हर्ष कालीन भारत
♦चक्रवती गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में राजनीतिक विकेन्द्रीकरण और क्षेत्रीयता की भावना का उदय हुआ।
♦गुप्त वंश के पतन के पश्चात् भारत में क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ जिनमें प्रमुख रूप से मैत्रक, मौखरी, पुष्यभूति, परवर्ती गुप्त और गौड़ मुख्य रूप से जाने जाते हैं।
♦उपरोक्त शक्तियों में सबसे शक्तिशाली पुष्यभूति थे जिन्होंने सबसे विशाल क्षेत्र पर शासन किया।
♦पुष्यभूति वंश को वर्धन वंश के नाम से भी जाना जाता है और इनकी राजधानी थानेश्वर थी।
♦प्रारम्भिक पुष्यभूति गुप्त शासकों के सामंत के रूप में काम करते थे, हूण के आक्रमण के पश्चात् उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
♦प्रभाकर वर्धन इस वंश का पहला शक्तिशाली शासक हुआ।
♦प्रभाकरवर्शन ने गुप्त शासकों के समान के राजकीय उपाधि “परम भट्टारक महाराजाधिराज” की उपाधि ग्रहण की।
♦प्रभाकरवर्धन की दो संतान थी -राज्यवर्धन और हर्षवर्धन।
♦गौड़ नरेश शशांक ने राजयवर्धन की हत्या कर दी, जिसके बाद हर्षवर्धन शासक बना।
हर्षवर्धन -606-647 ईस्वी
♦हर्षवर्धन 606 ईस्वी में थानेश्वर की गद्दी पर बैठा।
♦बाणभट्ट ने हर्षचरित और हुएनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में हर्षवर्धन के विषय में जानकारी दी है।
♦हर्षवर्धन को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता है।
♦हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को संरक्षण दिया।
♦641 ईस्वी में हर्षवर्धन ने एक दूतमण्डल चीन भेजा, उसके पश्चात्643 ईस्वी और 646 ईस्वी में दो चीनी राजदूत हर्ष के दरबार में आये.
♦643 ईस्वी में सम्राट हर्ष ने कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन कराया।
♦बुद्ध के दंत अवशेष हर्ष द्वारा बलपूर्वक कश्मीर के शासक से प्राप्त किये गए।
♦हर्ष वर्धन भगवान शिव का भी उपासक था।
♦हर्ष वर्धन न सिर्फ एक शक्तिशाली शासक था,बल्कि एक योग्य साहित्यकार भी था। उसने तीन ग्रंथों-प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानंद की रचना की। ये तीनों नाटक थे।
♦हर्ष के दरबार में प्रसिद्द कबि बाणभट्ट भी रहता था जिसने हर्षचरित, कादंबरी तथा शुकनासोपदेश आदि की रचना की।
♦राज्यश्री जो हर्ष वर्धन की बहन थी, का विवाह कन्नौज मौखरी शासक ग्रहवर्मन से हुआ था।
♦गौड़ नरेश शशांक ने मालवा के शासक देवगुप्त के साथ मिलकर ग्रहवर्मन की हत्या करके कन्नौज अधिकार कर लिया था।
♦हर्ष वर्धन ने अपनी बहन राजयश्री की रक्षा की और शशांक को पराजित कर कन्नौज को बापस प्राप्त किया और जनता आग्रह पर कन्नौज की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
♦बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में हर्ष को ‘परम महेश्वर’ कहा गया है।
♦हेनसांग ने वर्णन किया है कि हर्ष अपने पडोसी राज्यों को विजय किया।
♦दक्षिण के अभिलेखों में हर्ष को सम्पूर्ण उत्तरी भारत का स्वामी कहा गया है।
♦हर्ष के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में थानेश्वर ( पूर्वी पंजाब ) से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तथा पूर्व में गंजाम (odisa) से लेकर पश्चिम में वल्लभी तक विस्तारित था।
♦हर्ष वर्धन अंतिम शक्तिशाली हिन्दू सम्राट था जिसने उत्तरी भारत पर शासन किया।
कन्नौज की सभा
♦कन्नौज सभा आयोजन हर्ष द्वारा 643 ईस्वी में किया गया।
♦इस सभा का उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार और विकास करना था।
♦इस सभा की अध्यक्षता हुएनसांग ने की।
♦यह सभा 23 दिन तक चली।
♦सम्राट हर्ष के बराबर बुद्ध की सोने की एक मूर्ति सौ फुट ऊँचे स्तम्भ पर विराजमान की गयी थी।
♦प्रत्येक पांच वर्ष में हर्ष द्वारा प्रयाग महामोक्ष परिषद् का आयोजन किया जाता था।
प्रयाग सभा
♦प्रयाग सभा का आयोजन हर्ष द्वारा 643 ईस्वी में किया गया।
♦प्रयाग में हर्ष द्वारा आयोजित यह छठी सभा थी।
♦प्रयाग सभा में हवेनसांग सहित उसके अठारह राजसी मित्रों ने भागीदारी की थी।
♦प्रयाग सभा 75 दिनों तक चली।
हर्ष का शासन प्रबंध
♦शासन दैवीय सिद्धांत पर आधारित था, लेकिन हर्ष एक निरंकुश शासक नहीं था। राजा के अनेक कार्य और कर्तव्य निश्चित थी जिन्हें पूर्ण करना राजा का उत्तरदायित्व होता था।
♦हर्ष एक दयालु और प्रजा का रक्षक था।
♦नागानंद से स्पष्ट होता है कि हर्ष का आदर्श सुखी और खुशहाल प्रजा था।
♦हवेनसांग भी हर्ष को प्रजापालक बताता है और कादंबरी और हर्षचरित में भी उसे प्रजा का रक्षक कहा गया है।
♦राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद् होती थी। मंत्रियों की सलाह बहुत महत्व रखती थी।
♦राजा मुख्य न्यायाधीश और सेनापति होता था।
♦युद्ध और शांति का अधिकारी अवन्ति कहलाता था।
♦हर्ष की शासन व्यवस्था गुप्तकालीन शासन पद्धति पर आधारित थी। बहुत से राजकीय पद जैसे – संधिविग्रहिक, अपतलाधिकृत , सेनापति आदि गुप्तकालीन प्रशासन के समान थे।
♦राज्य को ग्राम, विषय (जिला), भुक्ति (प्रान्त ) और राष्ट्र में विभाजित किया गया था।
♦प्रांतीय अधिकारीयों में महासामंत, महाराज, दौस्साधनिक, प्रभावर, कुमारात्य, उपरिक आदि प्रमुख थे।
♦पुलिस विभाग के प्रमुख कर्मचारी चौरोद्धरजिक दण्डपाशिक आदि थे।
♦अधिकारियों को वेतन के रूप में जागीर देने की प्रथा थी।
♦राजद्रोह के रूप में आजीवन कारावास की सजा थी। अंग-भांग और देश निकाला तथा आर्थिक दण्ड का भी प्रचलन था।
♦सेना में पैदल, अश्वारोही , हस्ती सेना और हरिन्तआरोहि होते थे।
सामाजिक व्यवस्था
♦हवेनसांग के अनुसार समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। जिसमें ब्राह्मणों के सर्वोच्च स्थान प्राप्त था जिन्हें क्षत्रिय, आचार्य तथा उपाध्याय कहा गया था।
♦इस काल में वैश्य वर्ण का सामाजिक पतन हुआ और उनकी स्थिति शूद्रों के समान हो गई।
♦समाज में शूद्र सर्वाधिक संख्या में थी उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ परन्तु सामजिक स्थिति निम्न ही रही।
♦इस काल में वर्ण संकर जातियों की संख्या में वृद्धि देखि गई। वैजयंती ने 64 वर्ण संकर जातियों का उल्लेख किया है।
♦शूद्रों में कुछ वर्ण संकर जातियां थीं। जब निम्न जातीय स्त्री और उच्च जातीय पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न संतान वर्ण संकर होती है इस प्रकार के विवाह को प्रतिलोम विवाह कहा गया है।
♦अस्पृश्यता का प्रचलन बहुत अधिक था।
♦हुएनत्सांग ने अपने यात्रा विवरण में वर्णन किया है कि “सिंधु इस देश का प्राचीन नाम था, अब यह इन्दु अथवा हिन्द कहा जाता है। यह जातियों में बंटा देश है और ब्राह्मण इसमें सर्वोच्च स्थान रखते हैं”.
♦राजपूतों में सती प्रथा का प्रचलन था।
♦दास प्रथा प्रचलित थी और दासों को शूद्रों से अच्छा माना जाता था।
♦वृहद धर्म पुराण 36 प्रकार की वर्णसंकर जातियों का उल्लेख करता है जिन्हें शूद्रों की श्रेणीं में रखा गया है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी
आर्थिक दशा
♦हर्षकालीन भारत में सामंतवाद का उदय हुआ। यद्यपि इसकी नींव गुप्तकाल में पड़ी।
♦प्रारम्भ में सामंती व्यवस्था में मंदिर और ब्राह्मण तथा राजकीय उच्च अधिकारियों तक सिमित थी।
♦कृषि प्रमुख व्यवसाय था परन्तु किसान सामंतों और जमींदारों के शोषण से बचने के लिए अधिक अन्न नहीं उगाते थे।
♦मिताक्षरा से वर्णन प्राप्त होता है कि भूमिदान केवल राजा कर सकता था न कि सेवा के बदले प्राप्त सम्पति धारक।
♦राजा द्वारा प्रदान की गई भूमि को आज्ञापत्र कहा जाता था।
♦अग्नि पुराण से वर्णन प्राप्त होता है कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए राजा को सिंचाई के साधनों को बढ़ाना चाहिए।
♦जोत वाली कृषि भूमि को कौटुम्ब कहा जाता था। व्यक्तिगत स्वामित्व वाली भूमि ‘सकता’ और बटाई वाली भूमि प्रकृष्ट या कृष्ट कहि जाती थी।
♦कृषि उपज का 1/6 भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था यही राज्य की आय का मुख्य स्रोत था।
♦ डाकुओं के बढ़ते प्रकोप ने उद्योग और व्यापार को हानि पहुंचाई।
♦मालवा, गुजरात बंगाल और कलिंग व्यापार के प्रमुख केंद्र थे।
♦बंगाल से मलमल, धान मगध और कलिंग से तथा गन्ना मालवा से, गुजरात सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्द था।
♦इस काल के प्रमुख बंदरगाहों में ताम्रलिप्ति, संप्रग्राम, देपल और भड़ौच प्रमुख थे।
♦पौधों के रशों से तैयार वस्त्र ‘टुकुल’ कहलाता था। अमीर लोग रेशम से बने वस्त्रों का प्रयोग करते थे बाणभट्ट ने -नाल, तुंज, अंशुक और चीनांशुक जैसे रेशमी वस्त्रों का उल्लेख किया है।
♦विदेशी व्यापार के पतन से सिक्कों का चलन कम हो गया और स्थानीय व्यापार कौड़ियों में होने लगा।
धार्मिक दशा
♦वैष्णव प्रमुख धर्म था। किन्तु यह दक्षिण में बहुतायात था जहां अलवार संतों ने इसे प्रसिद्ध बनाया।
♦बौद्ध को विष्णु के अवतार में स्वीकार किया जाने लगा। अवतारवाद चर्म पर था और कृष्ण तथा राम प्रमुख अवतार थे।
♦पूजा और भक्ति में तंत्र विद्या का प्रचलन बढ़ने लगा।
♦धार्मिक सम्प्रदायों में शैव सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान था।
♦बौद्ध धर्म का स्वरूप बदलकर हिन्दू धर्म की भांति पूजापाठ तांत्रिक क्रियाओं में बदल गया।
♦शक्ति और दुर्गा पूजा का प्रचलन शुरू हुआ।
♦दक्षिण में शैव संतों को ‘नयनार’ कहा जाता था।
प्रमुख तथ्य
♦स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करना ही आत्मनिर्भर ग्राम समाज व्यवस्था का उद्देश्य था।
♦’देवदेय’ वह भूमि थी जिसे मंदिर को दान किया गया हो।
♦ब्राह्मण वर्ण से क्षत्रिय वर्ण में आये वर्ग को ब्रह्म क्षत्रिय कहा गया।
ऐसे ब्राह्मण व्यापारी जो मांस, नमक, दुग्ध, घी, शहद का व्यवसाय करते थी शूद्र की श्रेणीं में रखे जाते थे।
♦’अग्रहार’ वह भूमि थी जो ब्राह्मण को दान दी जाती थी।
♦तलाव, रहट और जलाशय सिंचाई के प्रमुख साधन थे।
♦कृषक और शूद्र में जयादा फर्क नहीं था दोनों से जबरन बलपुरक कार्य कराया जाता था, जिसने जमींदारी प्रथा को जन्म दिया।
♦बेगारी (निशुल्क) का प्रचलन था।
♦करों संग्रह ग्राम का मुखिया करता था। इसके बदले उसे अनाज , दुग्ध और उसके उत्पाद, श्रलावन आदि प्राप्त होता था।
♦जिले का अधिकारी विषयपति कहलाता था। उपरीक भुक्ति का प्रधान होता था।
♦भड़ोच में तैयार वस्त्र को ‘वरोज’ कहा जाता था।
♦अन्त्यज और चाण्डाल सबसे निम्न जातियां थीं।
♦सर्वोच्च शिक्षण संस्थान के रूप में नालंदा का प्रमुख स्थान था।