औपनिवेशीकरण का उत्तरखंड की जनजातियों पर प्रभाव-एक ऐतिहासिक विश्लेक्षण | Impact of Colonization on the Tribes of Uttarakhand - A Historical Analysis in hindi

औपनिवेशीकरण का उत्तरखंड की जनजातियों पर प्रभाव-एक ऐतिहासिक विश्लेक्षण | Impact of Colonization on the Tribes of Uttarakhand – A Historical Analysis in hindi

Share This Post With Friends

Last updated on May 9th, 2023 at 08:41 pm

तृतीय विश्व की अनेक परंपरागत संस्कृतियां वर्तमान वैश्वीकरण व औद्योगिकीकरण के दबाव में अपना दम तोड़ रही हैं। इस बढ़ते नगरीकरण के दौर में जनजातीय अथवा आदिवासी संस्कृतियां एक नैसर्गिक एवं स्वस्थ पर्यावरण को आज भी जीवित बनाए रखने के कारणों से समग्र विश्व की संपूर्ण धरोहर हैं।

आदिकाल से ही इन मानव समुदायों ने अपनी पारिस्थितिकीय प्रणाली के अनुरूप अपनी संस्कृतियों का विस्तार किया है। जीविकोपार्जन हेतु इन परंपरागत संस्कृतियों ने सहजीवन के सिद्धांत के आधार पर प्रकृति की  पुनरुत्पादन क्षमता के अनुपात में एक सहज-सरल जीवन-पद्धति का विकास किया।

औपनिवेशीकरण का उत्तरखंड की जनजातियों पर प्रभाव-एक ऐतिहासिक विश्लेक्षण | Impact of Colonization on the Tribes of Uttarakhand - A Historical Analysis in hindi
फोटो -विकिपीडिया

औपनिवेशीकरण का अर्थ

औपनिवेशीकरण आमतौर पर एक अधिक शक्तिशाली देश या साम्राज्य द्वारा एक विदेशी क्षेत्र पर राजनीतिक और आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। इस प्रक्रिया में अक्सर उपनिवेशित क्षेत्र में उपनिवेशवादी शक्ति से लोगों का बसना और स्वदेशी आबादी पर उपनिवेशवादी की संस्कृति और संस्थानों को लागू करना शामिल होता है।

औपनिवेशीकरण के लिए प्रेरणा अलग-अलग होती है, लेकिन अक्सर इसमें आर्थिक शोषण, संसाधनों का अधिग्रहण, और शक्ति और प्रभाव की इच्छा शामिल होती है।

औपनिवेशीकरण का औपनिवेशीकरण और औपनिवेशीकरण दोनों समाजों पर गहरा प्रभाव पड़ा है, उनके इतिहास, अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृतियों और पहचान को आकार दिया है। यह एक जटिल और विवादास्पद विषय है जिसका अध्ययन और बहस आज भी जारी है।

उत्तराखंड में औपनिवेशीकरण

उत्तराखंड के तराई-भाबर क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा औपनिवेशिक चिंतन पर आधारित उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया तथा स्वतंत्र भारत में भारत सरकार द्वारा तराई क्षेत्रों में दूसरे जन समूहों को बसाने के परिणामस्वरूप स्थानीय जनजातियों की परंपरागत जीवन पद्धति और जीवन-यापन का आर्थिक आधार एवं अपने पर्यावरण के साथ सदियों से चला आ रहा सांमजस्य पूर्णतः परिवर्तित और विघटित हो गया है। 

परंपरा और परिवर्तन के अंतर्द्वंद से आहत इस क्षेत्र की मूल आदिवासी जनजातियां थारू तथा बुक्सा आदिवासियों को तराई क्षेत्र की वर्तमान आम आबादी से पृथक कर पाना कठिन कार्य है।  क्योंकि अधिकांश आदिवासी आबादियों ने गैर-आदिवासी सांस्कृतिक जीवन पद्धति को अपनाना प्रारंभ कर लिया है, अथवा अपना लिया है। 

यह लोग तराई-भावर में बाहरी लोगों के अत्यधिक हस्तक्षेप के उपरांत भी अपने अतीत की परंपराओं से अभी भी पूरी तरह दूर नहीं हुए हैं। अलग-अलग स्थानों पर बसे हुए थारू और बुक्सा आदिवासी समुदाय स्थान विशेष की पर्यावरण विनाश की  तीव्रता के साथ-साथ बाह्य अधिवासी एवं अप्रवासी मानव समुदायों की संस्कृति से कम या अधिक मात्रा में प्रभावित हुए हैं। निश्चित रूप से इन लोगों की मूल आदिवासी संस्कृति अब लुप्तप्राय है परंतु मूल संस्कृति के कुछ  तत्वों  निरंतरता वर्तमान में भी कायम है।

तराई-भाबर क्षेत्र में कृषि के विकास एवं आधुनिकीकरण के तर्क को सामने रखकर बदलाव की प्रक्रिया शुरू की गई। फलस्वरुप तराई क्षेत्र की आदिवासी पारिस्थितिकीय प्रणाली लगभग पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो कर रह गई। आदिवासी समूहों का समाज बिखर गया और संस्कृति भी तितर-बितर हो गई।

आदिवासी समाज के बहुसंख्यक लोग एक ऐसे समाज के साथ रिश्ता जोड़ पाने में अक्षम हो गए हैं जिनका कि प्रकृति से रिश्ता उनकी उत्पादन क्षमता के अनुरूप न होकर अपनी आवश्यकतानुसार व लाभ कमाने की, और जमीन की उर्वरा शक्ति का अधिक से अधिक शोषण का है।

तराई-भाबर की  वाणिज्य कृषि व्यवस्था प्रकृति के पोषण और संतुलन के स्थान पर शोषण व विनाश पर आधारित है। बनवासी की दृष्टि में स्थाई कृषक प्राकृतिक जीवन से कोसों दूर हैं। उपनिवेशीकरण, औद्योगिकीकरण तथा पर्यावरण विनाश की प्रक्रिया में तराई-भावर के थारू-बुक्सा आज अपनी जमीनों, जंगलों और नदी-नालों पर से अपना नियंत्रण खो बैठे हैं।

यह हानि स्वामित्व और नियंत्रण से जुड़े अधिकार की नहीं है। क्योंकि बनवासी समाज ,में संपत्ति स्वामित्व और अधिकार के विचार व दर्शन उपलब्ध नहीं थे। यह हानि मुख्य रूप से उत्पादन के स्वरूप तथा संसाधनों के उपयोग के तरीकों के समाप्त होने से एक जीवन-पद्धति व दर्शन की हानि है। यह हानि आर्थिक भी थी और सांस्कृतिक भी। व्यक्तिगत स्तर पर यह पेट और मन दोनों पर गहरी चोट थी।

यह भी पढ़िए –

 गैर परंपरागत अर्थव्यवस्था

 जनजातीय समुदाय थारू एवं बुक्सा की परंपरागत अर्थव्यवस्था के संसाधनों-शिकार, लघु वन उत्पादों का एकत्रण एवं झूम खेती की प्रणालियों में परिवर्तन इस क्षेत्र में भूमि व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के तौर-तरीकों में परिवर्तन का परिणाम है। अंग्रेजों द्वारा तराई क्षेत्रों के उपनिवेशीकरण की मंशा के पीछे  तराई की उपजाऊ भूमि को व्यवस्थित कृषि क्षेत्र के रूप में परिवर्तित कर व्यावसायिक लाभ कमाने की रही थी।

जंगलों को साफ कर के जंगलों की जमीनों को स्थाई कृषि के मैदानों में रूपांतरित कर दिया गया।  परंपरागत झूम अथवा स्थानांतरित खेती के स्थान पर व्यवस्थित खेती को आदिवासियों द्वारा अपनाए जाने पर इन आदिवासी जनजातीय समुदायों की पारिस्थितिकीय प्रणाली के साथ उनके रिश्तो में न सिर्फ परिवर्तन हुआ बल्कि यह सजातीय समुदाय आपस में ही अपने परंपरागत आचरण के विरुद्ध सर्वथा भिन्न आचरण करने को बाध्य भी हुए हैं।

तराई-भाबर क्षेत्र में हरित क्रांति के वैज्ञानिक औजारों के साथ आधुनिक कृषि के तंत्र को पूरी तरह से अपनाया जा चुका है। तराई का थारू और बुक्सा अपने परंपरागत पारिस्थितिकीय तंत्र के रिश्तो से नव आगंतुकों द्वारा पूरी तरह बेदखल कर दिया गया है। यह जनजातियां अपने पर्यावरण व संस्कृति से दूर हो चुकी हैं।

उनके परंपरागत उत्पादन के संसाधनों के विघटन से पोषण तत्वों में कमी आ गई है और स्वास्थ्य तथा आर्थिक स्थिति बदतर है। तराई क्षेत्रों की जनजातियों पर बाहरी परिवर्तन का प्रभाव पड़ना सन 1860  से उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाए जाने के बाद से प्रारंभ हुआ।

झूम खेती के लिए जंगलों की गैर-मौजूदगी से अन्न के उत्पादन पर सीधे प्रभाव पड़ा। आदिवासियों की झूम खेती का चक्र समाप्त हो गया जिससे आदिवासियों के अन्न के उत्पादन पर गाज गिरने लगी इन लोगों को भोजन की उपलब्धता में कमी महसूस होनी प्रारंभ हो गई।

सदियों से इन जनजातीय समुदायों में जंगलों में शिकार करने व लघु वन उत्पादों को बीनने की गतिविधियां उनके जीविकोपार्जन तथा भरण-पोषण का साधन थी। जंगलों को साफ कर व्यवस्थित कृषि भूमि में परिवर्तित कर देने से जंगली उत्पादों की आपूर्ति भी घटने लगी। कंदमूल के साथ जानवरों की भी भारी कमी हो गई। अनाज भी खरीदने पर मिल रहा था, इससे पोषण में कमी हुई। यह सारी प्रक्रिया स्वास्थ्य की, संस्कृति की हानि और पेट पर लात मारने जैसी है।

       इन क्षेत्रों में औषधियों के  पौधे भी थे जो अब या तो कम हो चुके हैं या फिर समाप्ति की ओर हैं।

सरकारी स्तर पर आमतौर पर दलील दी जाती रही है कि झूम, पोडू, बोगोडो, क्विल, कटील, बेबार इत्यादि के नाम से पुकारी जाने वाली खेती एक पिछड़ा, हानिकारक तथा विनाशकारी चलन है, जिसमें अधिक निवेश के उपरांत कम उत्पादन होता है। लेकिन हाल के वर्षों में किए गए अध्ययनों के परिणामों में दर्शाया गया की है कि इस प्रकार की खेती काफी विवेकशील आकलन पर आधारित है। पहाड़ी निवासियों के पारिस्थितिकी के संदर्भ में यह प्रक्रिया को अनुपयोगी और ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं माना जा सकता।

झूम खेती में मिश्रित खेती से फसल इस तरह उगती है कि विभिन्न पौधों की जड़ों की व्यवस्था गहराई की विभिन्न अवस्थाओं तक पहुंच जाती है तथा विभिन्न फसलों के लिए मिट्टी की कई परतों से पोषण का पाना संभव हो जाता है। इससे अन्य लाभ यह भी है कि एक फसल खराब हो जाती है तो दूसरी फसल से लाभ प्राप्त किया जा सकता है साथ ही झूम खेती से भू-क्षरण की रोकथाम भी होती है। इसके विपरीत यह एक धान्य कृषि प्रणाली के तहत सभी पौधे एक ही परत से पोषणता प्राप्त करते हैं।

उपनिवेशीकरण काल से ही सरकार झूम खेती को जंगलों के लिए  नुकसानदायक गतिविधि के रूप में देखती थी, इसलिए तराई में झूम खेती अब अतीत की विषय वस्तु बन गई है। झूम खेती तथा खाद्य संग्रहण के बीच एक घनिष्ठ आर्थिक जुड़ाव थारू तथा बुक्सा समुदायों में पाया जाता था। ऐसे में जंगल आधारित पारिस्थितिकी प्रणाली एवं आर्थिक गतिविधि के विघटन से थारू एवं बुक्सा की आजीविका तथा संस्कृति विघटित हो चुकी है 

पूर्व में इन आदिवासी समूहों की आजीविका जंगल के संसाधनों पर ही निर्भर थी कृषि के लिए पहले भूमि की कोई कमी भी नहीं थी जंगल के जितने भूभाग पर भी खेती कर सकते थे वह भूमि उनकी हो जाती थी। आज परिस्थिति एकदम विपरीत है। पिछली एक शताब्दी से आदिवासियों की भूमि नव आगंतुकों द्वारा अनाप-शनाप तरीकों से हड़पी जा रही है। अपने भोलेपन और अशिक्षा के कारण आज वे लोग अपनी अधिकांश भूमि पर स्वामित्व खो चुके हैं।

सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन

आज वनस्पतियों को काट कर खेती के बड़े-बड़े मैदान बना दिए गए हैं। विभिन्न वन उत्पाद उपभोक्ता तथा वाणिज्य, पूंजीवाद के लाभ के स्रोत हो गए हैं। जबकि गरीब आदिवासी सिर्फ अपनी आजीविका के लिए ही इन पर निर्भर है। वाणिज्य कृषि  उत्पादकों के पास बढ़िया किस्म की अधिकांश जमीन है। वे लोग यहां पर वाणिज्यिक फसलों की पैदावार करने में लगे हुए हैं,जबकि यहां के मूल निवासी गरीब थारू और बुक्सा अपनी जरूरत के लिए आनाज उगाते हैं और बड़े-बड़े आधुनिक कृषि फार्म में अमीर किसानों के खेतों में मजदूरों के रूप में काम करते हैं।

इस कारण इन समुदायों में सामूहिक श्रमदान की व्यवस्था तथा भरण-पोषण के लिए एक दूसरे का साथ देने की परंपरा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। उनके लिए पेट भरना भी समस्या है।

संपत्ति पर निजी स्वामित्व व्यक्तिगत आमदनी तथा पारिवारिक प्रतिस्पर्धा के चलते आदिवासी जीवन में सामुदायिकता के स्थान पर निजीकरण का जहर फैला है और अकेलेपन की भावना जागी है। स्थानांतरण कृषि चक्र के बंद होने का अर्थ है आदिवासियों की परंपरागत आस्था व उनके रीति-रिवाजों में परिवर्तनों का आ जाना। ऐसे परिवर्तनों से वे अनेकों धार्मिक व सामाजिक प्रथाएं समाप्त हो गई जिन से समाज के मूल्य मजबूत बने हुए थे।

आदिवासी समाज में कई भ्रांतियां व परंपराएं जिनसे अतीत में जंगलों की सुरक्षा होती थी उन्हें आज न याद किया जाता है और न उन पर विचार ही होता है।

स्त्रियों की सामाजिक हैसियत का पतन

व्यवस्थित कृषि से न केवल भिन्न प्रकार की पारिस्थितिकी तथा पोषणता की स्थिति बनी बल्कि इससे परंपरागत आदिवासी समाज की तुलना में एक अलग तरह का सांस्कृतिक वातावरण इस क्षेत्र में प्रवेश कर गया। इस व्यवस्था का मुख्य रूप से चलन मैदानी इलाकों में हैं। इस व्यवस्था में खेती के लिए पूरी तरह से बारिश या सिंचाई पर ही आश्रित रहा जाता है और इसके लिए श्रम की कम आवश्यकता पड़ती है।

मैदानी संस्कृति में भिन्न प्रकार से श्रम में हाथ बंटाने का चलन है और जमीन भी सामुदायिक संपत्ति संसाधन के रूप में नहीं है। श्रम का विभाजन विशेष रूप से परिभाषित होता है। इसके अंतर्गत कुछ खास कार्य पुरुषों द्वारा संपादित होते हैं और अन्य कार्य स्त्रियों द्वारा। इस प्रकार के सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में फैलने से पुरुषों की संपत्ति पर मिल्कियत के फैलाव से आदिवासी महिलाओं की सामाजिक हैसियत व प्रतिष्ठा कम हुई है।

इस प्रक्रिया में एक वैधानिक पैमाने पर अंग्रेजी शासनकाल में जमीन पर सोची-समझी नीतियों के जरिए व्यापक परिवर्तन लाया गया। पितृसत्तात्मकता के बढ़ते प्रभाव ने परंपरागत क्षमता को घटा दिया। इस तरह आधुनिकता प्रगति सिलता और पिछड़े सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा दे रही है। 

यह भी पढ़िए –

जंगल और कानून

जमीन से जुड़े वन कानून थे, जिन्हें अंग्रेजी शासकों द्वारा पारित किया गया था। वन उत्पादों की वाणिज्य के रूप में एक मान्यता के चलते तराई-भाबर में जंगल, जमीदारों तथा आसामियों के अधिकार क्षेत्र में डाल दिए गए। इसका प्राथमिक उद्देश्य कृषि के लिए वन भूमि को साफ करना था। पहला वन कानून सन 1855 में लागू किया गया, जिसे सन 1865 के वन अधिनियम से बदल दिया गया। इस अधिनियम से जंगलों को आरक्षित वन, सुरक्षित वन तथा गांव के वनों में विभक्त कर दिया गया। 

प्रथम दो प्रकार के वनों में लोगों के आवागमन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मुख्य रूप से आरक्षित वनों, जो कि अंग्रेज़ सरकार द्वारा वाणिज्यिक शोषण के लिए सुरक्षित किए गए थे में कठोर प्रतिबंध लागू किए गए। पर्यावरण संरक्षण की धारा सन 1894 में, ऐसे समय में जोड़ी गई, जबकि पहली वन नीति निर्धारित की जा रही थी। इस नीति में भी विशिष्ट आदिवासी समुदायों के हितों का ध्यान रखें बिना बड़ी आबादी के फायदों पर विशेष बल दिया गया।

औपनिवेशिक सोच और विज्ञान में बनवासी अपने पर्यावरण और पूंजीवादी हित का दुश्मन माना जाता था। परंतु वन तथा भूमि कानूनों के जरिए आदिवासियों का अपनी जमीनों तथा परंपराओं से व्यवस्थित और खुले रुप से निष्कासन निश्चित रूप से नहीं चल पाया।

क्योंकि सन 1900  में छोटानागपुर विद्रोह सन 1862 में मुट्ठेदारों के खिलाफ आंध्र प्रदेश का विरोध प्रदर्शन आदिवासी प्रतिरोधों के उदाहरण हैं। किंतु भारत के अन्य भागों की तरह सीमित जनसंख्या होने के कारण  तराई-भाबर के आदिवासियों द्वारा बाहरी सांस्कृतिक आगमन के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं किया गया। यह सीधे-सादे लोग चुपचाप शोषण को सहन करते रहे। इस तरह का संगठित विरोध दबंग अभ्यागत कृषकों के सामने कभी मुखर नहीं हो सका। विरोध के कमजोर स्वरों को निर्ममता से नेस्तनाबूद कर दिया गया।

आजादी के बाद भी भारत सरकार की आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी लोगों के प्रवेश तथा व बसासत की नीतियां वनवासियों के प्रति संवेदनशील नहीं रही हैं। सरकार द्वारा खुलेआम आदिवासी क्षेत्र में बाह्य  आगंतुकों को बसाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आदिवासी क्षेत्र में गैर आदिवासियों का प्रवास तेज होने लगा।

उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में विभाजन के बाद पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बड़ी संख्या में बसाया गया। इन क्षेत्रों में गैर आदिवासियों के प्रवेश से कर्ज, बंधुआ मजदूरी का सिलसिला शुरू हो गया। यह ऐसा सामाजिक परिवर्तन था जो कि आदिवासी परंपराओं के एकदम विपरीत था, उसे यहां घुसेड़ा गया। परिवर्तन की तेज गति का सामना करने में विनम्र आदिवासी व्यवस्था असमर्थ थी।

आदिवासी पारिस्थितिकी प्रणाली उस रिश्ते का नाम है जो कि एक व्यक्ति के रूप में और एक समुदाय के रूप में जनजातीय लोगों का अपने आसपास के परिवेश के प्राकृतिक संसाधनों के साथ बना हुआ है। पूर्व में जनजातीय लोगों की आवश्यकताएं प्रकृति के प्रमुख उत्पादन क्षमता के अनुपात में थी। यह लोग ईंधन चारा खाद्य पदार्थों लघु वन उत्पादों तथा औषधियों के लिए अपने प्राकृतिक परिवेश पर ही निर्भर थे।

आजीविका के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता के चलते आदिवासियों ने विभिन्न मूल्य, आस्थाओं, चलन एवं सांस्कृतिक मानक विकसित किए थे,जो कि सामुदाय द्वारा परिवेश के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करते थे।

इन प्रणालियों का विकास जनजातियों द्वारा ने सिर्फ जीविकोपार्जन हेतु किया गया था अपितु व्यक्ति समुदाय और प्रकृति के बीच निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए भी महत्वपूर्ण था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि आदिवासी लोग स्वयं को प्रकृति के एक हिस्से के रूप में देखते थे,उससे अलग नहीं।

उनमें पश्चिमी सभ्यता का दृष्टिकोण प्रकृति पर विजय का भाव नहीं था मानव की सभ्यता और प्रगति के साथ साथ व्यक्ति समुदाय और प्रकृति के संबंधों में निरंतर परिवर्तन होता रहा है तथा मानव की प्रकृति से दूरी बढ़ती गई है। पूर्व में मूल आदिवासी समाज जो की जीविकोपार्जन के लिए शिकार करने, लघु वन उत्पादों को  बीनने तथा जंगलों के मध्य स्थानांतरित कृषि करने की दशा में थे, उनका प्रकृति और उसके प्रबंधन के साथ अधिक घनिष्ठ जुड़ा था।

आदिवासी कायदे-कानून तथा पर्यावरण

पूर्व में इन समुदायों के मध्य ऐसे कायदे कानून थे जिनसे किसी विशेष प्राकृतिक संसाधन के दोहन की सीमा तथा उसकी अवस्था परिभाषित होती थी साथ ही साथ संसाधनों के अतिशय दोहन की रोकथाम की पद्धतियों तथा आकस्मिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने हेतु भी कायदे कानून थे।

इन लोगों में सृष्टि के संबंध में ऐसी धारणाएं और भ्रांतियां भी थी जो कि एक आदिवासी को प्रकृति के साथ जोड़े हुए होती थी।  ऐसी स्थिति में प्राकृतिक जीवन तथा वनस्पतियों को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता था। प्रकृति के अदृश्य शक्तियों में उनकी असीम आस्था थी जिससे उनके दैनिक क्रियाकलाप निर्धारित सीमा के अंदर ही संपन्न होते थे।

प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की सीमाओं को परिभाषित करने वाली आदिवासी समाज द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं का विशेष महत्व था। आदिवासी समाज के बुजुर्ग आवश्यकता पड़ने पर स्थानांतरित कृषि के लिए अलग-अलग परिवारों को आवश्यकतानुसार भूमि आवंटित करते थे।

भूमि आवंटन के सभी अवसरों पर प्रत्येक बार वितरण के लिए एक नए क्षेत्र का सीमांकन इस प्रकार से होता था कि समुदायों को उस भूमि पर दोबारा कृषि के लिए लौटने में 30 से 40 वर्ष लग जाया करते थे। तब तक पूर्व में कृषि करने के बाद छोड़े गए क्षेत्र के जंगल पूरी तरह से उठकर खड़े हो जाते थे।

आज भी जंगलों में प्रतीक के तौर पर ऐसे क्षेत्र बचे हुए हैं। हालांकि उनका क्षेत्रफल आफ संकुचित हो चुका है। इन क्षेत्रों को देवी-देवताओं का निवास स्थान माना जाता रहा है। पूर्व में कोई भी व्यक्ति इस प्रकार के क्षेत्र में देवी-देवताओं की अनुमति के बिना प्रवेश नहीं कर सकता था। देवी-देवताओं का आह्वान किए बिना पेड़ की टहनी तक नहीं तोड़ी जा सकती थी।

दैवीय अनुमति से निर्देशित कायदे-कानून व परंपराएं समुदाय द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अतिसय दोहन पर नियंत्रण तथा प्रतिबंध लगाने के माध्यमों के रूप में विकसित हुए थे। समग्र समुदाय की मान्यता थी कि यह परंपराएं देव शक्ति से उभरे हैं। इन कायदे-कानूनों के उल्लंघन का मतलब था आपदाओं के रूप में देवी-देवताओं के प्रकोप को आमंत्रित करना।

आदिवासियों की मान्यता इतनी सशक्त थी कि यह समूह विपत्ति काल में भी न कायदे कानून का उल्लंघन करते थे न ही प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन करते थे। परंपरा में किस स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन का संदर पूर्णतः या आंशिक रूप से इन्हीं मान्यताओं के परिणाम स्वरुप था समुदाय द्वारा अधिक आबादियों का स्थानिक बंटवारा करना पड़ता था। जिससे संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर अंकुश लगाया जा सके।

नए गांव को इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरुप स्थापित किया जाता था। किंतु पर्यावरण पोषण का संरक्षण की यह परंपराएं पढ़े-लिखे और अधिक शक्तिशाली अभ्यागतों की दृष्टि में हास्यास्पद परंपराएं मानी गई हैं। लोक संस्कृति के पीछे छिपे इस अनुभव पूरित ज्ञान में पर्यावरणीय असंवेदनशीलता लक्षित होती है। इस लोक ज्ञान का सम्मान होना चाहिए।

निष्कर्ष 

मर्मान्तक आघात का मौन रुदन पूंजीवादी संस्कृति और प्रविधि की संवाहक हरित क्रांति की चमकदार सफलता में दब गई। प्रकृति के घमंडी भारी कदमों के नीचे कमजोर पिछड़ी और परंपरागत व्यवस्थाओं का कुचल जा जाना सभ्यता की अनवरत गति का सहज पर्याय माना जा रहा है।

जो बीत गया वह लौट कर नहीं आ सकता। डार्विन का “सर्वोत्तम की उत्तरजीविता” का सिद्धांत व परंपरागत शक्तिशाली की दर्पोक्ति  “वीर भोग्या वसुंधरा” के दर्शन के समक्ष विकासवादी सिद्धांत के अनुसार पिछड़ी उत्पादन व विपणन व्यवस्था तथा नैसर्गिक संसाधनों के उपयोग की परंपरा का प्रभाव नैसर्गिक शाश्वत परंपरा सी मान ली गई है।

इस दृष्टिकोण को नियतिवाद और भाग्यवादी दृष्टिकोण से सहयोग मिलता है। अतः वनवासी जो प्रकृति में उत्थान पतन को दैनिक देख रहा है उसे उसी भाव और सहजता से लेता गया। उसे ज्ञान नहीं है कि सभ्यता तथा विस्तृत सुरक्षा तंत्र द्वारा मानव अधिकार के कानूनी तरकस में आखेटक, संग्राहक, पशुचारक, झूम कृषि प्रणाली के संरक्षण के लिए कोई तरीका बाकी नहीं है।

बौद्धिक संपदा के लालची रक्षक डंकल प्रस्तावों द्वारा बीजों से लेकर खादों व रसायनों तक जुड़े वैज्ञानिक उपलब्धियों व आर्थिक ढांचे की सुरक्षा के प्रबंध किए बैठे हैं परंतु आदिवासियों के जीवन यापन पद्धति के विघटन उसके संरक्षण के लिए कोई प्रबंध में व्यवस्था सभ्यता के हाथों में नहीं है। इनका मिटना व्यक्तित्व विकास और प्रगति का पर्याय माना जाता है। वस्तुतः यह जीवन-यापन प्रणालियों के विविधता का और प्राकृतिक संस्कृति के अधिकार का हनन है।

लूटा हुआ वनवासी जमीन हीन मजदूर है। उसकी अपनी जमीन अब उधमसिंह नगर कहलाती है। परंपरागत बची-खुची बनवासी सभ्यता और जीवन पद्धति जीवित इतिहास बन चुकी है या सांस्कृतिक जीवाश्म का एक अध्ययन सा है। इसलिए जीवित लोगों की विघटित संस्कृति का यह रिपोर्ताज अब इतिहास के अध्ययन की विषयवस्तु बन चुका है।    


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading