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उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं: राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, और धार्मिक जीवन

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ऋग्वैदिक काल अथवा पूर्व वैदिक काल जिसका समय लगभग 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक रहा। उसके पश्चात् आये परिवर्तनों की विशेषताओं के आधार पर उसके बाद के काल को उत्तर वैदिक काल कहा गया है। इस लेख में हम उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं: राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, और धार्मिक जीवन का अध्य्यन करेंग। विस्तृत और सारगर्भित ज्ञान के लिए लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं: राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, और धार्मिक जीवन

उत्तर वैदिक कालीन-राजनीतिक जीवन का स्वरुप और विशेषताएं

उत्तर वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन था – पूर्व के छोटे-छोटे जन अब राजनितिक इकाई के रूप में मिलकर जनपदों में परिवर्तित हो गए। इसी समय राष्ट्र शब्द का प्रयोग भी पहली बार हुआ। जैसे पुरु और भरत मिलकर ‘कुरु’ (पुरु+भरत=कुरु), तथा तुर्वस और क्रिवि मिलकर ‘पांचाल’ बन गए (तुर्वश+क्रिवि=पांचाल)। इससे राजा के अधिकारों और शक्ति में भी वृद्धि हुई। उस पर अब सभा और समिति का नियंत्रण समाप्त हो गया। इसका यह अर्थ नहीं है कि ये संस्थाएं महत्वहीन हो गईं, क्योंकि अथर्ववेद में सभा और समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है’। ऋग्वेद काल की सबसे प्राचीन संस्था विदथ उत्तर वैदिककाल में सर्वप्रथम समाप्त हो गयी।

राजा की उत्पत्ति

राजा की उत्पत्ति का सिद्धान्त का विवरण सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। अधिकारों में वृद्धि के परिणामस्वरूप अलग-अलग दिशाओं के राजा के नाम अलग-अलग होने लगे। मध्य देश में वह राजा, पूर्व में सम्राट, पश्चिम में स्वराट्, उत्तर में विराट् तथा दक्षिण में भोज कहा जाने लगा जो राजा चारों दिशाओं पर विजय प्राप्त करता था उसे एकराट कहा जाता था।

उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं: राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, और धार्मिक जीवन

ऐतरेय ब्राह्मण में कई प्रकार के राज्यों का भी उल्लेख है जैसे –

भौज्य- इस राज्य के शासक को राजा कहा जाता था।

महाराज्य-यहाँ के शासक को सम्राट कहा जाता था।

वैराज्य-जहाँ कोई राजा न हो अर्थात् गणराज्य । –

अथर्ववेद में एक राजा परीक्षित का उल्लेख है, जो मृत्युलोक का देवता था। उपनिषदों में कई राजाओं के नामों का उल्लेख है जैसे केकय के अश्वपति, काशी के अजातशत्रु, विदेह के जनक, कुरू के उद्वालक आरुणि तथा पांचाल के प्रवाहण जैवलि आदि। इसमें केकय जनपद का राजा अश्वपति दार्शनिक था। कुरू जनपद के राजा (राजधानी आसंदीवत्) उद्वलक आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच ब्रह्म एवं आत्मा की अभिन्नता के विषय में विख्यात संवाद दोग्य उपनिषद् में मिलता है।

वृहदारण्यक उपनिषद् से पता चलता है कि के पिता उद्वालक आरुणि पंचाग्नि ज्ञान प्राप्त करने के लिए पांचाल नरेश प्रवाह के पास गए और शिक्षा प्राप्त की । छांदोग्य उपनिषद् में उल्लिखित है कि उद्दालक आरुणि, पंचाग्नि एवं वैश्वानर शिक्षा प्राप्त करने के लिए केकय नरेश अश्वपति के पास गए थे।

शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक से शिक्षा प्राप्त की। शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि राजा जनक ने एक दार्शनिक गोष्ठी में ब्राह्मणों को पराजित किया। इसके बदले में ब्राह्मणों ने उन्हें राजन्य बन्धु की उपाधि प्रदान की और ब्रह्म ज्ञान के कारण इन्हें ब्राह्मण भी कहा। इसी प्रकार छांदोग्य उपनिषद् में उल्लिखित है कि महर्षि बालाकि गार्ग्य ने काशी नरेश अजातशत्रु से शिक्षा प्राप्त की थी।

राज्याभिषेक – राजा का राज्याभिषेक राजसूय यज्ञ के द्वारा सम्पन्न होता था। राजसूय यज्ञ का विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। राजसूय यज्ञ के समय राजा रत्नियों को हवि प्रदान करता था, उनके प्रति सम्मान प्रकट करता था तथा समर्थन की आशा करता था। राजसूय यज्ञ में 17 प्रकार के जलों से राजा का अभिषेक किया जाता था

रत्निन-ये राज्य के उच्च पदाधिकारी थे जो कुलीन वर्ग से सम्बन्धित थे। इन्हें रत्निन् इसलिए भी कहा जाता था क्योंकि ये कान में रत्न धारण करते थे।

शतपथ ब्राह्मण में सर्वाधिक 12 रत्नियों का उल्लेख है। ये निम्नलिखित थे –

1. सेनानी-यह सबसे प्रमुख रत्निन था।

2. पुरोहित – इसका स्थान दूसरा था।

3. युवराज-राजा का पुत्र ।

4. महिषी-यह पटरानी थी। –

5. सूत-राजा का सारथी।

6. ग्रामणी-ग्राम का मुखिया ।

7. क्षत्ता-प्रतिहारी या द्वारपाल

8. संग्रहीता-कोषाध्यक्ष ।

9. भागदुध-कर एकत्र करने वाला अधिकारी।

10. अक्षवाप-द्यूतक्रीड़ा में राजा का मित्र

11. पालागल-विदूषक का पूर्वज और राजा का साथी एवं वन का अधिकारी।

इसके अतिरिक्त स्थपति (मुख्य न्यायाधीश) तक्षण (बढ़ई) और क्षत्री (कंचुकी) का उल्लेख मिलता है।

सूत एवं ग्रामणी को कर्तृ (राजा बनाने वाला) कहा गया है। राजा का एक नाम विशमत्ता (विशको खाने वाला) पड़ गया, क्योंकि वह विश (वैश्य) से कर वसूलता था।

उत्तर वैदिक काल में राजसूय यज्ञ की तरह ही अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ, अग्निष्टोम यज्ञ एवं सौत्रामणि यज्ञ भी प्रचलित थे।

अश्वमेध यज्ञ- यह राज्य विस्तार से सम्बन्धित यज्ञ था, जिसमें एक घोड़ा छोड़ा जाता था।

वाजपेय यज्ञ-यह एक प्रकार की रथदौड़ थी, जिसमें राजा का रथ सबसे आगे रहता था। उत्तर वैदिक काल में राजा अपनी प्रजा से कर वसूलने लगा था। इसे बलि, शुल्क या भाग कहा जाता था। ध्यातव्य है कि ऋग्वेद काल में बलि राजा को दिया जाने वाला स्वैच्छिक उपहार था।

उत्तरवैदिक काल में कर वसूलने वाले अधिकारी को भागदुध तथा कोषाध्यक्ष को संग्रहीता कहा जाता था। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है कि केवल वैश्य वर्ग ही कर देता था। इसकी मात्रा 1/16 भाग थी। वैश्य द्वारा दूसरे को बलि (कर) देने के कारण उसका एक नाम अन्यस्यबलिकृत तथा अन्यस्याद्य (दूसरे के द्वारा उपभोग में आने वाला) पड़ गया।

न्याय व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। इस काल के ग्रंथों में ग्रामवादिन शब्द का उल्लेख मिलता है इसका मतलब है कि गाँव का विवाद गाँव में ही कर लिया जाता था। सभा के द्वारा भी न्यायिक कार्य सम्पन्न किया जाता था।

ब्राह्मण को मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था। अपराध सिद्धि के लिए जल परीक्षा एवं अग्नि परीक्षा प्रचलित थी। उत्तर वैदिक काल में राजा कोई स्थाई सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के जवानों के दल भरती कर लिए जाते थे और कर्मकाण्ड के एक अनुष्ठान के अनुसार युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को एक ही थाली में अपने भाई-बन्धुओं (विश) के साथ खाना पड़ता था।

सामाजिक जीवन की विशेषताएं

उत्तर वैदिक कालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था है। यद्यपि वर्ण व्यवस्था की नींव ऋग्वेद काल में पड़ चुकी थी परन्तु यह पूर्णतः स्थापित उत्तरवैदिक काल में ही हुई। समाज में चार वर्ण-ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र थे। यज्ञ और कर्मकांडों का अनुष्ठान बढ़ जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई।

ऋग्वैदिक काल में 7 पुरोहित होते थे जबकि उत्तर वैदिक काल में इनकी संख्या बढ़कर 17 तक पहुँच गई। इनमें से जिसको ब्रह्म का ज्ञान होता था, वह ब्राह्मण कहलाया। ब्राह्मण लोग अपने यजमानों के लिए तथा अपने लिए धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे। वे कृषि कार्यो से जुड़े पर्वों या त्यौहारों में यजमानों का प्रतिनिधित्व करते थे, युद्ध में राजा की जीत के लिए देव आराधना करते थे एवं उसके बदले में राजा से अभयदान प्राप्त करते थे।

ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि उत्तर वैदिक काल में क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों से श्रेष्ठ थी। ऐतरेय ब्राह्मण का यह अंश जिसमें कहा गया है “ब्राह्मण जीविका चाहने वाला और दान देने वाला है, लेकिन राजा जब चाहे उसे हटा सकता है।” क्षत्रियों की स्पष्टतः श्रेष्ठता का द्योतक है।

वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ‘विश’ शब्द से हुई है। समाज का यही वर्ग कर देता था इसलिए इसके नाम अन्यस्यबलिकृत एवं अन्यस्याद्य पड़ गए। वैश्यों की सबसे बड़ी आकांक्षा ग्रामणी बनना था।

शूद्रों की दशा समाज में निम्न थी। उनका कार्य अन्य वर्गों की सेवा करना था। जाति व्यवस्था अभी स्थापित नहीं हो पायी थी परन्तु उनका उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया। इससे उनकी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इस काल के ग्रंथों में शूद्रों को तीनों वर्गों का सेवक (अन्यस्यप्रेष्य उसे मनमाने ढंग से उखाड़ फेंका जाने वाला (कामोत्या) तथा इच्छानुसार वध किया जा सकने वाला (यथाकामवध्यः) भी कहा गया है, जो समाज मे उनकी गिरती दशा का धोतक है।

उत्तर वैदिक समाज में रथकार का स्थान ऊँचा था। इसका भी उपनयन संस्कार ऊपर के तीनों वर्णों की भाँति होता था।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक काल में वर्ण-भेद प्रचलित नहीं हुआ था। परिवार स्तर पर पिता का अधिकार बढ़ता गया। वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था। राजपरिवार में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया ।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा

ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आयी। इसका उल्लेख तत्कालीन साहित्यों में भी मिलता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ही समस्त दुखों का कारण माना गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों को पाँसा और सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है।

वृहदारण्यक उपनिषद् में उल्लिखित याज्ञवल्क्य – गार्गी संवाद जहाँ एक ओर यह दर्शाता है कि समाज में कुछ नारियाँ उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं, वहीं इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि शायद उसकी भी सीमा थी। एक वाद-विवाद के दौरान याज्ञवल्क्य ने गार्गी से कहा कि अधिक बहस न करो अन्यथा तुम्हारा सिर तोड़ दिया जाएगा।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा बहुत खराब हो चुकी थी क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में स्त्री को ‘अर्द्धांगिनी’ कहा गया है।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बन्द हो गया, उन्हें सभा और विद्थ में भाग लेने से रोक दिया गया। अब कम उम्र में भी उनका विवाह (बाल-विवाह) होने लगा। उन्हें सम्पत्ति का अधिकार पहले से ही प्राप्त नहीं था। नियोग प्रथा प्रचलित थी, जबकि सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। इस काल में बहुत सी विदुषी स्त्रियों का भी उल्लेख है। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ मैत्रेयी और कात्यायनी थीं अन्य प्रमुख विदुषी स्त्रियों में गार्गी, सुभला, वेदवती, कृत्सनी आदि हैं।

गोत्र प्रथा का उद्भव

उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है- गोष्ट – या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गौधन पाला जाता था, परन्तु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया, फिर गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी। तद्नुसार एक ही गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया।

आश्रम व्यवस्था का उदय

उत्तर वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था स्थापित हुई। उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है। चतुर्थ आश्रम (संन्यास) उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था। आश्रम का अर्थ है श्रम करने के बाद विश्राम करना। एक हिन्दू के जीवन को चार भागों में बाँटकर उसे अलग-अलग आश्रमों से जोड़ दिया गया। जाबालोपनिषद् में सर्वप्रथम चारों आश्रमों का एक साथ उल्लेख मिलता है, जबकि छांदोग्य उपनिषद् में केवल तीन आश्रमों का। आश्रम के बारे में विधिवत् जानकारी धर्मसूत्रों से प्राप्त होती है। इन सभी जाश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वोच्च माना जाता है। यह सभी वर्गों में प्रचलित था।

1. ब्रह्मचर्य आश्रम ( 25 वर्ष तक )- इस आश्रम में मनुष्य बौद्धिक विकास, ज्ञान तथा शिक्षा – प्राप्त करता था। ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन का काल था जिसका प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता था। बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार गायत्री मंत्र के द्वारा वसंत ऋतु में 8 वर्ष की अवस्था में किया जाता था। क्षत्रिय बालक का उपनयन संस्कार ग्रीष्म ऋतु में त्रिष्टुप मंत्र द्वारा 11 वर्ष की अवस्था में होता था। इसी प्रकार वैश्य बालक का उपनयन संस्कार शरद ऋतु में जगती मंत्र द्वारा 12 वर्ष की अवस्था में होता था।

मुख्यतः 25 वर्ष की उम्र तक बालक शिक्षा प्राप्त करता था, बहुत से ब्रह्मचारी ऐसे भी होते थे जो जीवन पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करते थे उन्हें नैष्ठिक कहा जाता था। निश्चित समय तक शिक्षा प्राप्त करने वाले ब्रह्मचारी को उपकुर्वाण कहा जाता है।

वे कन्याएं जो आश्रम में रहकर जीवन भर शिक्षा प्राप्त करती थीं, ब्रह्मवादिनी कहलाती थीं, जबकि विवाह पूर्व तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्यायें सद्योवधु कहलाती थी।

2. गृहस्थ आश्रम ( 25 वर्ष से 50 वर्ष तक)-गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है। यह समाज के सभी वर्णों में मान्य था। गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति पाता था। इसी आश्रम में ही पंच महायज्ञ तथा त्रिवर्ग का विधान था।

शिक्षा प्राप्ति के पश्चात समावर्तन संस्कार गुरु आश्रम में ही सम्पन्न होता था। इसके पश्चात् ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था जो ब्रह्मचारी बिना समावर्तन संस्कार सम्पादित हुए ही वापस चले जाते थे, उनके लिए खटवारूढ़ शब्द का प्रयोग किया जाता था।

त्रि-ऋण- एक मनुष्य को तीन ऋणों से उऋण होना आवश्यक था –

1. ऋषि ऋण-वैदिक ग्रंथों का अध्ययन।

2. पितृ ऋण – पुत्र की उत्पत्ति ।

3. देव ऋण-यज्ञ आदि करवाना।

पंच महायज्ञ – गृहस्थ आश्रम में ही पंचमहायज्ञ सम्पादित किए जाते थे –

(1) ब्रह्म यज्ञ या ऋषि यज्ञ – इसमें वेदों का अध्ययन किया जाता था। इस यज्ञ के माध्यम से व्यक्ति प्राचीन विद्वान ऋषियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता था।

(ii) देव यज्ञ – इस यज्ञ में देवताओं का पूजन आदि करके उन्हें प्रसन्न किया जाता था।

(iii) पितृ यज्ञ – यह मृत पितरों की शान्ति हेतु किया जाता था। इसमें पितरों को तर्पण, श्राद्ध आदि किया जाता था।

(iv) भूत यज्ञ – इस यज्ञ के माध्यम से भूत-प्रेतों आदि को शान्त किया जाता था।

(v) मनुष्य यज्ञ या नृ-यज्ञ – इसका उद्देश्य अतिथियों की सेवा करना था। वर्ग – गृहस्थ आश्रम से त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति का ज्ञान होता था।

3. वानप्रस्थ आश्रम : ( 50 से 75 वर्ष तक ) – जब मनुष्य लौकिक जीवन के कार्यों से मुक्ति पा लेता था तब वह पारलौकिक जीवन की तरफ उन्मुख होता था। अतः वानप्रस्थ भौतिक जीवन से मुक्ति का साधन था, परन्तु अब भी व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध बना रहता था।

4. संन्यास (75 वर्ष से 100 वर्ष तक) संन्यास का अर्थ है ‘पूर्ण त्याग’। इसमें मनुष्य घर का पूर्ण त्याग, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से करता था।

ज्ञान-पान, रहन-सहन, मनोरंजन- ऋग्वेद काल की अपेक्षा आर्यों के खान-पान, रहन-सहन और मनोरंजन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। आर्यों को अब चावल, नमक, मछली, हाथी, बाघ आदि का ज्ञान हो गया।

आर्थिक जीवन की विशेषताएं

उत्तर वैदिक काल में आर्यों के जीवन में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा अधिक स्थायित्व आया उसके पुरातात्विक प्रमाण जैसे – P.G.W. (चित्रत घूसर मृद्भाण्ड), N.B.P.W. (उत्तरी काली पालि ले मृद्भाण्ड) आदि प्राप्त होते हैं, इसी कारण उत्तर वैदिक काल में कृषि का महत्व बढ़ गया त शुपालन कम हो गया। इन सबका प्रमुख कारण लोहे का प्रयोग था।

उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे क श्याम अयस् अथवा कृष्ण अयस् कहा गया है। लोहे के प्राचीनतम साक्ष्य 1000 ई० पू० के आस-पास एटा जिले में स्थित अतरंजी खेड़ा से प्राप्त होता है। इसके प्रयोग से कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आ गई।

कृषि – उत्तर वैदिक काल में आर्यों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि हलों में 6, 8, 12 और 24 तक बैल जोते जाते थे। शतपथ ब्राह्मण में जुताई के लिए कर्षण या कृषन्तः, बुवाई के लिए वपन या वपन्तः, कटाई के लिए सुनन् या लुनन्तः तथा मंडाई के लिए मृण या मृणन्तः शब्दों का प्रयोग हुआ है। अंतरंजीखेड़ा से जौ, चावल एवं गेहूँ के प्रमाण मिले हैं जबकि हस्तिनापुर (मेरठ जिला) से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

हल के लिए सीर तथा गोबर की खाद के लिए करीश शब्द का प्रयोग हुआ है। इस काल में चावल के लिए ब्रीहि एवं तंदुल, गेहूं के लिए गोधूम, धान के लिए शालि, उड़द के लिए माष, सरसों के लिए शारिशाका, साँवा के लिए श्यामांक, अलसी के लिए उम्पा, गन्ना के लिए इच्छु सन के लिए शण आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।

इस काल में कृषि की सिंचाई के साधनों में तालाबों एवं कुओं के साथ पहली बार अथर्ववेद में नहरों का भी उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद में अतिवृष्टि, अनावृष्टि से फसलों की रक्षा के लिए मंत्रों का उल्लेख है। फसल मुख्यतः दो प्रकार की होती थी-

1. कृष्टिपच्य – खेती करके पैदा की जाने वाली फसल।

2. अकृष्टपच्य – बिना खेती किए पैदा होने वाली फसल ।

पशुपालन- उत्तर वैदिक काल में गाय, बैल, भेंड, बकरी, गधे, सुअर आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते थे। हाथी का पालना भी शुरू हो गया था, इसके लिए हस्ति या वारण शब्द मिलता है। हाथी पर अंकुश रखने वाले को हस्तिप कहा जाता था। यज्ञों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर गोवध करने वाले को मृत्युदण्ड दिया जाता था।

उद्योग धन्धे – वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस समय के व्यवयायों की सूची दी गई है। उत्तर वैदिक काल का प्रमुख व्यवसायी कुलाल (कुम्भकार) था। बेंत का व्यवसाय करने वाले को विवलकार कहा जाता था। स्वर्णकार, मणिकार (मणियों का व्यवसायी), कंटकीकार (बांस की वस्तुएं बनाने वाला), रज्जु-सर्ज (रस्सी बटने वाला), अयस्ताप (धातुओं को गलाने वाला), रजयित्री (कपड़ा रंगने वाली), चर्मकार ( चमड़े पर कार्य करने वाला), आदि नाम भी मिलते हैं।

इस काल में कुछ धातुओं के नाम भी मिलते हैं जैसे लोहे के लिए कृष्णअयस्, ताँबे के लिए लोहित-अयस, ताँबे या कांसे के लिए अयस, चाँदी के लिए रुक्म या रुप्य, सीसा के लिए सीस और रांगा के लिए त्रपु शब्द मिलता है। वाजसनेयी संहिता में मछुआरे के लिए दास, धीवर, कैवर्त्त आदि शब्द मिलते हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद में श्रेष्ठिन शब्द तथा ऐतरेय ब्राह्मण में श्रेष्ठ्य शब्द का उल्लेख है, जिससे व्यापारियों की श्रेणी का अनुमान लगाया जा सकता है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन् शब्द मिलता है।

बाँट की मूल इकाई रत्तिका अथवा गुंजा का लाल दाना था। साहित्य में इसे तुलाबीज कहा गया है। निष्क, शतमान, पाय, कृष्णल आदि माप की विभिन्न इकाइयों की द्रोण अनाज नापने के लिए प्रयुक्त किये जाते थे।

बुनाई का कार्य केवल स्त्रियाँ करती थीं। चमड़े, मिट्टी और लकड़ी के शिल्पों में भारी प्रगति हुई। उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मुद्माण्डों से परिचित थे काला, लाल मृद्भाण्ड, काली पालिशदार मृद्भाण्ड, चित्रित धूसर मृदभांड और लाल मृदभांड। लाल मृद्भाण्ड उनके बीच सर्वाधिक प्रचलित था और लगभग समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है, लेकिन चित्रित धूसर मृद्भाण्ड उनके सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक हैं। इनमें कटोरे और थालियाँ मिली हैं । जिनका व्यवहार शायद उदीयमान उच्च वर्णों के लोग धार्मिक कृत्यों है या भोजन में या दोनों कामों में करते थे। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड में काँव की निधियों और चूडियाँ भी मिली हैं। इनका उपयोग प्रतिष्ठावर्धक वस्तुओं के रूप में गिने-चुने लोग ही करते होंगे।

व्यापार – उत्तर वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल के साहित्यों में पश्चिमी और पूर्वी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन है। वैदिक ग्रंथों में समुद्र एवं समुद्र यात्रा की भी चर्चा है। इससे किसी न किसी तरह के वाणिज्य और व्यापार का संकेत मिलता है। यह व्यापार अब भी वस्तु-विनिमय पद्धति (Barter System) पर आधारित था। सिक्कों का अभी नियमित प्रचलन नहीं हुआ था।

कुल मिलाकर उत्तर वैदिक अवस्था में लोगों के भौतिक जीवन में भारी उन्नति हुई। अब वैदिक लोग उत्तरी गंगा के मैदानों में स्थाई रूप से बस गए। अभी भी लोग कच्ची ईंटों के घरों में लकड़ी के खम्भों पर टिके टट्टी (सरकंडे) के घरों में रहते थे। उत्तर वैदिक ग्रंथों में नगर शब्द आया तो है पर उत्तर वैदिक काल के अन्तिम दौर में आकर हम नगरों के आरम्भ का मन्द आभास ही पाते हैं। हस्तिनापुर और कौशाम्बी तो महज गर्भावस्था वाले नगर थे। इन्हें आद्य नगरीय स्थल (Proto-Urban Site) ही कहा जा सकता है।

धार्मिक जीवन

उत्तर वैदिक कालीन आर्यों के धार्मिक जीवन में मुख्यतः तीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं –

1. देवताओं की महत्ता में परिवर्तन

2. आराधना की रीति में परिवर्तन

3. धार्मिक उद्देश्यों में परिवर्तन

1. देवताओं की महत्ता में परिवर्तन – उत्तर वैदिक काल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। उनमें दो पूर्ववर्ती देव विश्वकर्मा और हिरण्यगर्भ समाहित हो गए। रुद्र और विष्णु दो अन्य प्रमुख देवता इस काल के माने जाते हैं। रूद्र पशुओं के देवता थे जबकि विष्णु को लोग अपना पालक व रक्षक मानने लगे।

ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि सभी देवताओं के रूप से रुद्र की उत्पत्ति हुई। वाजसनेयी संहिता में रूह को गिरीश, गिरत्रि और वृत्तिवाश कहा गया। अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि प्रजापित ने रूद्र को सभी दिशाओं का स्वामी बना दिया। इस काल में वरुण मात्र जल के देवता माने जाने लगे जबकि पूषन अब शूद्रों के देवता हो गए।

उत्तर वैदिक काल में ही मूर्ति पूजा के आरम्भ का आभास मिलने लगता है, परन्तु मूर्तिपूजा का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है।

2. आराधना की रीति में परिवर्तन- उत्तर वैदिक काल में आराधना की रीति में महान – अन्तर आया। स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे, परन्तु यज्ञ करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया। यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी जिससे पशुधन का ह्रास होता गया। अतिथि गोध्न कहलाते थे, क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था।

यज्ञों में कर्म के साथ मंत्र पढ़े जाते थे। यज्ञ करने वाला यजमान कहलाता था। इन यज्ञों का सृजन, अंगीकरण और विस्तारण पुरोहितों ने किया, जो ब्राह्मण कहलाते थे यज्ञ की दक्षिणा में गायें, दासियां, सोना, कपड़ा और घोड़े दिए जाते थे। कहा गया है कि राजसूय यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 240000 गायें मिलती थीं, किन्तु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था।

हालांकि शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाएं दे देनी चाहिए। इसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पुरोहित जहाँ तक सम्भव हो अधिक से अधिक भूमि हड़पना चाहते थे। एक जगह इस बात का भी उल्लेख है कि भूमि जब ब्राह्मण को दी जाने लगी तो उसने ब्राह्मण के हाथ जाना अस्वीकार कर दिया।

यज्ञ – वैदिक यज्ञ तीन प्रकार के होते थे-

1. प्रथम प्रकार के वे दैनिक यह है जो गृहकर्माणि कहलाते थे, इनको जन्म विवाह और मृत्यु आदि के समय किया जाता था। इसमें पंच महायज्ञ, संस्कार आदि प्रमुख थे।

2. दूसरी श्रेणी में वे यज्ञ हैं जो विशेष अवसरों या त्यौहारों पर पूर्ण किए जाते थे। इसमें दर्श यज्ञ, अग्निहोतृ यज्ञ, सौत्रामणि यज्ञ, पूर्णमास यज्ञ और चातुर्मास यज्ञ प्रमुख थे।

3. तीसरी श्रेणी में वे महायज्ञ आते थे जो कई दिनों तक चलते थे। इसमें राजा के साथ-साथ जनता भी सम्मिलित होती थी। ये काफी खर्चीले होते थे। इसमें सोमयज्ञ या अग्निष्टोम यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ एवं राजसूय यज्ञ महत्वपूर्ण थे।

अग्निहोतृ यज्ञ- यह यज्ञ प्रातः उपासना साथ सम्पन्न किया जाता था। इसे पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर से जाने वाले नाव के रूप में वर्णित किया गया है।

दर्श और पूर्णमास यज्ञ – ये यज्ञ क्रमशः अमावस्या और पूर्णिमा को सम्पन्न किए जाते थे। दर्श यज्ञ में अग्नि एवं इन्द्र प्रधान देवता हैं जबकि पूर्णमास में अग्नि एवं सोम ।

चतुर्मास यज्ञ – प्रत्येक चार-चार माह पर जब ऋतु बदलती थी तब इसका विधान किया जाता । इस यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी। इसमे अग्नि, सोम, पूषन, सविता आदि देवताओं को आहुति दी जाती थी।

सौत्रामणि यज्ञ- इस शब्द की उत्पत्ति सूत्रामन (एक अच्छा रक्षक) शब्द से हुई है, जो इन्द्र की एक उपाधि है। इस यज्ञ में पशु और सुरा की आहुति दी जाती थी।

पुरुषमेध यज्ञ – यह यज्ञ पाँच दिनों तक चलता था। इसको करने वाले ब्राह्मण या क्षत्रिय होते । इसमें पुरुषों की बलि दी जाती थी। इसमें सर्वाधिक 25 यूपे (यज्ञ स्तम्भ) का निर्माण किया ता था।

पंचपशु यज्ञ- इसमें 5 पशुओं की बलि दी जाती थी। पंचपशुओं में भेड़, बकरा, घोड़ा, बैल के साथ एक मनुष्य भी होता था।

अश्वमेध यज्ञ – यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण यज्ञ था। इसे राजा अपनी साम्राज्य सीमा की वृद्धि के लिए एता था। यह यज्ञ दो या तीन दिन तक चलता था परन्तु इसकी तैयारी एक साल से की जाती । चार अनुष्ठाता, चार रानियाँ और उनके 400 अनुचर इनमें हिस्सा लेते थे। वर्ष की समाप्ति पर 600 साड़ों के साथ कुछ घोड़ों की बलि दी जाती थी। यह यज्ञ 21 बन्ध्या गायों के दान तथा हितों को दक्षिणा देकर पूरा होता था।

राजसूय यज्ञ – यह राजा के राज्याभिषेक से सम्बन्धित था। इस यज्ञ में वरुण और इन्द्र का अभिषेक किया जाता था। इस यज्ञ में मुख्य पुरोहित को कभी-कभी दो लाख चालीस हजार गायें में दी जाती थीं।

वाजपेय यज्ञ-राजा अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए इस यज्ञ का आयोजन करता था। इसमें दौड़ का आयोजन होता था।

उत्तर वैदिक काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए। इन पुरोहितों के सहायक होते थे। इन सब पर (याज्ञिक कर्मकाण्डों) नजर रखने वाले पुरोहित को ब्राह्मण या ऋत्विज् कहा गया।

वेद पुरोहित सहायक
ऋग्वेद  होता है (उच्चारण) मंत्रावरण, अच्छावाक, ग्रावविता
सामवेद  उदगाता (गायन) प्रतिहोता, प्रस्तोता सुब्रह्मण्यम्
यजुर्वेद अध्वर्यु (कर्मकाण्डी) प्रतिष्ठा, उन्नोता, नेष्ठा
अथर्ववेद ब्रह्मा (याज्ञिक निरीक्षणकर्ता) ब्रह्मणाच्छंसी, अगनिध, पोता

 

4. धार्मिक उद्देश्यों में परिवर्तन- शतपथ ब्राह्मण में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है। अब आर्यों के लैकिक उद्देश्यों के साथ पारलौकिक उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण हो गए।

उपनिषदीय प्रतिक्रिया

वैदिक काल के अन्तिम दौर में पुरोहितों के प्रभुत्व तथा याज्ञिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध उपनिषदीय प्रतिक्रिया हुई, जिसका परम विकास जैन एवं बौद्ध आन्दोलनों में दिखाई पड़ता है।

उपनिषदीय विचारकों ने यज्ञादि अनुष्ठानों को ऐसी कमजोर नौका बताया, जिसके द्वारा इस जीवन रूपी भवसागर को पार नहीं किया जा सकता। उन्होंने मोक्ष के उद्देश्यों से ज्ञानमार्ग का प्रतिपादन किया। यह ज्ञान मार्ग था ब्रह्म एवं आत्मा के बीच अद्वैतवाद का अनुभव करना ।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी – वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों से इस काल के विभिन्न विज्ञानों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है तत्कालीन विद्वान गणित और उसकी भिन्न-भिन्न शाखाओ यानि अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित और ज्योतिष से परिचित थे।

वैदिक लोग क्षेत्रफल में त्रिभुजों, वृत्तों के बराबर के वर्ग बनाने का तरीका जानते थे और वर्गों के जोड़ और अंतर का हिसाब लगा सकते थे। शून्य की जानकारी तो ऋग्वेद के समय ही लोगों को थी और इसी बदौलत बड़ी-बड़ी संख्यायें दर्ज की जा सकती थीं। प्रत्येक अंक के स्थानीय मान और उसके निरपेक्ष मान की जानकारी थी। वे लोग घन, घनमूल, वर्ग, वर्गमूल आदि से परिचित थे और उनका प्रयोग भी करते थे।

ज्योतिष का विकास

वैदिक काल में ज्योतिष का विकास हो चुका था। वैदिक लोग आकाशीय पिण्डों यानि ग्रहों, नक्षत्रों आदि की गति को जानते थे और भिन्न-भिन्न समय पर उनकी स्थिति का हिसाब लगाते थे। इससे उन्हें सही पंचांग बनाने और सूर्य तथा चन्द्र ग्रहणों के समय के बारे में भविष्यवाणी करने में सहायता मिलती थी।

वे यह भी जानते थे कि पृथ्वी अपने अक्ष (धुरी) पर और सूर्य के चारों ओर घूमती है तथा चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है। उन्होंने आकाशीय पिण्डो के परिक्रमण के समय और सूर्य से उनकी दूरी का हिसाब लगाने का भी प्रयास किया था। उनकी गणनाओं के परिणाम लगभग वही है, जो अब आधुनिक तरीकों से निकाले गए हैं।

निष्कर्ष

उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के पश्चात् यह बात स्पष्ट हो जाती है कि धर्म का महत्व निरंतर बढ़ता गया और इसका सर्वाधिक लाभ ब्राह्मणों ने उठाया। उन्होंने यज्ञों और कर्मकांडों के माध्यम से अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को मजबूत किया। वर्ण वयवस्था के माध्यम से समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया। शूद्र वर्ण की स्थति अत्यन हिन् हो गई और उसे विद्या तथा धन संचय से बंचित कर दिया गया और वह पूर्णतः द्विजों की कृपा पर आश्रित हो गया। कुल मिलाकर यह काल धार्मिक और आर्थिक तथा राजनीतिक उन्नति का काल था जिसमें जन अब जनपदों में परिवर्तित हो गये और राजा अब सर्वशक्तिशाली हो गया।
Sources: S.K.Pandey – Prachin Bharat-Page-124-134

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