भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम: इतिहास, महत्व, प्रावधान, बंटबारा और उसके परिणाम

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16 अगस्त 1946 से यानि जब से जिन्ना के कहने पर लीग ने सीधी कार्यवाई की घोषणा की थी, देश में लगातार साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे।  राष्ट्रीय सरकार इन दंगों को दबाने में असफल साबित हो रही रही थी क्योंकि सरकार में लीग के जो सदस्य थे वे इन दंगों को प्रोत्साहित कर रहे थे।

भूतकाल में ब्रिटिश भारतीय सरकार इस प्रकार के दंगों को दबाने में सदैव सफल रही थी परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अब ब्रिटिश नौकरशाही जानबूझकर दंगों के प्रति उदासीन रवैया अपनाये हुए थी। जब दंगा पीड़ित सरकार से मदद मांगते तो वह उनसे नेहरू और पटेल के पास जाने को कहती। इस प्रकार साम्प्रदायिकता की आग में जल रहे भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया गया। 

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम: इतिहास, महत्व, प्रावधान, बंटबारा और उसके परिणाम

 

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक कानून था जिसने औपचारिक रूप से भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त कर दिया और भारत और पाकिस्तान के नवगठित राष्ट्रों को स्वतंत्रता प्रदान की। यह अधिनियम ब्रिटिश सरकार, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के बीच समझौते का परिणाम था, और इसने धार्मिक आधार पर भारत को दो अलग-अलग देशों में विभाजित करने का प्रावधान किया।

अधिनियम ने निर्धारित किया कि 15 अगस्त, 1947 को, ब्रिटिश राज समाप्त हो जाएगा, और दो स्वतंत्र प्रभुत्व बनाए जाएंगे: भारत और पाकिस्तान। अधिनियम ने रियासतों को दो नए देशों में से किसी एक में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का विकल्प भी दिया।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने भारत में 200 से अधिक वर्षों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत को चिह्नित किया और यह देश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण था। इसने 1950 में भारत के गणतंत्र बनने का मार्ग प्रशस्त किया और हर साल 15 अगस्त को भारत में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भारत की स्वतंत्रा के समय ब्रिटैन का प्रधानमंत्री कौन था

 20 फरवरी 1947 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने हॉउस ऑफ़ कॉमन्स के समक्ष बयान दिया कि जून 1948 तक उनका इरादा भारत को आज़ाद कर सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंपना है। परन्तु यह भी स्पष्ट किया गया कि यदि तब तक एक संविधान का निर्माण न किया गया तो अंग्रेज सरकार को को यह अधिकार होगा कि वे जिसे चाहें उसे शक्ति सौंप दें।

गाँधी ने इस बयान को ‘ब्रिटिश राष्ट्र का महानतम कार्य’ कहा परन्तु वे दंगों के बाबजूद पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।  एटली ने साथ ही यह भी कहा कि वेवल के स्थान पर लार्ड मॉउंटबैटन को भारत भेजा जा रहा है जिनका मुख्य कार्य सत्ता हस्तांतरण होगा। 

भारत के गवर्नर जनरल के रूप में लार्ड माऊंटबैटन

24  मार्च 1947 को लार्ड माउंटबैटन को वाइसराय पद की शपथ दिलाई गई।  उनका कार्य भारत से ब्रिटिश शक्ति को समेटना था। चूँकि इस विचित्र कार्य के लिए शक्तियों की आवश्यकता थी। इसलिए माउंटबैटन ने इस कार्य को ठीक ढंग से करने के लिए यह शर्त रखी थी कि उन्हें गृह सरकार से बार-बार परामर्श नहीं करना पड़ेगा और न ही गृह सरकार सत्यधिक हस्तक्षेप करेगी। उनकी यह शर्त एटली और उनके मंत्रिमंडल ने मान ली।

यही कारण था कि जहां माऊंटबेटन के पूर्ववर्ती वायसरायों ने अपने निर्णय के पक्ष में भारतीय नेताओं को मनाया वहीँ माउंटबैटन ने निर्णय लादने का भी प्रयास किया। ऐसा वे अपने व्यक्तित्व और योग्यता के कारण भी कर सके।

माऊंटबैटन  के सामने विकल्प

लार्ड माँऊंटबैटन के सामने दो योजनाएं थीं जिनमें से उन्हें एक विकल्प को चुनना था।

  • प्रथम भारत की एकता को कायम रखकर प्रांतों को स्वायत्ता प्रदान करना और
  • द्वितीय भारत को दो संप्रभु राज्यों में सम्प्रदायों  के बहुमत के आधार पर बाँटना।

लार्ड माउंटबेटन ने भारत पहुँचते की अपने काम को अंजाम देना शुरू कर दिया और कांग्रेस, लीग और अकाली नेताओं से उनके विचार जानने के लिए बातचीत शुरू कर दी। 24 मार्च और 6 मई के बीच भारतीय नेताओं के साथ 133 साक्षात्कारों की तीव्र श्रृंखला के बाद माँउटबेटन ने तय किया कि कैबिनेट मिशन की योजना अव्यावहारिक हो चुकी है। तब उन्होंने एक वैकल्पिक योजना बनाई जिसे ‘प्लान बाल्कन’ का गुप्त नाम दिया गया।

अपने निजी परामर्शदाताओं से परामर्श करने के अतिरिक्त उन्होंने प्रांतों के गवर्नरों को सलाह-मशवरे के लिए बुलाया। समस्त घटनाचक्र को दृष्टिगत रखते हुए वे और उनके परामशदाता इस परिणाम पर पहुंचे कि शक्ति का हस्तांतरण जून  1948 तक  नहीं रोका जा सकता। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह कार्य दिसंबर 1947 तक या उससे भी पहले हो जाना चाहिए, क्योंकि दिन-प्रतिदिन स्थिबिगड़ती जा रही थी। दोनों सम्प्रदायों में दंगे बढ़ते जा रहे थे और विशेष रूप से पश्चिमी प्रांतों में हिंसा के बादल घने होते जा रहे थे। 

मौन्टबैटन योजना का पहला  प्रारूप

लार्ड माऊंटबेटन शीघ्र सत्ता हस्तांतरण के साथ-साथ इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे थे कि भारत का बँटवारा और  पाकिस्तान की स्थापना आवश्यक हो गई है और इसके लिए ब्रिटिश सरकार का निर्णय लादनेके स्थान पर भारतीय नेताओं को तैयार किया जाना चाहिए।  यद्यपि कांग्रेस, विशेष रूप से महात्मा गाँधी और मौलाना कलम आज़ाद एक अखंड स्वतंत्र भारत के लिए वचनबद्ध थे परन्तु नेहरू, पटेल, और लेडी माउंटबेटन और वी.पी. मेनन पर और मुसलिम लीग के व्यवहार से तंग आ गए थे और बंटवारे के लिए हामी भर दी।

कांग्रेस के एक वर्ग का, जो बंटवारे का अत्यधिक विरोधी था और जिसका नेतृत्व मौलाना आज़ाद कर रहे थे, मत टा कि क्योंकि वास्तविक सत्ता ( de facto ) कांग्रेस के हाथों में  आ गई है और ब्रिटिश सरकार के हाथ में केवल वैधानिक सत्ता ( de jure ) ही रह गई है इसलिए कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरण में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। ( इंडिया विंस फ्रीडम – मौलाना आज़ाद ए. के. कलकत्ता 1959 )

दूसरी ओर एच. वी. हडसन का यह मत था कि सत्ता हस्तांतरण 1 से 10 वर्ष पहले होना चाहिए था। हडसन लार्ड माउंटबेटन से इस बात में सहमत थे कि अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि और इंतजार करने से साम्प्रदायिक दंगों और अराजकता में वृद्धि होने का भय था। ( Hodson, H.V.The Great Divide London, 1969 ) परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस  इतने वर्षों  के निरंतर संघर्ष से तंग आ चुके थे और अब वे शीघ्रातिशीघ्र सत्ता में आना चाहते थे।

इसके बाद सभी दलों के नेताओं से परामर्श करने के बाद माउंटबेटन ने अपने निजी स्टाफ को, जो पाकिस्तान निर्माण के पक्षपाती थे, एक योजना की रूपरेखा बनाने को कहा परन्तु उन्होंने वी.पी. मेनन को, जो उन दिनों सरकारी संवैधानिक सलाहकार थे, इस योजना  के निर्माण में शामिल नहीं किया। इस योजना को माउंटबेटन योजना का पहला प्रारूप कहा जाता है।         

माउंटबेटन ने यह गुप्त योजना नेहरू और जिन्ना को दिखाने के बाद प्रधानमंत्री एटली के पास इंग्लैंड भेज दी थी।  दोनों दल इस योजना से अप्रसन्न थे। वास्तव में 1940 में पाकिस्तान की मांग प्रस्तुत करने के बाद से लीग की मांगे बढ़ती जा रही थीं और अब वह पांच-छह प्रांतों और बफर जोन के लिए जिद करने के साथ-साथ पंजाब और बंगाल के बंटवारे का विरोध कर रही थी। दूसरी ओर, कांग्रेस पंजाब और बंगाल को बाँटने पर जोर दे रही थी।

10 मई को मांतिमंडल की स्वीकृति और परिवर्तनों के बाद जब योजना भारत पहुंची तो वाइसराय ने सभी नेताओं को एकत्र करने से पहले संशोधित योजन नेहरू को दिखाई 10 मई 1947। नेहरू को यह योजना बिलकुल स्वीकार न थी।  उन्होंने इसकी निंदा की और आपत्तियों से भरा एक पत्र वाइसराय के समक्ष प्रस्तुत किया।

अब वाइसराय ने मेनन को निमंत्रित किया और एक नई योजना प्रस्तुत करने को कहा। ( Tara Chand Op. Cit. 512 ) माउंटबेटन ने योजना तैयार होने पर मेनन की बड़ी प्रशंसा की और उसकी रुपरेखा भारतमंत्री को भेज दी। इस नई स्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री ने वाइसराय को लन्दन बुलाया। 

वाइसराय नेहरू, पटेल, जिन्ना, लियाकत अली खां और बलदेवसिंह से सलाह-मशविरा किया। लार्ड माऊंटबेटन के साथ अपनी बातचीत में सिक्ख नेताओं ने पंजाब के विभाजन पर बल दिया यद्यपि वाइसराय ने उन्हें चेतावनी दी कि इस तरह सिक्ख सम्प्रदाय बँट जायेगा और उनकी सबसे उपजाऊ भूमि उनसे छिन जाएगी।

सिक्ख नेताओं ने ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में सिक्खों के एक पृथक राज्य का भी सुझाव दिया परन्तु लार्ड माउंटबेटन ने खान भाइयों के पख्तूनिस्तान के सुझाव की तरह इसे भी रद्द कर दिया क्योंकि वे अपनी योजना को शीघ्रता से लागु करना चाहते थे और किसी नई मांग पर विचार करने को तैयार न थे। 

सीमाप्रांत के संबंध में असमंजस की स्थित

माउंटबैटन योजना का जो प्रभाव उत्तर-पूर्वी सीमा प्रान्त ( N. W. F. P.  ) पर पड़ा उसकी भी संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है। 1919 के खिलाफत आंदोलन के समय गाँधी के कहने पर उस प्रान्त के 6 प्रतिशत हिन्दुओं ने मुसलमानों का साथ दिया था। इस कारण कांग्रेस फ़्रंटियर प्रान्त में बड़ी लोकप्रिय हो गई थी और इसी समय खान भाई नाम के दो कांग्रेस नेता उभरे जो सीमाप्रांत की राजनीति पर एक पीढ़ी तक पूर्ण रूप से छाये रहे।

इन्हीं खान भाइयों में बड़े भाई का नाम डॉ० खान साहब था था जो बाद में मुख्यमंत्री बने। छोटे भाई कहाँ अब्दुल गफ्फार खां ( बहादुर खान ) सीमांत गाँधी अथवा फ्रंटियर गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हुए और इन्होने ही 1938 के आस-पास खुदाई खिदमतगार नाम के एक अर्धसैनिक संगठन को जन्म दिया जिन्हें  ‘लाल कुर्ती’ के नाम से भी जाना जाता था।

हडसन के अनुसार इस प्रान्त के पठानों द्वारा कांग्रेस अनुयायी बनना हिन्दुओं के प्रेम के कारण न था बल्कि कांग्रेस जैसी शक्तिशाली पार्टी की सहायता से उन्हें अंग्रेजों के चंगुल से निकलना था। हिन्दुओं के अधीन रहने के बारे में वे सोचने को भी तैयार नहीं थे क्योंकि वे उन्हें भूतकाल में गुलाम बनाकर रख चुके थे।

यह बात 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रान्त का दौरा किए जाने के समय जो प्रदर्शन हुए उनसे सिद्ध होती है। दिसंबर 1945 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इस प्रान्त में 50 में से 30 स्थान प्राप्त किये थे और डॉ. खान साहब मुख्यमंत्री बने थे जो अपने छोटे भाई सहित जिन्ना, मुस्लिम लीग और विभाजन के विरोधी थे। 

खान अब्दुल गफ्फार खां द्वारा भारत विभाजन का विरोध

मौलाना अज़ाद के अनुसार 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना पर विचार करने के लिए कांग्रेस कार्य समिति की सभा जब प्रारम्भ हुई तो सबसे पहले उत्तर पूर्वी सीमाप्रांत चर्चा का विषय बना, क्योंकि योजना के अनुसार विभाजन और पाकिस्तान की मांग को मान लिया गया था। यद्यपि गाँधी विभाजन से अप्रसन्न थे फिर भी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में वे चुप रहे।

अब्दुल गफ्फार खान को, जो उस समय मौजूद थे अत्यंत दुःख हुआ। वह कुछ मिनटों के लिए स्तब्ध ( आश्चर्यकित ) से हो गए हुए उनके मुँह से एक शब्द भी न निकला। तत्पश्चात उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति में बार-बार अपील की कि वे ऐसा न करें क्योंकि यह सीमाप्रांत के लोगों के साथ विश्वासघात है और उन्हें लीग रुपी भेड़िये के समक्ष फेंकने के समान है। 

खान अब्दुल गफ्फार खां ने आगे कहा कि उनके शत्रु उनका मजाक उड़ाते हुए कहेंगे कि अब कांग्रेस को लीग से समझौते की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने खुदाई खिदमतगारों से परामर्श तक नहीं किया।  इस अपील के परिणामस्वरूप गाँधी लार्ड माउंटबेटन से मिले जिन्होंने जिन्ना को खिदमतगारों को न्याय देने को कहा।  परन्तु गफ्फार खान और जिन्ना में बातचीत का कोई लाभ न हुआ क्योंकि जिन्ना को इस बात का ज्ञान था कि माउंटबेटन योजना के अंतर्गत जनसंख्या और भौगोलिक दृष्टि से सीमाप्रांत को पाकिस्तान में शामिल होना पड़ेगा। 

यद्यपि लार्ड माऊंटबेटन जनमत संग्रह करवाने के पक्ष में थे परन्तु खान भाइयों की अब यह मान थी कि यह जनमत संग्रह इस बात पर होना चाहिए कि क्या पठान पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं या अपना एक पृथक प्रान्त पख्तूनिस्तान बनाना चाहते हैं। लेकिन लार्ड माउंटबेटन अपनी योजना को लागू करने के उतावलेपन में किसी नई मांग को मानने के लिए तैयार नहीं थे। 

खान भाइयों के जनमत संग्रह के बायकाट किये जाने के कारण निर्णय पाकिस्तान के पक्ष में हो गया। इसके बाद यद्यपि खान भाई समझौते के लिए तत्पर थे परन्तु फिर भी जिन्ना और सीमाप्रांत के नए मुख्यमंत्री अब्दुल कयूम खान ने उनपर और दूसरे खुदाई खिदमतगारों पर पृथकता का दोष लगाकर उन्हें  बिना मुकदमा चलाये छह वर्ष के लिए जेल में दाल दिया।

सभी नेताओं ने नई योजना को स्वीकृति दे दी थी। कांग्रेस द्वारा पाकिस्तान की मांग  शीघ्रता से मान लिए जाने का आधार, मुस्लिम लीग के रवैये के कारण स्थिति का हाथ से निकल जाना था। कांग्रेस को लग रहा था कि देश कि देश में अराजकता जैसी स्थिति बढ़ चुकी है। जी.बी. पंत का मत था कि “आज हमें पाकिस्तान अथवा आत्महत्या  को चुनना है।” पंत के अनुसार पाकिस्तान की मांग को मानने का एक और लाभ यह था कि भारत एक शक्तिशाली संघ की स्थापना कर सकता था। 

पटेल का भी मत था कि यदि मुसलमानों को भारत में जबदस्ती रखा जाता है तो शहीद कोई तरक्की सम्भव न हो। दिन-प्रतिदिन बिगड़ती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही पटेल ने माउंटबेटन से कहा था कि “आप खुद शासन नहीं करोगे और दूसरों को भी नहीं करने दोगे”। इसी प्रकार उन्होंने अपने एक भाषण में सत्ता हस्तांतरण से पहले की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा था कि “यदि इस प्रकार चलता रहा तो। …… हम एक पाकिस्तान नहीं कई पाकिस्तान बना बैठेंगे।”

कांग्रेस के ही पुरषोत्तमदास टण्डन  ने कांग्रेस की पाकिस्तान की मांग को स्वीकार करने पर कटु आलोचना की थी। 31 मई को इंग्लैंड वापस आने के बाद माउंटबेटन ने सभी नेताओं को 2 जून को बुलाया और नई योजना उनके सामने रखी जिसमें निम्न मुख्य सुझाव थे—

* संविधान-सभा संविधान बनाने का कार्य जारी रखेगी परन्तु उन क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा जो इसके इच्छुक नहीं होंगे।
* पंजाब और बंगाल की विधानपालिकाएँ, मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जिलों के आधार पर दो भागों में बाँटी जाएँगी।
* बलूचिस्तान के लोगों की इच्छा जानने के तरिके का निर्णय वाइसराय करेंगे।
* संविधान सभाओं के प्रतिनिधियों को चुनने के लिए पंजाब, बंगाल हुए सिलहट में चुनाव कराए जायेंगे।
* सर्वश्रेष्ठता की शक्ति ( पावर ऑफ़ परमाउंटसी ) भारतीय राजाओं को लौटाई जाएगी।

माउंटबेटन ने इंग्लैंड द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरण की तिथि नजदीक लेन की बात कहकर नेताओं को योजना के प्रति आधी रात से पहले अपनी प्रतिक्रिया बताने को कहा।  चर्चिल से संदेश मिलने पर कि योजना को रद्द करने का अर्थ ‘पाकिस्तान’ के स्वप्न की मौत होगा जिन्ना ने स्वीकृति दे दी।  कांग्रेस पहले ही स्वीकृति दे चुकी थी।

भारत के बंटवारे पर गाँधी की निराशा उनके इन शब्दों से प्रतीत होती है। …… मुझे आशा है कि भगवान मुझे और अपमान से बचाएंगे। … .

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम

माऊंटबेटन योजना के आधार पर जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद द्वारा एक अधिनियम पास किया गया जिसे ब्रिटिश संसद ने 04 जुलाई , 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम प्रस्तावित किया। एटली ने माउंटबेटन योजना को विधेयक के रूप में 15 जुलाई,1947 को हाउस ऑफ कॉमन्स में तथा 16 जुलाई,1947 को लॉर्ड्स सभा में प्रस्तुत किया। 18 जुलाई को इसके पारित होने के बाद इस पर सम्राट के हस्ताक्षर हो गए।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के द्वारा भारत और पाकिस्तान नाम के दो स्वतंत्र राष्ट्र बनाये गए जो 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व में आएंगे — इस अधिनियम के निम्नलिखित उपबंध थे —

*15 अगस्त 1947 से भारत में दो अधिराज्यों की स्थापना हो जाएगी और साड़ी शक्ति इन्हें हस्तांतरित कर दी जाएगी। सिंध, उत्तर-पूर्वी सीमा प्रान्त, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, बलूचिस्तान और आसाम के सिलहट जिले को छोड़कर सभी प्रान्त भारत में शामिल होने थे।
* पंजाब और बंगाल के बंटवारे के लिए गवर्नर जनरल द्वारा रैडक्लिफ आयोग की  स्थापना की गई।
* दोनों अधिराज्यों की विधानसभाओं को प्रभुतासम्पन्न घोषित  कर उन्हें अपने-अपने संविधान बनाने का अधिकार दे दिया गया।
* दोनों अधिराज्यों के मंत्रिमंडलों के सुझाव पर गवर्नर जनरल को संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त किया जाना था।  पाकिस्तान ने जिन्ना को इस  पद के लिए चुना और भारत ने लार्ड माउंटबेटन को।
* नए संविधान के निर्माण तक शासन 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार चलना था परन्तु गवर्नरों की विशेष शक्तियां छीन ली जानी थीं।
* 15 अगस्त से भारतमंत्री और इंडिया ऑफिस समाप्त हो जाने थे।
* भारतीय राजाओं को भारत अथवा पाकिस्तान किसी भी राज्य में शामिल होने का अधिकार दिया गया।

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