कालसी शिलालेख कहाँ है और इसकी विषयवस्तु क्या है? | अशोक का कालसी शिलालेख
मौर्य वंश के तीसरे शासक अशोक महान ने अपनी राज्ञाओं को जाता तक पहुँचाने के उद्देश्य से पत्तर की शिलाओं और स्तम्भों पर लिखवाया जो आज भी मौजूद हैं। अगर आप इन्हें देखें तो आश्चर्य होता है कि किस प्रकार इन पत्थरों को लाया गया होगा? ये शिलालेख उसके साम्राज्य की सीमा भी निर्धारित करते हैं। इस बार अगर आप घूमने का प्लान बना रहे हैं और देहरादून जाना चाहते हैं तो कालसी में मौजूद अशोक के शिलालेख को अवश्य देखने जाएं।

हालांकि यह एक छोटा ऐतिहासिक स्थल है और यहाँ आपको भीड़ बिलकुल नहीं मिलेगी, मगर आप यहाँ कुछ समय गुजारकर उस इतिहास को फिरसे याद कर सकते हैं जो हम सिर्फ किताबों में पढ़ते हैं। आइये देखते हैं कलसी शिलालेख की विशेषताएं और उसका ऐतिहासक महत्व।
कालसी शिलालेख का इतिहास
भारत के प्रचीन मगध (वर्तमान बिहार) के मौर्य साम्राज्य के तीसरे मौर्य सम्राट अशोक महान (273 ई0पू0 232 ई0पू0) ने अपनी चौदह राजकीय नीतियों (राजाज्ञाओं) को इस शिलालेख पर उत्कीर्ण करवाया, यह शिलालेख जॉन फॉरेस्ट द्वारा सन् 1860 में खोजा गया था। यह शिलालेख उस समय की प्रचलित भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी में उत्कीर्ण है।
कालसी शिलालेख पर उत्कीर्ण राजाज्ञाएं
सम्राट अशोक ने इस शिलालेख पर अपनी चौदह राजाज्ञाओं को उत्कीर्ण कार्य। इन राजाज्ञाओं में नैतिक तथा मानवीय सिद्धान्तों कोजनता तक पहुँचाने के लिए शिलालेख पर उत्कीर्ण किया है, जैसे-जीव हत्या का निषेध किया गया है, जनता के कल्याण हेतु अस्पताल, कुँए खुदवाने, सड़कों के किनारे वृक्ष लगवाने, बौद्ध धर्म का प्रचार करने, बुजुर्गों, माता-पिता तथा गुरू का सम्मान करने, सहनशीलता तथा पशु-पक्षियों के प्रति दयालुता आदि सर्वोच्च मानवीय मूल्यों का प्रचार करने का निर्देश दिया है। यह एक अत्यंत महत्पूर्ण बात है कि लेख के अंत में पांच यवन राजाओं का भी वर्णन किया गया है।
इस लेख मे अशोक घोषणा करता है कि मैंने राज्य के प्रत्येक स्थान पर मनुष्यों व पशुओं की चिकित्सा व्यवस्था की सुविधा कर दी है तथा लोगों से हिंसा का त्याग करने व अहिंसा का पालन करने का आग्रह किया है।
कालसी कहाँ है और वहां कैसे जाएँ
कालसी शिलालेख उत्तरखण्ड राज्य की राजधानी देहरादून मुख्यालय से चकराता राजमार्ग पर लगभग 50 कि० मी० दूर यमुना और टोंस नदी के तट पर कालसी प्रखण्ड में अवस्थित है तथा भारतीय पुरातत्वसर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित है ऐतिहासिक साइट है। यद्यपि यह टोंस नदी बरसात के मौसम में ही बहती है और अधिकांश समय सूखी ही रहती है। जिस स्थान पर यह शिलालेख है उसे देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह पत्थर पास के पहाड़ से लाया गया होगा।
कालसी शिलालेख मे यहाँ के निवासियों के लिए पुलिंद व इस क्षेत्र को अपरान्त कहा गया है। यह लेख यमुना व टोंस नदी के संगम पर है। यद्यपि आपको पहली नज़र में यह एक सामान्य पत्थर नज़र आएगा। मगर ध्यान से देखने पर आपको उत्कीर्ण शब्द दिख जायेंगे क्योंकी समय के साथ पत्थर धुंधला हो गया है।
आपको बता दें कि कालसी का प्राचीन नाम सुधनगर व कलकूट था । कलकूट प्राचीन समय में कूणिन्दों कि राजधानी थी।
अशोक किस धर्म का अनुयायी था
कलिंग युद्ध (261 ईसा पूर्व) के पश्चात् अशोक को अत्यंत दुःख हुआ और उसने प्राण किया कि वह अपने जीवन में कोई दूसरा युद्ध नहीं किया। उस युद्ध में हुए रक्तपात और हिंसा, जिसमें लगभग एक लाख लोग मारे गए, लगभग डेढ़ लाख लोग गुलाम बनाये गए और बहुत से लोग घायल हुए। यह सब देखकर उसके ह्रदय में युद्ध के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी थी।
कालांतर में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था। कालसी शिलालेख में उसने हाथी की आकृति (शिलालेख के दाईं तरफ ) उत्कीर्ण करवायी जिसके नीचे ‘गजतमे’ शब्द उत्कीर्ण है । यह हाथी आकाश से उतरता दिखाया गया है जिसे इस रूप में माता (महामाया) के गर्भ में भगवान बुद्ध के आने का आभास होता है । अशोक के धौली [कलिंग ] शिलालेख में भी हाथी की आकृति उकेरी गयी है जो उसके बौद्ध धर्मानुयायी होने का द्योतक है।
निष्कर्ष
कालसी शिलालेख यद्यपि एक छोटा ऐतिहासिक स्थल है मगर इसकी महत्ता अत्यंत महान है। यह शिलालेख आपको सीधे हज़ारों वर्ष पीछे ईसा पूर्व में ले जायेगा। इस शिलालेख से अशोक के साम्राज्य विस्तार की सीमा और उसकी नीतियों का निर्धारण होता है। तो इस बार अगर देहरादून से चकराता जाएँ तो यह स्थल अवश्य देखें।
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