहिष्कार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक सफल रहा। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राज्यव्यापी हड़ताल की। उनकी माँग थी कि स्कूलों के प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़े।

सी. आर. दास ने इस आंदोलन को बहुत प्रोत्साहित किया और सुभाषचंद्र बोस ‘नेशनल कॉलेज’ (कलकत्ता) के प्रधानाचार्य बन गए। पंजाब में भी बड़े पैमाने पर शिक्षा का बहिष्कार किया गया। बंगाल के बाद इसी का नंबर था। लाला लाजपत राय ने यहाँ बड़ा काम किया, हालांकि शुरू में वह इसके समर्थक नहीं थे। बबई, उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, असम में भी इस कार्यक्रम पर काफी अमल हुआ, लेकिन मद्रास में इसे सफलता नहीं मिली।

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अदालतों का बहिष्कार

वकीलों ने बड़े पैमाने पर अदालतों का बहिष्कार तो नहीं किया, लेकिन देश के. जाने-माने वकीलों, जैसे सी. आर. दास, मोतीलाल नेहरू, एम. आर. जयकर, किचलू, वल्लभ भाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, टी. प्रकाशम और आसफ अली के वकालत छोड़ने से लोग बहुत प्रोत्साहित हुए। संख्या की दृष्टि से इस बार भी बंगाल पहले नंबर पर रहा, उसके बाद आंध्र. उत्तरपदेश, कर्नाटक और पंजाब।

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विदेशी कपड़ों का बहिष्कार

बहिष्कार आंदोलन में सबसे अधिक सफल था विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का कार्यक्रम। कार्यकर्ता घर-घर जाकर विदेशी कपड़े इकट्ठे करते, स्थानीय लोग एक जगह इकट्ठे होते और इन कपड़ों की होली जलाई जाती।

प्रभुदास गाँधी, महात्मा गाँधी के साथ देश के दौरे पर गए थे। वे बताते हैं कि दूरदराज के स्टेशनों पर, जब गाड़ी खड़ी होती, तो गाँधीजी स्टेशन पर खड़े लोगों से कहते कि आप लोग पूरा कपड़ा न सही, विरोध जताने के लिए अपनी पगड़ी, दुपट्टा या टोपी को ही उतार दीजिए। लोग फौरन अपना दुपट्टा, टोपी या पगड़ी, जिसके पास जो होता, उतार देते।

प्रभुदास गाँधी बताते हैं कि जैसे ही हमारी गाड़ी आगे बढ़ती, इन कपड़ों की होली जलाई जाती। ट्रेन की खिड़की से लपटें दिखाई देतीं। विदेशी कपड़े बेचनेवाली दुकानों पर धरना भी बहिष्कार आंदोलन में शामिल था। इसका नतीजा यह हुआ कि 1920-21 में जहाँ एक अरब दो करोड़ रुपए मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह घटकर 57 करोड़ हो गया।

ताड़ी की दुकानों पर धरना

इस आंदोलन में एक और कार्रवाई, जो बहुत लोकप्रिय हुई, वह थी ताड़ी की दुकानों पर धरना। हालाँकि यह मूल कार्यक्रम में नहीं था। सरकार को इससे बहुत आर्थिक नुकसान पहुँचा और वह मजबूर होकर इसके प्रचार में जुट गई। वह बताने लगी कि ताड़ी पीने के कितने फायदे हैं।

बिहार और उड़ीसा की सरकार ने तो इतिहास पुरुषों के नाम तक गिनाए कि कितने महान महान लोग शराब का सेवन करते थे (मूसा, सिकंदर, जूलियस सीजर, नेपोलियन, शेक्सपीयर ग्लैडस्टान, टेनीसन और बिस्मार्क का नाम लिया गया)।

‘तिलक स्वराज फंड’

मार्च 1921 में विजयवाड़ा में कांग्रेस सम्मेलन हुआ। कार्यकर्ताओं को आदेश दिया गया कि वे अगले तीन महीने तक अपना सारा ध्यान कोष इकट्ठा करने, सदस्य बनाने और चरखा बाँटने पर दें। सदस्यता का लक्ष्य एक करोड़ रखा गया था। यह लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुंचा दी गई। ‘तिलक स्वराज फंड’ अपने लक्ष्य से भी आगे निकल गया। एक करोड़ से ज्यादा रुपए इकट्ठे कर लिए गए।

चरखे और खादी का प्रचार

चरखे और खादी का खूब प्रचार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन की प्रतीकं बन गई। छात्रों की एक सभा में गाँधीजी खादी पहनने की अपील कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने शिकायत की कि खादी बहुत महंगी है। गाँधीजी ने सुझाव दिया कि कम कपड़े पहनिए,

“गाँधीजी ने खुद उस दिन से कुर्ता और धोती पहनना छोड़ दिया, लंगोटी पहनने लगे और जीवन भर अधनंगे फकीर की तरह रहे।”

जुलाई 1921 में सरकार के सामने एक नई चुनौती आ खड़ी हुई। 8 जुलाई को कराची में खिलाफत सम्मेलन में मुहम्मद अली ने घोषणा की कि किसी भी मुसलमान का सेना में रहना धर्म के खिलाफ है। उन्होंने लोगों से कहा कि वे इस संदेश को हर मुसलमान सैनिक तक पहुँचाएँ। इस भाषण के तुरंत बाद मुहम्मद अली अपने साथियों समेत गिरफ्तार कर लिए गए। इस गिरफ्तारी का नतीजा यह हुआ कि इसके विरोध में आयोजित सभाओं में इस अपील को बार-बार दोहराया गया, उसका खूब प्रचार हुआ।

4 अक्तूबर को गाँधी समेत कांग्रेस के 47 वरिष्ठ नेताओं ने एक बयान जारी कर मुहम्मद अली के बयान की एक तरह से पुष्टि तो की ही, साथ ही यह भी कहा कि हर भारतीय नागरिक और सैनिक का कर्तव्य है कि वह दमनकारी सत्ता से अपना नाता तोड़ ले, उसे किसी तरह का सहयोग न दे। अगले दिन कांग्रेस कार्यकारिणी ने इसी तरह का एक प्रस्ताव पास किया और 16 अक्तूबर को पूरे देश में विभिन्न कांग्रेस समितियों की बैठक में इसको मंजूरी दी गई। सरकार ने अपनी हार मान ली, बहुत बेइज्ज़ती हुई, उसने इस घटना को अनदेखा कर दिया।

प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा

इसके बाद हुई प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा, जो 17 नवंबर 1921 को शुरू हुई थी। जिस दिन वे बंबई आए पूरे भारत में हड़ताल थी उसी दिन गाँधीजी ने बंबई में एलफिस्टन मिल के अहाते में मज़दूरों की सभा में भाषण किया। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। लेकिन दुर्भाग्य से इसी दिन बंबई की सड़कों पर खून-खराबा हो गया।

गाँधीजी की सभा से लौटनेवालों और प्रिंस के स्वागत समारोह में भाग लेनेवालों में संघर्ष हो गया। शहर में दंगा भड़क उठा और इसके ज्यादातर शिकार हुए पारसी, ईसाई और एंग्लो-इंडियन इन्हें अंग्रेजी हुकूमत का समर्थक माना जाता था। तीन दिनों तक हिसात्मक वारदातें होती रहीं।

हिसा और पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने में 58 व्यक्ति मारे गए। गाँधीजी जब तीन दिन तक अनशन पर बैठे, तब कहीं जाकर हिंसा की आग ठंडी पड़ी। गाँधीजी इन हिंसात्मक वारदातों से बहुत क्षुब्ध हुए।

प्रिंस ऑफ वेल्स’ जहाँ भी गए, वीरान सड़कों और बंद दरवाज़ों ने ही उनका स्वागत किया। असहयोग आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ता ही जा रहा था। कांग्रेस की स्वयंसेवी कोर, दिन-ब-दिन शक्तिशाली होती जा रही थी मानो समांतर पुलिस दस्ते का गठन हो रहा हो। वर्दी और काम के तरीके देख, सरकार का चितित होना स्वाभाविक था।

कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस समितियों को यह इजाजत दे दी थी कि जब भी उन्हें लगे कि जनता कानून अवजा आंदोलन के लिए तैयार है, वे आंदोलन छेड़ सकती हैं। मिदनापुर (बंगाल) और गंटूर जिले (आंध) के चिराला पिराला और पेडानंडीपाड़ तालुका में तो कर अदा न करने का आंदोलन छिड़ ही गया था।

असहयोग आंदोलन अप्रत्यक्ष रूप से भी प्रभाव डाल रहा था। अवध (उत्तर प्रदेश) में असहयोग आंदोलन 1920-22 किसान सभा और किसान आंदोलन 1918 से ही जोर पकड़ते जा रहे थे। असहयोग के प्रचार से, जिसे करते हुए जवाहरलाल नेहरू भी अवध के देहातों में घूम रहे थे, इसे बल मिला।

कुछ ही दिनों में यह पता लगाना मुश्किल हो गया कि बैठक किसान सभा की है या असहयोग आंदोलनकारियों की। केरल में मलाबार में असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन खेतिहर मुसलमानों को उनके भूस्वामियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के लिए उकसाया, लेकिन दुर्भाग्य से आंदोलन ने यहाँ कहीं-कहीं सांप्रदायिकता का रुख अख्तियार कर लिया।

असम में चाय बागान के मज़दूर हड़ताल पर चले गए। सरकार ने जब हड़ताली मज़दूरों पर गोली चलाई तो स्टीमर पर काम करने वाले मजदूर भी हड़ताल पर चले गए। असम बंगाल रेलवे कर्मचारियों ने भी हड़ताल कर इनका साथ दिया।

बंगाल के राष्ट्रवादी नेता जे.एम. सेनगुप्त ने इस दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मिदनापुर में एक गोरी ज़मींदारी कंपनी के खिलाफ काश्तकारों की हड़ताल का नेतृत्व किया, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के एक छात्र ने आंध्र में वन-कानून के खिलाफ आंदोलन छिड़ा।

राजस्थान में किसानों और आदिवासियों ने आंदोलन छेड़ा। पंजाब में अकालियों ने गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों के कब्जे के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। यह वास्तव में देशव्यापी असहयोग आंदोलन का ही एक हिस्सा था। तमाम दमन के बावजूद अकाली आंदोलनकारी अहिसा के रास्ते से डिगे नहीं।

इस तरह के हज़ारों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हमारा कहने का मकसद सिर्फ इतना है कि असहयोग आंदोलन ने तमाम स्थानीय आंदोलनों को जन्म दिया और जो पहले से चल रहे थे उन्हें और बल दिया। बात दीगर है कि ये आंदोलन कहीं-कहीं असहयोग आंदोलन की नीतियों और अहिंसा के सिद्धांत से मेल नहीं खाते थे।

ऐसी हालत में सरकार समझ गई कि अब मामले को अनदेखा करने से काम चलने वाला नहीं है, दमन का रास्ता अख्तियार करना ही होगा। सितंबर 1920 में जब आंदोलन शुरू हुआ था, सरकार का मानना था कि दमन से विद्रोह की आग और भड़केगी तथा जो लोग मारे जाएँगे, उन्हें जनता शहीद का दरजा देगी।

अंग्रेजी सरकार द्वारा आंदोलन का दमन

मई 1921 में नए वाइसराय लॉर्ड रैडिंग ने गाँधीजी से मुलाकात की और गाँधीजी से कहा कि वे अली भाइयों को अपने भाषणों में हिसा भड़काने वाली बातें न कहन के लिए मनाएँ। सरकार का उद्देश्य था- गाँधीजी और अली भाइयों में आपसी फूट डालना। लेकिन वह इसमें असफल हुई और गाँधी-रेडिंग वार्तालाप यहीं पर समाप्त हुआ।

दिसंबर आते-आते सरकार को महसूस हो गया कि मामला हाथ से निकलता जा रहा है। उसने अपनी नीतियों में परिवर्तन की घोषणा की स्वयंसेवी संगठनों से गैर-कानूनी घोषित किया गया और इसके सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा।

सी. आर. दास और उनकी पत्नी की गिरफ्तारी

सबसे पहले सी. आर. दास को गिरफ्तार किया गया और बाद में उनकी पत्नी बासंती देवी को । इस गिरफ़्तारी का बंगाल में व्यापक पैमाने पर विरोध हुआ और हज़ारों लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं। अगले दो महीने के भीतर पूरे देश में लगभग 30 हज़ार लोग गिरफ्तार किए गए। बाद में तो बड़े नेताओं में केवल गाँधीजी ही बाहर रह गए थे।

दिसंबर के मध्य में मालवीयजी के माध्यम से बातचीत करके मामला सुलझाने की कोशिश की गई, पर इसके साथ जो शर्तें जुड़ी थीं, खिलाफत आंदोलनकारियों के हितों के विरुद्ध थी। अतः गांधीजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। वैसे भी ब्रिटेन की सरकार समझौते के

मूड में नहीं थी और उसने वाइसराय लॉर्ड रेडिंग को आदेश दिया कि वह वार्तालाप को वहीं समाप्त कर दें। दमन का दौर चलता रहा। बैठकों, सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, अखबारों की आवाज़ बंद कर दी गई। कांग्रेस और खिलाफत कार्यालयों पर रात को छापा पड़ना आम बात हो गई थी।

चौरीचौरा कांड 5 फ़रवरी 1922

उधर गाँधीजी पर राष्ट्रीय स्तर पर कानून की सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने के लिए लगातार दबाव पड़ रहा था। दिसंबर 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस सम्मेलन में ही कांग्रेस ने भावी रणनीति तय करने की पूरी जिम्मेदारी गाँधीजी पर सौंप दी थी।

उधर सरकार के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा था। जनवरी 1922 में सर्वदलीय सम्मेलन की अपील और वाइसराय के नाम गाँधीजी के पत्र का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। गाँधीजी ने लिखा कि यदि सरकार नागरिक स्वतंत्रता बहाल नहीं करेगी, राजनीतिक बंदियों को रिहा नहीं करेगी, तो वह देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने को बाध्य हो जाएँगे।

सरकार पर, जब इसका कोई असर नहीं हुआ, तो गाँधीजी ने मजबूर होकर सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने की घोषणा की। यह आंदोलन बारदोली तालुका (सूरत) से शुरू होने वाला था। गाँधीजी ने देश की जनता से अपील की कि वह पूरी तरह अनुशासित और शांत रहे, जिससे सारा ध्यान बारदोली पर ही कवित किया जा सके। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। चौरीचौरा (गोरखपुर- उत्तर प्रदेश) कांड ने भारयोली में प्रस्तावित आंदोलन को छह साल के लिए रोक दिया।

5 फ़रवरी 1922 को चौरीचौरा (गोरखपुर उत्तर प्रदेश) में कांग्रेस और खिलाफत का एक जुलूस निकला था। कुछ पुलिसवालों ने इनके साथ दुर्व्यवहार किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि जुलूस में शामिल एक जत्थे ने पुलिस पर हमला बोल दिया। पुलिस ने गोली चलाई। पुलिस की गोलीबारी से जुलूस में शामिल सारे लोग उत्तेजित हो गए और पुलिस पर हमला बोल दिया।

सिपाही भागकर थाने में घुस गए, तो भीड़ ने थाने में आग लगा दी। जो सिपाही भागने के प्रयास में बाहर आए उन्हें भीड़ ने मार डाला और आग में फेंक दिया। 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इस घटना की खबर मिलते ही गाँधीजी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी। उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी से इस फ़ैसले को स्वीकृति देने की अपील की। 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन समाप्त हो गया।

गाँधीजी के निर्णय ने एक विवाद खड़ा कर दिया एक ऐसा विवाद, जिस पर आज भी संगोष्ठियों, सम्मेलनों में बहस होती है। इतिहास की किताबों में बहुत कुछ लिखा गया है और आज भी लिखा जा रहा है।

मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस व अन्य नेता यह खबर सुनकर भौंचक्के रह गए। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि एक दूरदराज के गाँव में कुछ लोगों की गलत हरकतों का खामियाज़ा पूरा देश क्यों भुगते। कई लोगों को लगा कि महात्मा गाँधी में अब नेतृत्व की क्षमता नहीं रह गई है। वे असफल हो गए हैं और उनकी लोकप्रियता के दिन अब खत्म हो रहे हैं।

गाँधी जी पर अमीर वर्गों के हितकारी होने का आरोप

ब्रितानी मार्क्सवादी रजनीपाम दत्त और उनकी बनाई हुई परंपरा पर चलने वाले कई और टीकाकारों ने भी गाँधी के निर्णय की आलोचना की। गाँधी के इस निर्णय को वे बतौर सबूत पेश करते हैं कि गाँधीजी अमीर वर्गों के हितों का ख्याल रखते थे।

इनका तर्क है कि रांधी ने यह निर्णय महज इसलिए नहीं किया कि चौरीचौरा की घटना उनके अहिंसक सिद्धात के विरुद्ध थी, बल्कि उन्हें यह महसूस होने लगा था कि भारतीय जनता अब जुझारू संघर्ष के लिए तैयार हो रही है, अमीर शोषकों के खिलाफ़ कमर कस रही है। गाँधी को लगा कि आंदोलन की बागडोर उनके हाथ से निकलकर लड़ाकू ताक़तों के हाथ में जाने वाली है। उन्हें’ लगा कि पूँजीपतियों और भूस्वामियों के खिलाफ लड़ाई होने ही वाली है।

इन्हीं के हितों को महेनज़र रखते हुए उन्होंने आंदोलन वापस लिया ये लोग अपने तर्क के लिए ‘बारदोली प्रस्ताव’ (12 फरवरी 1922 को बारदोली में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई थी, जहाँ यह प्रस्ताव पारित हुआ जो बारदोली प्रस्ताव के नाम से मशहूर है) को बतौर सबूत पेश करते हैं। इनका कहना है कि गाँधीजी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा के साथ-साथ किसानों से कर और काश्तकारों से लगान देने की अपील भी की थी। आंदोलन वापस लेने के पीछे गाँधी का असली मकसद यही था।

हमारे ख्याल में गाँधीजी के आलोचकों ने उनके साथ पूरी तरह न्याय नहीं किया। एक दूरदराज के गाँव में हिंसात्मक वारदात आंदोलन वापस लेने का कारण नहीं हो सकती, यह तर्क वजनदार नहीं दीखता। गाँधी ने बार-बार कहा था कि बारदोली में अवज्ञा आंदोलन के दौरान देश के अन्य हिस्सों में किसी भी तरह का आंदोलन नहीं होना चाहिए-अहिसक आंदोलन भी नहीं। आंध्रप्रदेश कांग्रेस कमेटी ने कुछ जिला इकाइयों को अवज्ञा आंदोलन चलाने की अनुमति दे दी थी। गाँधीजी ने निर्देश दिया कि वह अपनी अनुमति वापस ले ले।

गांधीजी शायद सोचते थे कि इस समय देशव्यापी आंदोलन छेडने से हिंसा भड़क उठने का खतरा है, जैसा कि 1921 में बंबई में और बाद में चौरीचौरा में हुआ था। इस तरह की वारदातों से सरकार को पूरे देश में आंदोलन के खिलाफ दमनात्मक कदम उठाने का बहाना मिलता। गाँधीजी को आशंका थी कि इस तरह की कार्रवाइयों से अहिंसक असहयोग आंदोलन की समूची रणनीति विफल हो जाएगी।

अहिंसक आंदोलन की रणनीति यह थी कि दमनकारी सत्ता यदि इस आंदोलन के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई करेगी तो उसका चरित्र बेनकाब हो जाएगा क्योंकि अहिंसक और निहत्थे लोगों पर हमले से पूरा जनमत उसके खिलाफ हो जाएगा।

इस प्रकार यह कहना गलत है कि चौरीचौरा कांड और बारदोली आंदोलन प्रकरण का कोई आपसी संबंध नहीं था बारदोली आंदोलन को दबाने के लिए सरकार को चौरीचौरा की घटना का बहाना मिल जाता, सरकार ही यह संबंध बना देती।

गांधीजी का शायद यह अनुमान था कि चौरीचौरा कांड ने बारदोली से व्यापक अवज्ञा आंदोलन छेड़ने की संभावनाओं को काफ़ी हद तक कम कर दिया है। उनका मानना था कि यदि इस समय बारदोली में आंदोलन शुरू हुआ, तो सरकार चौरीचौरा कांड का बहाना लेकर कार्यकर्ताठों का दमन करेगी और अवज्ञा आंदोलन शुरू में ही विफल हो जाएगा।

आंदोलन वापस लेने के पीछे गांधीजी की मंशा आंदोलन की ऊर्जा को बरकरार रखने व जनता क हतोत्साहित होने से बचाने की थी। हालांकि आंदोलन वापस लेने की घोषणा से भी जनता क एक बहुत बड़ा तबका निराश हुआ था, लेकिन यदि सत्ता को दमन का बहाना मिलता और वह दमन पर उतारू हो जाती, तो जनता में इससे कहीं अधिक निराशा व्याप्त होती (जैसा 1932 में हुआ)।

यह नहीं भूलना चाहिए कि असहयोग आंदोलन, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ देशव्यापी जनसंघर्ष का प्रथम प्रयास था। शुरुआती दौर में इस पर किसी तरह का हमला घातक सिद्ध होता। आंदोलनकारियों में ही नहीं, जनता में भी निराशा व्याप्त हो जाती।

दूसरा तर्क कि, गाँधीजी ने लड़ाकू ताकतों के बढ़ते प्रभाव से डरकर आंदोलन वापस लिया, सच्चाई से दूर है। चौरीचौरा कांड को बतौर सबूत पेश किया जाता है। पर चौरीचौरा में पुलिस थाने पर हमला करने वाली भीड़ ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिससे यह लगे कि ये लोग ज़मींदारों, पूँजीपतियों के खिलाफ संगठित हो रहे थे या संघर्ष कर रहे थे। आर्थिक संबंधों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने जैसी भी कोई बात नहीं थी ये लोग पुलिस के दुर्व्यवहार से नाराज़ हो गए थे और अपना गुस्सा उन्होंने पुलिस पर ही उतारा।

उत्तरप्रदेश और मलाबार में किसान आंदोलन तो बहुत पहले ही समाप्त हो चुका था। अवध के ग्रामीण इलाकों में कहीं-कहीं एका आंदोलन चल रहा था, पर यह ज़मींदारी को उखाड़ फेंकने के लिए था। इस आंदोलन की माँग थी कि जमींदार अवैध कर न वसूलें और मनमाने ढंग से मालगुजारी न बढ़ाएँ।

एका आंदोलन में शामिल करने से पहले सदस्यों को जो शपथ दिलाई जाती थी, उसमें एक शपथ यह भी थी कि ‘हम खरीफ और रवी में नियमित रूप से लगान देते रहेंगे।’ आंध्र के गुंटूर जिले में कर अदायगी न करने का आंदोलन तो असहयोग आंदोलन का ही एक हिस्सा था। यह सरकार के खिलाफ था और पूरी तरह अहिसक था। इस तरह यह पता नहीं चल पाता कि वे कौन-सी जुझारू व लड़ाकू ताकतें थीं, जिनसे गाँधीजी डर गए थे।

तीसरा तर्क यह है कि बारदोली प्रस्ताव ने किसानों और काश्तकारों से कर व लगान की अदायगी करने को कहा और जमींदारों को यह विश्वास दिलाया कि उनके अधिकारों को कम करने का कांग्रेस का कोई इरादा नहीं है। आरोप है कि आंदोलन वापस लेने के पीछे वास्तविक उद्देश्य जमींदारों के हितों की रक्षा करना था, यह आरोप गलत है।

कांग्रेस का इसके पीछे कोई ‘छिपा मंतव्य’ नहीं था सच तो यह है कि पूरे आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने कभी भी जमीदारों के अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगाया ही नहीं था, अतः बारदोली प्रस्ताव ने इस मुद्दे पर कांग्रेस की नीतियों की महज़ पुष्टि की थी। कर न अदा करने का आंदोलन असहयोग आंदोलन का एक हिस्सा था। जब असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया, तो कर अदा न करने का आंदोलन कैसे चलता ?

गाँधीजी द्वारा आंदोलन वापस लेने के पीछे शायद एक और कारण था। 1921 की दूसरी छमाही के शुरू होते-होते आंदोलन कमजोर पड़ने लगा था। छात्र स्कूलों में और वकील अदालतों में लौटने लगे थे। व्यापारी वर्ग विदेशी कपड़ों के ‘स्टॉक’ से चितित होने लगा था, बैठकों और रैलियों में लोगों की संख्या कम होती जा रही थी। हालांकि कुछ जगहों जैसे बारदोली (गुजरात) और गुंटूर (आंध) में राजनीतिक गतिविधियाँ काफी तेज़ थीं और लोग संघर्ष के लिए आतुर थे, लेकिन 1921 के शुरू में पूरे देश में आंदोलन के प्रति जो उत्साह था, अब वह नहीं रह गया था।

सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता तो चाहते थे कि आंदोलन को आगे बढ़ाया जाए, उसे तेज किया जाए, पर किसी जन आंदोलन की सफलता या विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है।

हम यह बात दावे के साथ नहीं कह रहे हैं कि गाँधीजी ने आंदोलन के प्रति घटते उत्साह के कारण ही इसे वापस लिया चूँकि इस विषय पर शोध कार्य अभी अपूर्ण है, अतः हमारा कहना है कि इस बारे में कोई निष्कर्ष निकालते समय इस संभावना को भी ध्यान में रखा जाए।

गाँधी के आलोचक अकसर यह भूल जाते हैं कि कोई भी जनांदोलन लगातार नहीं चलता। उसमें पड़ाव आता है। कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह सुस्ताता है, थकावट दूर करता है और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा जुटाता है। इसका मूल कारण यह है कि जनता की दमन सहने और बलिदान करने की शक्ति असीमित नहीं होती।

इस तरह कभी आंदोलन वापस लेने की घोषणा या कभी समझौतावादी रुख अख्तियार करना जनता पर आधारित राजनीतिक संघर्ष की सही रणनीति है। आंदोलन को वापस लेना विश्वासघात नहीं हुआ करता, यह तो रणनीति का हिस्सा है। हाँ, इस बात पर बहस हो सकती है कि आंदोलन सही समय पर वापस लिया गया है या गलत समय पर

वापस लेने का समय आ ही गया है, ऐसा सोचने के लिए शायद गाँधीजी के सामने काफी कारण थे। गाँधीजी ने जब यह निर्णय किया, तो आंदोलन को लगभग एक साल से ज्यादा हो चुका था, अंग्रेजी सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार था। इससे पहले कि आंदोलन की अपनी कमजोरियाँ उभरकर सामने आती और समर्पण की नौबत आती, चौरीचौरा कांड ने आंदोलन वापस लेने का एक मौका दिया।

गाँधीजी ने वादा किया था यदि उनकी नीतियों पर सही ढंग से अमल किया गया, तो एक साल में स्वराज की स्थापना हो जाएगी। साल खत्म हो गया। स्वराज की बात तो दूर, अंग्रेजी हुकूमत छोटी-मोटी रियायतें भी देने को तैयार न थी, लेकिन क्या समूचा संघर्ष निरर्थक या ? आंदोलन विफल रहा? इसका जवाब ‘हाँ’ में नहीं दिया जा सकता।

असहयोग आंदोलन की अनेक सफलताएँ उपलब्धियाँ हैं। इसी आंदोलन ने पहली बार देश की जनता को इकट्ठा किया। अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर कोई यह आरोप नहीं लगा सकता था कि वह कुछ मुट्ठी भर लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। अब इसके साथ किसान, मजदूर, दस्तकार, व्यापारी, व्यवसायी, कर्मचारी, पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, सभी लोग थे। पूरे देश में कहीं कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ इस आंदोलन का असर न पड़ा हो। बात दीगर है कि कहीं असर तेज़ था, कहीं कम।

इसी आंदोलन ने यह दिखाया कि हिदुस्तान की वह जनता, जिसे फिरंगी मूर्ख, दीन-हीन समझते थे, आधुनिक राष्ट्रवादी राजनीति की बाहक हो सकती है, राजनीतिक संघर्ष शुरू कर सकती है। भारतीय जनता के त्याग और बलिदान ने दमनकारी सत्ता को जता दिया कि देश की आजादी की भूख पढ़े-लिखों को ही नहीं, निरक्षर जनता को भी सताती है। आजादी के लिए गुलाम देश का हर नागरिक संघर्ष करेगा।

यह बात अलग है कि सभी लोग आजादी के लिए संघर्ष के सारे दाँव-पेंच एकदम से नहीं समझ सकते थे, अपेक्षित अनुशासन नहीं बरत पाते थे, लेकिन असहयोग आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही रही कि उसने जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित कराया, आज़ादी की भूख जगाई। यह पहला अवसर था, जब राष्ट्रीयता ने गाँवों, कस्बों, स्कूलों, सबको अपने प्रभाव में ले लिया। शुरुआती दौर था यह कमियाँ तमाम थी, इसलिए सफलताएं भी कम मिलीं। लेकिन जो कुछ भी हासिल हुआ, वह आगामी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करने में सहायक हुआ।

मलाबार की घटनाओं के बावजूद इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की भागीदारी और सांप्रदायिक एकता आंदोलन की कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी मुसलमानों की भागीदारी ने ही इस आंदोलन को जनांदोलन का स्वरूप दिया, कुछ क्षेत्रों में तो गिरफ्तार लोगों में दो तिहाई मुसलमान थे।

लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि बाद के वर्षों में, जब सांप्रदायिकता ने जोर पकड़ लिया, तो राष्ट्रीय आंदोलनों में सांप्रदायिक सद्भाव का वह चरित्र बरकरार न रह सका। असहयोग आंदोलन में गाँधीजी व अन्य नेता मसजिदों में भाषण देते थे, गाँधीजी ने मुसलमान औरतों की सभा में भाषण किया। लेकिन यह सौहार्द और एकता आजादी के लिए बाद के संघर्षों में नहीं दिखी।

फिलहाल 12 फ़रवरी 1922 को आंदोलन में जो पड़ाव आया था, वह अस्थायी साबित हुआ। मांटाग्यू और बरकेनहेड ने चुनौती दी थी कि “भारत, दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता को चुनौती नहीं दे सकता और अगर चुनौती दी गई, तो इसका उत्तर पूरी ताक़त से दिया जाएगा।”

गाँधी ने आंदोलन वापस लेने के बाद 23 फरवरी 1922 को ‘यंग इंडिया’ में अपने लेख में इस चुनौती का उत्तर दिया। “अंग्रेजों को यह जान लेना चाहिए कि 1920 में छिड़ा संघर्ष अंतिम संघर्ष है, निर्णायक संघर्ष है, फैसला होकर रहेगा, चाहे एक महीना लग जाए, या एक साल लग जाए, कई महीने लग जाएँ या कई साल लग जाएँ। अंग्रेजी हुकूमत चाहे उतना ही दमन करे जितना 1857 के विद्रोह के समय किया था, फैसला होकर रहेगा।”

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