ढहते मुग़ल साम्राज्य के खंडढरों पर मराठों ने अपना साम्राज्य खड़ा किया था। ऐसी ही परिस्थितियों से अंग्रेजों ने भी लाभ उठाया। दोनों ही अपने -अपने क्षेत्रों में कार्य करते थे। उस समय मराठे शेष भारतीय शक्तियों से सबसे शक्तिशाली थे, बिलकुल जैसे अंग्रेज शेष यूरोपीय शक्तियों में श्रेष्ठ बनकर उभरे थे। परिणामस्वरूप अंग्रेजों और मराठों में सर्वश्रेष्ठता के लिए 25 वर्षों तक संघर्ष चला और अंततः अंग्रेज विजयी हुए। इस लेख में हम मराठों और अंग्रेजों के बीच सर्वश्रेष्ठ्ता के लिए संघर्ष और उसके परिणामों का अध्ययन करेंगें।
आंग्ल-मराठा संघर्ष और उसके परिणाम
प्रथम आंग्ल- मराठा संघर्ष-1775-82
आंग्ल मराठा युद्ध के प्रथम दौर के कारण मराठों के आपसी झगड़े तथा अंग्रेजों की महत्वकांक्षाएँ थीं। जैसे क्लाइव ने दोहरी शासन प्रणाली बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में स्थापित कर ली थी उसी प्रकार की दोहरी प्रणाली मुंबई कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी ) महाराष्ट्र में भी स्थापित करना चाहती थी। 1772 में माधवराव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र नारायण राव अपने चाचा रघुनाथ राव जो पेशवा बनने की इच्छा रखता था के षड्यंत्रों का शिकार बन गया।
जब नारायण राव के मरणोपरांत पुत्र उत्पन्न हुआ तो रघुनाथ राव हताश हो गया। उसने अंग्रेजों से सूरत की संधि (1775 ) कर ली ताकि वह अंग्रेजों की सहायता से पेशवा बन जाए। प्रयत्न असमायिक सिद्ध हुआ। युद्ध 7 वर्ष तक चलता रहा तथा अंत में दोनों शक्तियों ने इसकी निष्फलता को अनुभव किया। अंत में सालबई की संधि (1782) से युद्ध समाप्त हो गया। विजित क्षेत्र लौटा दिए गए। यह शक्ति परीक्षण अनिर्णायक रहा। अगले 20 वर्ष तक शांति बनी रही।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1803-6
इस संघर्ष का दूसरा दौर फ्रांसीसी भय से संबंधित था। लॉर्ड वेलेजली जो साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था 1798 में भारत आया। उसने यह अनुभव किया कि फ्रांसीसी भय से बचने का केवल एक ही तरीका है कि समस्त भारतीय राज्य कंपनी पर निर्भर होने की दशा में पहुंच जाएं और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए उसने सहायक संधि प्रणाली का सहारा लिया।
मराठों ने इस जाल से बचने का प्रयत्न किया परंतु आपसी झगड़ों के कारण असफल रहे। पूना में मुख्यमंत्री नाना फडणवीस कि मार्च 1800 में मृत्यु हो गई। कर्नल पामार जो पूना में ब्रिटिश रेजिडेंट थे,उनके कथनानुसार उनकी मृत्यु के साथ ही मराठों में सूझबूझ भी समाप्त हो गई। नाना अंग्रेजी हस्तक्षेप का परिणाम जानते थे और इसीलिए उन्होंने सहायक संधि को दूर रखा।
नाना के नियंत्रण से मुक्त हुए पेशवा बाजीराव ने अपना घिनौना रूप दर्शाया उन्होंने अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए मराठा सरदारों में झगड़े करवाएं तथा षड्यंत्र रचे। परंतु वह स्वयं ही उनमें उलझ गया। दौलतराव सिंधिया तथा यशवंतराव होल्कर दोनों ही पूना में अपनी श्रेष्ठता जमाना चाहते थे।
सिंधिया सफल रहा तथा बाजीराव पर सिंधिया का प्रभुत्व जम गया। 12 अप्रैल 1800 को गवर्नर-जनरल ने पूना रेज़ीडेंट को लिखा कि “सहायक संधि के बदले दक्कन से सिंधिया के प्रभुत्व को समाप्त करने में सहायता का प्रस्ताव करे परंतु बाजीराव ने अस्वीकार कर दिया।”
दूसरी ओर पूना में परिस्थितियों ने गंभीर रूप धारण कर लिया अप्रैल 1801 में पेशवा ने यशवंत राव होल्कर के भाई विटठूजी की निर्मम हत्या कर दी। होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर पेशवा तथा सिंधिया की सेना को हदपसार के स्थान पर पराजित किया ( 25-10-1802 ) तथा पूना पर अधिकार कर लिया। उसने अमृतराव के पुत्र विनायकराव को पुणे की गद्दी पर बिठा दिया। बाजीराव द्वितीय ने भाग कर बसीन में शरण ली और 31-12 –1802 को अंग्रेजों से संधि की जिसके अनुसार:-
1 -पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना पूना में रखना स्वीकार किया।
2 – पेशवा ने गुजरात, ताप्ती तथा नर्मदा के मध्य के प्रदेश तथा तुंगभद्रा नदी के सभी निकटवर्ती प्रदेश जिनकी आय ₹2600000 थी कंपनी को दे दिए।
3-पेशवा ने सूरत नगर कंपनी को दे दिया।
4-पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोड़ दिया तथा गायकवाड के विरुद्ध युद्ध न करने का वचन दिया।
5- पेशवा ने निजाम तथा गायकवाड के संग झगड़े में कंपनी की मध्यस्था स्वीकार कर ली।
6-पेशवा ने अंग्रेज विरोधी सभी यूरोपीय लोग सेना से निकाल दिए।
7-अपने विदेशी मामले कंपनी के सुपुर्द कर दिए।
बसीन की संधि का महत्व
इस संधि पर अलग-अलग इतिहासकारों ने विभिन्न प्रकार के मत व्यक्त किए हैं। बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रधान लॉर्ड कैसलरे ने इस संधि की राजनीतिक बुद्धिमत्ता पर शंका प्रकट की। उसके अनुसार वेलेजली ने अपनी वैधानिक शक्तियों का अतिक्रमण किया और एक निर्वल पेशवा के द्वारा मराठों पर राज्य करने का प्रयत्न किया।
इस टिप्पणी के प्रत्युत्तर में वेलेजली ने 1804 में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा “कंपनी ने भारत में पहली बार शांति में सुधार तथा स्थिरता प्राप्त की है…. जब कभी पेशवा के प्रभुत्व को चुनौती दी जाएगी तो उसकी रक्षा के लिए हमें एक नैतिक आधार मिल गया है। विदेशी षड्यंत्रकर्ता राजधानी से निकाल निकाल दिए गए हैं। कंपनी का बिना वित्तीय भार डाले सैनिक शक्ति का विस्तार हो गया है और पेशवा की सेना आवश्यकता पड़ने पर हमें उपलब्ध हो सकती है।”
यह तो सत्य है कि पेशवा की शक्ति शून्य के बराबर थी परंतु इससे अंग्रेजों को बहुत से राजनीतिक लाभ हुए। पूना में प्रभुत्व बना और मराठा संघ का प्रमुख नेता सहायक संधि के बंधन में बंध गया जिससे उसके अधीनस्थ नेताओं की वास्तविक स्थिति में कमी आई।
अपनी विदेश नीति अंग्रेजों के अधीन करके पेशवा युद्धों के भार से मुक्त हो गया जिनमें वह उलझा रहता था। उसने निजाम हैदराबाद पर अपने अधिकार छोड़ दिए और निजाम अब कंपनी के अधीन हो गया।
बसीन की संधि का एक अन्य लाभ यह हुआ कि सहायक सेना मैसूर, हैदराबाद, लखनऊ तथा पूना जो भारत के मुख्य केंद्रीय स्थान थे वहां तैनात कर दी गई, जहां से वह समस्त भारत में शीघ्र अतिशीघ्र पहुंच सकती थी
यद्यपि इस संधि से अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता स्थापित न हुई परंतु यह उसी दिशा में एक कदम था। सिडनी ओवन के इस कथन में कि इस संधि के फलस्वरुप कंपनी को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से भारत का साम्राज्य मिल गया कुछ अतिशयोक्ति तो है परंतु वस्तुतः सत्य है।
मराठों के लिए यह राष्ट्रीय अपमान सहना कठिन था और भोंसले ने अंग्रेजों को ललकारा। गायकवाड तथा होल्कर अलग रहे। वैलेजली तथा लेक ने दक्षिण तथा उत्तरी भारत में मराठों को शीघ्र ही पराजित कर उन्हें अपमानजनक संधि करने पर बाध्य किया। देवगांव की संधि (17-12-1803) से भोसले ने कटक और वर्धा नदी के पश्चिमी भाग अंग्रेजों को सौंप दिए।
इसी तरह सिंधिया ने सुरजी अर्जुन गांव की संधि 30-12-1803 से गंगा तथा यमुना के मध्य के क्षेत्र कंपनी को सौंप दिए तथा जयपुर, जोधपुर तथा गोहद की राजपूत रियासतों पर अपना प्रभुत्व त्याग दिया। अहमद नगर का दुर्ग, भड़ौच, गोदावरी और अजंता घाट भी कंपनी को सौंप दिए। दोनों राजाओं ने दरबार में रेजिडेंट रखना भी स्वीकार कर लिया।
अप्रैल 1804 में होलकर तथा कंपनी के बीच युद्ध छिड़ गया। यद्यपि आरंभ में होल्कर को कुछ सफलता मिली परंतु अंततोगत्वा उसकी पराजय निश्चित थी। इसी बीच वैलेजली वापस चला गया तथा जार्ज बार्लों ने राजपुर घाट की संधि 25-12-1805 कर ली जिससे मराठा सरदार ने चंबल नदी के उत्तरी प्रदेश, बुंदेलखंड छोड़ दिए तथा कंपनी के अन्य मित्रों पर भी अपना अधिकार छोड़ दिया।
इस दूसरे दौर में मराठा शक्ति यद्यपि समाप्त नहीं हुई परन्तु कमजोर अवश्य हो गई।
तृतीया आंग्ल-मराठा युद्ध -1817-18
इस युद्ध का तृतीय तथा अंतिम चरण हेस्टिंग्ज के आने पर आरम्भ हुआ। उसने फिर आक्रांता का रूख अपनाया तथा भारत में अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता बनाने का प्रयत्न किया। 1805 शांति के जो वर्ष मराठों को मिले थे उनका प्रयोग उन्होंने अपने सुदृढ़ बनाने के बजाय आपसी कलह में खो दिए। हेस्टिंग्ज के पिंडारियों के विरुद्ध अभियान में मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली अतएव दोनों में संघर्ष हुआ। इस सुव्यवस्थित अभियान के कारण हेस्टिंग्ज ने नागपुर के राजा को 27-5-1816 को, पेशवा को 13-6-1917 को तथा सिंधिया को 5-11-1817 को बहुत अपमानजनक संधियां करने के लिए बाध्य किया। अंततः विवश होकर पेशवा ने दासत्व ला बंधन तोड़ने का एक प्रयत्न किया।
दौलतराव सिंधिया, नागपुर के अप्पा साहिब, मल्हार राव होल्कर द्वितीय ने युद्ध की ठान ली। पेशवा किर्की के स्थान पर, भोंसले सीताबर्डी के स्थान पर, तथा होल्कर महीदपुर के स्थान पर अंग्रेजों से पराजित हुए। अतः मैराथन की समस्त सेना अंग्रेजी सेना से हार गई। बाजीराव द्वितीय का पूना का प्रदेश अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। शेष छोटे-छोटे राज्य ही रह गए और वे कम्पनी के अधीन हो गए।
मराठों की पराजय के कारण
मराठों की पराजय के संछिप्त कारणों को हम इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं —
1-अयोग्य नेतृत्व —मराठों की निरंकुश राज्य व्यवस्था भूमिका मुख्य होती थी। मराठा साम्राज्य का संविधान नहीं था। मराठा शासक निरंकुश होकर जनता का उत्पीड़न करते थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा दौलतराव होल्कर ने अपने दुष्कर्मों से मराठा साम्राज्य मिटटी में मिला दिया। बाजीराव जनता की नजर में एक हत्यारा था जिसने अपने स्वार्थके कारण मराठों की स्वतंत्रता गिरवीं रख दी। मराठों के पास कोई नेतृत्व नहीं था। उनके पास युद्ध का कोई अनुभव नहीं था।
2-मराठा राज्य स्वभाविक दोष – सर जदुनाथ सरकार के अनुसार मराठों ने अपनी जनता के कल्याण के लिए न शिक्षा स्वास्थ्य अथवा एकीकरण के लिए कोई प्रयास नहीं किये। मराठा साम्राज्य में जनता में अब वो धार्मिक भावना नहीं थी जिसमें मुग़ल साम्राज्य के पतन में मुख्य भूमिका निभाई थी।
3-एक निश्चित आर्थिक निति का आभाव -मराठा सेना में अधिकांश सैनिक वो किसान थी जिनकी खेती नष्ट हो चुकी थी और सेना में भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता था। वे लूट और चौथ तथा सरदेशमुखी पर निर्भर होते थे। इसी प्रकार मराठा शासक भी इसी पर निर्भर थे और उन्होने राज्य में कृषि अथवा उद्योग की और कोई ध्यान नहीं दिया। अतः उनके पास आय के कोई संसाधन नहीं थे।
4- मराठा राजनैतिक वयवस्था की दुर्वलताएँ -मराठा साम्राज्य अपने पराकाष्ठा काल में छत्रपति के नेतृत्व में एकजुट था। मगर अब यह स्थान पेशवा ने ले लिया और मराठा संघ बिखर कर अनेक संघों में अलग-अलग हो गया। ये मराठा संघ आपस में ही लड़ते रहते थे और कभी दुश्मन के विरुद्ध एकजुट होने का प्रयास नहीं किया।
5-मराठों को घटिया सैन्य व्यवस्था -मराठा सेना में वीर सैनिकों की कमी नहीं थी मगर उनके पास न तो प्रशिक्षण की व्यवस्था थी और न ही अच्छे हथियार थे। मराठा सेना शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को भूल चुकी थी। मराठे अपनी परम्परागत ताकत घुड़सवार सेना से ज्यादा तोपखाने पर भरोसा करने लगे। परिणामस्वरूप उनकी गतिशीलता कमी आ गई।
6-अंग्रेजों की उत्तम कूटनीति -अंग्रेज हमेशा हमेशा ही कूटनीति में आगे थे। अंग्रेजों ने मराठों के विरुद्ध निजाम लेकर गायकवाड़ तक मित्र बनाया और मराठों को कमजोर कर दिया।
7-अंग्रेजों की उत्तम गुप्तचर वयवस्था -गुप्तचर वयवस्था के लाभ से मराठा सेना पूणतया अनजान थे। इसके विपरीत अंग्रेज अधिकारी भ्रमण के नाम पर अनेक जानकारी एकत्र कर अंग्रेज सेना को उपलब्ध कराते थे जिसका लाभ वे युद्ध के दौरान उठाते थे।
8-अंग्रेजों का प्रगतिशील दृष्टिकोण -अंग्रेज भारत में आने से पूर्व ही धर्मान्धता और आडंबरों से बहार आ चुके थे और वैज्ञानिक अविष्कारों, नए स्थानों की खोज, नए उपनिवेशों की खोज में लगे रहते थे। इसके विपरीत भारतीय कुँए के मेढक की तरह एक स्थान पर ही अपनी श्रेष्ठ्ता के लिए आपस में ही लड़ते थे। मराठों ने अयोग्य ब्राह्मणों को भी उच्च पदों पर सिर्फ इसलिए बैठाया क्योंकि धार्मिक रूप ब्राह्मण श्रेष्ठ और पूजनीय है। इन्हीं अयोग्य ब्राह्मणों के नेतृत्व में मराठे पूरी तरह मिटटी में मिल गए।
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