काञ्ची के पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम
महान पल्ल्व राजाओं की सूची में सर्वप्रथम सिंहवर्मन के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सिंहविष्णु (575-600) का नाम आता है। उसने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की तथा अनेक स्थानों को जीतकर अपने साम्राज्य शामिल कर लिया।
“कशाकुडी दानपात्र से ज्ञात होता है कि सिंहविष्णु ने कलभ्र, चोल, पाण्ड्य तथा सिंहल के राजाओं को पराजित किया। चोल शासक को पराजित कर उसने चोलमण्डल पर अधिकार कर लिया। उसकी विजयों के फलस्वरूप राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी नदी तक जा पहुंची। सिंहविष्णु वैष्णव धर्मानुयायी था तथा उसने कला को प्रोत्साहन दिया। उसके समय में मामल्लपुरम में ‘वराहमंदिर’ का निर्माण हुआ। उसके दरबार में संस्कृत के महान कवि भारवि निवास करते थे। भारवि का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘किरातार्जुनीय महाकव्य’ है।
महेन्द्रवर्मन प्रथम – 600-630
सिंहविष्णु का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रथम (600-630) हुआ। वह पल्लव वंश के महानतम शासकों में से था। महेन्द्रवर्मन युद्ध और शांति दोनों में समान रूप से महान था और उसने ‘मत्तविलास’ विचित्रचित्र, गुणभर आदि उपाधियाँ ग्रहण की थीं।
पुलकेशिन द्वितीय से संघर्ष
वह एक महान निर्माता, कवि एवं संगीतज्ञ था। महेन्द्रवर्मन के समय से पल्लव-चालुक्य संघर्ष का प्रारम्भ हुआ। ऐहोल अभिलेख से ज्ञात होता है कि चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय कदम्बों तथा वेंगी के चालुक्यों को जीतता हुआ पल्लव-राज्य में घुस गया। उसकी सेनाएं काञ्ची से केवल 15 मील दूर उत्तर में पुल्ललुर तक आ पहुंची। पुलकेशिन तथा महेन्द्रवर्मन के बीच कड़ा संघर्ष हुआ।
यद्यपि महेन्द्रवर्मन अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा। तथापि पल्लव राज्य के उत्तरी प्रांतों पर पुलकेशिन का अधिकार हो गया।
कशाकुडी लेख में कहा गया है कि महेन्द्रवर्मन ने पुल्लिलूर नामक स्थान पर अपने शत्रुओं को पराजित किया था ( पुल्लिलूरे द्विषतां विशेषान ) . यहाँ शत्रुओं के नाम नहीं दिए गए हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि यहाँ पुलकेशिन द्वितीय की ओर संकेत है, किन्तु यह मान्य नहीं है। यदि वह पुलकेशिन को पराजित करता तो इसका उल्लेख लेख में किया गया होता। ऐसा लगता है कि यहाँ संकेत दक्षिण के कुछ छोटे राजाओं की ओर है।
“टी० वी० महालिंगम का विचार है कि तेलगुचोड़ शासक नल्लडि ने कुछ समय के लिए काञ्ची के समीप उसके कुछ सहायकों के साथ पराजित किया होगा।”
महेन्द्रवर्मन का धर्म
महेन्द्रवर्मन ने शैव संत अप्पर के प्रभाव से जैनधर्म का परित्याग कर शैवमत ग्रहण कर लिया। उसने अनेक गुहामंदिरों का निर्माण कराया तथा “मत्तविलासप्रहसन” की रचना की थी। मंडगपट्ट लेख में यह भी वर्णन आया है कि महेन्द्रवर्मन ने ब्रह्मा, ईश्वर तथा विष्णु के एकाश्मक मंदिरों का निर्माण कराया था।
त्रिचिनापल्ली लेख में उसे शिवलिंग उपासक कहा गया है। मंदिरों के अतिरिक्त महेंद्रवाड़ी, तथा चित्रमेघ नामक तड़ागों का भी निर्माण उसके समय में हुआ था। वह एक संगीतज्ञ भी था तथा उसने प्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य से संगीत की शिक्षा ली थी। इस प्रकार महेन्द्रवर्मन एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी था।