हिंदी साहित्य भारत की प्राचीन से लेकर आधुनिक संस्कृति और विरासत का आईना है। हिंदी भाषा भारत की आधिकारिक राजभाषा है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाती है। हिंदी साहित्य में अनेक विभिन्न विधाएं शामिल हैं जैसे कि काव्य, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक आदि। आज इस लेख में हम हिंदी साहित्य का इतिहास और उसका विकास किस प्रकार हुआ, विस्तार से जानेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
Hindi Sahitya Kaa Itihas | हिंदी साहित्य का इतिहास
हिंदी साहित्य भारत की समृद्ध विरासत का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो देश के लोगों की भाषा, संस्कृति और ऐतिहासिक विकास को दर्शाता है। हिंदी साहित्य के कुछ महान कवि जैसे तुलसीदास, सूरदास, कबीर, रहीम, भरतेन्दु हरिश्चंद्र आदि ने अपने साहित्य से प्रमुख मुकाम हासिल किया, और अपनी शानदार रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति को अमर बनाया।
हिंदी साहित्य में अनेक विभिन्न विषयों पर रचनाएँ लिखी गई हैं जैसे कि दोहे, रासो, आयर्वेद और जीवनी, सामाजिक मुद्दे, धर्म, प्रेम, भारतीय इतिहास आदि। हिंदी साहित्य के माध्यम से हम अपनी भाषा और संस्कृति को अच्छे से समझ पाते हैं।
साहित्य किसे कहते हैं
साहित्य लेखन की वह कला है जिसमें व्यक्ति शब्दों का उपयोग करके कल्पनाओं, भावनाओं, और अनुभवों को व्यक्त करता है। साहित्य विभिन्न रूपों, जैसे कि कहानियां, कविताएं, नाटक, उपन्यास आदि में सामने आता है। साहित्य लोगों के अनुभवों और विचारों को बढ़ावा देता है और उन्हें नई सोच और विचारों के साथ प्रस्तुत करता है।
साहित्य का अर्थ और परिभाषा
साहित्य एक शब्द है जो समूचे मानव साम्राज्य के उत्थान, पतन, समस्याओं, आंतरिक जीवन के उपलब्धियों, भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने के लिए उपयोग किया जाता है। साहित्य एक समाज की अंतरंग और बाहरी वातावरण के साथ संबद्ध होता है, और इसमें लेखकों की व्यक्तिगत विचारधारा, भाषा, शैली, और कला का खेल होता है।
साहित्य की परिभाषा – विभिन्न संस्कृतियों, क्षेत्रों और समय-कालों में भिन्न होती है। हालांकि, इसका सामान्य अर्थ होता है, उस विशेष शैली का उत्पाद जो भाषा के साथ-साथ भावनाओं, विचारों, समस्याओं और दुनिया की अधिकांश वस्तुओं को व्यक्त करता है। साहित्य को बाकी कलाओं से अलग करने के लिए, इसमें कला के रूप में शब्दों का उपयोग किया जाता है।
साहित्य के लक्षण
कल्पना: साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण कल्पना है इसमें लेखक की कल्पना और विचारों को व्यक्त करने की अद्भुद क्षमता होती है।
भावनात्मकता: साहित्य में भावनात्मकता बेहद महत्वपूर्ण लक्षण है। इसमें लेखक अपने अंतरंग भावों, विचारों और दृष्टिकोणों को व्यक्त करता है।
भाषा: साहित्य की तीसरी महत्वपूर्ण विशेषता है उसकी भाषा। साहित्य में उच्च और समझौते से चुनी हुई भाषा का उपयोग किया जाता है जो व्यापक रूप से समझ में आती है।
अभिव्यक्ति की कला: साहित्य में व्याकरण, वर्तनी, वाक्य रचना और शब्द से अभिव्यक्ति की कला का उपयोग किया जाता है। यह साहित्य को अधिक व्यापक रूप से समझाने में मदद करता है।
विषय वस्तु: साहित्य का विषय वस्तु व्यापक होता है। साहित्य में विभिन्न विषयों पर लेखन किया जाता है जैसे कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, प्रेम, सामाजिक समस्याओं आदि।
Hindi Sahitya Kaa Itihas | हिंदी साहित्य का इतिहास
अगर हम हिंदी साहित्य को चरणवद्ध रूप में देखें तो यह बात बहुत स्पष्ट सिद्ध हो जाती है कि हिंदी साहित्य का इतिहास अत्यंत विशाल और पुराना है। हिंदी -माने भाषाविद डॉ. हरदेव बहरी ने हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में लिखा है कि ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास वास्तव में: ऋग्वैदिक काल से प्रारम्भ होता है। उन्होंने वैदिक काल की भाषा को हिंदी माना है। आगे वे कहते हैं कि यह हिंदी का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि समय-समय पर इसका नाम बदलता रहा है। कभी ‘वैदिक’, कभी ‘संस्कृत’, कभी ‘प्राकृत’, कभी ‘अपभ्रंश’ और अब – हिंदी।
हरदेव बहरी की बात को आलोचक नकार सकते हैं इस तर्क के साथ कि ‘वैदिककालीन संस्कृत’ और वर्तमान ‘हिंदी’ में किसी भी प्रकार का तालमेल नहीं है। लेकिन हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि जिन भाषाओं को ‘बहुत पुरानी’ अथवा प्राचीनतम कहा जाता है जैसे हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि, उनके प्राचीन और वर्तमान रूपों में भी भारी असमानता देखी जाती है; इसके बाबजूद भी लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं परिवर्तन नहीं किये और उनके परिष्कृत रूपों को ‘प्राचीन’, ‘मध्ययुगीन’, ‘आधुनिक’ आदि के साथ जोड़ दिया, इसके विपरीत अगर हिंदी की बात करें तो ‘हिन्दी’ संदर्भ को प्रत्येक युग की भाषा में नवीन नाम दिया गया।
हिंदी भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई और इसका विकास किस प्रकार हुआ? यदि हम प्रचलित मान्यताओं पर गौर करें तो हिंदी भाषा की उत्पत्ति का इतिहास और प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की उन प्रचलित भाषाओँ की और ले जाता है जिन्हें हम प्राकृतभाषा और अपभ्रंश भाषा के नाम से जानते हैं।
स्पष्ट है कि हमें अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और हिंदी साहित्य के इतिहास की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों और तर्कों को परखना होगा, ताकि हिंदी के साथ जैन लेखकों के अपभ्रंश कार्यों का तारतम्य स्थापित किया जा सके।
समान्यतः हिन्दी साहित्य का प्रादुर्भाव, प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से माना जाता है। उस समय अपभ्रंश अनेक रूपों में प्रचलित थी और देखा जाता है कि उनमें काव्य-रचना सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही प्रारंभ हो गई।
अगर हम प्रारम्भिक कविताओं को साहित्य की दृष्टि से देखते हैं, तो वे दोहों के रूप में ही मिलती हैं और समान्यतः उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि महत्वपूर्ण होते हैं। राजकीय और दरबारी कवि और चारण नीति, अलंकार, शौर्य, पराक्रम आदि का वर्णन करके साहित्य में उनकी रुचि का प्रारम्भिक परिचय देते थे।
राजकीय संरक्षित साहित्य की रचना-परंपरा कई दशकों तक शौरसेनी अपभ्रंश या ‘प्रकृतभाषा हिंदी’ में अपनायी जाती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और सामन्य बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ता चला गया। विद्यापति ने इस भाषा को मातृभाषा कहा है, लेकिन यह तय करना आसान नहीं है कि इस भाषा के लिए हिंदी शब्द का प्रयोग कब और किस देश में हुआ।
Hindi Sahitya Kaa Itihas-हिंदी साहित्य का इतिहास-लेखन का इतिहास
आधुनिक और वर्तमान की भाषा में हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल से लेकर आधुनिक और उत्तर आधुनिक काल तक बहुत से साहित्यकारों के नाम सामने आते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास के मौखिककरण का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था।
हिंदी साहित्य के इतिहासकार और उनकी पुस्तकें
हिन्दी साहित्य के प्रमुख इतिहासकार एवं उनके ग्रंथ इस प्रकार हैं –
ग्रंथ | इतिहासका/साहित्यकार |
1. इस्तवर डे ला लिटरेचरऐंदुई ऐंडुस्तानी (फ्रांसीसी भाषा में; फ्रांसीसी विद्वान, हिंदी साहित्य का पहला इतिहासकार), (1839) | गरसा दे टासी: |
2. तजकीरा-ए-शुराई, (1848) | मौलवी करीमुद्दीन |
3. शिव सिंह सरोज, (1883) | शिव सिंह सेंगर |
4. द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ इंडिया, (1888) | जॉर्ज ग्रियर्सन |
5. मिश्र बंधु विनोद (चार भागों में) भाग 1,2 और 3-(1913-1914 में) भाग 4 (1934 में) | मिश्र बंधु |
6. ए स्केच ऑफ हिंदी लिटरेचर (1917) | एडविन ग्रीव्स |
7. ए हिस्ट्री ऑफ हिंदी लिटरेचर (1920) | एफ.ई.के. सर |
8. हिंदी साहित्य का इतिहास (1929) | रामचंद्र शुक्ल: |
9. हिंदी साहित्य की भूमिका (1940); हिंदी साहित्य का युग (1952); हिंदी साहित्य: विकास और विकास (1955) | हजारी प्रसाद द्विवेदी: |
10. क्रिटिकल हिस्ट्री ऑफ हिंदी लिटरेचर (1938) | रामकुमार वर्मा |
11. हिंदी साहित्य (तीन खंडों में) | डॉ. धीरेंद्र वर्मा |
12. हिन्दी साहित्य का व्यापक इतिहास (सोलह खंडों में) – 1957 से 1984 ई. तक। | |
13. हिंदी साहित्य का इतिहास (1973); 20वीं सदी का हिन्दी साहित्य | डॉ. नागेंद्र |
14. हिंदी साहित्य और संवेदनशीलता का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986 | रामस्वरूप चतुर्वेदी |
15. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली (1996) | बच्चन सिंह |
16. हिंदी साहित्य का अद्यतन इतिहास | डॉ. मोहन अवस्थी |
17. हिंदी साहित्य का एक बुद्धिमान इतिहास | बाबू गुलाब राय |
18. हिंदी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (2009) | राजेंद्र प्रसाद सिंह |
हिंदी साहित्य के विकास के विभिन्न कालखंड
अधिकांश साहित्यकार और इतिहासकार हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक इतिहास और इसके प्रारम्भ को आठवीं शताब्दी से मानते हैं। यह वह काल था जब कन्नौज के सम्राट हर्ष की मृत्यु के पश्चात् देश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों और शासकों में बंट गया, जो अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। वे विदेशी आक्रांताओं (मुसलमानों) का भी मुक़ाबला करते थे। धार्मिक स्थिति छिन्न-भिन्न थी। यह वह समय था जब उत्तर भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था।
समय के साथ बौद्ध धर्म कई रूपों में बंट गया, जिनमें से एक को वज्रयान शाखा कहा जाता था। वज्रयान बौद्धों की एक तांत्रिक थीं शाखा थी और उन्हें सिद्ध कहा जाता था। उन्होंने उस समय की प्रचलित लोकभाषा में आम जनता के बीच अपने विचारों को प्रस्तुत किया।
इन्हीं बज्रयानी सिद्धों ने हिन्दी का प्राचीनतम साहित्य तत्कालीन लोकभाषा हिन्दी में रचा, तत्पश्चात नाथपंथी संतों का काल आता है। उन्होंने अपने नए पंथ की शुरुआत बौद्ध, शंकर, तंत्र, योग और शैववाद के मिश्रण से की, जिसमें सभी वर्गों और वर्णों के लिए धर्म की एक आम राय प्रतिपादित की गई थी।
लोकप्रिय पुरानी हिंदी में लिखे गए नागपंथियों के कई धार्मिक साहित्य उपलब्ध हैं। इसके पश्चात् जैन मुनियों और साधुओं की रचनाएँ मिलती हैं। स्वयंभू का “पौमचारियु” या रामायण आठवीं शताब्दी की रचना है।
बौद्धों और नाथपंथियों का लेखन कार्य स्पष्ट और विशुद्ध रूप से धार्मिक विचारों पर आधारित हैं, लेकिन जैनियों के कई कार्य जीवन के सामान्य अनुभवों से भी संबंधित हैं। इनमें से कई प्रबंधकव्य हैं। ‘इसी काल में अब्दुर्रहमान का ‘संदेशरसक’ भी लिखा गया है जिसमें परवर्ती बोलचाल के निकट की भाषा मिलती है। इस प्रकार ग्यारहवीं शताब्दी तक पुरानी हिन्दी का स्वरूप बनता और विकसित होता रहा।
प्रारंभिक काल (1050 ई. से 1375 ई.) | आदिकाल
हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास स्पष्ट रूप से सामने आ गई। यह वह काल था जब पश्चिमी भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कई छोटे-छोटे राजपूत वंश के राज्यों की स्थापना हुई। ये राजपूत शासक आपस में और कभी-कभी विदेशी आक्रन्ताओं से लड़ते थे। इन शासकों को साहित्य में रुचि थी और इन्होने अनेक कवियों को आश्रय दिया इन राजकीय चारणों और भाटों को राजप्रशस्तिमूलक काव्य वीरगाथा का साहित्य रचने की जिम्मेदारी दी गई।
इन चारणों ने जिस साहित्य की रचना की उसे रासो कहा जाता है। इनमें संरक्षक राजाओं के शौर्य और पराक्रम का सजीव वर्णन (अधिकांशतः काल्पनिक) करने के साथ-साथ उनके प्रेम-प्रसंगों का भी वर्णन मिलता है।
इन रासो गंथों में अधिकांश संघर्ष का कारण प्रेम संबंधों को ही बताया गया है। इन राजकीय संरंक्षित कृतियों में इतिहास और कल्पना का मिश्रण है जो बहुत विश्वसनीय नहीं माना जाता। इन्हीं दो शैलियों में रासो वीरगीत (बिसलदेवरासो और आल्हा आदि) और प्रबंधकाव्य (पृथ्वीराजसो, खुमनरासो आदि) लिखे गए। साहित्य की दृष्टि से मान्य कई रासो ग्रंथों की उपलब्ध प्रतियाँ ऐतिहासिक रूप से अविश्वसनीय हो सकती हैं, लेकिन इन महाकाव्यों की मौखिक परंपरा निर्विवाद रूप से आज भी प्रचलित है। इनमें राजपूत राजाओं के शौर्य और प्रेम का आँखों देखा चित्रण किया गया है।
इसी काल में मैथिल कोकिल विद्यापति का उद्भव हुआ, जिनके शब्दों में मानवीय सौंदर्य और प्रेम की अनूठी पर्यायवाची मिल सकती है। उनकी दो अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें कीर्तिलता और कीर्तिपटक हैं।
यह अमीर खुसरो का भी समय है। उन्होंने ठेठ खड़ी बोली में कई पहेलियों, चुटकुलों और दो सखुन की रचना की है। खुसरो के गीतों और दोहों में प्रयोग की भाषा ब्रजभाषा है।
प्राचीन काल के प्रमुख कवि और उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ
1. अब्दुर्रहमानः सन्देश रसक
2. नरपति नल्हः बीसलदेव रासो (अपभ्रंश हिन्दी)
3. चंदबरदाईः पृथ्वीराज रासो (डिंगल) -पिंगल हिंदी)
4. दलपति विजय: खुमान रासो (राजस्थानी हिंदी)
5. जगनिक: परमल रासो
6. शारगंधार: हम्मीर रासो
7. नल्ह सिंह: विजयपाल रासो
8. जल कवि: बुद्धि रासो
9. माधवदास चरण: राम रासो
10. देल्हन: गद्य सुकुमल रासो
11. श्रीधर: रणमल चंद, पीरीछत रायसा
12. जिंदर्मसुरी: स्तुलिभद्र रासो
13. गुलाब कवि: करहिया कौ रायसो
14. शालिभद्रसूरि: भरतेश्वर बाहुलीरस
15. जोंदु: परमात्मा प्रकाश
16. केदार: जयचंद प्रकाश
17. मधुकर कवि : जसम्यंका चंद्रिका
18. स्वयंभू: पौम चारियु
19. योगसार: सनायधम्मा दोहा
20. हरप्रसाद शास्त्री: बौद्ध भजन और दोहा
21. धनपाल: भव्यता कहा
22. लक्ष्मीधर: प्राकृत पंगलम
23. अमीर खुसरो: किस्सा चाह दरवेश, खालिक बारी
24. विद्यापति : कीर्तिलता, कीर्तिपटक, विद्यापति पदावली (मैथिली)
भक्तिकाल (1375 से 1700 ई.)
तेरहवीं शताब्दी तक धर्म एक अष्पष्ट क्षेत्र था। सिद्धों और नाथ योगियों आदि द्वारा प्रचलित पाखंड और अन्धविश्वास, शास्त्रीय ग्रंथों में पनपी रूढ़िवादिता और बाहरी आडंबर हावी हो गए थे।
ऐसे समय में भक्ति आन्दोलन के रूप में भारत भर में इतना बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन हुआ जिसने समाज में सर्वोच्च सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों की स्थापना की। इस भक्ति आंदोलन का उद्देश्य ईश्वर और हिन्दू धर्म का सकरात्मक रूप प्रस्तुत करना था।
भक्ति आंदोलन का प्रारम्भ
भक्ति आंदोलन का प्रारम्भ दक्षिण के अलवर संतों द्वारा दसवीं शताब्दी के आसपास किया गया। वहां चार वैष्णव संप्रदाय शंकराचार्य के अद्वैतवाद और मायावाद के विरोध में सामने आये। इन चार नव संप्रदायों ने उत्तर भारत में जनता के बीच भगवान विष्णु के अवतारों का प्रचार किया।
इन वैष्णव सम्प्रदायों में एक के प्रवर्तक और प्रचारक रामानुजाचार्य थे, जिनके शिष्य रामानंद (15वीं शताब्दी) ने उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार किया।
रामानंद के राम ब्रह्मा के स्थानापन्न थे जो राक्षसों को वध करने और अपनी लीलाओं दर्शाने के लिए दुनिया में नए अवतार लेते हैं।
रामानंद ने भक्ति के क्षेत्र में प्रचलित ऊंच-नीच की कुरीति को मिटाने पर विशेष बल दिया। उन्होंने दो भक्तों – कबीर और तुलसी को अत्यंत प्रभावित किया, जो राम, सगुण और निर्गुण के दो रूपों में विश्वास करते थे।
इसी समय वल्लभाचार्य ने विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैत मत का आधार लेकर अपना पुष्टिमार्ग प्रारंभ किया। बारहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक पुराणसम्मत कृष्णचरित्र के आधार पर पूरे देश में अनेक सम्प्रदायों की स्थापना हुई, जिनमें वल्लभ का पुष्टिमार्ग सबसे अधिक प्रभावशाली रहा। उन्होंने शंकर के मत के विरुद्ध केवल ब्रह्मा के सगुण रूप को ही सत्य बताया।
वल्ल्भाचार्य के मत में यह संसार मिथ्या या माया का विस्तार नहीं अपितु स्वयं ब्रह्म का प्रसार है, अत: ब्रह्म ही सत्य है। ब्रह्म के अवतार के रूप में वे कृष्ण को मानते थे और इसकी प्राप्ति के लिए भक्त का सत्यभाव से पूर्ण समर्पण आवश्यक था।
भक्ति केवल प्रभु की कृपा या प्रतिज्ञान से ही संभव हो सकती है। लीलापुरुषोत्तम कृष्ण के मधुर रूप गोपीजनवल्लभ को इस समुदाय में पूजा के लिए सर्वजन द्वारा स्वीकार किया गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में विष्णु के अवतारों के रूप में दो प्रमुख चरित्रों- राम और कृष्ण की भक्ति की स्थापना हुई।
इस प्रकार इन विभिन्न मतों का आधार लेकर हिंदी में निर्गुण और सगुण नाम से भक्ति काव्य की दो शाखाएँ परस्पर साथ चलीं। निर्गुण सिद्धांत की दो उपशाखाएँ थीं- 1-ज्ञानश्रयी और 2-प्रेमसराय। कबीर पहले के प्रतिनिधि हैं यानी ज्ञानश्रयी और दूसरे प्रेमसराय के जायसी। सगुणमत भी दो उप-धाराओं में प्रचलित हुआ – राम भक्ति और कृष्ण भक्ति। तुलसी राम भक्ति और सूरदास कृष्ण भक्ति के प्रतिनिधि हैं।
ज्ञानश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर पर उस समय प्रचलित विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों और दार्शनिक विचारों का संयुक्त प्रभाव है। कबीर ने अपनी रचनाओं में धर्म सुधारक और समाज सुधार का वर्णन किया है। उन्होंने पाखंड के बजाय आचरण की शुद्धता पर बल दिया। कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से धार्मिक कर्मकांडों की फिजूलखर्ची, रूढ़िवाद और अंधविश्वासों की जमकर आलोचना की। उन्होंने मनुष्य की गरिमा का बखान कर निम्न वर्ग के लोगों में स्वाभिमान की भावना जगाई। इस शाखा के अन्य कवि रैदास, और दादू हैं।
जायसी प्रेमाश्रयी धारा के सबसे प्रमुख कवि हैं, जिनके “पद्मावत” की उनके मार्मिक प्रेमगीतों, कैथार्सिस और सहज कला के लिए विशेष रूप से प्रशंसा की गई है। उनकी अन्य रचनाओं में “अखरावत” और “आखिरी कलाम” आदि शामिल हैं, जिनमें सूफी संप्रदाय से संबंधित मुद्दे हैं। अन्य कवि कुतुबन, मंझन, उस्मान, शेख नबी और नूर मुहम्मद आदि हैं।
आज की दृष्टि से इस सम्पूर्ण भक्तिमय काव्य का महत्व उसकी धार्मिकता से अधिक सार्वजनिक जीवन में मानवीय अनुभवों और भावनाओं के कारण है। इसी विचार से भक्तिकाल को हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।
रीतिकाल (1700 से 1900 ई.)
1700 ई. के लगभग हिन्दी काव्य में एक नया मोड़ आया। यह विशेष रूप से समकालीन दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से प्रेरित था। संस्कृत साहित्य के कुछ हिस्सों ने उन्हें शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रेरित किया।
हिन्दी में काव्य के लिए ‘ऋति’ या ‘काव्यारिति’ शब्द का प्रयोग होता था। इसलिए काव्य की सामान्य सृजनात्मक प्रवृत्ति तथा रस अलंकार आदि से युक्त बहुसंख्यक चारित्रिक ग्रन्थों को ध्यान में रखते हुए इस काल के काव्य को ‘ऋतिकव्य’ कहा गया। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी आदिकाव्य, और कृष्ण काव्य की श्रृंगारी प्रवृत्तियों में इस काव्य की श्रृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत मिलते हैं।
रीतिकाव्य की शुरुआत एक संस्कृत विद्वान ने की थी। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिय और रामचंद्रिका हैं।
केशव के कई दशकों बाद चिंतामणि से लेकर 18वीं शताब्दी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अविरल स्रोत प्रवाहित हुआ, जिसमें स्त्री-पुरुष जीवन के रमणीय पक्ष और उससे जुड़ी संवेदनाओं को व्यापक रूप से कलात्मक रूप में अभिव्यक्त किया गया।
रीतिकाल के कवि राजाओं और रईसों की शरण में रहते थे। वहां मनोरंजन और कला का वातावरण स्वाभाविक था। वहां बौद्धिक आनंद का मुख्य साधन वाक्पटुता माना जाता था। ऐसे वातावरण में लिखा गया साहित्य ज्यादातर सजावटी और कलात्मक था। लेकिन साथ ही प्रेम के मुक्त-प्रेमी गायक भी थे जिन्होंने प्रेम की गहराइयों को छुआ।
स्त्री-पुरुष प्रेम और सौन्दर्य की मार्मिक व्यंजना करने वाला इस काल का काव्य-साहित्य मात्रा और काव्य-गुण दोनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
ऋतिकाव्य मुख्य रूप से दैहिक श्रृंगार का काव्य है। इसमें स्त्री और पुरुष के जीवन के यादगार पहलुओं का खूबसूरती से उद्घाटन किया गया है। अधिकांश कविताएँ मुक्तक शैली में हैं, लेकिन प्रबन्धकव्य भी हैं। इन दो सौ वर्षों में श्रृंगारकाव्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष हुआ। लेकिन धीरे-धीरे परंपरा की पकड़ बढ़ती गई और हिंदी कविता का दायरा संकुचित होता गया।
आधुनिक काल में आकर लेखकों का ध्यान इन दो कमियों की ओर विशेष रूप से आकर्षित हुआ।
आधुनिक काल (1900 से वर्तमान)
उन्नीसवीं सदी
यह आधुनिक युग की शुरुआत है जब भारतीय यूरोपीय संस्कृति के संपर्क में आए। भारत में अपनी जड़ें जमाने की प्रक्रिया में, ब्रिटिश शासन ने भारतीय जीवन को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित और आंदोलित किया।
नई परिस्थितियों के धक्के से यथास्थितिवादी जीवन शैली का ढाँचा टूटने लगा। चेतना का एक नया युग शुरू हो गया है। संघर्ष और मेल-मिलाप के नए आयाम सामने आए।
खड़ी बोली गद्य में नवीन युग के साहित्यिक सृजन की सर्वाधिक सम्भावनाएँ निहित थीं, इसलिए इसे गद्य-युग भी कहा गया है। हिंदी का प्राचीन गद्य राजस्थानी, मैथिली और ब्रजभाषा में मिलता है लेकिन यह साहित्य का व्यापक माध्यम नहीं बन पाया। खड़ीबोली की परंपरा प्राचीन है।
इसके उदाहरण अमीर खुसरो से लेकर मध्यकालीन भूषण तक की कविताओं में बिखरे हुए हैं। खड़ी बोली गद्य के पुराने नमूने भी मिले हैं। इस प्रकार के अधिकांश गद्य फ़ारसी और गुरुमुखी लिपियों में लिखे गए हैं।
दक्षिण की मुस्लिम रियासतों में इसका विकास “दक्खिनी” के नाम से हुआ। रामप्रसाद निरंजनी और दौलतराम का अठारहवीं शताब्दी में लिखा गया गद्य उपलब्ध है। लेकिन नव युग चेतना के संवाहक के रूप में हिन्दी का खड़ी बोली गद्य उन्नीसवीं शताब्दी से ही व्यापक रूप से फैला।
फोर्ट विलियम कॉलेज कलकत्ता में, लल्लू लाल और सदल मिश्रा ने नए आए ब्रिटिश अधिकारियों के उपयोग के लिए गद्य की किताबें लिखकर हिंदी में खड़ी बोली गद्य की पूर्व-परंपरा के विकास में कुछ मदद की।
बाद में, प्रेस, पत्रिकाओं, ईसाई प्रचारकों और नए शैक्षणिक संस्थानों ने हिंदी गद्य के विकास में मदद की।
बंगाल, पंजाब, गुजरात आदि विभिन्न प्रांतों के निवासियों ने भी इसके विकास और प्रसार में योगदान दिया।
1826 ई. में कलकत्ता से प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन हुआ।
राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह ने अपने-अपने ढंग से हिन्दी गद्य की रचना और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आर्य समाज तथा अन्य सांस्कृतिक आन्दोलनों ने भी आधुनिक गद्य को बढ़ावा दिया।
गद्य साहित्य की विकासशील परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शुरू हुई और इसके अग्रदूत थे भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जो आधुनिक युग के हिंदी साहित्य के प्रमुख प्रवर्तक एवं मार्गदर्शक थे, जिन्होंने साहित्य और समकालीन सामाजिक जीवन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। यह क्रांति और पुनर्जागरण का युग था।
जनता ब्रिटिश शासकों की कूटनीतिक चालों और आर्थिक शोषण से भयभीत और त्रस्त थी। समाज के एक वर्ग पर पाश्चात्य मूल्यों का आक्रमण हो रहा था, तो दूसरा वर्ग रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था।
इसी समय नई शिक्षा प्रारंभ हुई और कई समाज सुधार आन्दोलन प्रारंभ हुए। नवीन ज्ञान विज्ञान के प्रभाव से नवशिक्षितों में जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ, जो अतीत की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य की ओर विशेष रूप से उन्मुख था।
सामाजिक विकास में उत्पन्न विश्वास और जागृत सामुदायिक चेतना ने भारतीयों में जीवन के लिए एक नया उत्साह पैदा किया। भारतेंदु के समकालीन साहित्य में, विशेषकर गद्य साहित्य में, तत्कालीन वैचारिक और भौतिक वातावरण के विभिन्न चरणों की स्पष्ट और जीवंत अभिव्यक्ति थी।
इस युग की नई रचनाएँ देशभक्ति और समाज सुधार की भावना से ओत-प्रोत हैं। अनेक नई परिस्थितियों के टकराने से राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य की प्रवृत्ति भी उभरी। इस काल के गद्य में वाणी की सजीवता है। लेखकों के व्यक्तित्व से जुड़े होने के कारण इसमें काफी रुचि पैदा हुई है। अधिकांश निबंध ऐसे लिखे गए जो वैयक्तिक उन्मुख और विचारोन्मुखी होने के साथ-साथ वर्णनात्मक भी थे।
फिक्शन भी कई विधाओं में लिखा गया था, ज्यादातर शैक्षिक। लेकिन यथार्थवादी दृष्टि और नवीन शिल्प की विशेषता श्रीनिवास दास की “परीक्षागुरु” में है। आदि मुख्य नाटककार हैं। साथ ही भक्ति और श्रृंगार की अनेक सुन्दर कविताएँ भी रची गईं। लेकिन जिन कविताओं में सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है, वे नव युग की सृजनात्मकता की प्रारंभिक छाप देती हैं।
20 वीं सदी में हिंदी साहित्य
इस काल की दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं – एक खड़ी बोली को सामान्य काव्यभाषा के रूप में स्वीकार करना और दूसरी हिन्दी गद्य का नियमन और परिमार्जन। इस कार्य में सबसे प्रबल योग सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी का रहा। द्विवेदी जी और उनके साथियों ने हिन्दी गद्य की अभिव्यंजना का विकास किया।
निबंध के क्षेत्र में द्विवेदी जी के अलावा बालमुकुंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्णसिंह, पद्मसिंह शर्मा जैसे सावधान, सशक्त और जीवंत गद्य शैलीकार आगे आए। कई उपन्यास लिखे लेकिन इसकी यथार्थवादी परंपरा का उल्लेखनीय विकास नहीं हो सका।
इस अवधि के दौरान यथार्थवादी आधुनिक कहानियों का जन्म और विकास हुआ। गुलेरी, कौशिक आदि के अतिरिक्त प्रेमचंद और प्रसाद की प्रारम्भिक कहानियाँ भी इसी समय प्रकाश में आयीं। नाटक का मैदान सूना ही रह गया होगा।
इस समय के सबसे प्रभावशाली आलोचक द्विवेदी जी थे, जिनकी संशोधनवादी और गरिमामयी आलोचना ने समकालीन साहित्य को बहुत प्रभावित किया। मिश्रबंधु, कृष्ण बिहारी मिश्र और पद्मसिंह शर्मा इस समय के अन्य समीक्षक हैं, पर कुल मिलाकर इस समय की समीक्षा बाहरी ही रही।
सुधारवादी आदर्शों से प्रेरित होकर अयोध्या सिंह उपाध्याय ने अपने “प्रियप्रवास” में लोकसेवक के रूप में राधा का रूप प्रस्तुत किया और खड़ीबोली के विभिन्न रूपों के प्रयोग में भी निपुणता का परिचय दिया। इस समय के अन्य कवियों में द्विवेदी जी, श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ आदि हैं।
ब्रजभाषा काव्य परंपरा के प्रतिनिधि रत्नाकर और सत्यनारायण कविरत्न हैं। रचना का कार्य परिमार्जन एवं समसामयिक परिवेश के अनुरूप सम्पन्न हुआ है। नवीन काव्य का अधिकांश भाग विचारात्मक एवं वर्णनात्मक है।
सन् 1920-40 के दो दशकों में आधुनिक साहित्य के अन्तर्गत अनेक प्रकार की वैचारिक एवं कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास हुआ। उपन्यासों और कहानियों को सबसे अधिक लोकप्रियता मिली। कथा साहित्य में घटनाओं के बजाय यादगार चरित्रों का निर्माण किया गया।
निम्न एवं मध्यमवर्गीय समाज के यथार्थवादी चित्रों को व्यापक रूप में प्रस्तुत किया गया है। वर्णन की विशद शैली विकसित हुई। प्रेमचंद इस समय के अग्रणी कथाकार हैं। वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास भी उल्लेखनीय हैं।
जयशंकर प्रसाद के साथ हिंदी नाटक इस समय सृजन के एक नए स्तर पर चढ़ता है। उनके जीवंत चरित्र निर्माण, नाटकीय संघर्षों की योजना और संवेदनशीलता के कारण उनके रोमांटिक ऐतिहासिक नाटकों ने विशेष महत्व हासिल किया। कई अन्य नाटककार भी सक्रिय दिखाई दिए।
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में रामचंद्र शुक्ल ने सूर, तुलसी और जायसी की सूक्ष्म भावनाओं और कलात्मक विशेषताओं का मार्मिक उद्घाटन किया और साहित्य के सामाजिक मूल्यों पर बल दिया। अन्य आलोचक श्री नंददुलारे वाजपेयी, डॉ. नागेंद्र और डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं।
यह काव्य के क्षेत्र में छायावाद के विकास का युग है। पहले काव्य वस्तुनिष्ठ था, छायावादी काव्य भावात्मक है। इसमें व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों की प्रधानता होती है। छायावादी काव्य में स्थूल वर्णन के स्थान पर व्यक्ति के मुक्त भावों की कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है।
छायावादियों को स्थूल तथ्यों और वस्तुओं की अपेक्षा अलंकार कल्पना अधिक प्रिय होती है। उनकी सौंदर्य चेतना विशेष रूप से विकसित है। प्रकृति की सुंदरता ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया। छायावादी काव्य मूलतः वैयक्तिक भावों की प्रधानता के कारण गीतात्मक है।
इस समय खड़ी बोली काव्यभाषा की अभिव्यक्ति का अभूतपूर्व विकास हुआ। जयशंकर प्रसाद, माखनलाल, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, महादेवी, नवीन और दिनकर छायावाद के उत्कृष्ट कवि हैं।
1940 के बाद छायावाद की भावनात्मक, सौन्दर्यपरक और कल्पनाशील व्यक्तिवाद प्रवृत्तियों के विरोध में प्रगतिवाद का एक संगठित आन्दोलन हुआ, जिसकी दृष्टि सामाजिक, यथार्थवादी और उपयोगितावादी है।
इसमें सामाजिक विषमता और वर्ग संघर्ष की भावना विशेष रूप से प्रमुख हुई। इसने साहित्य को सामाजिक क्रांति के हथियार के रूप में स्वीकार किया। अपनी उपयोगितावादी दृष्टि की सीमाओं के कारण प्रगतिशील साहित्य, विशेषकर काव्य में कलात्मक उत्कृष्टता की अधिक सम्भावनाएँ नहीं थीं, फिर भी इसने साहित्य के सामाजिक पक्ष पर बल देकर एक नई चेतना जगाई।
प्रगतिशील आन्दोलन के प्रारम्भ के कुछ समय बाद ही नवीन मनोविज्ञान या मनोविश्लेषण से प्रभावित एक अन्य व्यक्तिवादी प्रवृत्ति साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हुई, जिसे 1943 के बाद प्रयोगवाद का नाम दिया गया। इसका संशोधित रूप समकालीन नवीन काव्य और नवीन कहानियाँ हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध और उसके बाद के साहित्य में जीवन की भयावहता, कुरूपता और विसंगतियों के प्रति असंतोष और क्रोध ने दो प्रकार की प्रवृत्तियों को जन्म दिया, कुछ आगे और पीछे।
एक को प्रगतिवाद कहा जाता है, जिसने मार्क्स के जीवन के भौतिकवादी दर्शन से प्रेरणा ली; दूसरा प्रयोगवाद है, जिसने साहित्य के नए औपचारिक प्रयोगों के माध्यम से पारंपरिक आदर्शों और संस्थानों के प्रति असंतोष की अपनी तीव्र प्रतिक्रियाओं को व्यक्त किया। नवीन मनोविज्ञान का इस पर गहरा प्रभाव पड़ा।
प्रगतिवाद से प्रभावित कहानीकारों में यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर और नागार्जुन आदि विशेष हैं। आलोचकों में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, विजयदेव नारायण साही प्रमुख हैं।
कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रंगेय राघव, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। इस काल में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्या निवास मिश्र और कुबेरनाथ राय ने निबंध लेखन में विशेष ख्याति अर्जित की।
नए मनोविज्ञान से प्रभावित प्रयोगों के लिए जागरूक कहानीकारों में अज्ञेयवादी प्रमुख हैं। इलाचंद्र जोशी और जैनेंद्र मनोविज्ञान से गंभीर रूप से प्रभावित हैं। इन लेखकों ने व्यक्ति के अवचेतन मन को खोलकर एक नया नैतिक बोध जगाने का प्रयास किया।
जैनेन्द्र और अज्ञेय ने कहानी के पारंपरिक ढाँचे को तोड़ा और शैलीविज्ञान से जुड़े नए प्रयोग किए। बाद के लेखकों और कवियों में व्यक्तिगत प्रतिक्रियाएँ अधिक तीव्र हो गईं। वे पूरी तरह से समकालीन परिवेश से जुड़े हुए हैं। उन्होंने समाज और साहित्य की मान्यताओं पर गहरा प्रश्नचिन्ह लगाया है।
वे व्यक्तिगत जीवन की बेबसी, हताशा, क्रोध आदि को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ व्यक्तिगत स्तर पर जीवन के नये मूल्यों की खोज में लगे हैं। उनकी रचनाओं में एक ओर विश्वव्यापी आतंक और आतंक की व्यथा है तो दूसरी ओर मनुष्य के अस्तित्व की अनिवार्यता और जीवन की सम्भावनाओं को रेखांकित करने का प्रयास है।
हमारा समकालीन साहित्य अतिवादी व्यक्तिवाद से ग्रस्त है और यही उसकी सीमा है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी ताकत इसकी जीवटता है जिसमें भविष्य की प्रबल संभावना निहित है।